गौरा / नदी के द्वीप / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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गौरा से भुवन का परिचय यों तो चौदह-पन्द्रह वर्ष का गिना जा सकता है, जब वह पाँच-छः वर्ष की थी और दो चोटियाँ गूँथ कर फ़्राक पहने स्कूल जाया करती थी। वह चित्र भुवन को याद है, यह भी याद है कि कभी-कभी वह भुवन को खिझाने के लिए बड़ी तीखी किलकारी मारा करती थी। बच्चों को यों भी किलकारी मारने में आनन्द मिलता है; पर भुवन तीखी आवाज़ सह नहीं सकता यह जान कर ही वह उसके पास आकर किलकारती थी और भाग जाती थी; भुवन का सारा शरीर झनझना जाता था और वह दौड़ कर हँसती हुई गौरा को पकड़ कर उठा लेता और डराने के लिए उछाल देता था। डरकर गौरा और भी किलकती थी और उसके गले से चिपट जाती थी; उसके रूखे बालों की सोंधी गन्ध भुवन के नासा-पुटों में भर जाती थी, तब वह यह कह कर कि “ठहरो, तुम्हारे बाल सुलझा दें”, उसकी दोनों चोटियाँ पकड़ कर सिर के ऊपर गाँठ बाँध देता था और हँसता था। गौरा झल्लाती थी और फिर किलकारने की धमकी देती थी, पर भुवन 'सुलह' कर लेता था और गौरा उसे 'माफ़' कर देती थी। चोटियाँ सिर बाँधे उसका नयी धूप-सा खिला बाल-मुखड़ा भुवन को इतना सुन्दर जान पड़ता था कि वह प्रायः कहता, “तुम्हारा नाम जुगनू है; गौरा भी कोई नाम होता है भला?” और गौरा कहती, 'धत्! जुगनू तो सीली-सड़ी जगह में होते हैं!” या “गौरा तो देवी पार्वती का नाम है, हिमालय की चोटी पर रहती है वह।” भुवन कहता, “नहीं, गौरा सरस्वती का नाम है; वह उजली होती है और उजले कपड़े पहनती है। तुम तो-”फिर सहसा दुष्टता से भर कर, “हाँ, हिडिम्बा हो, हिडिम्बा!”

मगर वह तो बहुत पहले की बात है, उसके बाद कई वर्षों का अन्तराल था इसलिए उसे नहीं भी गिना जा सकता है। अतः कहना चाहिए कि परिचय आरम्भ हुआ 1932 में, जब उसने मैट्रिक के लिए जमकर तैयारी करनी शुरू की। भुवन तब नया-नया एम. एस-सी. कर चुका था, रिसर्च के लिए छात्र-वृत्ति मिलेगी या नहीं यह अनिश्चित था और वह कुछ छोटे-मोटे काम की ताक में था, जिससे मन भी लगा रहे और कुछ आय भी हो। आय की दृष्टि से तो गौरा को पढ़ाने का महत्त्व नहीं था-भुवन ने ही गौरा के पिता का वह प्रस्ताव टाल दिया था-पर मन लगाने के लिए यह अच्छा था; गौरा ने स्वयं उससे पढ़ने की बात उठायी थी और उसका कालेज का रेकार्ड तो उसकी पात्रता का प्रमाण था ही। भुवन ने उसे पढ़ाना आरम्भ कर दिया था, और आय के लिए एक आई.सी.एस. अधिकारी के बिगड़े हुए और पढ़ाई के प्रति उदासीन लड़के की ट्यूशन भी स्वीकार कर ली थी जिससे उसे सवा सौ मासिक मिल जाता था।

गौरा पढ़ने में तेज़ थी। विज्ञान यद्यपि उसके लिये हुए विषयों में गौण ही स्थान रखता था-मैट्रिक का साइंस होता ही क्या है?-पर भुवन को साहित्य आदि में भी यथेष्ट रुचि रही थी और इसलिए उसकी पढ़ाई गौरा के लिए जितनी उपयोगी थी उसके लिए भी उतनी ही रुचिकर। पहले ही दिन तेरह वर्ष की इस लम्बी, कृशतनु, गम्भीर गौरा को देखकर वह थोड़ी देर देखता रहा था, फिर उसने पूछा था, “सुना है, तुमने स्वयं मुझे मास्टर चुना है-क्यों!”

गौरा ने आँखें नीची किये ही सिर हिला दिया था, “हाँ।”

“क्यों? मैं तो बड़ी कस कर पढ़ाई करूँगा-उतनी मेहनत करोगी?”

गौरा ने फिर वैसे ही सिर हिला दिया था।

गम्भीरता को तोड़ने के लिए भुवन ने पूछा था, “और अगर मेरे कान में किलकारी मारी तो?”

एक अवश मुस्कान सहसा उसके चेहरे पर बिखर गयी थी; उसका चेहरा ईषत् लाल हो आया था। उस शब्दहीन खिलखिलाहट में भुवन ने सात-आठ वर्ष पहले की बालिका को पहचान लिया था। फिर तत्काल ही गौरा ने आँचल से मुँह चाँप कर हँसी दबा ली थी, थोड़ी देर बाद पहले-सी गम्भीर मुद्रा बना कर कहा था, “आप हिडिम्बा कहेंगे?”

भुवन ने कुछ पसीज कर कहा था, “नहीं, लेकिन समझौता कर लो कि गौरा पार्वती का नहीं, सरस्वती का नाम है। तभी विद्या आएगी।”

तब से वह परिचय बना ही हुआ था। दो वर्ष बाद गौरा ने मैट्रिक कर लिया था। प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर कालेज में भर्ती हो गयी थी। उसके बाद पढ़ाई तो बन्द हो गयी थी, पर परिचय बढ़ता रहा था, क्योंकि गौरा कालेज में भी जब-तब उससे न केवल विज्ञान बल्कि साहित्य के विषय में बहुत कुछ पूछती रहती थी, और भुवन जब यह कह कर अपनी अपात्रता जताता था कि, “भई, मेरा विषय तो विज्ञान है, वह भी भौतिक विज्ञान, ये बातें तो तुम्हारे प्रोफ़ेसर ही बताएँगे,” तब वह आग्रह करके कहती थी, “इसीलिए तो आप ठीक बताएँगे। उनका विज्ञान अपने अंग्रेजी के प्ऱोफेसर जो विषय है वे लोग किताबों में से बताते हैं आप रुचि से बताते हैं आपकी बात ज्यादा सच होती है और मेरी समझ में जल्दी आ जाती है।” भुवन हँसी में कहता “इसका मतलब है कि विज्ञान पढ़ने तुम उनके पास जाओगी? अच्छी बात है, अब से पूछना, खबरदार मुझसे कभी कोई प्रश्न पूछा जो!” पर साथ ही मन लगा कर उसकी जिज्ञासाओं का उत्तर भी देता। कभी-कभी इसमें स्वयं उसे काफी परिश्रम करना पड़ता; पर वह मानता था कि अध्यापन का श्रेष्ठ सम्बन्ध वही होता है जिसमें अध्यापक भी कुछ सीखता है, और इस परिश्रम में कोताही नहीं करता था। बल्कि इस तरह अपने साहित्य-ज्ञान के विकास में उसे अतिरिक्त आनन्द मिलता था।

गौरा ने विधिवत् संगीत सीखना भी आरम्भ कर दिया था, और कालेज की नाटक आदि अन्य कार्रवाइयों में हिस्सा लेना भी। इसके लिए भी वह बहुधा भुवन से परामर्श लेती; भुवन इन मामलों में बिल्कुल कोरा होने की दुहाई देता तो वह कहती, “और सब भी तो कोरे हैं-आप कुछ ढूँढ़ दीजिए न, या सोच कर बताइए न!” और उसके आग्रह की प्रेरणा से भुवन तरह-तरह की पुस्तकें पढ़ता, खोज करता, अनुमान भिड़ाता और उनकी पुष्टि के लिए फिर और पढ़ता या कभी दूर-दूर के विशेषज्ञों से पत्र-व्यवहार करता। इस प्रकार विभिन्न क्षेत्रों के शोध में, उनके असमान सम्बन्ध में क्रमशः परिवर्तन होता गया था, 'मास्टर जी' से वह क्रमशः 'भुवन मास्टर जी' होकर 'भुवन दा' हो गया था और एक नया, समान प्रीतिकर सख्य भाव उनमें आ गया था।

जाड़ों में एक दिन गौरा ने आकर सहसा कहा, “भुवन दा, आप हमें मालविकाग्नि-मित्र का एक रूपान्तर कर देंगे। बड़े दिनों में हम नाटक खेलना चाहते हैं, और किसी ने सुझाया है।”

भुवन ने अचकचा कर कहा, “क्या?”

“जी। मालविकाग्निमित्र। शायद संस्कृत के प्रोफ़ेसर साहब की राय थी-”

“तुम्हारा दिमाग ख़राब है क्या? मैंने तो पढ़ा भी नहीं-इतना जानता हूँ कि कालिदास का नाटक है; मालविका के नृत्य का एक चित्र भी कहीं देखा है, बस”

“तो क्या हुआ, पढ़ लीजिए न? कितनी देर लगती है? कहानी तो मैं अभी बता देती हूँ-”

“यह खूब रही। अरे भई, एडैप्टेशन किसी जानकार का काम है, मैं कैसे कर सकता हूँ? और तुम क्या मालविका का पार्ट करोगी? नाचना आता है?”

