गेम ऑफ परशेन्टेज / संजय पुरोहित

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सुबह सवेरे चाय की चुस्कियों के साथ अखबार को चाट रहा था। गत दिवस जिस कार्यक्रम में बिन मांगी पंचायती करने गया था उसी की कवरेज को खबर मिल गई तो अपने ही बनाये प्रेस नोट पर संपादक द्वारा खबर बनाने के लिए की गई दुस्साहसी एडिटिंग को ठण्डी हुई चाय के सबळके के साथ कोस रहा था। इतने में ही भाई चालू सिंह ‘निसंकोची‘ जी टपके। मैं भी उसी तरह सकपका गया जैसे कि आप भाई चालू सिंह का नाम सुन कर सकपकाए हैं। श्री चालू सिंह जी का लम्बा इतिहास कला, साहित्य और संस्कृति का कबाड़ा करने में रहा है। पुरस्कारों में गोटियां फिट करने में उनका कोई सानी नहीं। वैसे मैं उन्हे इसलिए भी नापसंद करता रहा हूं कि कमबख्त ने मुझे तो एक भी पुरस्कार नहीं दिलवाया खुद ने े उनकी महानता से आपको परिचित कराने की क्या जरूरत।

‘कहो रसिक साहब, मोटे लेंस के चश्मे से अखबार को जला ही डालोगे क्या ?‘ चालू सिंह जी ने आते ही अपना टंगबाण छोड़ा।

‘अरे कहां, चालू सिंह जी, कहीं कहीं छिटपुट नाम अटका देते हैं ये अखबार वाले, बस उन्हे ही

‘भईये, मैं परसों मूंगफली खा रहा था।‘ चालू सिंह निसंकोची ने निसंकोच बताना शुरू किया।

‘हैं ! ‘मूंगफली खा रहा था‘ जैसे वाक्य से भला किसी विद्वतापूर्ण वार्ता की शुरूआत हो सकती है क्या ?‘ मैंने टोका।

‘अरे सुनो तो सही, जिस अखबार के टुकड़े में मूंगफली थी उसकी कतरन में एक पुरस्कार का जिक्र था, पुरस्कार भी पूरे एक लाख का है।‘ सहजता से गंभीरता को ओढ़ते हुए वे फरमाये।

चालू सिंह जी के चेहरे पर आत्मविश्वास पहले वाक्य से ही उभर आया था। बोेले,‘‘यार, ये पुरस्कार अप्पन को लेना ही है।‘

मैं उन्हे निर्भाव देखने लगा। साथ ही चालू सिंह जी चालू चालों को याद कर उनकी कुटिलता समझ भी रहा था। मैंने कहा, ‘महाशय, वो विज्ञापन मैंने भी पढ़ा था। तुम उसके क्राईटेरिया में नहीं आते।‘

‘हूँ !‘ सोचने लगे वे। सोच कर बोले, ‘जब तुमने पूरा पढ़ा है, तो बताओ ना कि किसकी दुकान है और सेटिंग कौन करेगा ?‘ उनकी सपाट बयानी से मैं मुस्कुरा उठा। ‘अरे चालू सिंह जी, वो कला, साहित्य या संस्कृति की दुकान नहीं है बल्कि समाज सेवा का अखाड़ा है। तुम्हारी दाल वहां नहीं गलने वाली।‘ मैंने चालू सिंह जी के रूख को पलटा।

‘तुम भी यार, जब भी सोचते हो, नेगेटिव सोचते हो, अरे पुरस्कार लेना है तो समाज सेवा के कॉलम को भी भर डालेंगे। अब तुम ही बताओ वो साहित्य वाला पुरस्कार कैसे झटक लिया था मैंने, और... और वो लोक संस्कृति वाले पुरस्कार में भी तो अप्पन ही इक्कीस पड़े थे। है कि नहीं ?‘ उनके प्रश्न से मैं अचकचा गया। ठीक ही तो कह रहा था चालू सिंह। इधर से, उधर से, ना जाने किधर-किधर से सटीक व्यक्ति की नाड़ी चालू सिंह जी ऐसे पकड़ते थे, दबाते थे कि विख्यात नाड़ी वैद्य भी शरमा जाए।

