घर वापसी / वी. एस. नायपॉल

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वी. एस. नायपॉल भारतीय वंश के ट्रिनिडाडवासी लेखक हैं। आपके पूर्वज, ट्रिनिडाड गये थे और वहीं बस गये। नायपॉल भारत-दर्शन के लिए आये थे और एक साल यहाँ रहे थे। ‘ऐन एरिया ऑफ डार्कनेस’ में उन्होंने एक साल के अपने भारत-सम्बन्धी अनुभव, घटनाएँ और भारतीयों के व्यवहार का वर्णन किया है। कथात्मक ढंग से लिखी गयी यह कृति उनकी साहित्यिक कृतियों में विशेष महत्त्वपूर्ण है। यहाँ हम इसी के एक अंश का संक्षिप्त रूपान्तर दे रहे हैं।

संकटकाल समाप्त हो गया था और मेरा वर्ष भी समाप्त होने को था। सर्दियाँ तेजी से गुजर रही थीं। ज्यादा देर तक धूप सेंकना सुखकर नहीं रहा था। धूल उड़ने लगी थी और बरसात से पहले दबनेवाली नहीं थी। मेरी एक यात्रा बाकी थी और उसमें मेरी विशेष रुचि नहीं थी। भारत का जादू मेरे ऊपर नहीं चला था। यह मेरे बचपन की भूमि थी। एक अँधेरे का क्षेत्र-हिमालय के दर्रों की तरह। जितनी जल्दी मैं यहाँ से अलग हो जाऊँगा, यह फिर दन्तकथाओं में बन्द हो जाएगी। यह अब भी अपनी उन्हीं समयहीनताओं में स्थित है जिनकी मैं बचपन में कल्पना किया करता था। मैं जितना भारत में घूमा हूँ, मुझे लगता है मैं उसे समझ नहीं सका हूँ।

एक साल के दौरान मैं भारत को स्वीकार नहीं कर सका। मैं इससे अपना अलगाव महसूस करता रहा हूँ। मुझे लगता रहा कि मैं एक विदेशी हूँ। वहाँ न मेरा कोई भूतकाल है और न ही कोई पूर्वज। पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस कस्बे में सिर्फ मेरा फर्ज ही मुझे ले गया था। उसमें कोई आकर्षण नहीं था। वह सिर्फ फर्ज़ ही था जो अनिश्चय, सुस्ती और अध्ययन के कुछ दिन बाद मुझे उस सड़क पर ले जा रहा था, जो किसानों की बैलगाड़ियों से भरी रहती थी। यही सड़क मेरे नाना के गाँव को जाती थी। मेरे नाना ने करीब साठ साल से भी पहले एक माल ढोने वाले मजदूर के रूप में वह गाँव छोड़ दिया था।

जब आप पश्चिम और मध्य भारत के बीच से गुजरते हैं तो आपको अनेक आश्चर्य मिलते हैं। यहाँ आबादी बहुत कम है। बादामी रंग की जमीन बंजर और बेकार पड़ी है। लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश के इस इलाके में दूसरे ही तरह के आश्चर्य हैं। जमीन चपटी है, आसमान ऊँचा और नीला है और उस पर किसी तरह की हलचल नहीं। उसके नीचे की हर चीज बहुत छोटी लगती है। आप जहाँ भी देखेंगे, एक गाँव दिखाई देगा - छोटा, धूल से धुँधला, धरती के नंगे उभार की तरह, धरती का ही एक हिस्सा। धूल का छोटा-सा अन्धड़ भी किसान को धोखा दे जाता है और धरती कहीं भी शान्त नहीं है।

एक जंक्शन पर हमने एक स्वयंसेवक मार्गदर्शक अपने साथ लिया और कच्ची मेंड़ो की ओर चल दिये। मेंड़ के किनारे-किनारे ऊँचे और पुराने पेड़ थे। निश्चय ही मेरे नाना अपनी यात्रा पर निकलने से पहले इन पेड़ों के नीचे घूमते-फिरते रहे होंगे। अपनी सारी चेतना के बावजूद मैं रुक गया। इस धरती ने हमारे अस्तित्व को ही रोक दिया था। अब यह सब बहुत साधारण था। वास्तव में मैं और अधिक देखना नहीं चाहता था। जो कुछ मुझे मिला था और जिसके मेरे पास सबूत थे, उसके प्रति मैं बहुत डरा हुआ था - वह नहीं, वह नहीं, मार्गदर्शक चिल्लाया। वह मेरे उद्देश्य और अचानक किसी मिली जीप के कारण काफी उत्साहित था। हमारे पीछे उड़ती धूल से गाँव के गाँव ढँकते जा रहे थे। अब हमारे दाहिनी ओर दुबे लोगों का गाँव था।

