चँपा महाराज, चेलम्मा और प्रेम कथा / राजनारायण बोहरे

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गली में से लूले कक्का की वैशाखी की आवाज आई तो उन सब की भवें सिकुड़ीं। एक-दूसरे की ओर बड़ी गहरी नजरों से देखा उन सबने।

चम्पा महाराज की नजर में लूले कक्का ऐसे फरेबी हैं कि हरदम ऐब करने का मौका तलाशते रहते हैं। कौये की तरह हरहमेश यही गुनताड़ा लगाते रहेंगे कि कुछ ऐसा-वैसा देखने को मिल जाये। कभी होनहार ऐसी हुई कि उन्हे वैेसा मिल गया तो ऐसी धरउल बात कहते हैं कि सुनने वाला तिलमिला जाये, ...भले फिर उन्हे मन ही मन लाख गालियाँ दे ले। काम तो वे कौओं के करते हैं लेकिन उन्हें देख के पंडित चम्पा प्रसाद को कौआ नहीं गिद्ध याद आता है। रामायण की एक अर्धाली गुनगुना उठते हैं वे-"गीध अधम खल आमिष भोगी"

लूले कक्का ने पाया कि दालान में बिछे तख्त पर चम्पा प्रसाद जमे हैं और नीचे बिछे डोरिया पर उनके तीनों पार्षद मौजूद हैं-परमा खवास, खेता भोई और रतना परजापत; यानी कि चम्पा प्रसाद की पूरी परिषद। उनके हाँेठ फड़क उठे-यही परिषद तो गाँव में फसाद की जड़ है। ...यही परिषद चम्पाप्रसाद को बलशाली बनाती है। ...गाँव के निबल लोगों को परेशान करने की साजिश यही परिषद रचतीे है। ज़रूरत मन्दों को चम्पा महाराज के जाल में फंसाने के लिये ये ही लोग लाते हैं।

वे दालान में पहुंचे तो पाया कि वहाँ महुआखेड़ी के पुजारी वाला प्रसंग चल रहा है। ...पिछले दिनों पुजारी देवचन्द अपने गाँव की एक विधवा औरत को लेकर कहीं भाग गये थे न, सो आसपास के निठल्ले गाँव वालों के बीच इन दिनों यही रोमाँचक प्रसंग ताल ठोंकता रहता है। ...किसी के पास उन दोनों के दिल्ली पहुंचने की खबर है तो किसी को वे ग्वालियर में मजदूरी करते मिले। कोई तो भागने वाले दोनों को एक दुर्घटना में मर जाने की खबर बताता है तो कोई उन्हे ब्राह्मण बिरादरी पर कलंक। चम्पा प्रसाद जोर-जोर से बोलते हुए देवचन्द को गरिया रहे थे। वे इस तरह उत्तेजित थे, मानो पुजारी देवचन्द परिषद के इज़लास में मुज़रिम बने खुद कटघरे में खड़े हों और अदालत में अपनी लांछना सुन रहे हों।

लूले कक्का ने पंडित जी से जुहार की और तख्त के बगल में बिछे डोरिया पर अपनी वैशाखी रखके बैठ गये। पुजारी देवचन्द के बहाने रामायण में बताये गये कर्मकाण्डी ब्राह्यणों के आचरण और नियम बखानते चम्पा प्रसाद उन्हें देखकर एक पल को रुके फिर आगे शुरु हो गये "तो मैं कह रहा था कि-सोचिय बिप्र जो वेद बिहीना... यानी कि वह ब्राह्यण सोचने योग्य है जो वेद के रास्ते पर नहीं चलता। वेद के रास्ते वाली मेरी बात पर ध्यान दो तुम सब, ...अब वेद के बताये रास्ते तो थोड़े से ही हैं भैया कि चारों वरन अपने-अपने धरम का ख्याल रखें और श्रुति मार्ग में बताये अनुसार अपना कर्तव्य निबाहें। ब्राह्मण के लिए कहा गया है कि मारग चलते छुआ-छूत का ध्यान धरो, खान-पान में शुद्धता का ख्याल रखो। जित्ती बार घर से बाहर निकलो हर बार घर लौट के स्नान करो। ...हो सके तो पात्र-कुपात्र से बातचीत का भी विचार रहे।" आखिरी बात कहते हुए उन्होने लूले कक्का की तरफ बड़े ध्यान से देखा था।