गौरा कुछ सकपका गयी। फिर बोली, “सीखना तो शुरू किया है।”

“अच्छा! तब तो और मुसीबत हुई। कल को मुझ से त-त-थेई और त्राम्-त्राम् के मतलब पूछोगी-”

“नहीं भुवन दा, ये तो कथक बोल हैं, मालविका तो भरत नाट्य करेगी।”

“हाँ तो। पर उसके बोल कैसे होते हैं यह तो मुझे नहीं मालूम न! मेरे लिए तो त्राम्-त्राम् ही है। यानी त्राहि माम्।”

“आप पढ़ तो लीजिए न। मैं साथ लायी हूँ। संस्कृत भी, एक अंग्रेजी अनुवाद भी।”

“बाप रे! तुम्हारी एफ़्रिशेंसी तो वैज्ञानिक की है। काश कि बुद्धि भी वैसी होती। हो तुम निरी-”

“देखिए भुवन दा! चिढ़ाइए मत! नहीं तो मैं भी वैसा ही जवाब दूँगी-”

सहसा वह सकपका कर चुप हो गयी और उसका चेहरा तमतमा गया, क्योंकि साथ के दूसरे कमरे से एक व्यक्ति ने बाहर निकल कर कहा, “भुवन, मेरा इण्टरप्शन माफ़ करना; मैं थोड़ी देर बाहर जा रहा हूँ।” और फिर गौरा की ओर तनिक कौतुक-भरी दृष्टि से देखकर फिर भुवन की ओर मुड़ कर पलकें उठायी, मानो कहता हो, “यह कौन हैं, परिचय-”

भुवन ने कहा, “ओह, गौरा जी, यह हैं मेरे मित्र और पुराने सहपाठी चन्द्रमाधव, विलायत जाने वाले हैं, आज ही यहाँ आये हैं। चन्द्र यह हैं गौरा जी, कालेज में पढ़ती हैं-पहले कुछ दिन मैंने भी पढ़ाया था-”

“तुम्हारी पढ़ाई के लक्षण तो देख ही रहा हूँ!” चन्द्र ने दबी दुष्टता के साथ कहा, “मिस गौरा, आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई; इसलिए और भी अधिक कि भुवन के परिचितों में कोई ऐसा भी है जिसे साहित्यिक रुचि है-भुवन तो विज्ञान में ग़र्क हो गया है।”

गौरा ने कुछ दूर से कहा, “मास्टर साहब मैंने साहित्य भी पढ़ा है।”

“सो तो है, सो तो है। साहित्य ही क्यों, देखता हूँ कि मेरे साथ के बाद से उन्हें नाटक, संगीत, नृत्य बहुत-से विषयों में रुचि हो गयी है, बल्कि पहुँच भी रखते हैं अब-”

भुवन ने कहा, “रहने दो चन्द्र, गौरा जी के सामने उनके मास्टर का मज़ाक बनाना क्या उचित है?”

“आइ एम सॉरी, आइ बेग योर पार्डन, गौरा जी। मुझे इजाज़त दीजिए-ज़रा बाहर जाना है। मुझे आशा है आपका नाटक सफल होगा। मैं तो समझता हूँ, भुवन उसमें अभिनय भी करे तो-”

भुवन ने थोड़ा घुड़क कर कहा, “फिर?”

चन्द्र चला गया तो गौरा ने पूछा, “आपने बताया क्यों नहीं?”

भुवन ने हँस कर पूछा, “क्या?”

“आप बहुत बुरे हैं। मुझे क्या मालूम था कि दूसरे कमरे में वह हैं, नहीं तो मैं कभी ऐसी बात न करती! आप भी-”

“तो हुआ क्या? ऐसी कौन-सी बात थी?”

“नहीं, मेरे मास्टर जी का मज़ाक बनानेवाला कोई कौन होता है? और मैंने ही उसमें मदद दी-”

भुवन ज़ोर से हँस दिया। बोला, “अच्छा, मालविकाग्निमित्र छोड़ जाओ, पढ़ डालूँगा। कल फिर सलाह कर लेंगे।”

दूसरे दिन गौरा ने आकर बड़े अदब से नमस्कार किया। फिर चारों ओर एक नज़र दौड़ा कर कहा, “भुवन मास्टर साहब, आपने पुस्तक पढ़ ली? अब बताइए”

भुवन ने हँस कर कहा, “इतने तकल्लुफ़ की ज़रूरत नहीं, गौरा, चन्द्रमाधव बाहर गया है।”

“हाँ तो भुवन दा, आपकी क्या राय है?”

“मेरी राय तो यही है कि यह नाटक तुम न खेलो। क्यों नहीं कोई आधुनिक हिन्दी नाटक लेती?”

“जैसे?”

“प्रसाद का कोई छोटा नाटक, “राज्यश्री' या 'ध्रुवस्वामिनी'-”

“ये मैंने नहीं पढ़े-”

भुवन ने हँस कर कहा, “तो यह थी एफ़िशेंसी की पोल! खुल गयी न?”

गौरा ने थोड़ा रूठकर कहा, “सर्वज्ञ तो सिर्फ़ वैज्ञानिक होता है। फिर मैं वैसे ही अनपढ़ हूँ। क्या करूँ, आपने कुछ पढ़ाया ही नहीं-”

“ठीक है। तो लो, अब प्रायश्चित्त करता हूँ। तुम कल तक दोनों नाटक पढ़ कर आओ-”

“और अगर उनमें भी कुछ हेर-फेर करना पड़ा तो? आप करेंगे न?”

“देखा जाएगा,” भुवन हँसा, “तुम्हारी बात तो ऐसी है मानो नाटक से उसका एडैप्टेशन ही ज्यादा महत्त्व का हो।”

“हाँ, मेरे काम में आप का भाग ज़रूरी है, भुवन दा।” कहकर गौरा कुछ रुक गयी। “आपके मित्र तो कहते थे, आप अभिनय भी कर सकते हैं, तो-”

“एक वह पागल है और एक तुम!” भुवन कुछ और कहने जा रहा था पर रुक गया। “पुस्तकें तुम्हें मिल जायेंगी न?”

“ज़रूर।”

बाहर शब्द सुनाई दिया। “लो, चन्द्रमाधव भी आ गये। नाटकों के बारे में तो इनसे पूछो-यह साहित्य और कला के विद्यार्थी हैं-”

“हलो, गौरा जी। क्या बात है-आपके अभिनय की क्या बात ठहरी? भुवन तो रात सोये नहीं, आपकी दी हुई पुस्तकें पढ़ते रहे।”

गौरा जल्दी चली गयी। चन्द्र ने कहा, “यार, अपनी इस विद्यार्थिन की कुछ बात तो बताओ। लड़की तो तेज़ मालूम होती है, तुम्हारे साथ कैसे उलझ गयी?”

भुवन ने गम्भीर होकर कहा, “हाँ, मैंने दो वर्ष उसे पढ़ाया था। अच्छी पास हुई है। और उसमें जीवन है, जीवन की लालसा है-ऐसी जो उसे कई दिशाओं में अन्वेषण की प्रेरणा देती है। पढ़ने में बहुत अच्छी है, लेकिन सोचता हूँ, आगे क्या? तो खेद होता है कि हमारे देश में लड़की के लिए सिवाय मास्टरी के या इधर कुछ-कुछ डाक्टरी के और कोई कैरियर ही खुला नहीं है। और ये दोनों गौरा के लिए नहीं हैं। उसका व्यक्तित्व बहुत कोमल भी है, बहुत सम्पन्न भी, उसकी अभिव्यक्ति इनमें नहीं है। वह कोई रचनात्मक एक्सप्रेशन चाहता है, न जाने क्या।”

“क्यों? भारतीय नारी का जो सबसे पहला कैरियर है-गृहस्थी-वह तुम ठीक नहीं समझते?”

“उसे बे-ठीक कैसे समझा जा सकता है? और एक प्रकार की रचनात्मक अभिव्यक्ति उसमें भी हो सकती है, मैं मानता हूँ पर-”

“पर गौरा के लिए तुम वह ठीक नहीं समझते।”

“नहीं यह नहीं, मैं समझता हूँ कि उस दृष्टि से तो वह आदमी बहुत भाग्यवान् होगा जिसे गौरा जैसी पत्नी मिलेगी। पर सोच यह भी तो सकता हूँ कि उसे पाकर गौरा भी भाग्यवती होगी या नहीं? और वैसा कौन होगा, यह सोच नहीं सकता।

चन्द्र ने चिढ़ाते हुए कहा, “यह सोच गौरा पर छोड़ देना क्या उचित न होगा?”

“आफ़ कोर्स, आफ़ कोर्स।” भुवन थोड़ा-सा झेंप गया। “हर मामले में सलाह देते-देते कुछ आदत पड़ गयी है कि सब सवालों के जवाब पहले से सोच रखूँ?” वह हँस दिया।

“तो क्या यह सवाल जल्दी उठने वाला है?”

“अभी तो कोई लक्षण नहीं है। लेकिन क्या मालूम। लड़की जब हुई परायी थाती, तब कभी भी सौंपने का सवाल उठ सकता है; सौंप देने का नहीं तो कम-से-कम बद देने का तो ज़रूर-”

“हूँ।”

भुवन ने विषय बदलने को कहा, “सुनो, चन्द्र तुम तो नाटक-वाटक खेलते रहे हो; तुम क्यों नहीं उसे कुछ सलाह देते? 'राज्यश्री' या 'ध्रुवस्वामिनी' का एडैप्टेशन कर दो न-”

“अरे, हिन्दी! राम-राम। हिन्दी नाटक मैं नहीं छूने का-”

“यही तो मुश्किल है। कोई छूता नहीं, हर साल सब कालेज-वालेज अंग्रेजी नाटक खेलते हैं; हिन्दी में भी अंग्रेजी नाटक अनुवाद कर के-”

“सो तो होगा। वे खेले जा सकते हैं, खेलने के लिए लिखे जाते हैं। हिन्दी नाटक तो पढ़ना भी टार्चर है। एक तो ज़बान ही ऐसी होती है-”

“लेकिन तुम अगर रूसी के अंग्रेजी अनुवाद के हिन्दी अनुवाद की भाषा अपने अनुकूल बनाकर उसे खेल सकते हो, तो क्या सीधे हिन्दी की भाषा नहीं ठीक कर सकते?” कालेज में चन्द्रमाधव ने चेखोव के 'चेरी आर्चड' के अभिनय में भाग लिया था, उसी की ओर भुवन का इशारा था।

“यही तो बात है। रूसी दूर है। उनके लिखे को उलट-पलट लो, कोई कुछ नहीं कहेगा। लेकिन अपने देश के लेखक का एक वाक्य इधर-उधर कर तो लो-जान को आ जाएँगे सब। हमारे यहाँ कोई नाटक थोड़े ही लिखता है? सब शास्तर लिखा जाता है; सब लेखक ऋषि होते हैं-'आर्षवाक्यं प्रमाणम्', और तुम झख मारते रहो । शेक्सपियर भी स्टेज पर जाकर एक्टरों से सीख कर अपने डायलाग बदलता था, लेकिन यहाँ सब सीखे-सिखाये कोख से निकलते हैं।”

“तुम्हारी बात में सार है, मैं मानता हूँ। लेकिन दूसरा पक्ष भी कुछ हो सकता है। एडैप्ट करके अपने देश-काल में ले आना हमेशा ठीक नहीं होता; खुद भी दूसरे देश-काल में जा सकना चाहिए। अगर आज 'शाकुन्तल' ज्यों का त्यों स्वाभाविक नहीं, तो ज़रूरी नहीं है कि शकुन्तला को ड्राइंगरूम हिरोइन बनाया जाये; हमीं क्यों न कण्व के आश्रम में जा सकें? ग्रीक नाटक तक तो हम चले जाते हैं-”

“वह दूसरी बात है। लेकिन हमारे देश में न स्टेज हैं, न एक्टर हैं, न नाटक हैं, फिर नाटक-लेखक ऐंठे किस बात पर रहते हैं? सब कुछ हमीं को सीखना है, उन्हें कुछ नहीं सीखना है?”