बहरहाल मैंने पूरा विज्ञापन पढ़ सुनाया। समाज सेवा के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले व्यक्तियों के लिए सेठ बोतलचंद के नाम से आरम्भ हुआ पुरस्कार एक लाख रूपये की राशि का था। प्रस्तावों के चयन के लिए समिति का गठन हो चुका था। प्रस्ताव दस दिवस में प्रेषित किये जाने थे आदि आदि।

चालू सिंह जी ने गंभीरता से विज्ञापन को मेरे श्रीमुख से सुना। एक क्षण का मौन लिया, फिर बोले, ‘अमां यार ये कमेटी में कौन-कौन है, ये तो तुमने बताया ही नहीं‘

‘मैंने इसलिए नहीं बताया क्यों कि विज्ञापन में कमेटी के सदस्यों के नाम नहीं होते हैं श्रीमान्‘ हल्की सी मुस्कुराहट के साथ मैंने उनके प्रश्न को उत्तराया।

‘ये भला क्या बात हुई ?, ट्रांसपैरेंसी होनी चाहिए कि नहीं ?‘ उलाहने स्वर में चालू सिंह जी बोले।

‘वाह जी, ये भी खूब रही, अरे आपने समाज सेवा के कोई काम किये हों तो लिख भेजो अपना प्रस्ताव। योग्य होगा तो मिल ही जाएगा पुरस्कार, ... वैसे महानुभाव यह तो बताएं कि आपने समाज सेवा के ऐसे कौन से काम किये हैं कि आपका नाम विचारार्थ स्वीकारा जाए ?‘ मैंने चालू सिंह जी को खोदा।

‘अरे रसिक मियां, तुम भूल गए कि मैं रोज सवेरे घूमने जाते हुए रास्ते भर के आवारा कुत्तों को रोटी डालता हूं, गायों को गुड़ देता हूं, कीड़ी नगरे को सींचता हूं, चिड़ी-कबूतरों को दाना डालता हूं.....मेरे तो समाज सेवा के काम इतने हैं कि मेरे अलावा किसी को ये पुरस्कार मिल ही नहीं सकता ?‘ चालू सिंह जी ने आखिरी वाक्य में दृढ़ता घोल डाली थी।

‘हैं !‘ अब झुंझलाने के स्तर पर आ पहूंचा था मैं, ‘भला ये समाज सेवा के काम कैसे हुए, आवारा कुत्ते, गाय, चींटियां, कबूतर समाज कैसे हुए, बताओ तो जरा‘

‘अच्छा ! इन्हे समाज सेवा नहीं कहते तो फिर बताओ, किसे कहते हैं‘ चालू सिंह नाराजगी भरे स्वर में बोले।

‘अरे, भई, गरीबों को भोजन, शिक्षा, वृक्षारोपण, निर्धनों की चिकित्सा, जैसे मानवों के लिए किये गये कामों को समाज सेवा में गिना जाता है।‘ मैंने उन्हें सहलाया।

‘तो तुम्हे मालूम नहीं रसिक, एक दिन मैंने एक गरीब बुढ़िया को पांच रूपये वाला बिस्कुट का पैकेट दिलाया था।‘ चालू सिंह जी के चेहरे पर कुटिल मुस्कान मैं पढ सकता था।

‘ठीक है, ठीक है, ऐसे ही कामों की एक फेहरिस्त बनाओ और उन्हे अच्छे से तैयार करो और....‘, मैंने कहा, ‘प्रस्ताव बना कर भेज दो‘

‘भेज दो !!, ये क्या कहा मेरे दोस्त, प्रस्ताव बनाओगे तो तुम ही नां ?‘ चालू सिंह जी ने मेरे गले में अपनी भारी भरकम बहियां डाल कर मुझे मनुहारा।