चम्पाप्रसाद के प्रवचन सुनकर लूले कक्का मन ही मन बोले 'मीठा मीठा गप्प और कड़वा थू! तुम तो सहस मुख हो चम्पा प्रसाद, अभी तो वेदों के बहाने से चारों वरन के लिए धर्म-अधर्म की बात कर रहे हो, लेकिन हाल ही कहीं हरिजनों के उद्धार की कोई ऐसी बात सामने आ जाये, जिसमें तुम्हें लाभ पहुंचता हो तो तुम तुरंत ही रामायण में से शबरी और निषाद का उदाहरण देकर तुलसीदास और भगवान रामचन्द्र के हवाले से वेद को हरिजनोद्धारक बता दोगे। तुम्हारे तो सैकड़ों मुंह हैं जिनसे अपने मतलब की हजारों बातें निकलती हैं।'

उधर चम्पाप्रसाद कह रहे थे-"ब्राह्मण को अपने रसोई-घर में जाने वाली हर चीज अमनिया कर लेना चाहिये, माने जल से पवित्र। रोटी का आटा घर की चक्की का पिसा हुआ होना चाहिए. पीने का पानी घर के कुंआ और नये जमाने में कहें तो पाताली नल से लेने का विधान है।"

"तभी तो आपके यहाँ चूल्हे की लकड़ी भी धो के जलाई जाती है महाराज" परमा खवास चम्पा प्रसाद के घर के बारे में भीतरी जानकारी प्रकट करता हुआ पुलकित था।

यह सुनकर चम्पा प्रसाद को बहुत अच्छा लगा। पर लूले कक्का कहाँ मानने वाले थे, वे सदा की तरह बीच में ताल ठोकने लगे-"आजकल तो हरेक के रसोईघर में गैस के चूल्हे चल पड़े है न महाराज, उनमें गैस की टंकी जुड़ी रहती है। अब गैस की शुद्धि-अशुद्धि को कौन जांच सकता है!"

खेता भोई को लूले कक्का की बात में दरार निकालने का उम्दा मौका हाथ लगा। वह तो उन पर चढ़ ही बैठा-"वाह रे लूले कक्का, वैसे तो दुनिया भर की जानकारी अपने खीसा में डार के घूमते फिरते हो और तुम्हें इतनी-सी बात पता नहीं है कि गैस की टंकी में कोई गन्दी चीज नहीं, पेट्रोल से बनी गैस रहती ह, ...और सब जानते हैं कि पेट्रोल तो धरती मैया की कोख से पैदा होने वाली कुदरती चीज है, दुनिया में इससे ज़्यादा शुद्ध चीज और क्या होगी? वैसे ईंधन में शुद्धि अशुद्धि क्या देखना।"

लूले कक्का ने पैंतरा बदला "खेता भैया, तुम्हें शायद पता नहीं है कि गोबर से भी गैस बनती है और दारी इस जीभ को आग लगे भैया कि ये बात भी सोलहा आना सच्ची है कि अब तो आदमी के गू से भी गैस बनने लगी हैं।"

"कक्का तुम भी..." रतना ने घिनाते हुये मुंह बनाया।

"सच्ची कह रहे, हमने तो अपनी आँखन से देखा कि अगल-बगल के कित्तेई गाँवन में बड़े-बड़े धर्मात्मा और कर्मकाण्डी लोगों के घर में वायो-गैस की मशीन लग गई है, उसी की गैस से उनके घर के चूल्हे से लेकर बैठका दियावट तक जलते हैं। ...हाँ ये बात और है कि आपत्ति काल में पढ़े लिखे विद्धानों को ऐसी बातों की चिन्ता करने की छूट रहती है। इन दिनों आपत्तिकाल ही तो है, आप सब कहो कि धर्म पर जैसा आपत्तिकाल इन दिनों है, सृष्टि के निर्माण से लेकर अब तक कभी रहा क्या? विश्वास न हो तो चम्पा महाराज से पूछ लो। शास्त्रांे में साफ-साफ लिखा है 'आपात काले मर्यादा नास्ती' माने आपत्ति के दिन में मर्यादा की चिन्ता मती करो।"