इसके चारों ओर मेंड़ का अहाता था। इसकी हर चीज मेरी उम्मीद से अधिक थी। आमों का एक बहुत बड़ा बाग था। गहरी हरी पत्तियों के बीच दो सफेद और साफ-सुथरी मीनारें थीं। मुझे उन मीनारों के बारे में पता था और मैं उन्हें देखकर खुश था। मेरे नाना ने भारत में छोड़े हुए अपने परिवार को फिर से बसाने की कोशिश की थी। उन्हें अपनी जमीन वापस मिल गयी थी। उन्होंने एक मन्दिर बनवाने के लिए पैसा दिया था। लेकिन कोई मन्दिर तो नहीं बन सका। लेकिन कुछ पूजाघर बन गये थे। हमने ट्रिनिडाड में गरीबी और बेकारी के बारे में सोचा था। लेकिन सड़क से चमकती हुई वे मीनारें कितना आश्वस्त कर रही थीं।

हम जीप से उतरे और ऊबड़-खाबड़ जमीन पर अपना रास्ता बनाने लगे। वहाँ एक तालाब बना था। जिस पर आमों की लम्बी-लम्बी शाखाएँ छाया किये हुए थीं। आमों के झुण्ड में धुँधले सूरज की रोशनी छन रही थी। एक लड़का बाहर आया। उसका दुबला शरीर उघड़ा था। वह एक धोती और जनेऊ पहने था। उसने बड़े संकोच और आश्चर्य से मुझे देखा। हमारा दल बड़ा था और अफसराना था। लेकिन जैसे ही हमारे साथ के आई.ए.एस. अफसर ने बताया कि मैं कौन हूँ, लड़का मुझसे लिपट गया फिर उसने मेरे पैर छुए। मैंने स्वयं को उससे छुड़ाया और वह हमें गाँव के बीच से ले चला। वह मेरे नाना और मुझसे अपने सम्बन्ध बताता जा रहा था। वह मेरे नाना के बारे में सबकुछ जानता था। इस गाँव के लिए वे पुरानी घटनाएँ काफी महत्त्वपूर्ण थीं कि कैसे मेरे नाना समुद्र पार गये और बड़ा पैसा बनाया।

जो कुछ मैं देख रहा था उसके प्रति एक साल पहले काफी निराश और घबराया हुआ था। लेकिन गाँव का असाधारण विकास देखकर मेरी आँखें खुली रह गयीं। अधिकांश घर पक्के थे। कुछ काफी ऊँचे थे। कुछ पर नक्काशीदार लकड़ियों के दरवाजे और खपरैल की छतें थीं। गलियाँ पक्की और साफ थीं। वहाँ जानवरों का एक पक्का बाड़ा भी था - यह ब्राह्मणों का गाँव है, एक आई.ए.एस. अफसर फुसफुसाया। औरतें बेपरदा और खूबसूरत थीं। उनकी साड़ियाँ सफेद और सादा थीं। उन्होंने बड़े खुलेपन से हमारा स्वागत किया। मैं आकृति और सूरत से अपने परिवार की औरतों को पहचान गया। ब्राह्मण औरतें बड़ी निडर होती हैं, आई.ए.एस. अफसर ने धीरे से कहा।

यह दुबे और तिवारियों का गाँव था। सभी ब्राह्मण थे और सभी कमोबेश एक-दूसरे के रिश्तेदार थे। एक आदमी कमर से अँगोछा लपेटे और जनेऊ पहने नहा रहा था। वह खड़ा था और अपने ऊपर पीतल के लोटे से पानी डाल रहा था। उसका शरीर कितना भव्य और चमकीला था। घने परिवार और उपेक्षाओं के बीच भी उसका सौन्दर्य सुरक्षित था। वे ब्राह्मण थे। उन्होंने जमीन को थोड़े से पैसों के लिए भाड़े पर उठा रखा था। गजेटियर के अनुसार इस इलाके में ब्राह्मण अधिक थे। उनकी संख्या कुल हिन्दू आबादी की बारह से पन्द्रह प्रतिशत थी। यद्यपि वे सब गाँव में थे फिर भी शायद इसका कारण यह था कि उनमें किसी प्रकार की साम्प्रदायिकता नहीं थी। अब पक्के घर पीछे छूट गये थे। मुझे उस समय बड़ी निराशा हुई जब हमें एक फूँस की छोटी-सी झोंपड़ी के सामने रुकना पड़ा। वह रामचन्द्र का घर था। रामचन्द्र दुबों में मेरे नाना के वंश का प्रमुख था।

