घर फूंक तमाशा(कहानी) / जयनन्दन

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रात्रि के दो बज गये। यों ही टी वी ऑन करके बैठा था टेकलाल। पर्दे पर क्या दृश्य उभर रहे हैं उन्हें देख कर भी कुछ नहीं देख रहा था। जब चित्त अशांत हो तो चेहरे की आंखें एक कठपुतली की आंख भर होकर रह जाती हैं। घर के सभी लोग अब तक सो चुके थे - दोनों बेटे, दोनों बेटियां। पत्नी उसे कई बार सो जाने के लिये आवाज लगा चुकी थी। वह जाकर बिस्तर पर लेट गया। नींद नहीं थी उसकी आंखों में। उसकी मुकम्मल नींदें पिछले डेढ साल से हर महीने थोडा-थोडा करके किस्तों में उससे छिनती जा रही थीं। कल सोफा बिक गया तो उसके साथ नींद की एक और किस्त भी चली गयी।

सोफा बनवाना उसका एक सपना था जिसे वह कई सालों में पूरा करवा पाया था। विभिन्न मैन्युअलों और कई फर्नीचर की दुकानों में जा-जा कर उसने एक मनोनुकूल डिजाईन का चयन किया था। मिस्त्री को इसे समझाने और दिखाने में कई हफ्ते लग गये थे। उसने लकडी क़ा विवरण लेकर, आरा मशीन में उसने सागवान की लकडी चिरवाई थी। इसे आकार देने के लिये मिस्त्री को बुलवाने की स्थिति दो साल बाद आयी थी। मिस्त्री ने उसका मजाक उडाते हुए कहा था, टेकलाल जी, उस सोफे को क्या आप सरकारी पंचवर्षीय योजना की तरह पूरा करेंगे क्या?

टेकलाल ने कोई जवाब नहीं दिया था। वह जानता था कि पांच साल लग जाना उसके लिये कोई बडी बात नहीं और सचमुच पांच साल लग ही गये। ढांचा बन गया तब काफी दिनों बाद पॉलिश करवाई गई, फिर काफी दिनों बाद फोम खरीद कर कुशन बनवाया गया। बैकपिलो और कवर आदि से लैस होकर जब सोफे ने घर में अपनी जगह ली तो यह देखने लायक एक आलीशान हाऊस - होल्ड के कलेवर में ढल गया ज़ो भी घर में आता सोफे को मुग्ध भाव से देखता रह जाता - टेकलाल जैसे मामूली आदमी के घर में ऐसा भव्य सोफा ! उसने अपने घरवालों को बता रखा था कि उसके खानदान के लिये यह पहला अवसर है जब किसी ने सोफा बनवाया और कल वही सोफा बिक गया!

टेकलाल हर आधे घंटे में उठ उठ कर पानी पीता और पेशाब करता। पत्नी ताड रही थी। सोयी वह भी नहीं थी लेकिन मटिया कर वह यह दिखाना चाहती थी कि सो गयी। अचानक कमरे की बत्ती जल उठी। बडा लडक़ा सामने खडा था।

पापा मैं ने देख लिया आप अब तक जाग रहे हैं। मां भी सिर्फ सोने का दिखावा कर रही हैआखिर कब तक आप लोग जागते रहेंगे? अरे भाई मैं तो सोया ही हुआ था, अभी अभी तो पानी पीने उठा हूँ । आज मैं ने आपका झूठ पकड ही लिया पापा, जिस सोफे को आपने बेच दिया, उसके आकार लेने की कहानी मेरे मन में कल ही से आगे पीछे हो रही है। नींद तो मुझे भी आज नहीं आयी। पपा, आखिर ऐसा क्यों है कि हमारी किस्मत दूसरों की मर्जी पर डिपैन्ड करने लगती है। दूसरों के किये की सजा हमें भोगने पडती है। चंद लोग मूर्खता और नालायकी करते हैं और उससे त्रस्त पूरा देश हो जाता है। आखिर ये कारखाने बंद क्यों हो रहे हैं? इस घर फूंक तमाशे का कौन जिम्मेदार है आपने तो किसी का कुछ नहीं बिगाडा? कोई जवाब नहीं था टेकलाल के पास। उसने कहा, इसका जवाब अर्न्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक और अमरिका के सिवा शायद इस देश में किसी के पास नहीं है, बेटे। हमने तो देख ही लिया है कि भिन्न विचारों वाली कई सरकारें आयीं - गयीं, किसी से यह घर फूंक तमाशा रोकना संभव नहीं हुआ। खैर इस मुद्दे पर मुझे अकेले शोक करने दो और तुम अपने लिये कोई नयी युक्ति निकालो। मुझे उम्मीद है कि तुम कोई नौकरी अवश्य ढूंढ लोगे। मुझे तो इसकी कोई उम्मीद नहीं दिखती। एक नौकरी के लिये जहां एक एक हजार उम्मीदवार हों वहां ऐसी उम्मीद महज खुशफहमी है, पापा। नये की छोडिये, जब पुराने नौकरीशुदा लोग नौकरी से हर जगह सरप्लस बता कर हटाये जा रहे हैं, जब हजारों संस्थान बंद हो रहे हैं, कम्प्यूटर और रोबोट आदमियों की जगह ले रहे हैं तो नयी युक्ति के लिये स्कोप कहां बचता है? विशेष! मां ने हस्तक्षेप किया, दुनिया फिर भी चलेगी बेटेकोई रास्ता तो निकलेगा ही। तुम्हें अभी से जरा सा भी निराश नहीं होना चाहिये। हमारे आगे जीने का आधार तो तुम्हें ही बनना है। चलो, अभी हम सो जाएं।

