घुग्घू / पंकज सुबीर

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"घुग्घू । । ।घुग्घू । । ।बाहर आ, घुग्घू । ।घुग्घू । । । ।बाहर आ" आज फिर छोटे बच्चे घुग्घू को निकालने का प्रयास कर रहे हैं। एक छोटा-सा कीड़ा घुग्घू जो जब भी धूल में घुसता है तो ऊपर एक छोटा-सा शंकू के आकार का गड्ढा छोड़ जाता है और इसी शंकू के अंतिम सिरे पर-पर धूल में कहीं गहरा छिपा होता है घुग्घू। गर्मियों में ये छोटे-छोटे शंकू धूल में ढेरों नज़र आते हैं और इन्हीं शंकुओं में लकड़ी की एक तीली गोल-गोल घुमाते हैं छोटे बच्चे, साथ में गाते जाते हैं "घुग्घू घुग्घू बाहर आ" और इसके बाद गीत बढ़ता जाता है, तरह-तरह के प्रलोभनों को समेटे हुए जैसे "तुझको खीर खिलाऊँगा" या फिर "तेरा ब्याह करवाऊँगा"। छोटी-सी तीली गोल-गोल घूम कर धूल में उतरती जाती है और उस छोटे से कीड़े को निकाल लाती है, घुग्घू बाहर आना जीत माना जाता है, क्योंकि अक़्सर वह बाहर नहीं आता मुश्किल से ही आता है। जिन बच्चों से काफ़ी प्रयास के बाद भी घुग्घु नहीं निकलता वे पूरी घूल को हाथ से खोद डालते हैं, पर घुग्घु फिर भी नहीं निकलता, शायद उसको भी इस तरह बदतमीज़ी से निकाला जाना पसंद नहीं आता।

आज फिर बच्चे बाहर घुग्घू को निकाल रहे हैं, शालिनी ने खिड़की से झांक कर देखा बाहर धूल में छोटे-छोटे बच्चे बैठे हैं, एक-एक जगह दो-दो तीन तीन बच्चे बैठे हैं सर से सर टिकाए, झुंड के एक बच्चे का शरीर कुछ हिलता नज़र आ रहा है, उसी के हाथ में लकड़ी है जिसे घुमा कर वह घुग्घू निकाल रहा है, बाकि सारे दर्शक हैं। कहाँ से सीख लेते हैं ये बच्चे घुग्घू निकालना? और फिर इतना सब्र भी रखना कि आख़िरकार घुग्घू तो निकलेगा। वह भी उन छोटे-छोटे छेदों में जिनका दूसरा सिरा बंद होता है, उन्ही छेदों में लकड़ी की तीली डालकर पूरे मनोयोग से घुमाना, घुग्घू को प्रलोभन देना और उसे बाहर निकाल लाना। लेकिन बाहर आने के बाद घुग्घू का होता क्या है, शायद कुछ नहीं, कई बार तो बाहर निकाले जाने की प्रक्रिया में वह मर भी जाता है, अगर नहीं भी मरे तो फ़ैंक दिया जाता है। क्योंकि मतलब तो उसे बाहर निकालने से होता है, उसे बाहर निकालना मतलब जीतना, फिर उस घुग्घू का क्या काम । । । ।?

"क्या बात है शालिनी आज क्या तेरा वह घोड़ा डाक्टर फिर लेट हो गया?" शालिनी को खिड़की पर झुके देखा तो ममता शर्मा आकर सट के खड़ी हो गईं।

मोटी थुलथुल ममता शर्मा चालीस पैंतालीस की है, पूरे होस्टल में अपने खुले विचारों के लिये मशहूर है। होस्टल में रहने वाली अधिकांश महिलाएँ उससे बराबर दूरी बनाए रखती हैं, लेकिन वह कहते हैं न कि कुण्ठाएँ और क्षुधाएँ भले ही लौह आवरण में क़ैद कर दी जाऐं, मगर फिर भी वे अवसर पाते ही फूटने के स्थान ढूँढ लेती हैं। ममता शर्मा से परहेज़ करने वाली महिलाएँ भी ममता का उपयोग इन्हीं कुंठाओं के समाधान हेतु करती रहती हैं। वस्तुतः कोई हमेशा तृप्त होकर ही संतुष्ट हो ऐसा भी नहीं है, कई बार तृप्त हो जाने का अहसास भी असंतुष्टी पैदा कर देता है। कुंठाएँ अक्सर मानसिक स्तर पर ज़्यादा अच्छी तरह से मिटाई जा सकती हैं।

