गोलमेज / अरुण कमल / ओम निश्चल

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विचार-विमर्श की अपनी गोलमेज
--ओम निश्‍चल

पुस्तक: गोलमेज
रचनाकार: अरुण कमल
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन, 7695,21-ए,दरियागंज,नई दिल्ली
मूल्‍य: 350 रुपये


अत्यंत रूक्ष हो चली आलोचना के इस दौर में कभी कभी ऐसे लेखकों कवियों की हमें याद आती है, जिन्होंने आग्रहवश या स्वान्तःसुखाय आलोचना की बीहड़ पारिभाषिकी के बीच विचार विमर्श की अपनी गोलमेज सजाई है। यों तो कवियों के एक वर्ग द्वारा यह कहा ही जाता है कि पेशेवर आलोचकों की बनिस्बत कवियों ने खुद यदा-कदा लिख कर आलोचना में एक नई स्फूर्ति पैदा की है, एक नई भाषा-संवेदना और मार्मिकता के साथ रचना के अलक्षित किन्तु रम्य प्रदेश में प्रवेश किया है जिसे पढ़ने पर एक खास तरह का आत्मतोष होता है जो प्रायः आलोचकों को पढ़ने पर नहीं मिलता। कहने की बात नहीं कि ऐसे कवियों रचनाकारों ने जो कुछ भी लिखा है, वह भले ही आलोचना की रूढ़ परिपाटी से अलग और उसकी सैद्धांतिकी से मेल न खाती हो, किन्तु वह रचना के हृदय तक सीधी पहुँच रखती है, इसमें संदेह नहीं। पिछले दिनों प्रकाशित अरूण कमल की पुस्तक गोलमेज न केवल आलोचना में एक नए फ्लेवर को जन्म देती है बल्कि साहित्य के उत्तरोत्तर कम होते जाते गुणग्राहकों को अपने चुम्बकीय आकर्षण से रिझाती भी है।

कविता और समय के बाद की टिप्पणियों, निबंधों का यह संग्रह न केवल एक कवि की सतत क्रियाशील अध्यवसायिता की पुष्टि करता है बल्कि कवियों को इस अनिवार्यता की सीख भी देता है कि केवल आलोचक को ही नहीं, कवियों को भी जीवन के विस्तार में जाकर आलोचना की कमान सॅंभालनी चाहिए। अरूण कमल यह काम बखूबी करते हैं। बहुत व्यवस्थित रूप में न सही, पर अपने समय की अनिवार्य बहसों से पल्ला न झाड़ने वाली और समकालीन मूल्यवान रचना संसार को चीन्हने और रेखांकित करने का काम तो उनकी आलोचना करती ही है। इसी पुस्तक में हम देखें तो वे कबीर, निराला, पन्त, महादेवी, सुभद्राकुमारी चौहान, नेमिचंद्र जैन, मलयज, केदारनाथ सिंह, कुॅंवर नारायण, भिखारी ठाकुर, चिरंजीव दास, जीवन, पाब्लो नेरूदा, भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा, प्रेमचंद, श्रीलाल शुक्ल,विश्वनाथ त्रिपाठी, प्रभाकर श्रोत्रिय, सत्यप्रकाश और रामविलास शर्मा के कृतित्व और शख्शियत के किसी न किसी पक्ष को लेकर अपने विमर्श का वितान रचती है। इस तरह की आलोचना-रचना से भी वे सहकार सुख का अनुभव करते हैं। सच कहें तो ऐसा करते हुए उन्होंने आलोचना को सौंदर्य के नए कलेवर से भरा है। अरूण कमल ने अनुवाद पर लिखे अपने एक निबंध में कल्पना की है जैसे दुनिया भर के कवि-लेखक एक बड़ी गोलमेज पर बैठे एक दूसरे से मुखातिब और बहस-तलब हैं। कवि की यह कल्पना हमें अचानक शमशेर की उस सुपरिचित कविता अमन का राग के प्रशस्त प्रांगण में ले जाकर खड़ा कर देती है, जिसमें दुनिया भर के लेखक कलाकार समरसता और सान्निध्य का एक नया सुर बिखेर रहे हैं।