टेकलाल जानता है कि कहना आसान है किन्तु खुद को भी समझाना इतना आसान नहीं होता। वह अपनी ही हालत जरा भी सामान्य नहीं कर पा रहा है।

समय काटे नहीं कटता है, जैसे दिन रात की मियाद बरस भर लम्बी हो गयी हो। टेकलाल को लगता है कि इसी गति से वह बूढा भी होने लगा है, अर्थात एक दिन रात में उसकी आयु एक एक बरस कम होती जा रही है। एक आयु की ढलान ही है कि बहुत तेजी से बढ रही है बाकि तो सबकुछ रुक ही गया है बच्चों की पढाई, बीमारी का इलाज, ब्याह शादी, जिन्दगी की हंसी खुशी और शौक लुत्फ। बल्कि यह सबकुछ रुक गया है इसीलिये आयु और भी तेजी से हाथ से फिसल रही है और ये सारा कुछ इसलिये रुक गया है कि उसका कारखाना रुक गया।

यह कारखाना स्टील वायर प्रोडक्ट लि जो अब तक अरबों कील कांटी बना चुका होगा और अब उन कील कांटियों पर कितना कुछ अब भी टिका होगा, कितना कुछ टंगा होगालेकिन आज यह कारखाना खुद ही बेकील हो गया। नट बोल्ट और वायर रड भी इसके मुख्य उत्पाद थे। इसके बनाये नट बोल्ट और वायर रडों पर न जाने कितने स्ट्रक्चर खडे होंगे, कितने मोटर सायकल के पहिये घूम रहे होंगे, कितनी छतरियां तनी होंगी, कितने ऊंचे ऊंचे वाटर टावर कायम होंगे, कितनी रेल पटरियां फिक्स होंगी, कितनी छतें टम्गी होंगीकिन्तु आज उन मूलभूत उत्पादों का निर्माता खुद ही न टिका रह सकादूसरों को थामने का जरिया उपलब्ध कराने वाला खुद ही थमे रहने के लिये जरिये का मोहताज हो गया। यह कैसी विडम्बना है?

बताया गया कि करोडाें रूपये की बिजली का बिल बकाया हो गया था। लाईन काट दी गई थी। प्रबंधन की ओर से कहा गया कि माल नहीं बिक रहा। विदेशी माल से बाजार अंटा पडा है। इनके सामने माल बिकता भी है तो घाटे के सौदे पर। घाटा बढक़र अब एकदम बेकाबू हो गया है। कारखाना चलाने से ज्यादा फायदेमंद है इसका न चलाना।

सभी मजदूर और यूनियन के लोग हैरान हैं। पहले तो यही कारखाना खूब बम बम चल रहा थाखूब प्रॉफिट कर रहा था। मजदूरों को एकदम समय पर वेतन और बोनस दिये जा रहे थे। सबकी गुजर बसर ठीक ठाक हो रही थी। माल का न बिकना तो कोई मुद्दा ही नहीं था। ओवरटाईम करवा कर प्रोडक्शन बढाया जाता था, ग्राहकों की मांगे फिर भी पूरी तब भी नहीं होती थीं। यूनियन किसी जिद को लेकर एक दिन भी हडताल की धमकी देती थी तो प्रबंधन में अफरा तफरी मच जाती थी कि सारा संतुलन बिगड ज़ाएगा।

