गुलामगीरी / भाग-8 / जोतीराव गोविंदराव फुले

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[ परशुराम, मातृहत्या, इक्कीस बार हमले, राक्षस, खंडेराव ने रावण की मदद ली, नवखंडों की जाणाई, सात देवियाँ (सप्त आसरा), महारों के गले का काला धागा, अतिशूद्र, अछूत, मातंग, चांडाल, महारों को पाँवों तले रौंदना, ब्राह्मणों को गंधर्व ब्याह करने की मनाही, क्षत्रिय बच्चों की हत्या, प्रभु, रामोशी, जिनगर आदि लोग, परशुराम की हार हो जाने पर उसने अपनी ही जान दे दी, और चिरंजीव परशुराम को निमंत्रण आदि के संबंध में।]

धोंडीराव : प्रजापति (ब्रह्मा) के मरने के बाद ब्राह्मणों का मुखिया कौन था?

जोतीराव : ब्राह्मणों का मुखिया परशुराम था।

धोंडीराव : परशुराम स्वभाव से कैसा था?

जोतीराव : परशुराम स्वभाव से उपद्रवी, साहसी, विनाशी, निर्दयी, मूर्ख और नीच प्रवृत्ति का था। उसने जन्म देनेवाली अपनी माता रेणुका की गरदन काटने में भी कोई संकोच महसूस नहीं किया। परशुराम शरीर से मजबूत और तिरंदाज था।

धोंडीराव : उसके शासनकाल में क्या हुआ?