रामचन्द्र घर पर नहीं था, जो लड़के और आदमी हमारे साथ मिल गये थे उन्होंने बताया कि वह आज क्यों नहीं था। उन्होंने मुझे पूजाघर दिखाये। उन्होंने दिखाया कि वे उन्हें कितनी अच्छी तरह रखते हैं। और उन्होंने उन पूजाघरों पर लिखा हुआ मेरे नाना का नाम भी दिखाया। लोहे के दरवाजे खोले गये और मूर्तियाँ दिखाई गयीं। मूर्तियाँ ताजा धुली थीं, उन्हें धुले कपड़े पहनाए गये थे और चन्दन का लेप किया गया था। सुबह चढ़ाए गये फूल अभी मुरझाये नहीं थे। मेरे विचार वर्षों पीछे चले गये। समय और दूरी का भाव धुँधला गया। मेरे सामने अपने नाना के घर में बने पूजागृह की मूर्तियाँ उभर आयीं।

एक बूढ़ी औरत चिल्ला रही थी - कौन-सा बेटा? और थोड़ी देर पहले ही मैंने महसूस किया कि बूढ़ी औरत ने अँग्रेजी में पूछा था।

- यशोधरा, आदमियों ने कहा और उसके लिए रास्ता छोड़ दिया। उसके हाथ कूल्हे पर थे और इसी रूप में वह मेरे सामने आयी थी। वह रो रही थी और अँग्रेजी-हिन्दी में बोल रही थी। उसका चेहरा पीला और झुर्रियाँ भरा था। उसकी आँखें भूरी और कमजोर थीं।

- यशोधरा तुम्हें तुम्हारे नाना के बारे में सब कुछ बताएँगी। आदमियों ने कहा।

यशोधरा भी ट्रिनिडाड में रह चुकी थी। वह मेरे नाना को जानती थी। हम दोनों पूजाघर से झोंपड़ी में आ गये। मुझे मूँज की खाट पर दरी बिछाकर बिठाया गया। यशोधरा मेरे पैरों के पास उकड़ूँ बैठ गयी और मेरे नाना की सज्जनता और साहसिकता का बखान करने लगी। जब आई.ए.एस. अफसर ने उसका अनुवाद मुझे बताया तो वह रोने लगी। छत्तीस साल तक यशोधरा इस गाँव में रही थी। उसने अपनी कहानी को परिकथा का रूप दे दिया था। सभी लोग इसे जानते थे फिर भी शान्त होकर ध्यान से सुन रहे थे।

जब मेरे नाना जवान थे (यशोधरा कह रही थी) तभी उन्होंने इस गाँव को छोड़ दिया था और पढ़ने के लिए बनारस चले गये थे। जैसा कि ब्राह्मणों का रिवाज था। लेकिन मेरे नाना गरीब थे। उनका परिवार गरीब था। कठिनाइयों का समय था। अकाल पड़ा था। एक दिन एक आदमी मेरे नाना से मिला। उसने उन्हें दूर देश ट्रिनिडाड के बारे में बताया। ट्रिनिडाड में भारतीय मजदूर काम करते थे। उन्हें पण्डितों और अध्यापकों की जरूरत थी। तनख्वाहें अच्छी थीं। जमीन सस्ती थी और मुफ्त भाड़े का इन्तजाम किया जा सकता था। वह आदमी जानता था कि वह क्या कह रहा है। वह एक रंगरूट था। यदि समय अच्छा होता तो लोग उसे पास भी न फटकने देते लेकिन उस समय लोग उसकी बातें ध्यान से सुन रहे थे। और इस प्रकार मेरे नाना पाँच साल तक मेहनत-मजदूरी करने के बाद ट्रिनिडाड चले गये। हालाँकि वह वहाँ अध्यापक नहीं बन सके। वह एक शक्कर के कारखाने में काम करने लगे। उन्हें खाना और मकान के अतिरिक्त बारह आना रोज दिया गया। यह उस समय बहुत धन था। मेरे नाना ने शाम को पण्डिताई करके यह रकम और बढ़ा ली। ट्रिनिडाड में बनारस में पढ़े पण्डित मुश्किल से मिलते थे। इसलिए मेरे नाना की काफी माँग थी। कारखाने के साहब लोग भी उनकी बड़ी इज्जत करते थे। एक दिन एक साहब ने उनसे कहा, “आप पण्डित हैं, क्या आप मेरी मदद कर सकते हैं? मुझे एक पुत्र चाहिए।”