शलिनी को यहाँ आए हुए दो साल हो गये हैं, एक प्रायवेट फर्म में नौकरी करती है। पहले पहल जब यहाँ महिला होस्टल में आई थी जब यहाँ का माहौल उसे बहुत अजीब लगा था, लेकिन अब तो आदत हो गई है। शाम को एक पशु चिकित्सक डाक्टर तनु विश्वास के पेट क्लीनिक पर पार्ट टाइम काम भी करने जाती है, शाम के सात से नौ बजे तक। तनु ने होस्टल से थोड़े आगे की पाश कालोनी में अपना एक क्लीनिक खोला है, दिन में तो वह अपने घर पर ही क्लीनिक चलाता है पर रात को यहाँ आकर बैठता है। शालिनी को सुविधा यह है कि इधर से क्लीनिक जाते समय तनु उसे साथ ले जाता है और उधर से लौटते समय वापस छोड़ भी जाता है और वह भी इसलिये कि उसके आने जाने का रास्ता यहाँ होस्टल के सामने से ही है। तनु को ही घोड़ा डाक्टर कह कर बुलाती है ममता शर्मा, पहले पहल तो शालिनी ने घोड़ा डाक्टर कहने का विरोध किया था, पर जब ममता नहीं मानी तो उसने भी विरोध छोड़ दिया।

शालिनी यहाँ आकर भी अपनी क़स्बाई संस्कृति को भूल नहीं पाई है, शायद यही कारण है कि उसने अपने आपको कुछ ज़्यादा ही व्यस्त कर रखा है, ताकि कुछ और सोचने का मौक़ा ही नहीं मिले। पार्ट टाईम जाब का जब अम्मा बाबूजी को बताया था तब उन्होंने मना भी किया था, लेकिन वह नहीं मानी। होस्टल में शाम काटना मतलब शाम को ऑफ़िस से थकी माँदी लौटी अधेड़ महिलाओं, कुण्ठित महिलाओं का अनर्गल वार्तालाप सुनना। उसके साथ मजबूरी है कि क़स्बाई मानसिकता के चलते महिला होने के कारण झुंड में ही सुरक्षा का सुक़ून मिलता है और इसलिए शाम को अनचाहे ही उसे इन महिलाओं में शामिल होना पड़ता है।

कभी कभी शालिनी को लगता भी है कि उसके अंदर कहीं गहरे में कोई कीड़ा कुलबुला रहा है वह अपने पैरों से उस मानसिकता के लौह आवरण को खरोंच रहा है, उस खरोंच की आवाज़ उसे अक्सर अपने अंदर सुनाई भी देती है। कभी ऐसा लगता है वह कीड़ा उसके अंदर अंगड़ाई ले रहा है और उसके लम्बे हाथ, शालिनी के अंदर फैलते जा रहे हैं, इस तरह कि उसके अंदर कांच का बुना हुआ कोई जाल चटख़-चटख़ कर टूट रहा है। शालिनी आज तक ये ही नहीं जान पाई है कि उसे ममता शर्मा कि बातें अच्छी लगती हैं या बुरी? ममता शर्मा उसके बाजू के कमरे में ही रहती हैं लेकिन जब तक शालिनी अपने कमरे में रहती है, तब तक ममता भी वहीं रहती है। भले ही ममता शर्मा उसके साथ दोस्ताना व्यवहार रखती है, लेकिन शालिनी उसे ममता दी कहती है, बल्कि उतना ही आदर भी करती है, शायद इसलिए ममता कि सबसे ज़्यादा शालिनी से ही पटती है, कभी उसे लगता है कि ममता शर्मा के इस खिलंदड़ चेहरे के पीछे काफ़ी कुछ ऐसा है जो छुपा हुआ है।

ममता शर्मा इतने सट कर खड़ी थी की उसके थुलथुल वक्ष शालिनी की पीठ और कंधों को छू रहे थे, शालिनी को इस लिजलिजे स्पर्श से घिन-सी आ गई, ऐसा लगा मानो दो भारी भरकम छिपकलियाँ उसकी पीठ पर लड़ रही हैं और कंधे पर दौड़ लगा रही हैं। उसने खिड़की के पल्ले और ममता शर्मा के बीच की थोड़ी-सी जगह से निकलते हुए कहा "नहीं आज तो तनु के आने का कोई प्रोग्राम नहीं है, आज तो वह कहीं बाहर जाने वाला है, कल कह गया था मुझे"।