‘हैं !‘

‘हां ।‘

‘मुझे फायदा ?‘

‘टू परशेन्ट‘

‘नहीं, नहीं‘

‘चल तीन परशेंट‘

‘नो वे, फाईव परशेंट से कम नहीं‘

‘चल यार तु भी क्या याद रखेगा, फाईव परशेंट में मामला फिट करते हैं‘

मैंने अपनी धूर्तता पर गर्व करते हुए प्रस्ताव बनाना शुरू किया। चालू सिंह के बचपन से लेकर अधेड़पन तक के चालू कबाड़ों को छाना। छान छान कर फिर छाना, निथारा और समाज सेवा लायक उसके कृत्यों को एक कागज में लिखा। प्रस्ताव तैयार करने में मुझे महारथ हासिल था। चालू सिंह कोई ऐसे ही मेरे पास थोड़े ही आता था। प्रस्ताव भी खाकसार ने ऐसा तैयार किया कि पद्म पुरस्कार के लिए आये हुए आवेदन पत्र भी शरमा जाएं। प्रस्ताव को पढ़ते ही एक बारगी तो पढ़ने वाला चालू सिंह जी को कोई दिव्य पुरूष ही समझता होगा, ऐसा मेरा विश्वास था, और चालू सिंह जी का भी।

काफी दिनों से चालू सिंह जी से कोई मुलाकात नहीं हुई। मैंने सोचा कि चालू सिह का प्लान फैल हो गया लगता है। ऐसे कैसे किसी को इत्ती बड़ी राशि का इनाम मिल सकता है भला। चालू सिंह की चतुराई से मैं वाकिफ था। मैं अपने सोच के पायजामें में उसकी तिकड़मों के सुए से समझ की डोरी डालने की कोशिश कर ही रहा था तभी धमक लिए चालू सिंह जी।

‘‘रसिक साहेब, कैसे हो ?‘‘

‘‘अच्छा ही हूँ, अब तक‘‘

‘‘तुम अच्छे ही रहो और हमारे लिए ऐसे ही प्रस्ताव बनाते रहो‘‘

‘‘क्या मतलब ?‘‘

‘‘अरे जालिम, तेरे बनाए बायो डाटा ने तो कमाल कर डाला, कमेटी के मेम्बरान ने प्रॉमिस कर डाला है कि पुरस्कार अप्पन को ही मिलेगा‘‘ चालू सिंह ने मुझे हैरानीयत की सुपरलेटिव डिग्री में डालते हुए बताया।

‘‘ठीक है, पर मेरा शेयर भूलना मत‘‘ चालू सिंह को पुरस्कार मिलने के निर्णय से दुखी किंतु फिर भी संयत होते हुए मैं बोला।

‘‘वो कैसे भूल सकता हूँ, आगे भी तो यार, तु ही दिलवायेगा पुरस्कार, है ना ?‘‘ चालू सिंह चहका।

‘‘चालू सिंह, मैं तुझे तब से जानता हूं, जब से तु मेरे साथ पैली क्लास में था, तेरी रग रग से वाकिफ हूं, अब अपनी महानता की बात छोड़ और बता कैसे पटाया मैम्बरान को, और उनका पता तुझे मिला कहां से ?‘‘ मैंने चालू सिंह से उसकी चालाकियों की स्टोरी सुनाने का कहा।

‘‘ठीक है यार, तुस्सी नी मनदे तां ना सही, हुण सुण कि गल होई ?‘‘ चालू सिंह कभी कभी पंजाबी भी बोल लेता था, जब मूड में होता तो।