“ठीक है” मेरे नाना ने कहा, “मैं कोशिश करूँगा कि आपको पुत्र-प्राप्ति हो जाए।”

और जब साहब की पत्नी ने एक बच्चे को जन्म दिया तो साहब बहुत खुश हुए और बोले, “आप इस तीस बीघा जमीन को सँभालिए। इसमें पैदा होनेवाला सारा गन्ना आपका होगा।” मेरे नाना ने गन्ना काटा और दो हजार रुपये का बेच दिया। और उस रुपये से उन्होंने व्यापार शुरू कर दिया। सफलता सफलता को आकर्षित करती है।

एक दिन अच्छे खाते-पीते घर का और ट्रिनिडाड में लम्बे अरसे से बसा हुआ एक आदमी मेरे नाना के पास आया और बोला, “मैं कुछ समय से आपको ध्यान से देख रहा हूँ और मुझे लगता है कि आप काफी तरक्की करेंगे। मेरे एक पुत्री है, मैं उसकी शादी आपसे करना चाहता हूँ। मैं आपको तीन एकड़ जमीन दूँगा।”

मेरे नाना तैयार नहीं थे। तब उस आदमी ने कहा, “मैं आपको एक बग्घी भी दूँगा। आप बग्घी को भाड़े पर उठाकर कुछ पैसा और भी कमा सकेंगे।” और मेरे नाना ने शादी कर ली। उन्होंने उन्नति की। उन्होंने दो मकान बनवाये। और शीघ्र ही वह इतने अधिक धनी हो गये कि इस गाँव में आ सकें और अपने परिवार की पच्चीस एकड़ जमीन पर कब्जा कर सकें।

वह फिर ट्रिनिडाड लौट गये। लेकिन वह काम-काजी आदमी थे। उन्हें आराम हराम था। उन्होंने फिर भारत का एक चक्कर लगाने का निश्चय किया। उनके परिवार ने उनसे जल्दी लौट आने के लिए कहा। लेकिन फिर वह ट्रिनिडाड नहीं लौट सके। कलकत्ता से गाड़ी पर सवार होते ही वह बीमार पड़ गये। और उन्होंने अपने परिवार को लिखा - ‘सूर्य अस्त हो रहा है।’

कहानी समाप्त हो गयी। यशोधरा रोती रही... रोती रही और कोई भी अपनी जगह से नहीं हिला।

मुझे क्या करना चाहिए? मैंने आई.ए.एस. अफसर से पूछा, “वह बहुत बूढ़ी है। यदि मैं उसे कुछ रुपये दूँ तो क्या यह गलत होगा?”

“यही सबसे अच्छा होगा,” अफसर बोला, “उसे कुछ रुपये दे दीजिए और उससे कहिए कि पूजा-पाठ में दिन गुजारे।”

मैंने वैसा ही किया।

तब कुछ फोटोग्राफ दिखाए गये - पुराने, भूली-बिसरी स्मृतियों जैसे। इससे मेरी समय और स्थान की चेतना फिर से अस्थिर हो गयी। काफी बड़ी जमीन पर बीच में मैं खड़ा था। यह कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं था और इसीलिए आसानी से भूल गया था। उन छायाचित्रों पर ट्रिनिडाड के छायाकार की बैगनी मुहर लगी थी और बहुत ही स्पष्ट रूप से उसका पता छपा था। मछली का काला रस पीना मेरी स्मृति में कौंध गया। इसे मैं कभी नहीं भूला और यह एक वास्तविकता थी।

मैं उनके पास बड़े संकोच के साथ आया था। मुझे उनसे बहुत कम की उम्मीद थी। मैं डर रहा था और यह मेरी मूर्खता थी।

कोई और भी था जो मुझे देखना चाहता था। और वह रामचन्द्र की पत्नी थी। वह अन्दर कमरे में मेरा इन्तजार कर रही थी। मैं अन्दर गया। एक सफेद संगमरमर भरी मूर्ति मेरे सामने झुकी और मेरे पैर छू लिये। वह रो रही थी। उसका रोना बन्द नहीं हो रहा था।