शालिनी आकर कुर्सी पर बैठ गई, जब तक ममता शर्मा कमरे में है तब तक तो पलंग पर बैठ भी नहीं सकते, नहीं तो यहाँ भी सट कर बैठ जायेगी और फिर वही छिपकलियों का युद्ध। । ।। ममता शर्मा खिड़की की चौखट पर झुक कर खड़ी हो गई, जो एहसास थोड़ी देर पहले शालिनी को हो रहा था वह एहसास अब खिड़की की चौखट को हो रहा होगा, अच्छा है खिड़कियों को तो वैसे भी छिपकलियों के रेंगने की आदत होती है।

"अच्छा ? तब तो आज बड़ी मुश्किल ही रही होगी तुझे।" ममता शर्मा ने वहीं खड़े-खड़े कहा और हल्की-सी हँसी के साथ कहा।

"क्यों ? मुझे काहे की मुश्किल?" शालिनी ने कहा, उसे ममता के इस सवाल पर ही झल्लाहट आ रही थी, जैसे इसका शरीर लिजलिजा है वैसे ही लिजलिजे इसके सवाल भी होते हैं, कई बार तो ऐसे सवाल पूछती है कि उबकाई आ जाती है। पर क्या करें एक ही होस्टल में रहना है, इतना तो झेलना ही प़डेगा।

खिड़की पर झुकी ममता पीछे मुड़ी "मुश्किल तो होती है माय डियर, मुश्किल तो होती है।" कहते हुए पलंग पर आकर बैठ गई। लगभग पाँच स्थानों पर बेतरह फूल रहे शरीर को गाउन में कस कर रखती है ममता और उस गाउन में से वह पाँच स्थान ऐसे नज़र आते है मानो ज्वालामुखी फटना चाह रहे हों। "मुश्किल तो होती है और मुश्किल की जड़ होता है साले आदमी का हाथ, एक बार औरत के जिस-जिस अंग पर पड़ जाता है, उस अंग से बस एक ही आवाज़ आती है, ये दिल मांगे मोर" कहते हुए ज़ोर का ठहाका लगाया ममता ने, इतने ज़ोर का ठहाका कि पाँचों स्थानों में थर थराहट हो गई। घिन-सी आई शालिनी को ममता को इस तरह हँसता देख कर, "ममता दी आप जो कह रही हैं, वैसा कुछ नहीं है, मैं तनु के साथ काम कर रही हूँ बस।" शालिनी ने कहा।

"अच्छा । । ।? अभी वैसा कुछ नहीं हो पाया?" कहते हुए हँसते-हँसते पलंग पर दोहरी हो गई ममता।

छिः शालिनी को फिर घिन आ गई, रात को मुझे इसी पलंग पर सोना है, रात भर छिपकलियाँ रेंगती रहेंगी शरीर पर। हँसते-हँसते वापस बैठ गई ममता। बोली "मैंने ये कब कहा था कि वैसा कुछ भी हो गया है, मैंने तो बस ये ही कहा था कि आदमी का हाथ अपने स्पर्श का एडिक्ट बना देता है, तूने कभी गर्द के एडिक्ट देखे हैं? जिस तरह वे छटपटाते हैं न नशे के लिये, ठीक उसी तरह पुरूष द्वारा छुई गई हर जगह पर भी वही छटपटाहट हो जाती है।"

"बिल्कुल ग़लत बात है" शालिनी के स्वर में कुछ तल्ख़ी और दृढ़ता आ गई "ऐसा कुछ भी नहीं होता, एडिक्ट हो जाने की जो बात आप कर रही हैं, वह सरासर बकवास है। हर नशे का एडिक्ट अपनी सफ़ाई में यही दलील देता है कि उसका शरीर नशे का आदी हो गया है, अब वह उसके बिना नहीं रह सकता। ऐसा ही कुछ तो आप भी कह रही हैं, अपनी, अपने मन की कमजोरी को अपने अंगो के एडिक्ट होने का कह कर क्या सिद्ध करना चाह रही हैं आप?"।