आज कैसा वक्त आ गया है कि मालिक स्वयं कारखाना बंद कर देने में अपना भला समझ रहा है, जबकि यूनियन चाहती है कि यह किसी भी शर्त पर चलता रहे। लेकिन यूनियन का कुछ भी नहीं चल रहा। इस समय सबसे नकारा और अस्त्रहीन संगठन कोई बना है तो वह है यूनियन! न इसे सरकार का समर्थन है, न अदालतों का। बंद को अब मालिक ने अपना अस्त्र बना लिया है और वह इसके लिये उपयोग के लिये एकदम आजाद है।

टेकलाल रोज क़िसी न किसी फैक्टरी के बंद होने की खबर अखबार में पढ लेता है।अब तक देश की चलने वाली हजारों फैक्टरियां बंद हो गईं और लाखों कामगार बेरोजगार हो गये। क्या सबकी हालत टेकलाल जैसी ही नहीं हो गयी होगी?

यहां तो सबकी हालत कमोबेश एक जैसी ही है। हमेशा हंसने और मजाक करने वाले चेहरे को भी मानो काठ मार गया है। उसके साथ काम करने वाला मिल ऑपरेटर सोनाराम के होंठों पर सुनाने के लिये हमेशा नये नये चुटकुले धरे होते थे और कुछ साथियों से वह हरदम घिरा होता था। आजकल बंद मिल के आगे बोरा और पेपर आदि बिछा कर मायूस और बदहवास लोग बैठे रहते हैं, उनमें सोनाराम भी बैठा होता है लेकिन चुटकुलों की जगह लगता है कि उसके होंठों से एक विलाप रिस रहा हो। लगभग पांच सौ मीटर लम्बी विशाल मिल की शिथिल और निष्प्राण काया को लोग यों निहारते रहते हैं, जैसे अपने सबसे घनिष्ठ और खास शुभचिंतक का शव देख रहे हों। मिल चलती थी तो फर्नेस से गर्म बिलेट (इस्पात पिंड) रोलर से रोल होकर गुजरता था और तार बनकर इतनी तेजी से ऑटोमेटिकली क्वॉयल में बदल जाता था जैसे एक मिसाईल छूटने का दृश्य उपस्थित हो गया हो और इससे ध्वंस का नहीं निर्माण का एक अजस्त्र संगीत फूटने लगा हो। टेकलाल सोचता रहता था कि इस मिल में लगी लगभग 100 करोड क़ी पूंजी क्या यों ही व्यर्थ हो जाएगी? बेचारी यह मिल तो अब भी पूरी तैयार है। जरा सी बिजली दौडा दी जाए तो तुरन्त प्रोडक्शन चालू हो जाएगा और निर्माण का संगीत शुरु हो जाएगा। देश भर में न जाने ऐसी कितनी पूंजी बंद मिलों के रूप में जंग खा जाएगी। क्या राष्ट्रीय धर्म पर प्रवचन करने वालों को इस राष्ट्रीय पाप का एहसास नहीं होना चाहिये?

दस माह बंद रहने के बाद आठ माह पहले पता नहीं किस अस्थायी मकसद को लेकर यह कारखाना चालू किया गया था। सभी थके हारे मजदूरों में नई जान आ गई थी। पूरे तन मन से वे अपने अपने काम में भिड ग़ये थे। टेकलाल मिल का चीफ ऑपरेटर था। उसने अपने अथीनस्थ सभी साथियों से कहा कि हमें मात्रा, गुणवत्ता और लागत के मामले में इतना अच्छा प्रदर्शन कर देना है कि कम दाम में भी माल बेच कर मालिक को नुकसान न उठाना पडे और फिर मिल बंद होने की नौबत ही खत्म हो जाये। ऐसा किया भी सबने मिलकर। मजदूरों की यह अभूतपूर्व संलग्नता थी कि वे घर जाना तक भूल जाते थे। टेकलाल तो घर में भी होता तो उसका ध्यान कारखाने की तरफ लगा होता। जी नहीं मानता तो बीच बीच में क्वार्टर से आकर घंटे दो घंटे के लिये फिर काम में भिड ज़ाता।