“ऐंठ का जवाब ऐंठ हो भी सकता है, पर उससे स्थिति नहीं बदलती। हिन्दी नाटक लेकर कुछ करके दिखाओगे, तभी तो आगे कुछ होगा; नहीं तो आगे भी यही स्थिति रहेगी-न स्टेज, न एक्टर, न नाटक।”

“हाँ, तो मेरी ओर से रहे। खुदाई खिदमतगारी का शौक तुम्हें है, तुम करो। मैं तो दुनिया को जैसी है वैसी लेकर चलता हूँ।”

भुवन ने कहा, “तो जाने दो।” बात समाप्त हो गयी।

लेकिन शाम को चन्द्रमाधव घूमने गया, तो दोनों नाटक लेता आया। रात में पढ़ डाले, फिर पेंसिल लेकर बहुत से निशान लगाये, हाशिये में नोट लिखे, क्या अंश छोड़ा जा सकता है, क्या हेर-फेर हो सकता है, वाचिक में क्या परिवर्तन अपेक्षित है, इत्यादि। बीच-बीच में शब्दों पर वह झल्लाता, फिर रेखांकित करके हाशिये में दूसरे शब्द या पद लिख देता जिनसे वार्तालाप अधिक सहज और स्वाभाविक बन सके।

× × ×

दूसरे दिन गौरा आयी तो चन्द्रमाधव मौजूद था। दोनों को नमस्कार करके गौरा ने कहा, “मास्टर साहब, मैंने नाटक पढ़ लिये, और भी दो-एक लड़कियों से सलाह कर ली। हम 'ध्रुवस्वामिनी' खेलेंगे, लेकिन-”

“लेकिन यह कि मुझे मेहनत करनी होगी; यही न?”

“हाँ।”

यहाँ पर चन्द्रमाधव ने कहा, “मेरी बात टाँग अड़ाना न समझी जाये, तो निवेदन करूँ कि मैंने 'ध्रुवस्वामिनी' पर कुछ नोट लिए हैं अगर वे कुछ काम आ सकें”

भुवन ने कुछ विस्मय से भँवें ऊँची की, लेकिन तुरत सँभल कर बोला, “गुड फ़ेलो! लाओ देखें-”

चन्द्रमाधव उठकर भीतर गया तो गौरा ने घने उलाहने से भरी आँखें भुवन पर टिका दीं, और एकटक उसे देखती रही। वह चितवन भुवन तक पहुँची, पर उसने जान-बूझ कर उसे न देख कर सम स्वर से कहा, “लो, तुम्हारा काम आसान हो गया।”

“मेरा क्या, आपका कहिए। आपने क्यों-”

वाक्य अधूरा रह गया। चन्द्रमाधव पुस्तक ले आया, भुवन ने पन्ने उलट-पलट कर देखे और कहा, “ठीक तो है।” फिर पुस्तक गौरा को दे दी। गौरा ने अनिच्छुक भाव से उसे लिया, इधर-उधर देखा; फिर मानो कर्त्तव्य का ध्यान कर सधे शब्दों में कहा, “आपके मित्र ने बहुत परिश्रम किया है, मैं उनकी बड़ी कृतज्ञ हूँ।” फिर चन्द्रमाधव की ओर मुड़कर कहा, “आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। बल्कि मास्टर साहब की ओर से भी, जिनका कष्ट बचाने के लिए आपको मेहनत करनी पड़ी।” कहते-कहते उसने कनखियों से भुवन की ओर देखा, कि यह चोट ठीक बैठी है कि नहीं।

चन्द्रमाधव ने सफ़ेद झूठ बोलते हुए कहा, “नहीं मिस गौरा, मुझे धन्यवाद देने की कोई बात नहीं है-मास्टर साहब की ओर से भी नहीं, क्योंकि ये नोट तो मेरे पहले के हैं। पिछले साल एक बार हमने अभिनय करने की सोची थी, तब के। तब स्टेज की दृष्टि से भी विचार किया था-”

भुवन ने भँवें उठा कर स्थिर दृष्टि से चन्द्रमाधव को देखा, एक बहुत दबी मुस्कान उसके ओठों की कोर में ही खो गयी। फिर उसने गौरा की ओर मुड़ कर कहा, “लीजिए, मेरा एलिबाई पक्का है न? मेरे लिए चन्द्र ने वह नहीं किया, अपने ही लिए किया है।”

गौरा ने आँखें सकोच कर उसकी ओर क्षण-भर देखा, मानो कहती हो, “जाइए!” फिर चन्द्रमाधव से पूछा, “तो आपने पोशाकों की बात भी सोची होगी?”

“ज़रूर-”

“अच्छा, हमारी ड्रेस रिहर्सल तक अगर आप यहाँ ठहरें तो एक बार आइएगा।” फिर भुवन की ओर मुड़कर, “मास्टर साहब, उस दिन आप इन्हें भी साथ लाइएगा, मैं कह दूँगी-”

“यानी?”

“यानी यह कि निर्देशन आप करेंगे-आपको रोज़ आना पड़ेगा।” गौरा ने स्थिर दृष्टि से उसे देखा, फिर कहा, “हाँ-आँ!”

भुवन हँस दिया। चन्द्र ने कहा, “मैं अधिक तो ठहर नहीं रहा, अभी एक-आध दिन आ सकता हूँ, फिर पीछे मास्टर साहब निर्देशन करते ही रहेंगे।”

“अच्छा देखिए, तय हो जाये-”

गौरा चली गयी तो चन्द्र ने कहा, “अब बताओ, कास्ट्यूम का क्या होगा?”

भुवन ने कहा, “तुम जानो; तुमने तो पहले से सोच रखा है न, पिछले साल से?”

“मैंने तुम्हारी इज्ज़त बचा ली है। अब-”

“ओह, तो इज्ज़त के बदले इज्ज़त चाहिए। लेकिन मैंने तो ऐसा सौदा नहीं किया?”

“मैं नहीं जानता; मैं तुम पर टाल दूँगा।”

दो-एक दिन चन्द्रमाधव कालेज जाकर गौरा और अन्य अभिनेताओं से मिल आया। इधर-उधर की कई बातें उसने की, पोशाक का प्रश्न उठने पर उसने कहा कि उसने अपने नोट सब भुवन को दे दिये हैं, उनसे पूरा निर्देश मिल जाएगा।

चन्द्रमाधव को स्टेशन छोड़ने भुवन के साथ गौरा भी गयी थी, उसकी दो-एक और सहपाठिनियाँ भी। चन्द्र ने कहा, “गौरा जी, आप के नाटक के कोई फ़ोटो लिये जायें तो एक-आध मुझे भी भेजिएगा, मुझे बहुत दिलचस्पी रहेगी।”

गौरा ने कहा, “मास्टर साहब अगर खिंचवा देंगे तो होंगे। तब आप उन्ही से मँगा भी लीजिएगा।”

चन्द्र नहीं समझ सका इसमें केवल भुवन के प्रति सहज सम्मान है, या भुवन को ही कोई अस्पष्ट उलाहना; या कि चन्द्र के आत्मीयता-प्रकाशन की ही परोक्ष अवहेलना-'आपका परिचय मुझसे नहीं, भुवन से है, उन्हीं की मारफत मैं...'। उसने कहा, “विलायत से मैं पत्र लिखूँ तो उत्तर देंगी न?” फिर गौरा के चेहरे को देख कर उसके कुछ उत्तर देने से पहले ही उसने जोड़ दिया, “मेरे मित्र बहुत थोड़े हैं; और भुवन मास्टर साहब तो शायद पत्र लिखना ही गवारा न करें; उनकी ओर से ही आप-”

गौरा ने कहा, “अच्छा; मास्टर साहब को भी मैं कोंच दिया करूँगी-” और हँस दी।

“थैंक यू।”

लेकिन भुवन को कोंचने के अवसर गौरा को अधिक न मिले; अगले सेशन में भुवन को रिसर्च के लिए एक वृत्ति मिल गयी और वह बंगलोर चला गया। वहाँ दो वर्ष में अपना प्रायोगिक काम पूरा करके उसने फिर नौकरी कर ली : थीसिस वह वहाँ से भी लिख कर भेज सकेगा इसकी सुविधा उसे थी। छः महीने का काम उसके लिए अपेक्षित था : उसके बाद थीसिस तो अगले वर्ष ही जायेगा, इसलिए काम कर लेना ही अच्छा है...गौरा से पत्र-व्यवहार भी उसका बहुत अनियमित था; गौरा के पत्रों में भी उस हठीले उत्साह का स्थान एक गाम्भीर्य ले रहा था और भुवन तो यों ही कम लिखता था। उसकी धारणा थी कि अच्छा पत्र-व्यवहार कभी नियमित हो ही नहीं सकता; जीवन में जब-तब ही पत्र लिखे जायें तभी अच्छे होते हैं।