“अब मुझे क्या करना चाहिए?” मैंने आई. ए. एस. अफसर से पूछा।

“कुछ नहीं, शीघ्र ही कोई आएगा और कहेगा कि यह रिश्तेदारों के स्वागत का तरीका नहीं है। इन्हें खाना खिलाओ। यही रिवाज है।”

और वही हुआ।

लेकिन खाना नहीं हो सका। हालाँकि उन्होंने मेरा बहुत सत्कार किया था फिर भी मेरी परदेश की सावधानी बनी रही। मैंने यशोधरा के झुर्रियों भरे हाथों पर अपनी जेब खाली नहीं की। मुझे कमिश्नर की सलाह याद आ गयी और मैंने खाने से इनकार कर दिया। मैंने कहा, “मेरी तबीयत ठीक नहीं इसलिए मैं ज्यादा खाता-पीता नहीं।”

“कम-से-कम पानी तो लीजिए,” रामचन्द्र की पत्नी ने कहा।

आई.ए.एस. अफसर बोला, “वह खेत देख रहे हैं, उसमें मटर की फलियाँ हैं। वही आप मन्त्र लीजिए।”

हमने हरी मटर के दाने खाये। मैंने फिर आने का वादा किया। लड़के और आदमी हमारे साथ जीप तक आये। और फिर उस खतरनाक सड़क पर जीप चलने लगी।

शहर के होटल में उस शाम मैंने एक पत्र लिखा।

वह दिन मेरे लिए एक विचित्र संयोग था। उसने समय को तोड़ दिया था। मैं आश्चर्य के साथ बार-बार उस शहर और उस होटल में अपनी उपस्थिति महसूस कर रहा था। उस भारतीय गाँव में ट्रिनिडाड की स्मृतियाँ थीं, फोटोग्राफ थे। उस पत्र से मेरा उल्लास कम नहीं हुआ। उस लेखन ने मेरी बिखरी हुई स्मृतियों को ही नहीं, खोयी हुई मनःस्थिति को भी उजागर कर दिया। पत्र समाप्त हो गया। मैं सोने की कोशिश करने लगा। तभी एक गीत सुनाई दिया। वह युगल गीत था। मुझे लगा कि मेरी मनःस्थिति फिर से जकड़ती जा रही है। लेकिन मैं सपना नहीं देख रहा था। यह बहुत ही सहज था। संगीत वास्तविक था -

तुम्हीं ने मुझको प्रेम सिखाया।

सोते हुए हिरदय (हृदय) को जगाया।

तुम्हीं हो रूप-सिंगार बालम।

सवेरा हो गया था। गीत सड़क के उस पार एक दूकान से आ रहा था। यह गीत मेरे जीवन के तीसरे दशक के अन्तिम दिनों का था। वर्षों पहले मैंने इसे सुनना बन्द कर दिया था। और अब तक मैं इसे भूल चुका था। मैं इसके सभी शब्दों के अर्थ भी नहीं जानता था। लेकिन फिर मैंने कभी नहीं सुना। अब मैं सही मनःस्थिति में था। और तन्द्रित अवस्था का वह सवेरा मैं किसी दूसरी दुनिया में महसूस कर रहा था। और इसका आनन्द बराबर बना रहा। और उस दिन बाजार में घूमते हुए मैंने हारमोनियम देखे। उनमें से एक टूटा हुआ और बेकार पड़ा था - कभी न लौटने वाले भूतकाल की तरह। इसी तरह मेरी नानी के घर में ढोल, छपाई के ब्लॉक और पीतल के बर्तन पड़े रहते थे। बार-बार मैं समय गुजारने की उस आश्चर्यपूर्ण और प्रसन्नता की भावना से भर जाता था।

नाई की दुकान पर दाढ़ी बनवाने के लिए मैं रुका। मैंने व्यर्थ ही गर्म पानी माँगा। मेरी खुशी मिट गयी। मैं फिर एक अधीर यात्री बन गया। सूरज ऊँचा उठ आया था। सुबह की हल्की धूप जल उठी थी।

मैं होटल लौट आया। मेरे दरवाजे पर एक भिखारी खड़ा था - “क्या चाहिए?” मैंने टूटी-फूटी हिन्दी में पूछा।