इस दौरान मजदूरों की कॉलोनी में फिर से चहल पहल बहाल हो गयी। बच्चों के जो मैदान और पार्क सन्नाटे में घिर गये थे, उनमें फिर किलकारियां गूंजने लगी। सहम दुबक जाने वाली महिलाओं की बैठकबाजियां फिर से जमने लगीं। युवाओं युवतियों के ठहाके और अनावश्यक भाग दौड फ़िर चालू हो गयी। प्रेम करने वाले जोडाें के ठहरे हुए सम्वाद आगे चलने लगे। क्र्वाटर और फ्लैटों के रसोईघरों से तेल मसाले की तेज खुश्बुएं फिर से हवा में तैरने लगीं। मतलब एक कारखाने के चालू ताल पर सारा कुछ लयात्मक और सुरीला हो गया था। काश कि यह ताल स्थायी हो जाता।

तीन महीने बाद कारखाना फिर बंद कर दिया गया। बिजली कट गई और मालिक ने मजदूरों से कहा, हम कोशिश में हैं कि नये उपाय करके इसे फिर चालू कर सकें। तब तक आधी पगार हम आपको देते रहेंगे।

कॉलोनी के मैदानों,पार्कों, सडक़ों, घरों, पुलियों, क्लबों आदि को जैसे फिर किसी शोक ने डंस लिया।

पूरी पगार जब मिलती थी तब भी काट - कपट कर ही जीवन चलता था, अब आधी में तो किसी तरह सिर्फ पेट ही भरा जाना संभव था। विशेष भुवनेश्वर में रह कर बी एस सी कर रहा था, क्योंकि बिहार में दो साल की पढाई चार पांच साल से पहले पूरी नहीं होती। जब उसे यह जानकारी मिली कि कारखाना तीन महीने चल कर फिर बंद हो गया, वह पढाई छोड क़र टाटा आ गया। वह जानता था कि पिता वापस नहीं बुलाएंगे और घर में जब तक बेचने के लिये समान होंगे, वे बेचते रहेंगे और जितना संभव हो सकता है उसे भेजते रहेंगे और अपनी दो जून की रोटी की भी परवाह नहीं करेंगे। परिवार के साथ रहकर आधी पगार में कम से कम सबको रूखा सूखा खाना तो मिल जाएगा। घर फूंक तमाशा - 2

शाम में सोनाराम टेकलाल के घर आ जाता या फिर टेकलाल सोनाराम के पास चला जाता। मुसीबतों के दो सहयात्री नये उपजे अपने दुखों की गुत्थियों को सुलझाने की नाकाम कोशिश करते और अपनी उदासी पहले से कुछ और बढा लेते।

एक दिन सोनाराम ने बताया, मेरी बिनब्याही बडी बेटी गर्भ से रह गई और कल वह यह कह कर चली गई कि मैं जा रही हूँ बाऊजी! यहां आपकी कई मुसीबतों के ऊपर एक बडी मुसीबत बन कर मैं नहीं रहना चाहती। मेरा ब्याह करना आपके वश में नहीं रहा यह जानती हूँ। इसलिये जोखिम उठा कर जा रही हूँजो होगा अच्छा ही होगा। अच्छा नहीं भी होगा तो इससे बुरा भी क्या होगा कि मैं कुंवारी मां बन जाऊं और लोग आपकी हंसी उडाएं। वह कहां गईकिसके साथ गई? टेकलाल सोनाराम से पूछना चाहता था लेकिन यह साोच कर नहीं पूछा कि हो सकता है इसका जवाब इसके पास भी न हो। सोनाराम ने आगे खुद ही कहा, मैं ही इसका जिम्मेदार हूँ टेकलाल भाई! इस लडक़ी के ब्याह को सोचकर मैं ने एल आई सी में एक स्कीम ले रखी थी। कारखाना बंद हो गया तो स्कीम भी बंद हो गई और पिछले साल इसके पैसे निकाल कर पत्नी की बीमारी में लगा दिये। शादी में देने के लिये कई सारा सामान खरीद रखा थाकुछ गहने, कुछ घरेलू सामान, पलंग, टीवी, अलमारी, डायनिंग सेट, किचन सेट। एक एक कर वे सब भी बिक गये। बेटी की उम्मीद दम तोडती चली गयी। मैं सचमुच उसके ब्याह करने के लायक कहां रह गया था? पहले तो दो एक लडक़े वाले लडक़ी देखने और बात चलाने में दिलचस्पी भी ले रहे थे, अब कोई दिलचस्पी नहीं लेता। बंद कारखाने के लेबर से लेन देन की अपेक्षा नहीं रखी जा सकती न!

