गोडसे@गांधी.कॉम / सीन 9 / असगर वज़ाहत

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(मंच पर अँधेरा है।)

उद् घोषणा :

इश्‍क पर जोर नहीं, है ये वो आतिश 'गालिब' जो लगाए न लगे और बुझाए न बुझे।

सुषमा ने तो गांधी जी से माफी तो माँग ली थी लेकिन इश्क के तूफान को रोकना तो हथेली पर सरसों जमाना है। सुषमा रात-दिन नवीन की याद में तड़पने लगी और एक दिन उसने अपने दिल लिफाफे में बंद कर दिया... अब चिट्ठि‍याँ आश्रम के पते पर नहीं... बल्कि किसी और पते पर आती-जाती थीं... और फिर एक दिन अपने माथे पर डाक टिकट चिपका कर नवीन प्रयोग आश्रम के पीछे वाले जंगल में पहुँच गया...'।

(धीरे-धीरे प्रकाश होता है। नवीन झाड़ि‍यों और पेड़ों के बीच से चुपचाप, लुकता-छिपता आगे बढ़ रहा है। कहीं रुक कर आहट लेने लगता है और कहीं जल्‍दी आगे बढ़ जाता है... उसे सुषमा की धुँधली सी छाया दिखाई पड़ती है। वह उधर बढ़ता है।) (गायन शुरू होता है।)

'हुस्न-ओ-इश्‍क की आग में अकसर छेड़ उधर से होती है। शम्‍मा का शोला जब लहराया, उड़ के चला परवाना भी।'

(नवीन और सुषमा गले लग जाते हैं। सुषमा लगातार रोती है। नवीन उसे थपथपाता है। कुछ क्षण बाद दोनों अलग होते हैं।) (गायन खत्‍म होता है।)

नवीन : यह बर्दाश्त से बाहर हो गया है सुषमा...

सुषमा : मैं क्‍या करूँ नवीन, उलझन से मेरा दम निकल जाता है... मैं बापू को नहीं छोड़ सकती... मैं बचपन से बापू के सपने देखते-देखते... यहाँ पहुँची हूँ और... तुम मेरे प्‍यार हो...

नवीन : सुषमा : सुषमा... तुम जो कहो... जो करो... सब ठीक है... लेकिन किसी तरह से बापू को समझाओ... ये मेरी जिंदगी और मौत का सवाल है...

(पीछे से गांधी आ जाते हैं और छिप कर इन दोनों की बातचीत सुनने लगते हैं।)

सुषमा : बापू को पता चल गया है... अब बात करने का उल्‍टा ही असर होगा।

नवीन : क्‍या पता चल गया है?

सुषमा : यही कि हम दोनों एक-दूसरे से प्‍यार करते हैं।

नवीन : अरे, तो कौन-सा पाप या जुर्म है...

सुषमा : बापू आदमी और औरत के प्रेम को वि‍कार मानते हैं, पाप मानते हैं... वासना मानते हैं।

नवीन : ये तो कोई बात नहीं हुई । दुनिया में आज तक जिन लोगों ने प्‍यार किया है क्‍या उन सबके संबंध वासना, विकार और पाप थे? ये कैसे हो सकता है सुषमा...

सुषमा : मैं क्‍या करूँ। कुछ समझ में नहीं आता...

(गांधी पीछे से निकल आते हैं।)

गांधी : मैं समझ सकता हूँ तुझे, सुषमा... तू आराम से चली जा... वही कर जो नवीन कह रहा है... संयम से रहना तेरे बस की बात नहीं है... तेरी आँखों पर वासना की काली पट्टी चढ़ी है।

(सुषमा रोने लगती है। नवीन आश्चर्य और गुस्‍से से गांधी को देखता है।)

गांधी : सुषमा, तू यह जानती है कि मैं ब्रह्मचर्य का उपासक हूँ... उसके बाद भी... तू अपने बिस्‍तर में साँप देख कर खामोश रही और तूने...।

नवीन : (बात काट कर) गुस्‍से में) महात्‍मा जी... जो आप नहीं कर सके, उसकी तालीम दूसरों को क्‍यों दे रहे हैं।

गांधी : तुमसे तो मैं बात भी नहीं करना चाहता... तुम मेरे लिए, बाहर से आए 'चोर' के समान हो।

( ' बापू ' , ' बापू ' की आवाज लगाता, हाथ में लालटेन लिए बावनदास आता दिखाई पड़ता है। उसके पीछे निर्मला देवी भी हैं। ये लोग गांधी के पास पहुँचते हैं। )

बावनदास : हम तो सारे में आपको खोज रहा थ। ऐसे रात, यहाँ काहे आ गए?

(गांधी खामोश रहते है। निर्मला देवी नवीन को देखती है।)

निर्मला देवी : अरे तू कब आया रे... यहाँ क्‍यों खड़ा है?