अरुण कमल के निबंध यह रास्ता सुझाते हैं कि हम अपने पूर्वज लेखकों-कवियों को आज के संदर्भ में कैसे पढ़ें, वह क्या है इन कवियों-विचारकों में जो सिखावन की तरह हमारे मन को मथता और साहित्य में किसी विरल प्रदेय के लिए तैयार करता-सा दीखता है। कबीर पर अनन्त लिखा जा चुका है, लिखा जाता रहेगा तो भी कबीर के साथ अरुण की अपनी वैचारिक सन्निधि का अलग अर्थ है। कबीर को पहली बार समाज सुधारक के दायरे से बाहर लाकर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने जिस तरह उनके कवि-महत्व को केंद्र में स्थापित किया, कविता ने शाश्वत की परख-पहचान के लिए कबीर की बाँह गही। कबीर जीवन-जगत के निर्भीक व्याख्याता थे--स्वाधीन चित्त के कवि।नैसर्गिक तटस्थता के साथ विडंबनाओं पर हँसते, प्रहार करते हुए। अरुण अपने निबंध में कबीर के काव्य की आत्मा के गहरे तल में उतरते हुए जीवन के सच्चे ऐश्वर्य का दर्शन पाते हैं। ऐसा ही कुछ जतन वे निराला की कविता के साथ खड़े होकर करते हैं। वे निराला की ताकत की पहचान के लिए उनकी छोटी छोटी कविताओं को आधार बनाते हैं और इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वे पूरी दुनिया के उन थोड़े कवियों में हैं जिन्होंने अपनी कविताओं में पूरे जीवन को समेटा है। परन्तु क्या ऐसा पंत ने संभव किया है, महादेवी ने संभव किया हैघ् पंत के यहॉ प्रकृति तो पूरे वैभव के साथ है, पर जीवन में पूर्णतः रची बसी नहीं दिखती--‘वह अरुण के शब्दों में, जीवन की माँसल हरियाली की कविता है। वे जीवन की शोभा के गायक हैं।‘ महादेवी के काव्य और गद्य का करुणा से घना रिश्ता है, पर उनकी कविता और गद्य के मिजाज में फर्क है। कविता उनके लिए आत्मा की अभिव्यक्ति और पूजा-अरघान है तो उनके निबंध संस्मरण, रेखाचित्र, लोक से उनके सघन रिश्ते की बानगी प्रस्तुत करते हैं-अरुण उनके दर्शन, चिंतन, आलोचन से गुजरते हुए उस मूल्य को पकड़ते हैं जो भारतीय कविता की मूल प्रेरणा और पहचान है।

मलयज की डायरी पर लिखते हुए जैसे अरुण ने अपना आपा खो दिया है। वे मलयज में डूब-से गए हैं। मलयज का खुद का कवि-कद कम न था। समकालीनों के बीच रहते हुए निस्संग ईमानदार मूल्यांकन के लिए वे डायरी में जैसे निज से मुक्तमन संवाद करते हैं। आलोचना में यह पैराडाइम शिफ्ट है। बकौल अरुण कमल, ‘यह डायरी सरेस पत्र पर लिखी डायरी है जो छूने वाले को भी रगड़ कर स्वच्छ कर देती है।‘ मलयज की डायरी खुद में किसी बड़े गोलमेज से कम नहीं है--इसमें बहसों, अंतर्द्वंद्वों , निष्कर्षों और असहमतियों का वशीभूत कर देने वाला ताप है। आलोचना के नए अंतःकरण का उद्घाटन है यह। तभी तो अभिभूत होकर अरुण कमल इस डायरी के लिए वाल्ट ह्विटमैन की यह पंक्ति उद्धृत करते हैं--कामरेडो, दिस इज नो बुक, हू टचेज दिस, टचेज अ मैन। केदारनाथ सिंह की कविता के भी वे गहरे प्रशंसक हैं। उनकी कविता है ही ऐसी। एक अजीब सी खनक और अनुगूँज के साथ हमारी इंद्रियों के बंद कपाट खोलती और हमसे जैसे बतियाती हुई-सी । तालस्ताय और साइकिल उनका ही नहीं, हिंदी और भारतीय कविता की ऐंद्रिय संवेदना और आस्वाद का सर्वोच्च शिखर है। एक आलोचक के रूप में वे कुँवर नारायण की अंतर्दृष्टि से टकराते हैं तो रामजीवन शर्मा ‘जीवन‘, चिरंजीव दास और भिखारी ठाकुर के कवित्व को पुनरवलोकित करते हैं। कथ्य की नवीनता और आधुनिकता की दृष्टि से नेरूदा का कवि-व्यक्तित्व भी उन्हें अपने ऐंद्रियबोध से विचलित करता है। यहाँ उन्हें नेरूदा की कविता धड़कती हुई मालूम होती है तो प्रकृति और नदी पर्वतों के वर्णनों से भरी हुई भी। समूचा भूमंडल अपनी विविधताओं के साथ नेरुदा की कविता में धड़कता है। वे नेरूदा की इस समझ की दाद देते हैं कि वे कविता को भी एक काम की तरह लेते हैं जैसे कोई नानबाई या रोटी पकाने वाली अपने काम को मामूली काम की तरह अंजाम देती है। कविता के नए प्रतिमान पर बेशक विवादी दृष्टियाँ सक्रिय रही हों, वे इसके पाठ को चालीस बरसों की यात्रा में भी प्रासंगिक मानते हैं। उनकी दृष्टि में ‘वह केवल अपने समय की कविता के पक्ष में ही नहीं, वरन सभी श्रेष्ठ कविता के पक्ष में उठा हुआ हाथ है।‘