टेकलाल का ध्यान अपनी बेटियों पर चला गया। बडी वाली अब वयस्क होती जा रही है, दसवीं में पढती हैलेकिन अब शायद ही आगे पढ सके। कहती है मन नहीं करता। नवीं कक्षा तक तो पांच अव्वलों में शामिल रहा करती थी। दसवीं में आकर फेल हो गयी। पटरी पर जब कुछ नहीं रह गया तो यह कैसे रहती! इस लडक़ी का कसूर नहीं है। और छोटी लडक़ी को बडे शौक से अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवाया था, सात साल पढी वह वहां। इस साल हटाकर सरकारी स्कूल में डालना पडा। बहुत कुंठित और हीन भावना से ग्रस्त रहती है वह वहां। छोटा लडक़ा अशेष उच्च प्रथम श्रेणी से इंटर पास करके इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा की कोचिंग लेने लगा था। कहा था, आप मुझे चांस दीजिये पापा, मैं आपको इंजीनियर बन कर दिखा दूंगा।

बेटे के आत्मविश्वास को देख कर टेकलाल अपने खयालों में पुलाव पकाने लगा था कि उसका यह होनहार और मेधावी बेटा लगता है उसकी मजदूर क्लास हैसियत को ऊपर उठा कर रहेगा। वह जानता है कि यों ऐसा कम ही होता है कि मजदूर का लगा ठप्पा मिट जाएफिर भी इस कम की पंक्ति में उसे शामिल होना है।

टेकलाल अब समझ गया कि आसान नहीं है वर्गान्तरण। अशेष को कोचिंग छोडनी पडी। अगर प्रवेश परीक्षा पास भी कर जाता तो इंजीनियरिंग की ऊंची फीस कहां से आती? इंजीनियरिंग की ऊंची फीस अपने आप में एक तल्ख सच्चाई है कि गरीब के बेटे के लिये नहीं बनी यह पढाई। यह पढाई उनके लिये है जो सिर्फ मेधावी ही नहीं सुखी सम्पन्न भी हो।

अशेष ने कहा, अब मैं कोई नौकरी नहीं करुंगा पापा। अब इस समाज के झाड झंखाड क़ो साफ करने के मुहिम में मैं शामिल हो रहा हूँ। मैं एक पार्टी ज्वाईन कर रहा हूँ, अब मैं उसका होलटाईमर सदस्य हूंगा। आप लोग मुझे भूल जाईए।

टेकलाल उसका मुंह देखता रह गया। मुंह देखने के सिवा उसके पास मुंह भी कहां था कि उसे रोक पाता। अशेष उसके सामने ही घर की चौखट लांघ कर बाहर हो गया। उसकी मां उमा देवी अपने रुंधे गले से उसे पुकारती रह गई जिसे वह बुध्द की तरह अनसुना कर चलता बना।

बंदी के लगभग डेढ साल तक हर महीने एक से दस तारीख के बीच आधी पगार मिल जाया करती थी। उसके बाद ऐसा होने लगा कि मिलने की तारीख अनिश्चित हो गई। लोग व्यग्र होकर प्रतीक्षा करते और तारीखें टलती रहतींकभी पच्चीस, कभी उनतीस, तो कभी इकत्तीस।

एक दिन प्रबंधन की ओर से कहा गया कि पगार जब भी देनी होगी हम आपको खबर कर देंगे। अब कारखाने में आकर आठ घंटे बैठने की जरूरत नहीं है। आप अपने घरों में रहें या अन्यत्र कोई काम करना चाहें तो करें। मजदूरों की तरफ लोग संशय में घिर गयेकहीं यह प्रबंधन की चाल तो नहीं?

कुछ लोगों ने अपनी आवाज मुखर की, घर में आखिर बैठकर हम करेंगे भी क्या? यह कारखाना हमारे लिये कर्मस्थल ही नहीं पूजास्थल भी है। हमें यहां आने से न रोका जाए। बाहर हम काम भी क्या करेंगे आने से न रोका जाए। बाहर हम काम भी क्या करेंगेकहां करेंगे। अब इस उद्योगनगरी में जीवित उद्योग रह ही कितने गये हैं कि हमें काम मिलेगा। प्रबंधन ने कहा, ठीक है अगर आप अंदर आकर बैठना चाहते हैं तो बैठें। हम तो इस खयाल से कह रहे थे कि आपको आजादी दी जाए ताकि आजीविका के लिये अपने मनोनुकूल जुगाड बिठाने में आपको कोई पाबंदी महसूस न हो।