चन्द्रमाधव से गौरा का पत्र-व्यवहार भी अनियमित चलता रहा। चन्द्र उसे जब-तब पुस्तकें या चित्र भेज देता; पत्र में ऐसे स्थलों के वर्णन भी जिनमें गौरा को दिलचस्पी हो सके-इंग्लैण्ड में शेक्सपियर के घर का, ताल-प्रदेश का जहाँ वर्डस्वर्थ और कोलरिज की काव्य-प्रतिभा मुखरित हुई, फ्रांस के ह्यूगो के स्मारक का, नोत्रदाम का, लूव्र संग्रहालय का; जर्मनी में गयटे के घर का, ओबरामरगाउ के ईसा के जीवन-नाटक का...दो-एक अपने फोटो भी उसने भेजे थे, पहले अव्यक्त आशा में कि गौरा भी उसे अपना फोटो भेजेगी, फिर इस स्पष्ट प्रार्थना के साथ। गौरा ने अपना कोई फोटो नहीं भेजा था, पर दो-तीन पत्रों के आग्रह के बाद 'ध्रुवस्वामिनी' का एक ग्रुप भेज दिया था जिसमें अभिनेतृ-समुदाय के साथ भुवन भी था। पत्रों में वह प्रायः भुवन के समाचार ही अधिक देती; अपने विषय में कम लिखती या लिखती तो कालेज की 'एक्टिविटीज़' का वर्णन कर देती। चन्द्र के पत्रों में व्यक्तिगत अधिक होता, विदेशों में मिले लोगों और विशेषकर स्त्रियों की बातें होती, और निरन्तर वहाँ की स्वाधीनता और यहाँ के बन्धनों की तुलना और उस पर एक आक्रोश का स्वर उस के पत्रों में पाया जाता। गौरा ने एक बार लिखा, “स्वाधीनता केवल सामाजिक गुण नहीं है। वह एक दृष्टिकोण है, व्यक्ति के मानस की एक प्रवृत्ति है। हम कहते हैं कि समाज हमें स्वाधीनता नहीं देता; पर समाज दे कैसे? हमीं तो अपने दृष्टिकोण से समाज बनाते हैं। मैं अपने-आपको बद्ध नहीं मानती हूँ, और स्वाधीनता के लिए अपने मन को ट्रेन करती हूँ। सफलता की बात नहीं जानती, उतनी शक्ति मेरे भीतर होगी तो क्यों नहीं होऊँगी सफल? और मैं सोचती हूँ कि सब लोग यत्नपूर्वक अपने को स्वाधीनता के लिए ट्रेन करें तो शायद हमारा समाज भी स्वाधीन हो सके।”

चन्द्र ने उत्तर में उसे बधाई देते हुए लिखा था, “आप ऐसा मान सकती हैं, और ट्रेनिंग की सुविधा पा सकती हैं, क्योंकि आपका जीवन संरक्षित है, उसे छत्रछाया मिली है। उनकी सोचिए जो जीवन के अथाह सागर पर फेंक दिये जाते हैं एक खाली टीन के डिब्बे की तरह : क्या वे भी स्वाधीन हैं, अपने को ट्रेन कर सकते हैं? जीवन वैसा ही है-और हम सब बह रहे हैं, बह रहे हैं, खाली डिब्बा ऊब-डूब करता है तो समझता है कि मैं स्वाधीन हूँ, और सागर पर सवार हूँ, पर कहाँ छोर है, कब वह जा लगेगा, या कि राह में डूब जाएगा-क्या वह जानता है? या उसके बारे में कुछ कर सकता है? नहीं गौरा जी, हमें जिसको जहाँ जितना थोड़ा-सा सुख मिलता है, उतना ही हमें आतुर और कृतज्ञ हाथों ले लेना चाहिए-उसी का नाम स्वाधीनता है, बाकी सब संघर्ष है, संघर्ष, अन्तहीन आशाहीन संघर्ष...”

और गौरा ने : “शायद हम अलग-अलग दुनिया में रहते हैं, अलग-अलग मुहावरे बोलते हैं। आपको यूरोप के समकालीन निराशावाद ने पकड़ लिया है-है न? इस यूरोप के लिए आशा नहीं है। यह तो मरेगा ही। पर क्या एक दूसरा यूरोप नहीं उठेगा? नहीं, ऊब-डूब करते डिब्बों का यूरोप नहीं, फिर एक स्वाधीन यूरोप, लेकिन जिसकी स्वाधीनता नये और दृढ़तर पायों पर टिकी हो? मैं तो समझती हूँ, हम यहाँ हिन्दुस्तान में भी न केवल अपनी वरन् यूरोप की भी स्वाधीनता का उद्योग कर सकते हैं : हर कोई हर जगह सारे विश्व की स्वाधीनता की लड़ाई लड़ सकता है क्योंकि अविभाजित और अविभाज्य स्वाधीनता ही स्वाधीनता है, जब तक वह नहीं तब तक स्वाधीनता होकर भी अधूरी और अरक्षित है।”

दो-एक ऐसे पत्रों के बाद चन्द्रमाधव विषय को छोड़ देता था और फिर बिलकुल व्यक्तिगत बातों पर आ जाता था, उसमें से फिर कोई साधारण सूत्र उठाकर गौरा दूर हट जाती थी।

जो डूबने-उतराने को मानता है, वह डूबता-उतराता है, जो स्वाधीनता के लिए साधना करता है, वह-

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।

   तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।

× × ×

मैत्री, सख्य, प्रेम-इनका विकास धीरे-धीरे होता है ऐसा हम मानते हैं; 'प्रथम दर्शन से ही प्रेम' की सम्भावना स्वीकार कर लेने से भी इसमें कोई अन्तर नहीं आता पर धीरे-धीरे होता हुआ भी वह सम गति से बढ़ने वाला विकास नहीं होता, सीढ़ियों की तरह बढ़ने वाली उसकी गति होती है, क्रमशः नये-नये उच्चतर स्तर पर पहुँचने वाली। कली का प्रस्फुटन उसकी ठीक उपमा नहीं है, जिसका क्रम-विकास हम अनुक्षण देख सकें : धीरे-धीरे रंग भरता है, पंखुड़ियाँ खिलती हैं, सौरभ संचित होता है और डोलती हवाएँ रूप को निखार देती जाती हैं। ठीक उपमा शायद साँझ का आकाश है : एक क्षण सूना, कि सहसा हम देखते हैं, अरे, वह तारा! और जब तक हम चौंक कर सोचें कि यह हमने क्षण भर पहले क्यों न देखा-क्या तब नहीं था? तब तक इधर-उधर, आगे, ऊपर कितने ही तारे खिल आयें, तारे ही नहीं, राशि-राशि नक्षत्र-मण्डल, धूमिल उल्का-कुल, मुक्त-प्रवाहिनी नभ-पयस्विनी-अरे, आकाश सूना कहाँ है, यह तो भरा हुआ है रहस्यों से जो हमारे आगे उद्घाटित हैं...प्यार भी ऐसा ही है; एक समोन्नत ढलान नहीं, परिचिति के, आध्यात्मिक संस्पर्श के नये-नये स्तरों का उन्मेष...उसकी गति तीव्र हो या मन्द, प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, वांछित हो या वांछातीत। आकाश चन्दोवा नहीं है कि चाहे तो तान दें, वह है तो है, और है तो तारों-भरा है, नहीं है तो शून्य, शून्य ही है जो सब-कुछ को धारण करता हुआ रिक्त बना रहता है...

गौरा से भुवन का चौदह वर्ष का-या कि सात-आठ वर्ष का-परिचय भी ऐसा ही था। इसे लम्बे अन्तराल के बाद जो नया परिचय हुआ था, वह पहले परिचय से बिल्कुल भिन्न स्तर पर था; दूसरे स्तर पर वह सम गति से चल रहा था कि सहसा एक झोंके से वह एक स्तर और उठा-या गहरे में चला गया।

भुवन को कालेज की नौकरी करते एक वर्ष हुआ था। थीसिस भी उसने भेज दिया था, वर्ष-भर के अन्दर उसे परिणाम की सूचना मिलेगी और, जैसा कि उसे पूरा विश्वास है, अगर उसे डाक्टर की उपाधि मिल जाएगी तो कालेज में उन्नति तो होगी ही, आगे काम की सुविधा भी मिलेगी, शायद विश्वविद्यालय में भी कुछ कर सके। एक स्थिरता उसके मानसिक जीवन में आ गयी थी जो गतिहीनता नहीं थी, सधी हुई, निर्दिष्ट गति की सूचक थी।

गौरा ने बी.ए. की परीक्षा दे दी थी, साथ ही संगीत की एक परीक्षा भी दी थी। भुवन ने उसे एक उत्साह-वर्द्धक पत्र लिखा था, और लिखा था, कि वह आशा करता है कि गौरा अच्छी तरह पास होगी क्योंकि वह चाहता है कि गौरा जो कुछ करे अच्छी तरह करे; पर साथ ही उसकी यह भी धारणा है कि गौरा में जो कलात्मक संवेदना है उसकी अभिव्यक्ति और निष्पत्ति बी.ए.-एम.ए. की डिगरियों में नहीं, रचनात्मक कर्म में है, अपनी प्रतिभा का उपयोग न करना, प्रस्फुटित होने का मार्ग न देना, उसे जीवनानन्द की शोध में न लगाना निष्क्रिय आत्म-हनन है, अन्धकार को आत्म-समर्पण है जबकि वह गौरा को हमेशा एक उजली और दौड़ती हुई धूप के रूप में ही देखता है : पहाड़ पर बदली में से फूटी हुई किरण जैसे धन-खेतों पर लहराती दौड़ती चली जाती है, वैसी ही।

उसके पत्र के उत्तर में देर हुई थी। जब आया था, तब जो आया था, उसके लिए वह बिलकुल तैयार नहीं था। उसमें उसके पत्र की किसी बात का कोई उल्लेख नहीं था; बहुत छोटे पत्र में उतना ही लिखा था :

भुवन दा,

आप क्या दो-चार दिन के लिए भी नहीं आ सकते! मुझे आगे मार्ग नहीं दीखता है, और मैं अँधेरे में डूबना नहीं चाहती, नहीं चाहती! जल्दी आइये।

आपकी

गौरा

भुवन की समझ में कुछ भी न आया। उसे ध्यान आया, गौरा का परीक्षा-फल निकल गया होगा : गौरा ने लिखा क्यों नहीं? कहीं फेल तो नहीं हो गयी-पर असम्भव! उसने रजिस्ट्रार को जवाबी तार देकर परीक्षा-फल माँगा; उसी रात उत्तर आ गया : “प्रथम श्रेणी, दूसरा स्थान।” हाँ, यही हो सकता था, फ़ेल होने की कल्पना भी क्यों उसके मन में आयी? पर बात क्या है? गौरा को वह क्या उत्तर दे? क्या चला जाये? लेकिन क्यों- पहले जाने तो कि बात क्या है?