"मैं यह कभी नहीं कहती कि ऐसा सब कुछ मेरे साथ हो रहा है" ममता गंभीर हो गई "मैंने केवल यह कहा है कि स्त्री के अंगों को पुरुष के स्पर्श की आदत पड़ जाए तो फिर उसके लिए मुश्किल हो जाती है" कह कर ममता शर्मा चुप हो गई।

"सॉरी ममता दी मेरा मतलब वह नहीं था" शालिनी का स्वर ममता के उत्तर को सुनकर नर्म हो गया "मैं तो बस यह कहना चाह रही थी कि जैसा आप सोच रहीं हैं वैसा कुछ नहीं होता। अच्छा आप ही बताओ नशे का एडिक्ट भी अगर ठान ले तो क्या वह अपनी आदत को नहीं छोड़ सकता है?"

"वो ख़ुद नहीं ठानता उसे तो ठनवाया जाता है, भला अपनी मर्ज़ी से कोई नशे की आदत छोड़ता है?" ममता शर्मा बोली "और फिर ये तो दोनों ही मामले बिलकुल अलग-अलग हैं इसलिए दोनों की एक ही दृष्टि से नहीं देखा जा सकता, मैंने तो एडिक्ट होने को केवल उदाहरण के रूप में लिया है, साम्यता दर्शाने के लिए नहीं।"

एक बार फिर दोनों के बीच चुप्पी पसर गई, शालिनी, ममता शर्मा को वैसे भले ही ममता दी कहती है, उसका सम्मान भी करती है, पर इस मुद्दे पर चर्चा करते समय उनकी घोर विरोधी हो जाती है। बहस करते समय जितनी तल्ख़ी शालिनी के स्वर में आ जाती है उसको सुनकर ऐसा लगता है कि दोनों में बाक़ायदा झगड़ा चल रहा है लेकिन यह सब कुछ केवल बहस के चलने तक ही होता है, बहस के बाद फिर दोनों सामान्य हो जाती हैं।

"बात साम्यता कि नहीं हैं, बात तो यह है कि ऐसा होता है या नहीं होता है?" शालिनी ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा।

"वही मेरा भी कहना है" लापरवाही पूर्वक कहा ममता शर्मा ने "वही प्रश्न है, ऐसा होता है अथवा नहीं होता, मेरा यह कहना है कि हमेशा होता है, प्रत्यक्ष नहीं होता तो अप्रत्यक्ष रूप से होता है, शारीरिक नहीं होता तो मानसिक होता है, मगर होता तो है।"

"ऐसा आप सोचती हैं" शालिनी ने व्यंग्य पूर्वक कहा "मगर ऐसा है नहीं, आप जब अपनी बात को सिद्ध नहीं कर पाईं तो आपने ये मानसिक वाली नई कहानी शुरु कर दी।"

"नई कहानी ...?" ममता शर्मा ने कहा "मैं कोई नई कहानी नहीं गढ़ रही हूँ, मैं तो पहले से ही केवल एक ही बात कह रही हूँ। चूँकि तू मेरी बात की प्रत्यक्षता का विरोध कर रही थी इसलिए मैंने उसका दूसरा पक्ष उजागर किया है, ये मानसिकता वाला" एक बार दोनों फिर चुप हो गईं, शालिनी खिड़की के बाहर नज़र आ रहे आषाढ़ी आसमान की ओर देखने लगी। कुछ समय की शाँति के बाद ममता शर्मा ही चुप्पी को तोड़ते हुए बोली "अच्छा शालिनी एक बात बता, क्या अपनी कल्पनाओं में तू तनु को आज तक कभी भी अपने बेडरूम में नहीं ले गई? क्या आज तक तूने वैसा कुछ भी नहीं सोचा?"

"नहीं ममता दी, मैंने वैसा कुछ बिल्कुल भी नहीं सोचा, मुझे मेरे माँ बाप ने गाँव से शहर नौकरी करने के लिए भेजा है, ना कि ये सब करने के लिए, मैं घिन करती हूँ उस विचारधारा से जिसमें ये सब बातें कही जाती हैं, जो आप कह रही हैं, मैं यहाँ अपने काम से आई हूँ, न कि किसी पुरुष की थाली में परसा व्यंजन बनने के लिए।" शालिनी ने हाथ में पकड़े अख़बार को मरोड़ते हुए कहा।