टेकलाल ने इस निर्णय पर बहुत राहत महसूस की। घर में तीसों दिन, चौबीस घंटे रहना एक बहुत बडी यातना तो ही, दुनिया से बुरी तरह कट जाने की एक मर्मांतक वेदना भी है।

पहले कारखाने से शिफ्ट शुरु होने वाले घंटे में अर्थात ए शिफ्ट के लिये सुबह छ: बजे, जनरल शिफट के लिये सुबह सात बजे, बी शिफ्ट के लिये दोपहर दो बजे और सी शिफ्ट के लिये रात दस बजे सायरन बजा करता था। अब सायरन नहीं बजता, इससे अब लगता ही नहीं कि यह कोई औद्योगिक नगरी है। सायरन डयूटी की मानसिकता बनाता था और भीतर एक नई तरंग पैदा करता था। टेकलाल सायरन के बिना भी ठीक सात बजे कारखाने में दाखिल हो जाया करता था। रास्ते में सोनाराम को भी साथ कर लेता था। सोनाराम की आदत थी - गेट पर पान की गुमटी से एक बंडल बीडी रोज खरीदता था। अब उसने बीडी पीनी छोड दी और न भी छोडी होती तो वह यहां से बीडी क़हां खरीद पाता। बीडी क़ा ही क्या, चाय पकौडी, भुंजा सत्तू, खैनी चूना आदि की कई गुमटियां जो यहां अवस्थित थीं, वे अब सब बंद हो गई हैं। पान के कई घनघोर शौकीनों ने अब पान खाना छोड दिया। कुछ तो ऐसे मजदूर थे जिन्हें पहले कोई लत नहीं थी, अब वे शराब की लत में फंस गये हैं। कर्जा ले लेकर शाम होते ही दारू की बोतलें लेकर बैठ जाते हैं। आबाद होने के लिये शायद कुछ बचा नहीं बाकि तो बरबाद होने की राह पर ही वे बढ ग़ये हैं। ऐसे आत्महंता मजदूरों की आधी पगार को भी हडप जाने के लिये कारखाने के गेट पर पठान मंडराते नजर आ जाते या फिर उधार वसूलने वाले महाजन - दुकानदार चक्कर काटते दिख जाते।

सभी जानते थे कि किसी भी समय यह आधी पगार भी रुक सकती है और यह सच हुआ और एक दिन पगार रुक गई। मजदूर आंखें फाडे, मुंह बाये खडे रह गये। टेकलाल, सोनाराम आदि बैठे होते कभी वायर मिल के सामने, कभी रड मिल के सामने, कभी नट बोल्ट के मशीन सेक्शन के सामने, कभी बार्बेड वायर (कंटीले या फैन्सिग तार) मिल के सामने। ऑफिस की ओर से कोई चपरासी, क्लर्क या ऑफिसर आता दिखता तो उनकी उत्कंठा तीव्र हो जातीकहीं वे खबर करने तो नहीं आ रहे कि पगार आ गयी है।

इस पगार को नहीं आना था और कई महीने हो गये वह नहीं आई। जाहिर है यहीं से पेट चलाने के घर के सामान औने पौने दामों में बिकना शुरु हो गये। सोफा के बाद टेकलाल ने टी वी बेच दिया। उसने बैंक से छत्तीस किस्त में चुकता होनेवाला कर्ज लेकर यह कलर टी वी खरीदा था। बैठे ठाले वक्त को गुजारने का यह सबसे बडा मुफ्तखोर साधन था। इसे लगातार दो तीन घंटे देखने पर दो तीन घंटे की अधमरी सी नींद आ ही जाती थी। अब फालतू बैठना भी मुहाल हो गया, सोना भी।