और तब, सहसा, आकाश में एक तारा फूट आया था। तो गौरा के विवाह का प्रश्न उठा है। आख़िर उठा ही...और वह आगे मार्ग नहीं देख पा रही है, और भुवन...हाँ, भुवन उसे जानता है, बहुत निकट से जानता है-आज अगर गौरा जीवन के इतने बड़े निर्णय के सामने उसकी राय पूछ रही है और उसी पर चल पड़ेगी, इतना बड़ा दायित्व उस पर थोप रही है तो क्यों? क्योंकि उसने पहले देखा है जो भुवन को पहले देखना चाहिए था : कि भुवन उसे, उसकी सम्भावनाओं को, उससे भी अच्छी तरह पहचानता है।

और आकाश तारों से भर गया था। भुवन तटस्थ है, पर गौरा के भविष्य में उसे गहरी दिलचस्पी है; वह क्या करती है या नहीं करती है-उसका क्या होता है-यह भुवन के लिए अत्यन्त महत्त्व रखता है...क्यों? क्योंकि वह उसकी भूतपूर्व शिष्या है? नहीं, यद्यपि हाँ, वह भी-उस नाते वह किसी हद तक उसके भविष्य का उत्तरदायी है...पर मुख्यतया इसलिए कि वह कुछ है जो जीवन से भुवन ने पाया है और जिसके सहारे उसने स्वयं अपने को अधिक पाया है...सहसा उसका अन्तर गौरा के प्रति स्नेह ही नहीं, एक अद्भुत कृतज्ञता से द्रवित हो आया। 'अच्छा अध्यापन वही है, जिसमें अध्यापक भी सीखता जाये' इतना ही नहीं, वह स्थायी सम्बन्ध है जिसका आलोक भविष्य में भी दोनों का मार्ग उज्ज्वल करता है...

भुवन ने गौरा को लिखा :

गौरा,

तुम्हारा पत्र मिला है। तुम्हारे स्नेह का दावा मुझ पर सदैव रहा है; पर इतनी दूर से तुम सहसा बिना कारण बताये बुला भेजोगी, यह नहीं सोचा था। मेरे पत्र की किसी बात का उत्तर तुमने नहीं दिया; और परीक्षा-फल तक नहीं सूचित किया-क्या मैंने कभी कल्पना की थी कि तुम्हारा परीक्षा-फल रजिस्ट्रार को तार देकर मँगाना पड़ेगा? पर तुम्हारे कारण न देने से ही शायद मैं कारण का ठीक-ठीक अनुमान लगा सका हूँ। और तुम्हारे मौन से मुझे आलोक मिला है, शक्ति मिली है-जिसके सहारे मैं दो-एक बातें लिखने बैठ गया हूँ जो कदाचित् तुम्हारे कुछ काम आवें।

गौरा, कोई किसी के जीवन का निर्देशन करे, यह मैं सदा से ग़लत मानता आया हूँ तुम जानती हो। दिशा-निर्देशन भीतर का आलोक ही कर सकता है; वही स्वाधीन नैतिक जीवन है, बाकी सब गुलामी है। दूसरे यही कर सकते हैं कि उस आलोक को अधिक द्युतिमान बनाने में भरसक सहायता दें। वही मैंने जब-तब करना चाहा है, और उस प्रयत्न में स्वयं भी आलोक पा सका हूँ, यह मैं कह ही चुका। तुम्हारे भीतर स्वयं तीव्र संवेदना के साथ मानो एक बोध भी रहा है जो नीति का मूल है; तुम्हें मैं क्या निर्देश देता?

अभी किस प्रश्न को लेकर तुम चिन्तित हो, यह शायद मैं समझ सका हूँ। पर उस प्रश्न में सहसा इतनी चिन्त्य तात्कालिकता क्यों आ गयी कि तुमने मुझे बुला भेजा, यह तुम्हारी ओर से किसी सूचना की अनुपस्थिति में कैसे जानूँ? यह प्रश्न आगे-पीछे उठता ही; मैं समझता हूँ कि परीक्षा-फल के साथ-साथ ही भविष्य-निर्णय का प्रश्न तुम्हारे माता-पिता के सामने उठा होगा। यह भी हो सकता है कि उन्होंने पहले से कुछ सोच रखा हो-चाहे कह भी रखा हो-और अब, जब उनकी समझ में तुम्हारी शिक्षा पूरी हो गयी और वय भी हो गयी, तब तुम्हें पूछा या बताया हो। उन पर मेरी श्रद्धा है और मैं समझता हूँ कि तुम्हारा अहित उनसे नहीं होगा; इतना ही नहीं, मैं यह भी समझता हूँ कि तुम्हारे हिताहित के विषय में तुम्हारी धारणा को वे अमान्य नहीं करेंगे-उससे क्लेश होगा तब भी नहीं। एक बार तुम्हारे पिता ने मुझसे कहा था : “सन्तान को पढ़ा-लिखा कर फिर अपनी इच्छा पर चलाना चाहने का मतलब है स्वयं अपनी दी हुई शिक्षा-दीक्षा को अमान्य करना, अपने को अमान्य करना; क्योंकि बीस बरस में माँ-बाप सन्तान को स्वतन्त्र विचार करना भी न सिखा सके तो उन्होंने क्या सिखाया?” जो व्यक्ति ऐसी बात मान सकता है, उसके विचार-परिपाटी के बुनियादी मान ठीक है, और मुझे विश्वास है कि वह चाहे वचन-बद्ध भी हो चुके हों-जो मेरी समझ में न हुए होंगे-उनसे साफ़-साफ़ बात करना शुभ परिणाम देगा।

पर यह बाहर की बात है। तुम्हारे भीतर? यहाँ कुछ कहते दोहरा संकोच होता है, फिर भी कुछ कहूँगा ही : हाँ, इसे तुम मेरा मत ही समझो, वह भी पूर्वग्रह-दूषित मत, उससे अधिक कुछ नहीं। आगे-पीछे इस प्रश्न का सामना करना ही होता है; और जहाँ तक निरे सिद्धान्त का प्रश्न है, मैं मानता हूँ कि जब तक कोई स्पष्टतया मनोवैज्ञानिक 'केस' न हो विवाह सहज धर्म है और है व्यक्ति की प्रगति और उत्तम अभिव्यक्ति की एक स्वाभाविक सीढ़ी। लेकिन सिद्धान्त के प्रतिपादन से ही प्रश्न का उत्तर नहीं हो जाता; व्यक्तित्व के प्रश्न के आगे व्यक्ति का जो प्रश्न है, वह बना रहता है। उसके विषय में यह कह सकता हूँ कि व्यक्ति का स्वतन्त्र विकास जब तक पूरा नहीं हो जाता, तब तक उसे इकाई से बाहर प्रसृत करने का प्रश्न नहीं उठता, वह प्रश्न तभी उठना चाहिए जब उसके बिना और विकास के मार्ग न हों। और प्रश्न उठने के बाद फिर व्यक्ति-विशेष की खोज होती है : उसमें जोखिम अनिवार्य है; पर आन्तरिक आलोक कुछ भी काम नहीं देता यह कैसे माना जाये? जोखिम भी कौन-सा उठाने लायक है, कौन-सा नहीं, इसके निर्णय में अन्तःकरण का साक्ष्य अवश्य सहायक होता है। राह चलना हो, तो हर मोड़, हर चौराहे पर राही को जोखिम उठाना होता है और वह उठाता है; उस समय आँखें बन्द करके दूसरे के निर्देश पर अपने को नहीं छोड़ देता। और गार्हस्थ्य एक लम्बी यात्रा है-बल्कि पथयात्रा नहीं, सागर-यात्रा, जिसमें मोड़-चौराहे पर नहीं, क्षण-क्षण पर संकल्प-पूर्वज जोखिम का वरण करना होता है और कोई लीकें आँकी हुई नहीं मिलतीं, नक्शे और कम्पास और अन्ततोगत्वा अपनी बुद्धि और अपने साहस के सहारे चलना होता है।

तुम्हें जो राह दीखती है, उस पर चलो, गौरा। धैर्य के साथ, साहस के साथ। और हाँ, जो तुमसे सहमत नहीं हैं उनके प्रति उदारता के साथ, जो बाधक हैं उनके प्रति करुणा के साथ। और राह पर जब ऐसा साथी मिलेगा जिसका साथ तुम्हें प्रीतिकर, वांछनीय, कल्याणप्रद लगे, तब किसी की बात न सुनना, जान लेना कि अब स्वतन्त्र रूप से जोखिम वरने का समय आ गया।

यही मैं मानता हूँ। स्वयं उस आदर्श को नहीं पाता, वह दूसरी बात है। पर वह ठीक है इसके बारे में मुझे ज़रा भी संशय नहीं है।

और अभी क्या लिखूँ? तुम क्या करती हो, क्या करोगी, लिखना। अब भी अगर बुलाओगी, तो आ जाऊँगा। यों छुट्टियों से तत्काल पहले छुट्टी मिलना कठिन होता है पर आना हो तो एकदम छुट्टियों में ही आने से काम न चलेगा?