"यहीं तो तू ग़लत है शालू" ममता ने कहा "तुम जैसी लड़कियाँ जो स्वयम् को पुरुष के भोगने की चीज़ समझती हैं, सर्वथा ग़लत होती हैं। औरत कभी भोगने की चीज़ नहीं होती, ना ही पुरुष भोगता है उसको। वास्तव में तो वह औरत ही होती है जो पुरुष को भोगती है। स्त्री ने स्वयंभोग्या कि छवि तो केवल पुरुष को भ्रम में डाले रखने के लिए ही बनाई है और फिर तू जो कह रही है कि माँ बाप ने तुझे यहाँ नौकरी के लिए भेजा है, वह सब करने नहीं, तो वहाँ भी तू ग़लत है, हर व्यक्ति अपने जीवन के नाटक का केन्द्रीय पात्र स्वयम् होता है, बाक़ी सब तो सहायक भूमिका में होते हैं। इस केन्द्रीय पात्र को अपने निर्णय स्वयम् लेने होते हैं, यदि वह अपने निर्णय अपने सहायकों की ओर देखकर लेगा या उन पर छोड़ देगा तो ज़ाहिर है ऐसे में वह नाटक फ़्लाप शो साबित हो जायेगा।" लंबी बात कह कर सांस लेने के लिए रुकी ममता।

"ऐसा आप सोच सकती हैं मैं नहीं" शालिनी ने चुप्पी का फ़ायदा उठाते हुए कहा "मेरे लिए वर्जनाएँ-वर्जनाएँ ही रहेंगीं और आपने जो केन्द्रीय पात्र और सहायक वाली बात कही है उससे भी मैं सहमत नहीं हूँ, दरअसल ये सब बातें तो अपनी बात को सिद्ध करने के लिए खींचे गए उदाहरणों का ख़ूबसूरत मायाजाल है। आप भले ही इन्हें मानें पर मैं नहीं मान सकती, तनु के साथ मैं रोज़ उसकी मोटर सायकल पर सट कर बैठती हूँ, साथ काम करते समय भी कई बार ऐसा होता है, लेकिन उसका मतलब ये तो नहीं कि मुझे वह सब कुछ अच्छा लगने लगा और उस अच्छा लगने के कारण कभी किसी रोज़ । । ।!" अपनी बात को कहते-कहते अधूरा छोड़ दिया शालिनी ने।

"घुग्घू" कहते हुए ममता ने ज़ोर से ठहाका लगाया "मैं इतनी देर से लकड़ी घुमा रही थी कि शायद तू अपनी विचारधारा के शंकू से बाहर निकल आएगी जिसके आख़िरी नुकीले सिरे के नीचे तू क़ैद है। पर शायद तू कुछ ज़्यादा गहरे में उतर गई है और अब तो ये समझना भी मुश्किल है कि ये शंकू जिसे तूने ही बनाया है, तू इसके नीचे ही खड़ी है या ये तेरे ऊपर सवार हो गया है।"

"ममता दी आपके उदाहरण तो सचमुच ही ग़ज़ब के होते हैं, चलिये आप आज तो घुग्घू को निकालने में असफल रहीं फिर कभी सही। क्या पीओगी चाय या कॉ़फी?" शालिनी ने कुर्सी से उठते हुए पूछा।

"कॉफ़ी ही बना ले यार थोड़ी स्ट्रांग सी, तुझसे बहस करने के बाद तो कॉफ़ी ही पीना पड़ेगी।" कहते हुए ममता ने दोनों हाथ ऊपर उठाते हुए एक भरपूर-सी अंगड़ाई ली।

"ममता दी कॉफ़ी के साथ कुछ खाओगी क्या । ।?" शालिनी ने गैस चालू करते हुए पूछा।

"नहीं यार खाने वाली बात तो छोड़ दे, अभी कुछ खा लिया तो भूख मर जायेगी और फिर रात को मेस का वह सड़ा खाना खाने के लिए बहुत हिम्मत जुटानी पड़ेगी।" ममता ने लेटे-लेटे ही जबाब दिया।

"भूख मरती भी है क्या ममता दी । । ।?" शालिनी ने कुछ देर पहले चल रहे विषय का सिरा फिर से पकड़ने का प्रयास किया।

"चल हट अब छोड़ भी, तेरी तो आदत हो गई है बहस करने की। जब तक तेरा ये शंकू तेरे ऊपर सवार है तब तक कर ले बहस, एक बार ये टूट गया तो फिर सारी बहस धरी की धरी रह जायेगी।" ममता कि ऊँगलियाँ तकिये में धंसी हुई हैं।