वे एक पल को रुके फिर अपनी बात के कारण उन सबके चेहरे से उड़ती आभा को देखकर खुश हुए और गहरी नजरों से चम्पा प्रसाद को भीतर तक बेधते हुए बोले-"आज भिनुसारे जब हम टहलने निकले तो तुम्हारे बड़े भैया कालकाप्रसाद अस्पताल के पास वाली सड़क पर चेलम्मा नर्स की गलबहियाँ डाले टहलते मिले थे। हमे लगता है कि कालका भैया पिछली रात वहीं सोये थे। बल्कि...अब आज की क्या कहें, हमने खुद देखा है कि वे रोज वहीं रुकते हैं। चँपा भैया एक दिना जाके देख तो लो कि वह आग लगी नर्स है कौन विरादरी की । कल को ऐसा न हो कि कालकाप्रसाद के संग-संग पूरे गाँव की नाक कटा दे वो।"

चम्पा प्रसाद ऐसे समय बड़ी पशोपेश में पड़ जाते है। कई बार तो ऐसा भी होता है कि वे किसी जिजमान के यहाँ कथा भागवत बांचते-बांचते पवित्रता, वैदिक आचरण और हिन्दू समाज की वर्ण परम्परा की तारीफ कर रहे होते है और अचानक वही जिजमान उनके भैया कालकाप्रसाद के आचरण के बारे में कुछ पूछने लगता है। वैसा ही इस वक्त हुआ। लूले कक्का ने रंग में भंग कर दिया। चम्पा प्रसाद भीतर ही भीतर तिलमिला उठे, पर प्रकट में चुप रहे। लूले कक्का जैसे खोजी आदमी को सिरजाना ठीक नहीं है। दुष्टों को दूर से ही नमस्कार कर लो शास्त्र भी ऐसा ही कहते हैं-दुर्जन दूरतः परिहरेत।

लूले कक्का ने देखा कि महफिल फीकी हो चली है। ... वे यही चाहते थे। अपने मिथ्या अहंकार, पाखण्ड और बौद्धिकता के ठहरे सड़े जल के पोखरे में आकण्ठ डूबे इन लोगों में कुछ बेचैनी पैदा हा, े यही मंतव्य था उनका, वह हो चली थी, सो उन्होने अपनी वैशाखी सम्भाली और उठ के सब पंचों से "जय राम जी की" कहते हुए मूंछों ही मूंछों में मुस्कराते वहाँ से चल पड़े। ...वे शुरू से इस सिद्धांत के हामी रहे कि खुद मस्त बने रहो और इन शोषकों को चिन्ता एवं बेचैनी मंे डाले रहो। वह बेचैनी पैदा हो गई थी सो अब उनका काम भी क्या बचा था।

लूले कक्का की ठक-ठक अब अपने प्रिय क्षेत्र हरिजन टोले की ओर बढ़ने लगी थी, जहाँ बैठे दर्जनों लोग उनका इंतजार कर रहे होंगे।

इधर बड़ी देर तक उनकी वैशाखी की ठक-ठक दालान के एकदम शान्त हो गये वातावरण में गूंजती रही। फिर परिषद के लोग एक-एक करके वहाँ से खिसकने लगे।

संवदिया की भूमिका निभा के लूले कक्का चले गये थे, पर चम्पा प्रसाद तो जैसे अपने तख्त पर कीलित से होकर रह गये थे। मन में भारी उथल-पुथल थी।