तुम्हारा

भुवन दा

गौरा के दूसरे पत्र से भुवन ने जाना कि बात विवाह की ही थी। प्रस्तावित लड़का गौरा के कालेज में पढ़ता रहा था, उससे तीन-चार वर्ष आगे; उसके पिता की ओर से बात पहले उठायी गयी थी जब गौरा ने इण्टर पास किया था-लड़का तब विदेश में था। गौरा के माता-पिता ने तब इसी आधार पर टाल दिया था कि लड़का तो विदेश में है, पर माँ यही मानती थीं कि वे लगभग वचन-वद्ध हैं। लड़का जाड़ों में लौट आया था इंजीनियर बनकर, तब से बात चल रही थी और गौरा की परीक्षा के बाद ही प्रबल होकर उठी यों लड़के वाले राजी थे कि गौरा आगे भी पढ़ना चाहे तो पढ़े; पर पक्की बात वे तुरत चाहते थे, और विवाह भी इसी वर्ष नहीं तो अगले वर्ष। लड़के को गौरा ने देखा अवश्य था पर उसकी बहुत हल्की-सी स्मृति ही उसे थी, और यह कहने का कोई कारण नहीं था कि उनमें कोई विशेष अनुकूलता है। विवाह की बात लड़के की इच्छा पर ही उठी थी, पर एक बी.ए. के विद्यार्थी का एक फर्स्ट ईयर की लड़की के प्रति आकर्षण अपने-आपमें कोई महत्त्व नहीं रखता।

गौरा ने यह भी लिखा था कि भुवन के पत्र से उसे बहुत सहारा मिला और आगे का मार्ग कुछ-कुछ उसे दीखता भी है, माँ की अनशन की धमकी स्वयं एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है; पिता तो दुःखी पर चुप हैं, किन्तु माँ का कहना है कि उन दोनों के जीवन का दारोमदार इसी पर है। गौरा इसे स्पष्ट अन्याय समझती है, पर क्या माता-पिता की इच्छा पर अपने को उत्सर्ग कर देना भी एक रास्ता नहीं है? सारी परम्परा तो इसी का समर्थन करती है कि यही रास्ता है : और ऐसे आत्म-बलिदान में सुख भी होता है यदि वह कल्याण की भावना से किया जाये; खीझ कर, आत्म-दहन की भावना से नहीं। यही सब वह सोचती है, और अन्ततोगत्वा निर्णय उसके माता-पिता का नहीं, उसी का है, वह जो कुछ भी करे, परिणामों के लिए उत्तरदायी वही होगी। शीघ्र ही वह कुछ तय कर लेगी : और बिलकुल नहीं ही कर सकी, तो फिर भुवन दा को बुला भेजेगी : छुट्टी वह न लें, अवकाश आरम्भ होते ही आ जावें और तब तक वह बात टाल लेगी...

भुवन ने फिर एक छोटा-सा पत्र उसे लिखा :

गौरा,

तुम्हारे पत्र से पूरी बात मालूम हुई। नया मुझे कुछ नहीं कहना है।

ठीक है, तुम्हारे निर्णय की प्रतीक्षा करूँगा। पूरे विश्वास के साथ कि जो भी तुम करोगी, भूल नहीं करोगी।

आत्म-बलिदान की बात हमारी पीढ़ी की हर युवती सोचती है। युवती ही क्यों युवक भी। बलिदान ही हो, तो कोई दूसरा क्या कह सकता है? अपनी जिन्दगी लुटाने का हक हर किसी को है; और ऐसे मौके भी हो सकते हैं जब अन्याय को चुनौती देने का कोई दूसरा उपाय ही न रहे, यह मैं समझता हूँ। “जानते हो, मैं तुम्हारी जान ले सकता हूँ?” “हाँ, दस्यु; और तुम जानते हो, मैं जान गँवा कर तुम्हारी अवहेलना कर सकता हूँ?” यह उत्तर कायर का नहीं, साहसी का है। पर आत्म-बलिदान आत्म-प्रवंचना नहीं है, यह खूब अच्छी तरह पड़ताल करके देख लेना चाहिए। और मैं नहीं मानता कि इस मामले में हमारे सब युवक-युवतियाँ सतर्क रहती हैं। इस तरह का झुकना बलिदान नहीं, पलायन है कटु निर्णय से, स्वाधीनता के जोखिम से पलायन। स्वाधीनता साहस माँगती है; दुस्साहस भी माँग सकती है। स्वाधीनता साहसी का धर्म है।

हमारा संस्कार है, हाँ; पर श्रवणकुमार का जो आदर्श है, वही-जरा-सी चूक पर!-हमारी सारी पीढ़ी की पराजय और क्लीवता का बड़ा अच्छा प्रतीक भी है। कन्धे पर लदी हुई बहँगी पितृभक्ति का, आदर्श-परायणता का, आत्म-बलिदान का प्रतीक नहीं; जड़-पूजा का, आत्म-प्रवंचना का, स्वाधीन जीवन की अपात्रता का प्रतीक है! श्रवण के लिए वह क्या था, इसका निर्णय करना मेरे लिए आवश्यक नहीं है; मेरी पीढ़ी के लिए वह क्या है यह मैं ठीक जानता हूँ।

तुम पर मुझे आस्था है। आत्म-बलिदान करती हो, तो मेरा श्रद्धापूर्ण प्रणाम लो। सच्चा बलिदान भी स्वाधीन व्यक्ति का कर्म है।

पत्र दोगी? मैं देखो कितने तपाक से पत्र लिख रहा हूँ!

तुम्हारा

भुवन

इसका उत्तर उसे बहुत दिनों तक नहीं मिला। पहले कुछ दिन उसने प्रतीक्षा की; फिर मान लिया कि गौरा ने विवाह की स्वीकृति दे दी है; और दे दी है तो भुवन को और लिखने को अभी क्या होगा? दो-चार मास बाद-या क्या जाने, विवाह के बाद!-ही वह लिखेगी। अवकाश आरम्भ हो गया, उसने सामान तैयार किया कि अगर गौरा बुलायेगी तो वहाँ, नहीं तो कुछ दिन के लिए पहाड़-वहाड़ कहीं चला जाएगा; पर चार-छः दिन ऐसे भी बीत गये। सहसा एक दिन मद्रास में गौरा का पत्र आया :

भुवन दा,

मैंने एक साथ कई निश्चय कर लिये। वह बात समाप्त हो गयी है। माँ बहुत रोयीं-धोयीं, पर मान लेंगी ऐसा विश्वास है। पिता ने भी यही कहा; बोले, “बेटी, हम दोनों तुम्हारा कल्याण चाहते हैं, यह विश्वास न खोना। तुम्हारी माता समझ जाएगी और हमारा पूरा विश्वास तुम पर बना है, यह मैं तुम्हें कहता हूँ।” और कुछ उनसे कहते नहीं बना। कहते तो शायद मैं न सह सकती।

दूसरा निश्चय : मैं आगे पढ़ाई नहीं कर रही। संगीत के लिए आयी हूँ। एक वर्ष यहाँ और एक वर्ष मैसूर में रहूँगी, इतनी दूर स्पष्ट दीखता है, और इसमें इतना काम है कि आगे देखना अभी ज़रूरी नहीं जान पड़ता। यों यह भी लगता है कि असल चुनाव मैंने कर लिया है; आगे इतनी कड़ी परीक्षा अब न होगी।

भुवन दा, पलायन इधर भी हो सकता है, उधर भी। बिना मन के भीतर घुसे, केवल कर्म के आधार पर कोई निर्णय नहीं दिया जा सकता। आपने एक बार कहा था, “आत्मा के नक्शे नहीं होते कि हम चट से फैसला दे दें : इस सीमान्त के इधर स्वदेश, उधर विदेश, इधर पुण्य उधर पाप। आत्मा के प्रदेश में सीमान्त हर क्षण, हर साँस के साथ बदल सकता है क्योंकि हर क्षण एक सीमान्त है।”

वह बात आज समझ रही हूँ। जीवन एक बार का वरण नहीं है, वह अनन्त वरण है; प्रत्येक क्षण हम स्वीकार और परिहार करते चलते हैं।

भुवन दा, मैं भाग कर नहीं आयी, माँ के दुःख से भी नहीं। सामने काम है; और बड़ा अर्जेंट, बड़ा जरूरी काम। इसी झंझट में मैंने इतनी देर कर दी, पर आप ज़रूर-ज़रूर मेरी बात ठीक-ठीक समझेंगे और तब आपको यह देर भी अच्छी लगेगी।

आपकी कृतज्ञ

गौरा

पुनश्च :

अब मैं आप को नहीं बुलाऊँगी! अवकाश आप कहाँ बितायेंगे? कहीं पहाड़ चले जाइये। पिता जी मसूरी जाएँगे : वहीं आप जायें तो उनसे मिलिएगा, आपसे मिलकर उन्हें तसल्ली होगी।

गौरा

उसी डाक में बंगलौर से पत्र आया कि उसका थीसिस स्वीकृत हुआ है और डाक्टरेट प्रदान करने का अनुमोदन किया गया है : अगले कनवोकेशन में उसे डिगरी मिल जायेगी।

दक्षिण में ही गौरा ने पहले-पहल समझा कि कलाकार कैसे देश-काल के बन्धन से मुक्त हो जाता है : कोई भी लगन, कोई भी गहरी साधना व्यक्ति को इन बन्धनों से परे ले जाती है। देह का अपना धर्म है; उससे तो मुक्ति नहीं मिलती; पर आत्मा-या आत्मा की बात न करें क्योंकि उसके साथ तो अजर-अमर होने की प्रतिज्ञा ही है-मन भी जरा-मुक्त, चिर युवा रह जाता है : एक दिन साधक सहसा पाता है कि अरे, यह देह तो बूढ़ी हो गयी जबकि भीतर का जीव ज्यों-का-त्यों है, बल्कि अधिक स्फूर्तियुक्त, अधिक समर्थ...तब अगर वह मन को देह पर छोड़ देता है तभी मन भी जरा का अनुगत हो जाता है, नहीं तो अन्त तक-देह के विघटन-विलयन तक-भी वह वैसा ही अछूता चला जाएगा, ऐसा गौरा को लगता है। पढ़ाई के साथ-साथ भी वह संगीत-साधना करती रही थी, पर वहाँ वह गौण थी, अपने को उसमें बहा नहीं दिया जा सकता था, समर्पण नहीं हो सकता था : और साधना शर्तबन्द नहीं होती, वह आंशिक नहीं होती। या होती है, या नहीं होती...और अब...