ऐसा आज ही नहीं हुआ ऐसा तब से हो रहा है जब से शालिनी और ममता कि पहचान हुई है, तब से दोनों में ये बहस गाहे बगाहे छिड़ती रहती है। लेकिन आज की बहस का अंतिम सिरा शालिनी को परेशान किए हुए है, रात को सोई तो ऐसा लगा जैसे अंधेरे में ही कोई लकड़ी बार-बार आकर उसे छू कर जा रही है और साथ में आ रही है ममता दी की आवाज़ "घुग्घू घुग्घू बाहर आ"। एक दो बार तो चौंककर बैठ गई वो। रात भर ठीक से नींद नहीं आई। ममता दी को तो आदत पड़ गई है, लेकिन उसे परेशानी होती है इन सब बातों के कारण। उसके अंदर भी कुछ ऊगने लगता है, कुछ ऐसा जो उसे खींचता है, उसे खींच कर ले जाता है तनु के शरीर से उठती हुई उस गंध की ओर, उसे लगने लगता है कि वह उस लसलसी गंध में फंस जायेगी, लेकिन फिर ख़ुद ही हिम्मत करके निकल आती है उस गंध के दायरे से बाहर। जिसके किनारे पर नज़र आते हैं अम्मा और बाबूजी और उनकी उलझनों भरी दुनिया, स्वयम् को इस दलदल में फंसाकर वह उनकी एक उलझन और बढ़ाना नहीं चाहती। होता अक्सर ये है कि जिस दिन भी ममता दी से इस विषय पर बहस होती है उस दिन तनु का इंतज़ार-सा रहता है।

आज फिर वैसा हो रहा है आज फिर शालिनी को शाम का इंतज़ार है, दिन भर काम के चक्कर में बिल्कुल फ़ुरसत नहीं मिली लेकिन शाम होते ही फिर वही प्रतीक्षा। होस्टल आकर मुँह धोकर तैयार हुई ही थी कि बाहर से तनु की मोटर सायकल की आवाज़ सुनाई दी "अरे...! क्या बात है तनु आज जल्दी आ गया?" सोचते हुए खिड़की की ओर बढ़ी।

"क्या बात है, आज इतनी जल्दी?" शालिनी ने खिड़की से झांक कर पूछा।

"हाँ, जल्दी जाना है और देर से भी आना है, पता नहीं आज वेक्सीनेशन की तारीख है, आज रश रहेगा।" तनु ने हेलमेट उतारते हुए जबाब दिया।

"अरे । । ।! मैं तो भूल ही गई थी" शालिनी ने सर पर हाथ मारते हुए कहा "तुम थोड़ा ठहरो मैं ज़रा मेस में कह कर आ जाऊँ कि मेरा खाना पैक करके कमरे में रखवा देना।"

"अरे छोड़ो" तनु ने लापरवाही पूर्वक कहा "लौटते समय किसी होटल से डिनर पैकेट बंधवा लेंगे, मेस का खाना ठंडा हो गया तो कैसे खाओगी? अब जल्दी चलो वहाँ लोग परेशान हो रहे होंगे, हमने छः बजे का समय दिया था।"

"अच्छा" शालिनी ने कहा "तुम ठहरो मैं बस दो मिनिट में आती हूँ" और खिड़की का पल्ला बंद कर दिया।

क्लीनिक पर सचमुच ही लोगों की भीड़ थी, आज कुछ ज़्यादा ही रश था, लोग अपने कुत्ते, बिल्लीयाँ लेकर आए थे। ये भी अच्छा है, दांत भी मत तोड़ो नाख़ून भी मत काटो, केवल वेक्सीन लगा दो ताकि काटने के बाद का ख़तरा ख़त्म हो जाए, हाँ नोचना और काटना बरकरार रहे। काश ऐसा ही कोई वेक्सीन वह ममता दी को भी लगा पाती, जिससे मानसिक नोंच ख़सोट भी जारी रहती लेकिन उस नोंच ख़सोट के बाद उसे जो कुछ हो जाता है, कम से कम वह नहीं होता। क्योंकि ऐसा तो कोई वेक्सीन हो ही नहीं सकता जो ममता दी की इस मानसिक नोंच ख़सोट वाली प्रवृत्ती को भी समाप्त कर दे और अगर ऐसा कोई वेक्सीन होगा तो भी वह कम से कम ममता दी पर तो निष्प्रभावी हो जायेगा।

जब थोड़ा रश कम हुआ तो तनु ने धीरे से पूछा "क्या बात है शालिनी आज तुम्हारा मूड ठीक नहीं है क्या?"

"नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं है" शालिनी ने तुरंत बात काट दी।

"नहीं तो, कुछ तो है, या तो आज मैं जल्दी ले आया वह कारण या फिर कल तुम्हारी ममता दी से फिर भिड़ंत हो गई है।" तनु ने मुसकुराते हुए कहा।

"अच्छा। । ।?" शालिनी ने हँसते हुए कहा "तो अब आपने ज्योतिष विद्या भी चालू कर दी है।"

"वो तो करनी ही पड़ेगी" तनु ने कहा "अगर आपको एक लड़की के साथ काम करना पड़े तो ज्योतिष विद्या तो सीखनी ही पड़ेगी। क्योंकि लड़कियों के मूड का भी कुछ ठिकाना नहीं होता, ज्योतिष विद्या से कम से कम ये तो पता रहेगा कि अब क्या करना है।"

"अच्छा मुझे नहीं पता था कि आप मेरे कारण ज्योतिष विद्या भी सीख रहे हैं, ख़ैर आपने सही पकड़ा है कल मेरी और ममता दी की फिर बहस हो गई थी।" तनु की ओर देखे बग़ैर कहा शालिनी ने।

"आज तुम्हारी ममता दी वाला मामला निपटा ही दिया जाय, पेशेंट से निपटने के बाद के बाद बात करते हैं इस पर कि आख़िर कौन ग़लत है तुम या तुम्हारी ममता दी?" तनु ने स्वर को थोड़ा गंभीर बनाते हुए कहा।

"चलो तुम भी कोशिश करके देख लो।" शालिनी ने जवाब दिया।

नौ बजते-बजते सारे पेशेंट निपट गए। तनु वाश बेसिन में जाकर हाथ घोने लगा और बाहर शालिनी सामान समेटने लगी।

"हाँ शालिनी बताओ अब, क्या प्राब्लम है तुम्हारी ममता दी की?" तनु ने सोफ़े पर धंसते हुए कहा।

"कुछ नहीं बस वही उनकी फ़िजूल बातें कि मैं घुग्घू हूँ या फिर पुरुष का हाथ जहाँ-जहाँ लगता है वहाँ पुरुष के एडिक्ट वाली बात आ जाती है।" शालिनी ने पर्स उठाते हुए कहा और साइड के सोफ़े पर आकर बैठ गई।

"अच्छा । । ।?" तनु के होंठ गोल हो गए और माथे पर सलवटें पड़ गईं "ऐसा कहतीं हैं वो, ख़ैर ऐसा कहती हैं तो मेरे हिसाब से कुछ ग़लत नहीं कहतीं, उन्होंने दुनिया देखी है और भोगी भी है।" तनु ने कहा।

"हाँ भोगने से याद आया" शालिनी बोली "वो कहती हैं कि वास्तव में तो स्त्री पुरुष को भोगती है, पुरूष स्त्री को नहीं भोगता है, ये तो पुरूष का भ्रम है कि वह स्त्री को भोग रहा है।"

"बहुत अच्छे और सटीक लॉजिक हैं तुम्हारी ममता दी के पास भाई।" तनु ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा और धुंए के छल्ले छोड़ने लगा "कभी विस्तृत चर्चा करनी पड़ेगी तुम्हारी इन ममता दी से। बल्कि चर्चा क्या इनसे तो बाक़ायदा सत्संग करना पड़ेगा दिन भर का, थोड़ी बहुत चर्चा से अपना कुछ नहीं होने वाला। क्या बात कही है वास्तव में स्त्री पुरुष को भोगती है, इतनी सटीक बात शायद इससे पहले किसी ने नहीं कही होगी। शालिनी तुम्हारी इस बारे में भले ही कुछ भी सोच हो पर मैं बिल्कुल और शत प्रतिशत सहमत हूँ कि वास्तव में परुष को भ्रम ही है कि वह स्त्री को भोगता है, भोगती तो स्त्री है पुरुष को।" तनु ने धुंआ छोड़ते हुए कहा।