जिस दिन टी वी बिका उसी दिन बडा बेटा विशेष रेल किराये के नाम पर कुछ पैसे लेकर किसी दूसरे शहर चला गया था, यह कहकर कि, अब इस मरते हुए शहर में आप पर बोझ बन कर रहना अन्याय है। मैं जा रहा हूँ पापाकहां जाना है यह नहीं मालूम तीन चार शहरों में जोर आजमाईश करुंगा, जहां काम मिल जाएगा वहीं टिक जाऊंगा फिर वहां से आपको खत लिखूंगा। टेकलाल के दिमाग में अचानक कौंधा कि पहले दूरदराज के शहरों या गांवों से लोग इस औद्योगिक शहर में आते थे और उन्हें उनकी काबिलियत के लायक बडे या फिर छोटे कारखाने में प्राय: काम मिल जाया करता था। आज इस औद्योगिक शहर से विस्थापित होकर काम की तलाश में दूसरी गैर औद्योगिक जगहों में जाना पड रहा है। क्या आर्थिक उदारीकरण की नीति का लक्ष्य इसी रसातल की स्थिति में पहुंचना था कि देश के तमाम मजदूरी के अवसर और मजदूरों की खुशियों में एक साथ सेंध लग जाये।

कई महीने गुजर गयेआधी तनखाह मिलने की उम्मीद पर पानी फिरा का फिरा ही रह गया। इस बीच पता नहीं कौन सा वह स्त्रोत था जहां से खबर फैला दी जाती कि किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी से मालिक की बात चल रही है, कारखाना जल्दी चालू कर दिया जाएगा। स्थानीय अकबारों में भी इस आशय की खबरें बीच बीच में एकाध बार छप जाया करतीं। टेकलाल को इस तरह की खबर पढना अच्छा लगता। एक दिन ऐसी ही खबर पढ क़र भाषा की भूमिका ने उसे बांध लिया और उसे लगा कि इसमें सच्चाई है। बहुत उत्साहित होकर वह घर लौटा।

उमा देवी चौंक गयी, क्या बात है, कोई नौकरी तो आपको नहीं मिल गई? अर्सा बाद आप इतने खुश दिख रहे हैं। उसने कहा, अब भला इस उमर में मुझे कौन नौकरी देगा? था वह जमाना जब मालिक ने मेरे स्किल को देखकर मुझे इसरार करके बुलाया था और बहाली दी थी। आज खुश इसलिये हूं कि एक अखबार ने बहुत जोर देकर कहा है कि कारखाना निश्चितरूप से जल्दी ही चालू होगा।

पता नहीं उमा देवी को इस बात पर जरा सा भी यकीन नहीं हुआ और किसी खास मकसद से छपवायी गयी यह खबर अखबार का एक सफेद झूठ प्रतीत हुई। फिर भी पति के चेहरे पर अरसे बाद उभरे हर्ष के प्रतिबिम्ब को तिरोहित नहीं करना चाहती थी वह। अत: उसने भी कह दिया,

हां मैं ने सुना हैपडाैस की औरतें चर्चा कर रही थीं। टेकलाल हर्षावेग में चहक उठा, तुमने भी सुना मतलब काफी चर्चा है इसकी, तब तो जरूर इसमें सच्चाई होगी।

उसने पत्नी से खाना मांगा और बंधी खुराक से दो रोटी ज्यादा खाई। रोज उमा देवी के कहने पर भी अनमने भाव से खाना खाने बैठा करता था। उसने खाते हुए कहा,

तुम्हारे सारे कपडों पर कई कई पैबन्द चढ ग़ये हैं। पहली पगार मिलते ही तुम्हारे और बच्चियों के नये कपडे बनवा दूंगा। उमादेवी ने कहा, तुम्हारे कपडे भी तो सारे फट गये हैं। कारखाने के लिये जो नीली ड्रेस मिली थी वह भी साबुत नहीं बची अब तुमने घूमने फिरने में इस्तेमाल कर ली। मैं तो तुम पर तरस खा कर रह गई। ठीक है, मिल चालू होगी तो नयी ड्रेस भी मिल जाएगी, मेरा काम चलने लगेगा। तुम लोगों के तो सिलाने होंगे।

उस अखबार में कारखाना शुरु होने की जो खबर छपी थी वह दूसरे अखबार ने पूरी तरह निरस्त कर दी। उसने छापा कि मिल के मालिक को मिल चलाने से कोई मतलब नहीं। वह किसी से बात नहीं कर रहा। इस समय वह यहां की गर्मी से बचने के लिये पैरिस व लन्दन की सैर का मजा ले रहा है। अगर वह यह बेचेगा भी तो यहां दूसरा उद्योग लगेगा, दूसरे मजदूर बहाल होंगे। इस खबर को पढ टेकलाल पस्त हो गया और उसकी उम्र दो साल और फिसल गयी। अब तो बेटे पर ही आस बंधी थी। चिट्ठी का उसे इंतजार था। ऐसी चिट्ठी जिसे पढक़र उसकी उम्र चार साल पहले वाली हो जाती। लेकिन ऐसी चिट्ठी नहीं आई। आयी भी तो एकदम ठण्डी और दयनीय सी।