उसने ऊपर देखा। उसका सर घुटा हुआ था। सिर्फ चोटी उठी हुई थी। चेहरा सूखा हुआ था, आँखें जल रही थीं। मेरी अधीरता चेतावनी में बदल गयी। मुझे वह संन्यासी लगा। कर्मयोग पढ़ चुका था।

मैं रामचन्द्र दुबे हूँ, उसने बताया, मैं आपसे कल नहीं मिल सका था।

मैं उसे कम तकलीफदेह समझा था। उसे मुसकराने के लिए कोशिश करनी पड़ी थी, इससे उसके शब्द ठण्डे और फीके पड़ गये थे। झागदार सफेद थूक उसके होठों के कोनों पर इकट्ठा हो गया था।

होटल में कुछ आई.ए.एस. के प्रशिक्षार्थी थे। उनमें से तीन हमारे दुभाषिये बनने के लिए आ गये।

“मैं सारे दिन आपका इन्तजार करता रहा” रामचन्द्र बोला, मैंने उसे धन्यवाद दिया और कहा, “लेकिन इस तकलीफ की क्या जरूरत थी। मैंने गाँव में कह दिया था कि मैं फिर आऊँगा। मैंने पुछवाया कि उसने मुझे कैसे ढूँढ़ा। मैंने किसी को अपना पता नहीं बताया था।”

वह कुछ मील पैदल चला था, फिर गाड़ी से शहर आया। यहाँ वह सचिवालय गया और वहाँ उस आई.ए.एस. अफसर का पता लगाया। जो मुझे गाँव तक ले गया था।

जब प्रशिक्षार्थियों ने अनुवाद किया। रामचन्द्र हँसने लगा। मैंने अब उसके चेहरे को ध्यान से देखा। उसका चेहरा संन्यासियों जैसा नहीं था। वह सत्त्वहीन था, आँखें बीमारी के कारण चमकीली थीं। वह बहुत दुबला था। उसके पास एक बड़ा-सा सफेद थैला था, जिसे उसने बड़ी मुश्किल से मेरी मेज पर रख दिया था।

“मैं आपके लिए आपके नाना के खेत के चावल लाया हूँ, साथ ही नाना के पूजाघर का प्रसाद भी लाया हूँ।” उसने कहा।

“मुझे क्या करना चाहिए?” मैंने प्रशिक्षार्थियों से पूछा, “मैं तीस पौण्ड चावल नहीं चाहता।”

“वह भी नहीं चाहता कि आप सब ले लें। आप थोड़ा-सा चावल और प्रसाद ले लीजिए।”

मैंने चावल के कुछ दाने ले लिये और प्रसाद ले लिया और उसे मेज पर रख दिया।

“मैं सारे दिन आपकी राह देखता रहा,” रामचन्द्र फिर बोला।

“मुझे पता है।”

“मैं पैदल चला, फिर गाड़ी पकड़ी और फिर शहर का चक्कर काटकर आपका पता लगाया।”

“यह आपकी कृपा थी आपने कष्ट उठाया।”

“मैं आपको देखना चाहता था। मैं चाहता हूँ कि आप मेरी झोंपड़ी में पधारें और हमारे साथ भोजन करें।”

“मैं कुछ ही दिनों में गाँव वापस आ रहा हूँ।”

“मैं आपको अपनी झोंपड़ी में बुलाना चाहता हूँ। मुझे आपसे बातें करनी हैं।”

“जब मैं गाँव आऊँगा, तो आपसे बातें करूँगा।”

मैंने प्रशिक्षार्थियों से कहा कि वे उसे जाने के लिए कह दें। उसे धन्यवाद दीजिए और कहिए कि चला जाए।

एक प्रशिक्षार्थी ने मेरी बात उसे पूरे शिष्टाचार के साथ बता दी।

“अब मुझे जाना चाहिए।” रामचन्द्र बोला, “मुझे अँधेरा होने से पहले गाँव पहुँच जाना चाहिए।”

“जी हाँ, आपको अँधेरा होने से पहले वहाँ पहुँच जाना चाहिए।” और वह चल दिया।

दरवाजा बन्द हो गया। प्रशिक्षार्थी चले गये। मैं पंखे के नीचे बिस्तर पर लेट गया। फिर मैंने स्नान किया। जब मैं अपना शरीर तौलिये से पोंछ रहा था तब मैंने नंगी खिड़की पर खरोंच की आवाज सुनी।