(नवीन कुछ नहीं बोलता।)

गांधी : (नवीन से)... बहुत मजबूरी में ही मैंने तुम्‍हारे लिए चोर जैसा भारी शब्‍द बोला है... मैं मजबूर हूँ... मेरे सिद्धांत, मेरा जीवन हैं। (निर्मला देवी से) यह छिप कर आया है... इसके मन में विकार है, यह सुषमा से मिलने आया है...

निर्मला : सुषमा से मिलने तो यह हमारे घर भी आता था, विकार... कैसा बापू...

गांधी : स्‍त्री और पुरुष को एकांत में नहीं मिलना चाहिए।

निर्मला : क्‍यों?

गांधी : मन में विकार आता है... पाप की ओर आकर्षण होता है...

निर्मला : जिनका होता होगा, उनका तो ठीक है... जिनका नहीं होता... उनका क्‍या है?

गांधी : विकार सबके मन में होता है।

निर्मला : अरे, मैं तुमसे मिलती हूँ तो क्‍या मेरे या तेरे मन में विकार है... पाप है?

गांधी : नहीं... पर छिप कर मिलने में है... ये दोनों छिप कर मिल रहे थे।

निर्मला : अरे, तो जब खुले में न मिलने दिया जाय तो छिप कर ही मिलेंगे...

गांधी : नियमों-सिद्धांतों को छोड़ कर जीवन आदमी को शोभा नहीं देता है। औरत और मर्द का जनम ब्रह्मचर्य पालन करते हुए परमात्‍मा में मिल जाना है।

निर्मला : अरे बापू, तू एक बात बता, सभी साधू-संत हो जावेंगे तो संसार कैसे चलेगा?

गांधी : संसार चलाने के लिए, परमात्‍मा के काम में दखल देना... हमारा काम नहीं है।

नवीन : बापू, हम लोग एक-दूसरे से प्रेम करते हैं...

गांधी : प्रेम वासना के अलावा कुछ नहीं है और अगर है तो उसमें त्‍याग और आध्‍यात्मिकता दिखाई देनी चाहिए... तुम्‍हारा प्रेम, मुझे सच्‍चा नहीं लगता... प्रेम में 'छिपाव' का भाव, उसे वासना और भोग के करीब ले जाता है।

निर्मला : अरे महात्‍मा, मेरी बात सुन... ये दोनों शादी करना चाहते हैं... कर लेने दे।

गांधी : विवाह भोग के लिए नहीं, संयम के लिए है। ब्रह्मचर्य ही आदर्श विवाह है।

निर्मला : महात्‍मा हो के तू कैसी बातें कर रहा है... उल्‍टी गंगा बहा रहा है। चल ठीक है... ऋषि-मुनि, साधु-महात्‍मा घर-बार नहीं करते तो ठीक है... भगवान से लौ लगाते हैं पर ये तू क्‍या कह रहा है... आदमी और औरत एक-दूसरे के लिए नहीं तो क्‍या आदमी और जानवर एक-दूसरे के लिए बने हैं?

नवीन : बापू... क्‍या आप मुझे आश्रम में अनुमति दे सकते हैं...

गांधी : नहीं।

नवीन : किसी शर्त पर नहीं?

गांधी : तुम्‍हे सुषमा को अपनी सगी बहन मानना होगा... वो तुम्‍हें सगा भाई स्‍वीकार करे... तुम दोनों एकांत में नहीं मिलोगे... बात नहीं करोगे... किसी तरह का कोई इशारा नहीं... कोई चिट्ठी-पत्री नहीं... लड़कियों के लिए... आदर्श अखंड ब्रह्मचर्य होना चाहिए... उसी में आदर्श विवाह समाया हुआ है।

नवीन : आप यह जानते हुए ऐसा कह रहे हैं... कि हम दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते हैं।

गांधी : संयम के बिना मनुष्‍य पशु है... मैं दृढ़ता से अपनी बात पर टिका हुआ हूँ।

नवीन : ठीक है बापू, मैं जा रहा हूँ... देवदास और लक्ष्‍मी को आपका आर्शीवाद मिल सकता है,। मुझे नहीं... क्‍योंकि देवदास आपका पुत्र है... मैं नहीं... मैं जा रहा हूँ...

(नवीन जाने लगता है।)

गांधी : ठहरो... अपने प्रश्‍न का उत्तर सुनते जाओ... मैं यह नहीं चाहता कि 'प्रयोग आश्रम' से कोई असंतुष्‍ट जाए... देवदास और लक्ष्‍मी ने प्रेम के लिए त्‍याग किया था। बोलो तुम कर सकते हो... पाँच साल प्रतीक्षा कर सकते हो... पाँच साल।

नवीन : पाँच साल नहीं... पचास साल... तक प्रतीक्षा कर सकता हूँ... अब मैं सुषमा से उसी समय मिलूँगा, जब आप बुलाएँगे...

(तेजी से बाहर निकल जाता है। सुषमा फूट-फूट कर रोने लगती है।)