आप लोग मेरी चिंता न करें। मैं मुम्बई में हूं और ठीक ठाक हूं।

टेकलाल को लगा कि शायद उसे कोई काम मिल गया है । अगली बार जरा गर्मजोशी से लिखेगा। मगर अगली बार भी उसने ऐसा ही लिखा।

मैं ठीक हूं। आप लोग मेरी चिंता न करें। टेकलाल झुंझला गया अरे भाई ठीक हो तो क्या ठीक हो, क्या कर रहे हो यह क्यों नहीं बताते! एक दिन सोनाराम ने दबे स्वर में एक राज खोलने की तरह कहा, टेकलाल भाई, टी वी नहीं होने के कारण आपने परसों का समाचार तो नहीं देखा होगा। मैं ने सेठ की दुकान में देखा, असामाजिक तत्वों का एक गिरोह दिखाया जा रहा था जिसे पुलिस ने गिरफ्तार किया था। उसमें कुछ लडक़ों से सवाल पूछे जा रहे थे मुझे ऐसा लगा उनमें एक आपका बेटा विशेष भी था। एकबारगी देह कांप गयी टेकलाल की। अपने को संभालते हुए कहा, नहीं सोनाराम ऐसा नहीं हो सकता। तुम्हें जरूर कोई भूल हुई है। मेरा बेटा गलत रास्ते पर नहीं जा सकता।

कहने को तो कह दिया टेकलाल ने लेकिन अंदर से एकदम विचलित हो गया। रात में नींद तो नहीं ही आती थी। एकाध घंटे झपकी ले लेता था। इसी झपकी के दौरान उस दिन उसने एक भयानक सपना देखा -

विशेष को एक विदेशी गुप्तचर संस्था के लोग समझा रहे हैं - तुम्हें हम पचास लाख रूपये देंगे। तुम मानव बम बनकर फलां नेता को उडा दो। तुम्हारे पूरे परिवार का भाग्य खुल जाएगा। एक आदमी की कुर्बानी से अगर परिवार के लोग रातों रात सुखी हो जाते हैं तो सौदा क्या बुरा है? ऐसे भी आदमी परिवार को सुख देने के लिये जिन्दगी भर किस्तों में मरता ही तो रहता है। फिर क्यों नहीं एक बार मरा जाए। विशेष कहता है, हां, मैं तैयार हूँ। नहीं नहीं। कहते हुए उठ बैठा टेकलाल। उमादेवी भौंचक्क उसे देखती रह गई। उसने कहा, लगता है अपना विशेष किसी मुसीबत में फंस गया है।

अगले दिन उसने तय कर लिया कि वह मुंबई चला जाएगा। अब यहां रह कर होगा भी क्या। बेचने को तो कुछ नहीं बचा। वहां वह विशेष का पता लगायेगा, मुसीबत में उसे उनकी जरूरत होगी।

कई लोग इस कॉलोनी से जा चुके थे, अब टेकलाल जा रहा था। शेष लोग उसे कारुणिक मुद्रा में निहार रहे थे। जड से उखडने की टीस सभी परिवार जनों के चेहरे से झांक रही थी। घर का सामान तीन चार बक्से पेटी में अंट गया। जब वह यहां आया था तो यही सामान ट्रक में लाना पडा था। सोनाराम उसे स्टेशन पर छोडने गया। भीतर से वह एकदम विव्हल था....कैसे कटेगी अब उसकी दिनचर्या.....किसे दिखायेगा अब वह मन के घाव?

टेकलाल ने सोनाराम की हथेलियों को अपनी अंजुरी में भर लिया,

जा रहा हूं सोनाराम, बेटे को ढूंढूंगा, मुझे भी अब लगने लगा है कि मेरा बेटा जरूर किसी संकट में फंस गया है। वह अच्छी स्थिति में होता तो सब कुछ साफ साफ बताते हुए मुझे लंबा खत लिखता। मैं वहां जाकर तुम्हें अपना पता भेजूंगा, अगर कारखाना चालू हो जाए तो मुझे खबर करना भाई।

सोनाराम को लगा टेकलाल अपने बेटे को ढूंढने नहीं बल्कि खुद भी सपरिवार मुंबई में खो जाने के लिये जा रहा है।