अरूण कमल मार्क्सवादी दृष्टि के हिमायती हैं पर इस दृष्टि की सीमाएँ भी वे जानते हैं। इसलिए वे कुंवर नारायण के इस कथन का प्रतिवाद नहीं करते कि ‘साहित्य भाषा में मनुष्य की पूरी चेतना का स्पंदन है। राजनीतिक चेतना उसके उूपर नहीं है, उसमें ही है।‘ या ‘एक बड़ा साहित्य विभिन्न विचारों की वैधता के लिए खुद प्रमाण होता है, अपनी प्रामाणिकता का आधार दूसरे विचारों या किसी विचारधारा को नहीं बनाता।‘ जाहिर है कि कुंवर जी की दृष्टि में रचना की व्याप्ति में ही समूचा जीवन है, किसी वैचारिक आलोक के वशीभूत होकर लिखी गयी कृति नहीं। अरूण भीष्म साहनी की शख्सियत पर भी उतनी ही तल्लीनता से लिखते हैं जैसे वे निर्मल वर्मा की रचनात्मक अंतर्यात्रा पर। वे प्रवादों से परिचालित नहीं होते। बल्कि उनकी कहानियों और उपन्यासों पर दृष्टि टिकाने के बजाय वे उनके चिंतन में समाए सांस्कृतिक बोध की समग्रता पर विचार करते हैं, जिसके निहितार्थों पर हाल के वर्षों में खासा बहस चली है। मेघदूत पर प्रभाकर श्रोत्रिय के लालित्यपूर्ण चिंतन पर मुग्ध होते हुए अरूण जी यह कहने से नहीं चूकते कि गए कई दशकों में अकादेमिक परिसर से बाहर शायद ही कोई ऐसी कृति लिखी गयी हो जो कालिदास के साहित्य पर इतनी जाग्रत भाषा में विचार करती हो।

पुस्तक के निबंधांे से अलग अरूण कमल एक दौर में पारचून की अपनी नुकीली टिप्पणियों से जाने गए थे। यहॉं भी कुछ टिप्पणियॉं दर्ज हैं। यह एक ऐसा कोना है डायरीनुमा जहॉं वे थोड़ी आजादी से साहित्य के फुटकर प्रसंगों पर विचार करते हैं। मसलन स्वान्तःसुखाय, आध्यात्मिकता, कविता के लिए जगह, पूंजीवाद का विकल्प, कवि-कुटुम्ब, काव्यशिल्प, सब धान बाइस पसेरी, आधुनिकतावाद, छंद का आग्रह, कविता में स्त्री महिमा, आत्मकथा, किंवदन्ती आदि। उनके दो पुरस्कार-वक्तव्य भी यहॉं हैं। एक वक्तव्य में तो उनका यह कहना एक चेतावनी की मानिंद है कि ‘वह दिन दूर नहीं जब भाषा का यह विराट प्रीतिभोज भी नष्ट हो जाएगा क्योंकि जैसे जैसे लोगों की पत्तलें छिनेंगी वैसे वैसे जीवन का उत्सव भी नष्ट होगा।‘ किन्तु वे यह कहते हुए निराश नहीं होते कि ‘जीवन में जो कुछ नष्ट हो रहा है, कविता उस सबकी शरणस्थली है, अभयारण्य।‘

इसके बावजूद अरूण कमल मध्यमार्गी हैं। वे यत्र तत्र मीठे सुरों में प्रतिवाद भी करते हैं, किन्तु वे किसी को नाराज करने का जोखिम नहीं उठाते। गो कि आलोचना की यह कोई शर्त नहीं है कि खामख्वाह आप लोगों को नाराज़ ही करें। किन्तु असहमतियों के बिन्दु यहॉं कम हैं। इसलिए गोलमेज के निबंध आलोचना से ज्यादा, उपपत्तिपूर्ण अनुशीलन के निकट हैं। जैसे ये आलोचना के अहंकार में डूब कर नहीं, अपने स्वत्व और सुख में डूबने के लिए लिखे गए हों।