...अब कालका भैया से खुली बात करना बहुत ज़रूरी है कि दादा ये रंग-ढ़ंग छोड़ो, घर की बदनामी हो रही है। ताज्जुब है कि पचपन साल की वानप्रस्थी उमर में भी तुम्हें ऐसे ऐल-फैल अच्छे लग रहे है। आने वाले समय में सैकड़ों दिक्कतें आ जायंगी ऐसे तो, मेरी बच्ची सयानी हो रही है, कल कहीं उसकी सगाई करने जायेंगे तो लड़के वाले यही उलाहना ठोक देंगे कि लड़की के ताऊ तो ऐसा-वैसा करते फिरते हैं, ऐसे घर में कैसे रिश्ता करें। शादी-ब्याह की चर्चा करते वक्त ब्राह्मणों में वैसे ही सात पीड़ी तक की खोज खबर ली जाती है। वरणशंकर और दशा ब्राह्मणों को तो देहरी से टिटकार के भगा दिया जाता है। सोचते-सोचते चम्पा प्रसाद को अपना माथा भारी-सा होता महसूस हुआ। वे तख्त पर पाँव पसार कर पूरी तरह लेट गये।

जाने कब बिटिया उन्हें अकेला बैठा देख गयी थी, सो चाय बना लाई. पीतल के गिलास को कटोरी से ढक के उसने तख्त के पायताने रखी तो गुमसुम चम्पा प्रसाद बैठ गये और गिलास उठाया फिर फूंक-फूंककर जोर-जोर से चाय के सरुटा भरने लगे।

बड़े भैया की खबरें सुन-सुन के कान पक गये हैं। अब पानी सिर के ऊपर निकलने ही वाला है। जल्दी ही कुछ करना पड़ेगा।

लेकिन वे "कुछ" क्या करेगे...? यही तय नहीं कर पा रहे हैं। कदाचित, आज अम्मा जीवित होती, तो उनसे परामर्श करते। पहले तो उन्ही से कालका भैया को तगड़ी डांट दिलवाते। आज तो पुरा-पड़ौस और पूरे गाँव में कोई ऐसा बुजुर्ग नहीं बचा है जिससे सलाह लें। जिससे कहेगे, वही जुबान पकड़ लेगा। घर-घर जाके कह देगा कि दुबे महाराज के यहाँ फूटन पड़ गई है बात-बात में छुआ-छूत और जाति-पांति की दुहाई देने वाले चम्पा प्रसाद के निज बड़े भाई को किसी तरह की अपवित्रता का लिहाज नहीं है। हँस जैसे बेदाग कुल-खानदान का सयाना पक्षी, गंदी तलैया में किलोल कर रहा है।

चम्पा महाराज के विचारों ने पलटा खाया, ...वैसे सच तो यह हैं कि आज अम्माँ भी जिन्दा होती तो कुछ न कर पाती। कालका भैया ऐसे सांड़ हैं जिन्हे नाथने वाला कोई नहीं हैं। वैसे आज जो स्थिति आई है उसके लिये पूरी तरह से अम्माँ ही दोषी है। न कम उम्र में कालका भैया को इस लफड़े में डालतीं और न वे आज इस हालत में होते।

तब पन्द्रह साल के ही हो पाये थे कालका भैया कि सगाई के लाने आमखेड़े के ज्वालाप्रसाद सगया बनके आ गये थे। इर्द-गिर्द के गाँवों में ज्वालाप्रसाद का चौधरी खानदान खूब बजीता खानदान था। सात पीढ़ी से उनके कुल में न कोई ऐब था, न किसी तरह का दाग। सो अम्माँ उनके घर से रिश्ता आया जान कर भैरा के गिर पड़ी। न किसी जान पहचान वाले से कुछ पूछा, न आमखेड़े वाले रिश्तेदारों से सलाह ली। यहाँ तक कि पिताजी के पास बैठकर दो पल की चर्चा तक न की और खुद मुख्तार होके रिश्ता तय कर दिया।

ज्वालाप्रसाद नारियल-रुपया देकर चले गये तो अम्माँ ने दूसरे दिन ही नाई के हाथ शगुन की धोती और पोलका (साड़ी-ब्लाउस) भेज दिये थे। सम्बन्ध पक्का हो गया। अम्माँ बहुत खुश थीं। जो भी धर आता उसे इस ऊंचे घर के रिश्ते की बात बतातीं।

आठवीं पास करते-करते कालका भैया की शादी हो गई. बहू उमर में छोटी थी, सो उन दिनों के रिवाज के मुताविक बहू की विदा नहीं हुई.