यों सम्पूर्ण साधक कम ही होते हैं : अधिकतर या तो सब समय अधूरा समर्पण, या कुछ समय पूरा समर्पण दे सकते हैं-सब समय पूरा समर्पण तो पागलपन है जो देवत्व का समकक्षी है, वह तो दुर्लभ है...गौरा जानती है कि वह वैसी सम्पूर्ण साधिका-बल्कि वैसी सम्पूर्णता हो तो साधिका क्यों सिद्ध-नहीं है, और भीतर यह भी अनुभव करती है कि वैसी वह होना भी नहीं चाहती। पर जितनी साधना, या जितना शोध, जितनी तपश्चर्या उसे करनी है, वह सम्पूर्ण हो यह वह चाहती है, और इसके लिए कृतसंकल्प है। उसने पाया कि संगीत के अध्ययन के साथ संस्कृत का अध्ययन आवश्यक है, वह भी उसने आरम्भ कर दिया; फिर उसी से सम्बद्ध संस्कृत काव्यों का अध्ययन; इसमें उसने पाया कि संगीत अकेला नहीं खड़ा होता, उसे वास्तव में स्वायत्त करने के लिए थोड़ा इधर-उधर भी बढ़ना आवश्यक है; नाट्य-शास्त्र तक पहुँचते न पहुँचते उसने जान लिया कि दो वर्ष तो क्या होते हैं, उसे बीस वर्ष भी थोड़े हैं। पर व्यक्ति की कुछ सीमाएँ हैं जिन्हें वह मान ही लेना चाहती है : सम्पूर्ण साधक उन्हें अमान्य भी कर सकता, वह जानती है, और वैसी लगन के लिए जो कठोरता और एक विशेष प्रकार की आत्म-परता चाहिए उसे वह निरी स्वार्थ-परता नहीं कहेगी; पर उसे अभी वह इष्ट नहीं है, वह इन मर्यादाओं को स्वीकार ही कर लेगी...दो वर्ष पूरे करके कहीं काम करना होगा-पिता-माता पर निर्भर करना अब उचित न होगा-और काम के साथ-साथ ही संगीत-साधना आगे चलानी होगी।

बीच-बीच में वह भुवन को पत्र लिखती : उसमें अपना उत्साह, अपनी चिन्ताएँ, अपने संकल्प, सभी व्यक्त करती। पर भुवन के पत्र फिर विरले हो गये थे; एक बार उसने लिखा कि “तुम्हारी लगन से मुझे अपनी चूक का ध्यान हो आता है-साधना से समझौता मैंने भी किया है क्योंकि नौकरी मैं भी करता हूँ, पर समझौते में जितना अपनी साधना को देना चाहिए वह तो कम-से-कम निरालस, निर्बन्ध भाव से देना चाहिए...” गौरा इस पत्र से मुदित भी हुई, पर उसके बाद उसने अपने पत्र भी विरल कर दिये, महीने में एक पत्र से अधिक वह न लिखती, कभी दो महीने भी हो जाते। भुवन बंगलौर आएगा शायद तब भेंट होगी, यह आशा उसके मन थी, पर उसने व्यक्त न की; भुवन नहीं आया और निराशा भी व्यक्त करने का कोई प्रश्न न उठा।

परीक्षा-फल निकलने के तुरत बाद उसे चन्द्रमाधव का बधाई का पत्र मिला था। उसने उत्तर तत्काल नहीं दिया था-तब वह अशान्त थी; मद्रास आने पर उत्तर देने से पहले चन्द्र का एक और लम्बा पत्र उसे मिला। चन्द्र ने लखनऊ में अपने नये कार्य की बात लिखी थी, और उसके पिछले पत्र का, जो एक वर्ष से अधिक पूर्व उसके भारत लौटने से पहले गौरा ने उसे लिखा था, हवाला देते हुए कहा था कि “यूरोप का निराशावाद शीघ्र ही सारी दुनिया पर छा जाएगा; एक महान विस्फोट आ रहा है, गौरा जी, और उसकी लपटें भारत को अछूता न छोड़ जाएँगी! स्वाधीनता का आन्दोलन है, ठीक है, लेकिन उस लपट का धुआँ व्यक्ति के स्वातन्त्र्य का दम घोट जाएगा; ऊब-डूब की ही स्वाधीनता रह जाएगी, बस! देखें, आपका आशावाद क्या करता है तब...” अनन्तर और कई बातों के बाद लिखा था, “सुना था कि आप के विवाह का निश्चय हुआ था, फिर सुना कि बात टूट गयी : यह भी सुना कि “मास्टर साहब' के परामर्श से...आप इसे मेरी अनधिकार चर्चा न समझें, गौरा जी; स्वाधीनता का मैं खूब सम्मान करता हूँ और यूरोप से लौट कर मुक्त रहने का महत्त्व और भी समझने लगा हूँ-पर भुवन जैसे विज्ञान के नशेबाज़ की बात को ज़रूरत से ज्यादा अहमियत भी दे दी जा सकती है। वह तो ऊब-डूब भी नहीं है डूब ही डूब है : और उस सागर से उबरना नहीं होता! यों आपके सामने निश्चय ही, स्पष्ट कर्तव्य-पथ होगा ऐसा मेरा विश्वास है...”

इस पत्र ने गौरा के पहले पत्र का उत्तर न देने का संकोच मिटा दिया था, और उसने दो महीने तक कोई पत्र नहीं लिखा था। फिर जब लिखा था, तब क्षमा-याचना करते हुए यह भी लिख दिया था कि दूसरे पत्र से वह विरक्त हो गयी थी। “आप जो सुनते हैं, सुन सकते हैं; पर हर सुनी बात की पड़ताल आवश्यक नहीं होती। और मास्टर साहब के बारे में आपने जो लिखा है, उसमें मैं पूर्ण सहमत हूँ, पर आप उससे जो परिणाम निकालते हैं उससे नहीं। वह विज्ञान में डूबे हैं, ठीक है; उसे आप नशा भी कह लीजिए। पर इसलिए वह राय नहीं दे सकते, यह मैं नहीं मानती। यों वह राय कभी देते ही नहीं, पर जब देंगे तब वह अधिक सम्मान्य होगी क्योंकि वह अनासक्त होगी, ऐसा मैं जानती हूँ। जिसे आप नशेबाज़ कहते हैं और मैं-आप अनुमति दें-साधक कहूँगी वह अपने नशे से इतर बातों में बिल्कुल असम्पृक्त होता है यही उसकी शक्ति है। आप कहते हैं कि वह इसलिए अविश्वास्य है, मैं कहती हूँ कि इसीलिए वह विश्वास्य है, क्योंकि विश्वास-अविश्वास दोनों ही उसे नहीं छूते...पर अपने भविष्य-निर्णय के बारे में मेरा कोई मत ही नहीं था, ऐसा आपने क्यों मान लिया? क्या यूरोप के निराशावाद में यह उदासीनता भी शामिल है?”

चन्द्रमाधव ने तुरत क्षमा-याचना कर ली थी। आपको क्लेश पहुँचाना, या आपकी या भुवन जी की अवहेलना करना मुझे बिल्कुल अभीष्ट न था; आपकी शुभाशंसा से ही मैंने यह सब लिखा था...वापस लेता हूँ। आपके पत्र से स्पष्ट विदित होता है कि आपमें प्रबल संकल्प-शक्ति है और आपको आपके मनोनीत पथ से कोई नहीं हटा सकता; मैं इस पत्र से आश्वस्त ही नहीं, बहुत प्रभावित भी हुआ हूँ...” आगे चलकर उसने पूछा था कि गौरा दक्षिण में क्या कर रही है, और क्या विश्व की इस संकटापन्न अवस्थिति में उसे संगीत की साधना पर्याप्त जान पड़ती है?

गौरा ने उसकी क्षमा-याचना शिष्ट ढंग से स्वीकार कर ली। संगीत के बारे में उसने लिखा, “मैंने पहले भी एक बार लिखा था कि हम लोग भिन्न-भिन्न भाषा बोलते हैं, हमारा मुहावरा अलग है। फिर भी कहूँ कि मेरी समझ में तो एक विश्व-संकट यह भी है कि साधना आज इतनी नगण्य हो गयी है; कि हमारा साध्य जीवन का आनन्द न रहकर जीवन की सुविधाएँ रह गया है यानी जीवन की हमारी परिभाषा ही बदल गयी है, वह जीवन का नहीं, जीवन की क्रियाओं का नाम हो गया है। इसलिए आज हम जीवन के शोध की नहीं, जीवन की दौड़ की बात कहने लगे हैं; जीवन का बाह्यीकरण करते-करते हमने उसका बहिष्कार ही कर दिया है। आप यह बात नहीं समझेंगे : क्योंकि आप 'दूसरी तरफ़' हैं, आप दौड़ में हैं। गणित की भाषा में कहूँ-जो शायद हमारे आपके मुहावरे के अध-बीच आ सके-तो कहूँगी कि दौड़ का अर्थ है देश ् काल, जबकि शोध का अर्थ देश × काल। आप विभाजन-फल माँगते हैं, मैं (या कह ही लेने दीजिए अपने समूचे वर्ग की ओर से, हम) गुणन-फल के अन्वेषी हैं। आपकी माँग का अन्तिम परिणाम है न-कुछ, यानी कुछ इतना स्वल्प कि नगण्य; हमारी साधना का अन्त है सब-कुछ, कुछ इतना विशाल कि आप भी उसमें समा जायें! यह अहंकारोक्ति लगती है न? पर है नहीं, मैं न-कुछ होकर ही सब-कुछ की शोध में हूँ; अहंकार इस तरफ़ नहीं हो सकता, अहंकार तो सबसे बड़ा विभाजक है...”