यह रामचन्द्र था। वह वराण्डे में खड़ा मुसकरा रहा था। मैंने किसी दुभाषिये को नहीं बुलाया। मुझे उसकी बात समझने की जरूरत नहीं थी।

“मैं गाँव में बात नहीं कर सकता क्योंकि वहाँ बहुत से आदमी हैं।”

“हम गाँव में बात करेंगे,” मैंने अँग्रेजी में कहा, अब घर जाओ। तुम्हें बहुत दूर जाना है। मैंने इशारे से उसे समझाया कि वह खिड़की से हट जाए और तुरन्त परदे खींच दिये।

कुछ दिन बाद मैंने गाँव जाने का निश्चय किया। यात्रा की शुरुआत अच्छी नहीं हुई। सवारी मिलने में कुछ दिक्कत थी। इस तरह दोपहर बीत गयी। तब हम जाने के लिए तैयार हो सके। हमारी यात्रा धीमी थी। उस दिन जंक्शन पर बाजार थी। सड़क पर बैलगाड़ियों के कारण खतरा पैदा हो गया था। कभी वे दायें चलतीं और कभी हमारे हार्न देने पर बायें चलने लगतीं। वे धूल के बादलों से ढँक गयी थीं। धूल की पर्तें काफी मोटी और लगातार थीं। उन्होंने पेड़, खेत और गाँव ढँक लिये थे। यातायात रुक गया था। गाड़ियों की चरमराहट तेज थी। उन्हें हाँकने वाले भी उनके बैलों की ही तरह सुस्त थे।

जंक्शन पर अव्यवस्था फैली हुई थी। मेरी साँसों में धूल भर रही थी। बालों में धूल थी। कमीज पर धूल थी। मेरी अँगुलियों के नाखूनों तक में धूल भर गयी थी। धूल के कारण मितली आ रही थी। हम रुक गये और यातायात साफ होने का इन्तजार करने लगे।

ठहराव समाप्त हुआ। सूरज डूबने को था। धूल के गुबार शुद्ध सोने के बादलों में बदल गये थे और हर आदमी सुनहरी धुन्ध में घूम रहा था, तभी हम गाँव में पहुँचे। धरती से अब न कोई भय था और न आश्चर्य। मुझे लगा कि मैं इसे अच्छी तरह समझता हूँ। थोड़ी चिन्ता सिर्फ इस बात की थी कि गाँव में रामचन्द्र था।

रामचन्द्र हमारा इन्तजार कर रहा था। उसके शरीर पर वह लबादा नहीं था जो वह होटल में पहने हुए था। वह सिर्फ धोती और जनेऊ पहने था। मैं उसके दुबले पतले, कमजोर शरीर को कठिनाई से सह सका। जैसे ही उसने मुझे देखा, वह खुशी से भर उठा कि घुटे हुए चमकदार सिर को झटका दिया। आँखों में चमक आ गयी थी। मुलायम और झाँइयों भरा मुँह दृढ़ता से बन्द हो गया और दोनों हाथ उठ गये। हमारे साथ खुद ही एक भीड़ थी। वह और भीड़ इकट्ठा किये हुए था। कुछ ही क्षणों में उसके चेहरे पर सन्तोष के भाव थे।

“क्या आप हमारी गरीब कुटिया में कुछ खाना पसन्द करेंगे।”

“नहीं।”

“आप कम से कम पानी तो पी लीजिए?”

“मुझे प्यास नहीं लगी।”

“आप उसके सत्कार को इसलिए अस्वीकार कर रहे हैं क्योंकि वह गरीब है?”

“आप ऐसा ही समझ लीजिए।”

“वह कहता है, आज ईश्वर ने ही आपको उसके पास भेजा है।”

“मैं ऐसा नहीं सोचता।” मैंने बहुत पहले ही ऐसा निश्चय कर लिया था। “उससे पूछिए कि वह मुझसे क्यों और किस सिलसिले में मिलना चाहता था?”

