गो गोवा गॉन: उत्सव का विनाश / जयप्रकाश चौकसे

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गो गोवा गॉन: उत्सव का विनाश
प्रकाशन तिथि : 01 दिसम्बर 2018


भारत का अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव संपन्न हुआ। देश-विदेश के फिल्मी कबाड़ से उठाया गया माल परोसा गया। अरबाज खान ने अपने पिता सलीम खान को आजीवन सिनेमा सेवा के लिए दिए गए अवॉर्ड को मंच पर जाकर स्वीकार किया। इसी मंच पर श्रीदेवी का स्मरण किया गया और उनकी सुपुत्री जाह्नवी ने अपनी मां की स्मृति में लिखी कविता का पाठ किया। समारोह के एक दिन बाद सलीम खान साहब ने सरकार को धन्यवाद दिया। परंतु साथ ही यह भी कहा कि उनके लेखन में जावेद अख्तर बराबरी के भागीदार रहे हैं और इस अवॉर्ड पर उनका समान अधिकार है। उन्होंने धन्यवाद ज्ञापन में इंदौर को याद किया जहां वे जन्मे और शिक्षा पाई। अपना जन्म स्थान हमेशा उनकी स्मृति में बना रहता है। मुंबई में खान निवास इंदौर की एम्बेसी की तरह है, जहां चौकीदार को निर्देश है कि इंदौर से आए व्यक्ति को उनके मकान में प्रवेश दिया जाए। आज भी सलीम खान के भाई नईम खान और अन्य रिश्तेदार इंदौर में रहते रहते हैं। सलीम खान के परिवार के अधिकांश सदस्य हाल ही में नईम साहब से मिलने आए थे। उनके बयान में जावेद अख्तर के योगदान का उल्लेख यह रेखांकित करता है कि वे अत्यंत उदार व्यक्ति हैं। उनका यकीन है कि विद्वान होने से अधिक जरूरी है एक बेहतर इंसान होना। यह जगजाहिर है कि सलमान खान भी निरंतर साधनहीन लोगों की सहायता करते रहते हैं। वे कमोबेश हातिम ताई की तरह हैं, जिसका आदर्श था कि नेकी कर और दरिया में डाल अर्थात अपने किए उपकार का बार-बार हवाला नहीं दिया जाए। कुछ लोग अपने दिमाग के बही खाते में उपकार दर्ज करते रहते हैं और समय आने पर मय खुद के वसूल भी करते हैं। क्या प्रेम के बही खाते में चुम्बन का हिसाब-किताब रखा जा सकता है? क्या मृत्यु के बाद माथे को चूमना भी कोई आखिरी किस्त है।

प्राय: हमारे नेता चुनाव के पहले किसान वर्ग के कर्ज को माफ कर दिए जाने की आपसी प्रतिस्पर्धा में जुट जाते हैं। दान आधारित व्यवस्था समानता के आदर्श के विरुद्ध है। परिश्रम, प्रतिभा और पसीना आधारित समाज रचा जाना चाहिए। सारे बैंक कमोबेश दिवालिया हो चुके हैं। किसान को पानी, उच्च गुणवत्ता के बीज मिले और उसके उत्पाद का उसे सही मूल्य प्राप्त हो- केवल इतना भर कर देने से किसान वर्ग का असंतोष कम किया जा सकता है। इंसान अपनी मेहनत के बल पर जीवन जी सके, ऐसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। मुफ्त का हर माल अंततोगत्वा महंगा ही साबित होता है। तमाम डिस्काउंट सेल बाजार एक दिलकश अदा मात्र है। पहले तो वाजिब मुनाफे सहित दाम एक रुपया है परंतु उसे पांच रुपए में बेचा जाता है। और इस पांच रुपए दाम पर डिस्काउंट का प्रलोभन दिया जाता है। विश्व इतिहास में बाजार हमेशा महत्वपूर्ण रहे हैं परंतु आज की तरह वे भाग्य विधाता कभी नहीं रहे। सत्ता की तमाम कुर्सियों पर उनके द्वारा बैठे हुए मोहरे विराजमान हैं। शांताराम की फिल्म 'दो आंखें बारह हाथ' में एक मानवीय करुणा से प्रेरित जेलर आधा दर्जन जरायम पेशा कैदियों को सुधारने के लिए एक स्थान पर ले जाता है। वे अपनी मेहनत से बंजर जमीन पर फसल उगाते हैं। जब वे मंडी में जाकर अपनी फसल बाजार भाव से कम में बेचते हैं तब मंडी के ठेकेदार विचलित हो जाते हैं। ये वे लोग हैं जो कभी कुछ उपजाते नहीं परंतु लाभ केवल उनकी झोली में जाता है। व्यवस्था ने इस तरह के तिलचट्‌टों को जन्म दिया है। सारे स्वच्छता आंदोलन इन तिलचट्‌टों को जरा भी हानि नहीं पहुंचाते वरन् उन्हें पनपने का अवसर देते हैं। ये मंडी के ठेकेदार उन मेहनतकश लोगों को मारपीट कर लहूलुहान कर देते हैं। यह प्राय: सुना जाता है कि किसान ने अपने प्याज सड़क पर फेंक दिए, क्योंकि उन्हें मंडी तक ले जाने का पैसा भी उन्हें बेचकर प्राप्त नहीं किया जा सकता। दूसरी तरफ यह बताया जा रहा है कि करोड़ों लोगों को एक वक्त का आधा-अधूरा भोजन भी उपलब्ध नहीं है। ज्ञातव्य है कि पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आयोजित किया था। हमारे फिल्मकारों ने नव-यथार्थवादी फिल्में देखीं और उनसे प्रेरित होकर बिमल रॉय ने बलराज साहनी अभिनीत 'दो बीघा जमीन' बनाई तथा राज कपूर ने 'बूटपॉलिश' और 'जागते रहो' बनाई।

उस दौर में एक वर्ष यह समारोह दिल्ली में आयोजित किया जाता था और दूसरे वर्ष भारत के किसी अन्य शहर में आयोजित किया जाता था। कुछ समय पूर्व केंद्र सरकार ने गोवा को स्थायी बना दिया। पहले डेलीगेट अपना पहचान-पत्र दिखाकर कोई भी फिल्म देख सकता था। बाद में डेलिगेट को एक फॉर्म भरना आवश्यक कर दिया गया तथा उसे मनपसंद फिल्म देखने के लिए कुछ रुपए भी जमा करने होते हैं। हालात ऐसे बन गए हैं कि सिने प्रेमी का बहुत-सा वक्त कागजी कार्यवाही में नष्ट हो जाता है। नोटबंदी के समय बैंक के सामने लगी कतारों की तरह ही है। अब सभी क्षेत्रों में आप कतार में खड़े हैं। किसी दिन ये कतारें थोड़ी-सी टेढ़ी होकर एक प्रश्न चिन्ह बनकर हुक्मरान के सामने उठ खड़ी होंगी।