‘‘दस्सौ‘‘ मैंने भी पंजाबी में ही स्टार्ट का बटन दबाया।

‘‘हुआ ऐसा कि तेरे यहां से प्रपोजल बनवा कर सीधे अखबार के दफ्तर पहूंचा। वहां से लिया विज्ञापन देने वाले का पता। विज्ञापन देने वाले को ले गया होटेल, साथ में किया लंच, तब उसने बताया कि संस्था की चाबी एक ही आदमी की धोती में बंधी है और वो है मिस्टर मालपानी। अप्पन को सेंस हो गया था कि नाम का आखिर कुछ तो असर होगा। मैं उससे मिला, बायोडाटा दिया, उसने बिना देखे ही फेंक दिया टेबल के पास वाली दराज में और मुझे कहा कि पुरस्कार घोषित करने पर सूचितकर दिया जायेगा। अब यार, तु तो जानता है, अपन ने कोई कच्ची गोलियां तो खेली है नहीं, मैंने सीधे ही उसके हाथ में मुस्कुराते हुए गांधी के साथ भारतीय मुद्रा का एक नोट रख दिया। सूसरा एक बार तो ना नुकूर करने लगा, फिर झटके से नोट उठाया और खड़ा हो गया। मैंने सोचा कोई ईमानदारी का पुराना बेसूरा गीत गाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं, सूसरे ने मेरे सामने ही अपनी पेंट का बेल्ट खोला, शर्ट ऊपर उठाया, बनियान ऊपर उठाई, खर्रर्र की आवाज के साथ पेंट की चैन खोली, अपने अर्न्तवस्त्र के दर्शन कराते हुए उसके अन्दर बनी जेब में मेरा दिया नोट सुरक्षित रखा और अपने वस्त्रों को रीएडजस्ट किया।‘‘

‘‘फिर क्या हुआ‘‘ मैंने कथा को सीधे क्लाईमेक्स पर ले जाने के लिए बका।

‘‘अरे मियां सुनो तो सही‘‘ चालू सिंह बोला, ‘‘इसके बाद उसने मेरे साथ डीनर का प्रॉमिस भी किया। शाम को रंगीन पानी उंडेला उसके मोटे पेट में, तब कहीं जाकर उसने अपने पत्ते खोले। उसने बताया कि कुल तीन ही तो मेंम्बर हैं, एक तो उसका चेला था, दूसरा कोई स्वघोषित समाजसेवी था और तीसरा कोई बिजनस मेन ही था। मैंने पूरा खाका खींचा अगले तीन दिनों तक हर रात मैं उसके साथ डीनर करता लेकिन हर दिन एक आदमी बढ जाता था। अरे, चयन समिति वाले मेंम्बर रे ! आखिरकार सेठ जी के एक लाख के पुरस्कार में से दस-दस परशेंट तीनों को, पन्द्रह परशेंट मिस्टर मालपाणी को और पांच परशेंट मेरे प्यारे दोस्त रसिक को देना फाईनल हुआ। पचास परशेंट कुल खर्चा होगा और एक लाख अंटी में डाल लूंगा। कुल मिला कर मेरा इनवेस्ट रहा पन्द्रह हजार और मिले पचास हजार। पैंतीस हजार का तो नेट प्रॉफिट रहेगा ही नां ?, इसे कहते हैं गेम ऑफ परशेन्टेज‘‘ चालू सिंह वाकई चालू निकला।

‘‘पर अभी पुरस्कार मिला कहां है ?‘‘ मैंने प्रश्न को खड़ा करने की कोशिश की।

‘‘यार पुरस्कार तो मिलता रहेगा, तु क्या अपून को उल्लू समझता है, अरे मालपानी तो इंतजार कर रहा है, चैक मेरे नाम से बनाया हुआ पड़ा है, बस एक सप्ताह की बात है।‘‘ चालू सिंह ने अदम्य विश्वास के साथ कहा।

एक सप्ताह गुजर गया, पुरस्कार घोषित हुआ। जीवन पर्यन्त समाज के विभिन्न वर्गों और प्राणी मात्र के प्रति की गई अथक समाज सेवा के लिए श्री चालू सिंह जी को पुरस्कार प्रदान किये जाने की सुर्खीमयी खबर चमक रही थी।

मैं फाईव परशेंट राशि से आने वाले अगले महीने के राशन की सूची बनाने लगा।