“उसे विश्वास है कि आप थोड़ा एकान्त पसन्द करेंगे।”

वह हमें झोंपड़ी के अन्दर से एक छोटे से पक्के बैठके में ले गया। वहाँ वह और उसकी पत्नी एक कोने में उकड़ूँ बैठ गये। उसकी पत्नी का सिर मर्यादित ढंग से ढँका हुआ था।

रामचन्द्र ने कहा कि आप गाँव में ठीक उस समय आये हैं जबकि वह थोड़े कष्ट में है। वह एक छोटा-सा मुकदमा लड़ना चाहता था। उसने अभी हिसाब लगाया था कि उस मुकदमे में दो सौ रुपये खर्च होंगे और उसके पास रुपयों की कमी थी।

“इससे तो उसकी समस्या अपने आप हल हो जाती है। वह बड़ी आसानी से उस नये मुकदमे को भुला सकता है।”

“वह उसे कैसे भुला सकता है? यह नया मुकदमा तो आप से सम्बन्धित है।”

“मुझसे?”

“यह आपके नाना के खेतों के सिलसिले में है। इन खेतों में वही चावल पैदा होता है जो उसने आपको दिया था। इसीलिए ईश्वर ने आपको यहाँ भेजा है। आपके नाना की जमीन इस समय सिर्फ उन्नीस एकड़ है। उसमें से कुछ समाप्त हो जाएगी। अगर उसने अभी मुकदमा नहीं दायर किया तो। अगर ऐसा हो गया तो फिर आपके नाना के पूजाघरों की देखभाल कौन करेगा?

मैंने रामचन्द्र को समझाया कि वह मुकदमे और पूजाघरों को भूल जाए और उस उन्नीस एकड़ जमीन पर ध्यान दे। वह काफी जमीन है। उन्नीस एकड़ जमीन मेरी अपनी जमीन से ज्यादा है। और उसे सरकार से भी काफी सहायता मिल सकती है।

वह जानता है... वह जानता है, उसने गम्भीरता से कहा। उसने अपनी पीठ मेरी ओर घुमा दी। उसकी पीठ पर हड्डियाँ उभरी हुई थीं। बिना इज्जत के कोई काम नहीं हो सकता। उसका सारा जीवन धार्मिक कार्यों और पूजा-पाठ में गुजर गया। वह रोज चार घण्टे पूजाघरों की देखभाल में गुजारता है। इसीलिए वह यह मुकदमा लड़ना चाहता था। ऐसी हालत में उन्नीस एकड़ से क्या हो सकता था?

सीधा अस्वीकार मुझे मुक्ति नहीं दे सकता था। ऐसा सिर्फ रामचन्द्र को मुकदमेबाजी का अधिकार देने से ही हो सकता था। मुक्ति तभी मिली जब मैं वहाँ से चल दिया। और अचानक मैं गाँव के आदमियों और लड़कों के साथ बाग तक चला गया।

रामचन्द्र मेरे साथ था। वह मुसकरा रहा था। और आदमियों के झुण्ड के साथ मुझे विदाई दे रहा था। उनमें एक आदमी और भी था जो उसका प्रतिद्वन्द्वी था। वह तगड़ा, खूबसूरत और शानदार था। उसने मुझे एक पत्र दिया। पत्र की स्याही अभी तक गीली थी। एक लड़का जीप के पास दौड़कर आया। उसने अपनी कमीज पैण्ट के अन्दर की और शहर तक चलने की इजाजत माँगी। जब रामचन्द्र अपने मुकदमे की रूपरेखा तैयार कर रहा था, जब वह पत्र लिखा जा रहा था, वह लड़का शहर जाने की तैयारी कर रहा था। उसने जल्दी में स्नान किया था। कपड़े बदले थे और अपना सामान बाँधा था। उसके बाल अभी तक गीले थे। मेरे दौरे ने ब्राह्मणों में उत्तेजना भर दी थी। बहुत कुछ उम्मीदें बना ली गयी थीं। मैं जरूरत से ज्यादा सम्मानित महसूस कर रहा था। मेरी इच्छा थी कि तुरन्त इस विपत्ति से छुटकारा पा लूँ।

“क्या हम उसे साथ ले चलें?” आई.ए.एस. व्यक्ति ने लड़के की ओर इशारा करके पूछा।

“नहीं, उस निकम्मे को पैदल जाने दीजिए।”

हम चल दिये। मैंने किसी से विदाई नहीं ली। जीप को आगे की रोशनी दो अलग-अलग किरण समूहों में दिन की शान्त होती हुई धूल को भेद गयी। हमारी यात्रा से फिर शान्ति भंग हो गयी। और दूर होती हुई गाँव की बिखरी रोशनियाँ एक धब्बे में बदल गयीं।

यह यात्रा निरर्थकता और उतावलेपन में समाप्त हुई, यह निर्भयता, आत्म तिरस्कार और पलायन की एक अनुचित कोशिश थी।