जोतीराव : प्रजापति (ब्रह्मा) के मरने के बाद शेष महाअरियों ने ब्राह्मणों के जाल में फँसे हुए अपने भाइयों को गुलामी से मुक्त करने के लिए परशुराम से इक्कीस बार युद्ध किया। वे इतनी दृढ़ता से युद्ध लड़ते रहे कि अंत में उनका नाम द्वैती पड़ गया और उस शब्द का बाद में अपभ्रंश 'दैत्य' हो गया। जब परशुराम ने सभी महाअरियों को पराजित किया तब उनमें से कई महावीरों ने निराश हो कर, अपने स्नेहियों के प्रदेशों में जा कर अपने आखिरी दिन बिताए। मतलब, जेजोरी के खंडेराव ने जिस तरह रावण का सहारा लिया, उसी प्रकार नवखंडों के न्यायी और सात आश्रय आदि सभी कोंकण के निचले भूप्रदेश में जा कर छुप गए और उन्होंने वहाँ अपने आखिरी दिन बिताए। इसमें ब्राह्मणों में नफरत की भावना और भी गहरी हो गई। उन्होंने नवखंडों का जो न्यायी था, उसका नाम स्त्री के नाम पर निंदासूचक अर्थ में 'नव चिथड़ोंवाली देवी' (नऊ खणाची जानाई)[17] रख दिया और सात आश्रयों का नाम 'सात पुत्रोंवाली माता' (साती असरा) [18] रख दिया। शेष जितने महाअरियों को परशुराम ने युद्ध भूमि में कैद करके रखा, उन पर उसने कड़े प्रतिबंध लगा कर रखा था। उन महअरियों को कभी भी ब्राह्मणों के विरुद्ध कमर नहीं कसनी चाहिए, ऐसी शपथ उनको दिलाई गई। उसने सभी के गले में काले धागे की निशानी बँधवाई और उन्हें अपने शूद्र भाइयों को छूना नहीं चाहिए ऐसा सामाजिक प्रतिबंध लगाया। बाद में परशुराम ने उन महाअरी क्षत्रियों को अतिशूद्र, महार, अछूत, मातंग और चांडाल आदि नामों से पुकारने की प्रथा प्रचलित की। इस तरह के गंदे प्रचलन के लिए दुनिया में कोई मिसाल ही नहीं है। इस शत्रुतापूर्ण भावना से महार, मातंग आदि लोगों से बदला चुकाने के लिए उसने हर तरह से घटिया से घटिया तरकीबें अपनाईं। उसने अपने जाति-बिरादरी के लोगों की बड़ी-बड़ी इमारतों की नींव के नीचे कई मातंगों को उनकी औरतों के साथ खड़ा करके, उनके बेसहाय चिल्लाने से किसी की अनुकंपा होगी, इसके लिए उनके मुँह में तेल और सिंदूर डाल कर उन लोगों को जिंदा अवस्था में ही दफनाने की परंपरा शुरू की। जैसे-जैसे मुसलिमों की सत्ता इस देश में मजबूत होती गई, वैसे-वैसे ब्राह्मणों द्वारा शुरु की गई यह अमानवीय परंपरा समाप्त होती गई। लेकिन इधर महाअरियों से लड़ते-लड़ते परशुराम के इतने लोग मारे गए कि ब्राह्मणों की अपेक्षा ब्राह्मण विधवाओं की व्यवस्था किस तरह से की जाए, इसकी भयंकर समस्या ब्राह्मणों के सामने खड़ी हो गई। तब कहीं जा कर उनकी गाड़ी रास्ते पर आई। परशुराम अपने ब्राह्मण लोगों की हत्या से इतना पागल हो गया था कि उसने बाणासुर के सभी राज्यों के क्षत्रियों को समूल नष्ट करा देने के इरादे से अंत में उन महाअरी क्षत्रियों की निराधार गर्भवती विधवा औरतों को, जो अपनी जान बचाने के लिए जहाँ-तहाँ छुप गई थीं, उन औरतों को पकड़-पकड़ कर लाने की मुहिम शुरु कर दी। इस अमानवीय शत्रुतापूर्ण मुहिम से नजर बचा कर बचे हुए नन्हें बच्चों द्वारा निर्मित कुछ कुल (वंश) इधर प्रभु [19] लोगों में मिलते हैं। इसी तरह परशुराम की इस धूमधाम में रामोशी, जिनगर, तुंबडीवाले और कुम्हार आदि जाति के लोग होने चाहिए, क्योंकि कई रस्म-रिवाज में उनका शूद्रों के मेल होता है। तात्पर्य, हिरण्यकश्यप से बली राजा के पुत्र का निर्वंश होने तक उस कुल को निस्तेज करके उनके लोगों को पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया था। इससे अज्ञानी क्षेत्रपतियों के दिमाग पर इस तरह कि धाक जम गई कि ब्राह्मण लोग जादू विद्या में माहिर हैं। वे लोग ब्राह्मणों के मंत्रों से बहुत ही डरने लगे। किंतु इधर परशुराम की मुर्खता की वजह से, उसके धींगामस्ती से ब्राह्मणों की बड़ी हानि हुई। इसकी वजह से, सभी ब्राह्मण लोग परशुराम के नाम से घृणा करने लगे। यही नहीं, उस समय वहाँ के एक क्षेत्रपति के रामचंद्र नाम के पुत्र ने परशुराम के धनुष को जनक राजा के घर में भरी सभा में तोड़ दिया। इससे परशुराम के मन में उस रामचंद्र के प्रति प्रतिशोध की भावना घर कर गई। उसने रामचंद्र को अपने घर जानकी को ले जाते हुए देखा तो उसने रामचंद्र से रास्ते में ही युद्ध छेड़ दिया। उस युद्ध में परशुराम की करारी हार हुई। उस पराजय से परशुराम इतना शर्मिंदा हो गया कि उसने अपने सभी राज्यों का त्याग करके अपने परिवारों तथा कुछ निजी संबंधियों को साथ लिया और कोंकण के निचले भाग में जा कर रहने लगा। वहाँ पहुँचने के बाद उसको उसके द्वारा किए गए सभी बुरे कर्मों का पश्चाताप हुआ। उस पश्चाताप का परिणाम उस पर इतना बुरा हुआ कि उसने अपनी जान कहाँ, कब, और कैसे खो दी, इसका किसी को कोई पता नहीं लग सका।

धोंडीराव : सभी ब्राह्मण-पंडित-पुरोहित अपने धर्मशास्त्रों (धर्मग्रंथ) के आधार पर यह कहते हैं कि परशुराम आदिनारायण का अवतार है। वह चिरंजीवी है। वह कभी भी मरता नही। और आप कहते हैं कि परशुराम ने आत्महत्या की है‌‌‌। इसका अर्थ क्या है?

