गोदना की टीस, जनजातियों की रीत / जयप्रकाश चौकसे

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गोदना की टीस, जनजातियों की रीत
प्रकाशन तिथि : 13 जून 2013


मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग और आदिम जाति कल्याण मंत्रालय के सहयोग से जनजातियों को केंद्र में रखकर बनाई गई लघु फिल्मों का चार दिवसीय समारोह जारी है। सरकार द्वारा जनजातियों की कला के संरक्षण हेतु एक विशाल परिसर रचा गया है, जिसमें प्रवेश करने पर जनजाति के गांव में आने का अनुभव होता है। उस परिसर में घोटुल की रचना भी की गई है। परिसर रचना महत्वपूर्ण कार्य है, उसके आकल्पन करने वालों को बधाई। देश-विदेश से संयोजक प्रीति ने 70 फिल्में उपलब्ध कराई हैं।

उद्घाटन के अवसर पर मध्यप्रदेश की बैगा जनजाति की गोदना परंपरा पर गीताश्री की 'देहराग' नामक किताब का विमोचन हुआ, जिसका प्रकाशन मध्यप्रदेश की वन्या नामक संस्था ने किया है। विमोचन किया श्री हरिशंकर खटीक ने। प्राय: किताब के विमोचन की यह परंपरा है कि उसके कुछ अंश मंच पर पढ़े जाएं, परंतु मूलत: यह वृत्तचित्र का समारोह था अत: ऐसा नहीं किया गया। पुस्तक के प्रारंभ में सुधीर सक्सेना की कविता है, जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं - 'मगर, सोचो तो, कैसे लगेगी देह, कविताओं के इतिहास में, किसी भी हस्तलिखित पांडुलिपि से कहीं ज्यादा दिलफरेब कि कातिल भी पलक झपकाना भूल जाए, भूल जाए हवा बहना और बांचने लगे कविताओं की अनूठी बही।' श्रीराम तिवारी द्वारा संपादित किताब में जनजातीय गोदना प्रथा के विषय में अनेक जानकारियां और उन लोकप्रिय झूठ का भी विवरण है कि गोदना कराने से त्वचा रोग नहीं होते इत्यादि।

बहरहाल, फिल्मों में भी गोदना का नाटकीय प्रयोग हुआ है, जैसे 'दीवार' में नायक के हाथ पर लिखा था कि 'मेरा बाप चोर है।' इसका अर्थ यह है कि गोदना महज स्त्री देह के अलंकरण के लिए नहीं वरन् सजा के तौर पर भी किया जाता है। जब समाज में जानवर धन के रूप में स्थापित हुआ, तो मालिक की पहचान के लिए उनकी त्वचा पर जलती हुई लोहे की सलाख से कुछ चिह्न बनाया जाता था। आज भी कपड़े धोने के व्यवसाय मेें कपड़े की भीतरी सतह पर कोई चिह्न अंकित किया जाता है और मुंबई की प्रसिद्ध डिब्बावाला संस्था भी अपने हजारों ग्राहकों के लिए कोई चिह्न डिब्बे पर अंकित करती है। यही जानवर को दागने वाला काम गुलामों के साथ भी किया गया।

यह भी आदिम मान्यता रही है कि गोदना परलोक तक जाता है। अवचेतन के अतिरिक्त कुछ भी कहीं नहीं जाता। व्यक्ति की विचार-शैली ही उसका परिचय है। आमिर खान ने 'गजनी' में याद के क्षणिक रहने के रोगी नायक के शरीर पर गोदना कराने का दृश्य पटकथा के आवश्यक अंग की तरह इस्तेमाल किया है। बहरहाल, गोदना टैटू के आधुनिक स्वरूप में वापस आ गया है, परंतु अब केवल स्त्रियां ही नहीं वरन् पुरुष भी गोदना कराते हैं। आजकल गोदना प्रेम में कन्या को प्रभावित करने के लिए किया जाता है, जैसे कि सैफ अली खान ने करीना कपूर का नाम हाथ पर गुदवाया था और दीपिका पादुकोण ने रणबीर कपूर का नाम गर्दन के पीछे कराया है, जिसे छिपाया भी जा सकता है। आधुनिक इश्क मिजाज लोग इससे बचते हैं, क्योंकि शरीर पर कितने नाम गुदवाए जाएं, शायद एक इंच त्वचा भी न बचे।

महान लेखक गुलशेर खान शानी के उपन्यास 'सांप-सीढ़ी' में बस्तर के आदिवासी जीवन की पृष्ठभूमि है और एक मार्मिक विवरण है कि चंपा को अपनी गोद ली कन्या के कमरे से दर्द को दबाने के प्रयास की आवाज आती है। चम्पा ने अपनी मृत सहेली की अनाथ बेटी का उत्तरदायित्व लिया है। वह कमरे में जाती है तो ज्ञात होता है कि षोडशी कन्या ने अपनी जांघ पर देवता का गोदना कराया है, क्योंकि ऐसा करने से विवाह जल्दी होता है। मां-बेटी के बीच का वार्तालाप शानी जैसा संवेदनशील ही रच सकता था।

जनजातियों के जीवन पर केंद्रित वृत्तचित्रों का प्रदर्शन महत्वपूर्ण इसलिए है कि अभावों के बीच जीने वाले ये लोग गाते रहते हैं और सुख का अभाव नहीं है, परंतु शहरों में तमाम सुविधाओं के बीच रहने वालों के जीवन में सुख-शांति का अभाव है। दरअसल, इस तरह की बात भी उसी पूंजीवादी षड्यंत्र का हिस्सा है, जो जनजातियों के कष्ट को महिमामंडित करके उनके वनों का दोहन कर रहे हैं। उन्हें काल्पनिक अज्ञानजनित तथाकथित सुख के नशे में डुबोए रखा गया है।

दरअसल, जनजातियों का जीवन हमारा अतीत है और भयावह बात यह है कि वह हमारा भविष्य भी है। जिस निर्ममता से हम पृथ्वी की अंतडिय़ों में हाथ डालकर उसकी सम्पदा लूट रहे हैं और हमारा समाज वातानुकूलित जीवन प्रदूषण रच रहा है, उससे आभास होता है कि एक-दो सदी में हम फिर से जनजातियों की तरह हो जाएंगे। इस प्रक्रिया को रोकना रकार के लिए उस समय संभव होगा, जब हर नागरिक सादगी के जीवन मूल्यों पर लौटेगा और बाजार की ताकत यह होने नहीं देगी।