"ये तुम नहीं बोल रहे, तुम्हारे अंदर का पुरुष बोल रहा है" शालिनी ने कहा।

"हाँ बोल रहा है, तो क्या हुआ?" तनु ने आगे झुककर शालिनी की आँखों में झाँकते हुए कहा "मेरे अंदर तो केवल पुरुष ही बोल रहा है, तुम्हारे अंदर से तो कोई अम्माजी बोल रही हैं।" कह कर हंस पड़ा तनु।

"ये कोई हँसने की बात नहीं हैं और वैसे भी मैं इस विषय पर कल ममता दी से इतनी लम्बी बहस कर चुकी हूँ कि अब और करना नहीं चाहती।" शालिनी ने कहा

तनु कुछ नहीं बोला मुस्कुराते हुए शालिनी की ओर देखता रहा, शालिनी को कुछ असहज लगा तो वह बोल पड़ी "चलना नहीं है क्या? याद है या नहीं मेरे लिए डिनर भी पैक करवाना है रास्ते से।"

"चलते हैं बस ये सिगरेट पूरी हो जाए" तनु के स्वर में लापरवाही थी "और फिर तुम ये क्यों भूल जाती हो कि तुम महानगर में हो जहाँ रात नहीं होती। ये कोई क़स्बा नहीं है कि आठ बजे ही होटलें बंद हो जाती हैं।"

"मैं नहीं भूलती कि मैं महानगर में हूँ और अगर भूलना भी चाहूँ तो तुम और ममता दी क्या मुझे भूलने दोगे?" धीरे से कहा ममता ने जवाब में तनु सिगरेट का धुँआ छोड़ता हुआ मुस्कुरा दिया। तनु की मुस्कुराहट से चिढ़ कर शालिनी ने टेबिल पर रखा समाचार पत्र उठा लिया और पढ़ने का उपक्रम करने लगी, वह तनु की ओर से लापरवाही दर्शाने का प्रयास कर रही थी, हालांकि उसे ख़ुद भी पता नहीं था कि वह ऐसा क्यों कर रही है, लेकिन इस तरह के अनुत्तरित प्रश्न तो वैसे भी अब उसके पास बहुतायात हो गये हैं।

अचानक बिजली गुल हो गई, पूरे कमरे में घुप्प अंधकार छा गया, केवल तनु की सिगरेट का गुल चमक रहा था। शालिनी को ऐसा लगा कि वह गुल धीरे-धीरे उसके पास आ रहा है, ठीक उसके पास आकर वह गुल भी बिजली की तरह गुल हो गया। उसे लगा कमरे में किसी अंधेरे कोने में ममता दी आकर खड़ी हो गई हैं और धीरे-धीरे बुदबुदा रही हैं "घुग्घू घुग्घू बाहर आ, घुग्घू-घुग्घू बाहर आ"। उसके अंदर का कीड़ा लोहे के आवरण को लगातार खरोंचने लगा। अचानक उस कीड़े ने लोह आवरण को चटख़ा दिया, ममता दी की फुसफुसाहट "घुग्घू घुग्घू बाहर आ" अब तेज़ स्वर में हो गई, लौह आवरण चटखते ही शालिनी को लगा तेज़ और तीखी रोशनी में उसकी आँखें चुंधिया रही हैं।

आज उसे दलदली किनारे पर खड़े अम्मा बाबूजी के बारे में कुछ भी याद नहीं आ रहा था, न उनकी परेशानियों को लेकर चिंता हो रही थी उसे लगा ममता दी तो बिलकुल सही कहती थीं, ग़लत तो वह ही थी। कमरे के कोने-कोने में छाए अंधेरे में ममता दी की आवाज़ गूंज रही थी "घुग्घू घुग्घू बाहर आ" अचानक वह लौह आवरण का शंकू चटख़ कर टुकड़े-टुकड़े हो गया, शंकू के टूटते ही उसके चारों ओर तेज़ दूधिया और ठंडी रोशनी लहराने लगी, अब ममता दी की आवाज़ आना भी बंद हो गई थी। उसे लगा कि शंकू के बाहर की दुनिया उतनी बुरी नहीं है जितना वह समझती थी। वह धीरे से बुदबुदाई "आप ठीक कहतीं थीं ममता दी" और आँखें बंद कर शंकू के बाहर की दुनिया कि ठंडी दूधिया रोशनी में समा गई।