जोतीराव : दो साल पहले मैंने शिवाजी महाराज के नाम एक पँवाड़ा [20] लिखा था। उस पँवाड़े के पहले छंद में मैंने कहा था कि सभी ब्राह्मणों को अपने परशुराम को न्योता दे कर बुलाना चाहिए और उसकी उपस्थिति में मेरे सामने इस बात का खुल्लमखुल्ला खुलासा करना चाहिए कि आजकल के मातंग-महारों के पूर्वज परशुराम से इक्कीस बार लड़नेवाले महाअरी क्षत्रिय थे या नहीं। इसकी सूचना ब्राह्मणों को दी गई, लेकिन वास्तविकता यह है कि उन्होंने परशुराम को न्योता दे कर नहीं बुलाया था। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि परशुराम सचमुच में आदिनारायण का अवतार होता और चिरंजीवी होता हो ब्राह्मण ने उसको कब का खोज निकाला होता। और मेरी बात तो क्या, सारी दुनिया के ख्रिस्ती और महम्मदी लोगों के मन का समाधान करके, सभी म्लेच्छ लोगों के विद्रोह को अपनी मंत्रविद्या की सार्मथ्य से तहस-नहस करने में कोई कसर नहीं छोड़ता।

धोडीराव: मेरे विचार से आपको स्वयं ही एक बार परशुराम को यहाँ बुलाना चाहिए। यदि परशुराम सचमुच में जिंदा है तो वह निश्चित रूप से चला आएगा। आजकल के ब्राह्मण अपने-आपको कितना भी विविध ज्ञानी होने का दावा करते हों, फिर भी उनको परशुराम के मतानुसार, भ्रष्ट्र और पतित ही मानना चाहिए। इस बात के लिए प्रमाण यह है कि अभी अभी कई ब्राह्मणों ने शास्त्रविधि के अनुसार करेले खाने का निषेध किया है। लेकिन धर्म-शास्त्रों द्वारा निषिद्ध ठहराए गए मालियों के द्वारा सींचे गए पानी से उत्पन्न गाजरों को छुप-छुप कर खाने की होड़ ब्राह्मणों ने लगा दी थी।

जोतीराव : ठीक है। जो भी कुछ क्यों न हो।

मुकाम सब जगह

चिरंजीव परशुराम अर्थात आदिनारायण के अवतार को

तात, परशुराम!

तुम ब्राह्मणों के ग्रंथों की वजह से चिरंजीवी हो। करेला कड़वा क्यों न हो, किंतु तुमने विधिपूर्वक करेले खाने का निषेध नहीं किया है। परशुराम, तुमको पहले जैसे मछुओं की लाश से दूसरे नए ब्राह्मण पैदा करने की गरज नहीं पड़ेगी, क्योंकि आज यहाँ तुम्हारे द्वारा पैदा किए गए जो ब्राह्मण हैं, उनमें कई ब्राह्मण विविधज्ञानी हो गए हैं। अब तुम्हें उनको बहुत ज्यादा ज्ञान देने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी। इसलिए हे परशुराम! तुम यहाँ आ जाओ और जिन ब्राह्मणों ने शूद्र मालियों द्वारा खेत में उत्पन्न गाजरों को छुप-छुप कर खाया है, उन सभी ब्राह्मणों को चंद्रायन प्रायश्चित दे कर, उन पर तुम वेदमंत्रों के जादू की सामर्थ्य से पहले जैसे कुछ चमत्कार अंग्रेज, फ्रेंच आदि लोगों का दिखा दो, बस हो जाएगा। हे परशुराम, तुम इस तरह मुँह छुपा कर, भगोड़ा बन कर मत घूमा करो। तुम इस नोटिस की तारीख से छह माह के भीतर-भीतर यहाँ पर उपस्थित हो सके, तब मैं ही नहीं, सारी दुनिया के लोग, तुम सचमुच में आदिनरायण के अवतार हो, ऐसा समझेंगे और लोग तुम्हारा सम्मान करेंगे। लेकिन यदि तुम ऐसा न कर सके तो यहाँ के महार-मातंग हमारे म्हसोबा[21] के पीछे छुप कर बैठे हैं। वे लोग तुम्हारे विविधज्ञानी कहलानेवाले ब्राह्मण बच्चों को खींच कर बाहर ले आएँगे और उनके भांडो के इकतारा (तुनतुना, एकतारी वाद्य)का तार टूट जाएगा औरा उनकी झोली में पत्थर गिर जाएँगे। फिर उन्हें विश्वामित्र जैसे भूखे, कंगाल रहने पर इतनी मजबूरी का सामना करना पड़ेगा कि उनको कुत्ते का मांस भी खाना पड़ सकता है। इसलिए हे परशुराम, तुम अपने विविधज्ञानी ब्राह्मणों पर रहम खाओ, ताकि उन पर विपत्ति के पहाड न टूट पड़े।

तुम्हारा सत्यरूप देखनेवाला

जोतीराव गोविंदराव फुले

तारीख 1 ली

महीना अगस्त

सन 1872

पूना, जूनागंज

मकान नं. 527