× × ×

सितम्बर 1939 : यूरोप में युद्ध आरम्भ हो गया, तो चन्द्रमाधव और गौरा में और दो-एक पत्रों का विनिमय हुआ। और तब भुवन का भी एक पत्र गौरा को मिला। भुवन के पत्र में गहरी वेदना थी। विज्ञान की एफ़िशेंसी स्वयं साध्य बनकर मानव को कहाँ ले जाती है, युद्ध की घोषणा में इसका भीषण परिणाम उसे दीख रहा था। पुराने जमाने में जब वैज्ञानिक और नीतिज्ञ एक ही था, तब विज्ञान नीति को पुष्ट करता था; और विज्ञान के विकास का इतिहास पहले एक पुष्ट नैतिकता का ही इतिहास रहा : नैतिकता ने किसी दैवी, अलौकिक प्रतिमान पर आधारित एक अन्ध-विश्वास या तर्कातीत श्रद्धा से हटकर एक बुद्धि-संगत, लौकिक, मानववादी नैतिक बोध का रूप लिया। यहाँ तक वैज्ञानिक सब नीतिज्ञ नहीं तो नैतिक अवश्य थे, और यहाँ तक विज्ञान का रेकार्ड वैज्ञानिकों के लिए गौरव का विषय है। मध्ययुग में बुद्धि की महानिशा में वैज्ञानिक सन्तों ने ही ज्ञान के टिमटिमाते आलोक को अपनी गुदड़ी के भीतर छिपा कर उसकी रक्षा की...पर किसलिए? कि औद्योगिक क्रान्ति के साथ वह सुविधा का गुलाम बनकर एक के बाद एक विभ्राट् उत्पन्न करता चले? क्या यही मानव का भविष्य है क्योंकि यह उसकी श्रेष्ठ उपलब्धि विज्ञान का भविष्य है? वह यह नहीं मान सकता...पर निस्सन्देह यह विज्ञान का सूक्ष्म-काल तो है ही; और उसके साथ नैतिकता का भी क्राइसिस है; संस्कृति का भी; क्योंकि विज्ञान का क्राइसिस वैज्ञानिक नैतिकता और वैज्ञानिक संस्कृति का भी क्राइसिस है। इससे यह सीखना होगा कि नीति से अलग विज्ञान बिना सवार का घोड़ा है, या बिना चालक का इंजिन : वह विनाश ही कर सकता है। और संस्कृति से अलग विज्ञान केवल सुविधाओं और सहूलियतों का संचय है, और वह संचय भी एक को वंचित कर के दूसरे के हक में; और इस अम्बार के नीचे मानव की आत्मा कुचली जाती है, उसकी नैतिकता भी कुचली जाती है, वह एक सुविधावादी पशु हो जाता है...और यह केवल युद्ध की बात नहीं है, सुविधा पर आश्रित जो वाद आजकल चलते हैं वे भी वैज्ञानिक इसी अर्थ में हैं कि वे नीति-निरपेक्ष हैं : मानव का नहीं, मानव-पशु का संगठन ही उनका इष्ट है। कोई भी नीति-निरपेक्ष व्यवस्था अनिवार्यतः सर्वसत्तावादी व्यवस्था होगी, क्योंकि नीति को छोड़ देने के बाद दूसरा प्रतिमान सत्ता का रह जाता है...”मेरे लिए यही इस युद्ध का सबक है। यह युद्ध किसलिए लड़ा जा रहा है, सहसा नहीं कह दिया जा सकता, ठीक स्वाधीनता के लिए ही है, यह कह देना भोलापन होगा क्योंकि 'स्वाधीनता' के साथ कितने इतर स्वार्थ भी तो मिले हुए हैं; पर यह ज़रूर कहा जा सकता है कि इस युद्ध से आरम्भ करके हमें संस्कृति के उन मानों के लिए संघर्ष करना है जिनको स्वयं हमारी इस संस्कृति ने ही नष्ट कर दिया या जोखिम में डाल दिया। हमें केवल युद्ध नहीं जीतना है, हमें शान्ति भी नहीं जीतनी है, हमें संस्कृति जीतनी है, विज्ञान जीतना है, नीति जीतनी है : हमें मानव की स्वाधीनता और प्रतिष्ठा जीतनी है। क्या इस युद्ध का सबक हमें वैसे वैज्ञानिक देगा जो विज्ञान को नीति से नहीं, नीति के लिए मुक्त रखेंगे? हमें आशा नहीं खोनी होगी...”

चन्द्रमाधव के पत्र में निराशा भी थी, और कुछ गर्व का भाव भी कि उसकी दुर्वाणी सच निकली। “यह संस्कृति का अन्तिम युद्ध है, क्योंकि जिसे हम संस्कृति कहते हैं वह एक सड़ा हुआ चौखटा है। और उसमें जो जीव बन्द है, वह जीव इसीलिए है, कि वह पशु है; अगर पशु न होकर तथा-कथित संस्कृत मानव होता तो वह भी मर गया होता-जैसे कि सर्वत्र संस्कृत मानव मर गया है। इस युद्ध में से एक नयी बर्बरता निकलेगी और सारी दुनिया पर राज्य करेगी : मैं कहता हूँ आने दो उस बर्बरता को। जिस तल पर हम हैं उस तल से ऊँचे की व्यवस्था स्वयं एक अभिशाप है क्योंकि उससे हमारा सम्पर्क हो ही नहीं सकता। डिमोक्रेसी धोखा है, गिनतियों का राज बनिये का राज है...” आगे चलकर फिर उसने प्रश्न उठाया था, “क्या आप अब भी मानती हैं कि कलाओं का और संगीत का कोई आत्यन्तिक मूल्य है-इस जीवन में कोई स्थान है? है शायद-युद्ध के कार्यों को आगे बढ़ाने में वे सहायक हो सकती हैं...कला यानी पोस्टर; संगीत यानी फौजी बैंड...और साहित्य यानी पैम्फ़लेट, परचे, अख़बारनवीसी, रिपोर्ताज का नया माध्यम जो न पूरा तथ्य है न पूरी कल्पना-क्योंकि तथ्य और कल्पना का अन्तर उस परम्परा का अवशिष्ट है, जिसमें सनातन सत्य कुछ होता था और उसका शोध होता था; अब तथ्य ही तथ्य है, सत्य केवल तथ्य का वह रूप है जिसे आप हम देखते या जानते या भाँपते हैं-यानी तथ्य-हमारी कल्पना या हमारा पूर्वग्रह...सत्य अगर पूर्वग्रह-युक्त तथ्य है, तो रिपोर्ताज श्रेष्ठ साहित्य है, सीधी बात है...कैसी उथल-पुथल है : जो कुछ था, जैसे उसके नीचे से धरती खिसकी जा रही है : हमारे इस बेपेंदी के जगत को देखकर एक बार अट्टहास करने को जी होता है-हा-हा-हा-हा!”

गौरा ने पहले उत्तेजित होकर उत्तर लिखना चाहा, थोड़ा-सा लिखा था फिर फाड़ दिया। क्या उत्तर हो सकता है इसका?

भुवन को उसने लिखा :

भुवन दा,

आपके पत्र कभी-कभी आते हैं, पर जब भी आते हैं, तो मैं अपने को आप के समानान्तर चलता पाती हूँ। इस पत्र में जो व्यथा है उसे मैं ठीक-ठीक पकड़ सकती हूँ यह कैसे कहूँ-मैं बहुत छोटी और क्षुद्र हूँ-पर मैं चाहती हूँ कि आपके साथ-साथ चल सकूँ। 'मानव की स्वाधीनता और प्रतिष्ठा' का मूल्य कुछ-कुछ मैंने भी समझा है आपकी सीख से, मेरा क्षेत्र (यद्यपि उसे 'मेरा' कहना कितनी बड़ी स्पर्धा है मेरी!) आप के क्षेत्र से दूर है, पर उसमें भी मेरी थोड़ी-सी शक्ति के लिए कुछ करने को है...इस संकट में हम हार जाएँगे मैं नहीं मानती, और मुझे लगता है कि यह न मानना भी स्वयं एक मोर्चा है क्योंकि मानव-नियति में विश्वास खोना मानव की प्रतिष्ठा की लड़ाई हार जाना है...भुवन दा, आप बड़े हैं, मैं जैसे राम जी की सेवा में गयी गिलहरी से अधिक कुछ नहीं हूँ, पर आपके आदेश से कुछ भी कर सकूँ तो अपना गौरव मानूँगी...” फिर सहसा विषय बदल कर उसने मैसूर की अपनी संगीत-शिक्षा की कुछ बातें लिखी थी, और अन्त में लिखा था कि आगामी गर्मियों में वह लौट जाएगी। यही उसने कुछ दिन बाद चन्द्रमाधव को भी लिख दिया।

26 जून 1940 को सबेरे जब गौरा दिल्ली पहुँची, तब रेडियो से घोषणा हो रही थी कि फ्रांस की लड़ाई समाप्त हो गयी; सारा फ्रांस जर्मनी का अधिकृत हो गया। गौरा ने सोचा था कि वह दिल्ली पहुँचते ही भुवन को सूचना देगी कि वह वहाँ है और भुवन आकर मिल जाये; पर आने के बाद वह पत्र नहीं लिख सकी। उसके अनेक कारण हुए; यह दूसरी बात है कि भुवन ने न पत्र लिखने की उसकी इच्छा जानी, न पत्र न लिखने के कारण।

चन्दमाधव को उसने लिखा :

प्रिय श्री चन्द्रमाधव,

आपके दोनों पत्र मिल गये। भुवन दा के दो समाचार आपने दिये, उनके लिए आभारी हूँ। आपने मुझे उन्हें पत्र लिखने को कहा है, पर मेरे पास अपनी ओर से अभी कुछ लिखने को नहीं है और आपने जो बातें लिखी हैं, उनके बारे में कुछ कहने का अधिकार अगर भुवन दा समझेंगे तो स्वयं मुझे लिख ही देंगे। तब तक मैं इसके सिवा क्या समझ सकती हूँ कि उनके जीवन में हस्तक्षेप करने का मेरा कोई अधिकार नहीं है? वह बड़े हैं, और मेरे श्रद्धेय हैं, इतना मेरे लिए काफ़ी है।

आप शीघ्र यहाँ आने वाले हैं, आइये। मैं अभी यहीं हूँ, कुछ दिन तो रहूँगी ही। काम की तलाश करूँगी।

आपकी

गौरा

पत्र भेज कर वह फिर एकान्त में बैठकर चन्द्र के दोनों पत्र उलट-पलट कर देख गयी; एक-आध स्थल पर उसने कोई वाक्य पढ़ा पर वैसे लगातार पढ़ नहीं सकी; अक्षर उसकी आँखों के आगे तैर गये। उसने पत्र हटा दिये और संगीत की एक कापी उठा कर जल्दी-जल्दी उलट कर एक जगह से खोली, उसके पन्ने पर अपने हाथ की लिखावट पर आँखें जमा दी। लेकिन उसकी अपनी लिखाई भी तैर गयी : सहसा दो बड़ी-बड़ी बूँदें उस पर पड़ीं और लिखाई फैल गयी। गौरा ने आँचल से उसे पोंछा, पर उससे फैली हुई स्याही का एक लम्बा धब्बा कागज़ पर बन गया। सहसा गौरा बिल्कुल अवश हो गयी और कापी पर बाँहें और सिर टेक कर फफक कर रो उठी।