कई साल बाद तब दसवां पास किया था कालका प्रसाद ने, जब कि उनका गौना हुआ। अबकी बार बहू साथ में आई थी। चमकीली चुनरी ओढ़े, लाल-सिन्दूरी साड़ी में लिपटी गोरी-भूरी बहू के मेंहदी रचे हाथ-पाँव देख-देख कर दूसरे किशोर रोमाँचित हो रहे थे, कालकाप्रसाद का तो हाल खराब था! वे अपनी दुल्हन को देखने, उससे बतियाने, उससे मिलने को बड़े उतावले थे।

आमखेड़ा से सुबह छिरिया-बेरा विदा कराके वे लोग चले थे और दोपहर होते-होते अपने घर आ गये थे। मर्द लोग दालान में बैठ के सुस्ता रहे थे और अम्माँ मेहमानों की पहुनई के किस्से सुन रहीं थी कि मुन्नी जिज्जी ने उबलते दूध के उफान में ठण्डे पानी की कटोरी उड़ेल दी। वे कह रहीं थी-भौजी तो निराट पागल है।

यह सुनकर स्तब्ध हो गये थे सबके सब। अम्माँ उठीं और लपकती हुई भीतर र्गइंं। दो-पल बहू से बातचीत करी फिर माथा ठोकती बाहर निकलीं थीं-नासपीटे ज्वालाप्रसाद ने धोखा दे दिया। मीठी-मीठी बातें करके सिर्रन मोड़ी ब्याह दी धुंआ लगे ने। हर बाप को अपनी लड़की के अनुरुप वर देखना चाहिए, लेकिन इस काले मन वाले ने अपनी लड़की के लच्छन नहीं देखे। मेरे हीरा से लड़के को ठग लिया कपटी ने।

अम्माँ लगातार बड़बड़ा रहीं थीं-देखा होगा कि घर में साठ बीघा की जोत है, विरासत में गाँव के डाकघर का काम हैं। हजारों में एक दिखे ऐसा लम्बा-लछारा लड़का हैं। सो राख भये ज्वाला की नीयत डोल गई और मेरे घर को बर्बाद कर डाला। नाश मिट जायेगा ठठरी बंधे का।

मुन्नी जिज्जी ने समझाया अम्माँ तनिक धीरे बोलो। बात घर में दबी रहे, चिल्लाओगी तो बाहर के लोग सुनेंगे और बाहर के लोगों का क्या है, सब हँसने के मीत है

अम्माँ चुप हो गईं थीं।

गप्पो खवासन बड़ी सयानी औरत थी। अम्माँ ने चुपचाप उसे बुलवाया। घर की बात घर में रखने के लिये आस-औलाद की सौगंध देकर उसे बहू के पास भेजा। तीन चार दिन तक दुल्हन से बातें करती गप्पो उसकी मालिश करने के बहाने पूरे शरीर पर हाथ फेर आई थी। उसने अम्माँ को बताया कि बहू की देह में लुगाइयों जैसा कुछ नहीं है। उसकी तो सूखे मैदान-सी मर्दो जैसी छाती है। सख्त हाथ-पाँव में बड़े-बड़े रोम और कड़क-चामड़े की जांघ वाली ये दुल्हन आदमी-बइयर के आपसी सम्बंधो के बारे में कुछ भी नहीं जानती। गप्पो तो चली गई पर अम्माँ का जियरा सुलग उठा था।

उन्होने फिर भी हिम्मत नहीं हारी थी।

एक दिन पड़ौस में गारी के बुलौआ का बहाना कर वे मुन्नी और चँपा को साथ ले गई थी, ताकि घर पर अकेले बचे कालका और बहू की आपस में कोई बातचीत शुरु हो सके.

दस मिनिट बाद ही बाखर में से बहू के रोने चीखने की आवाजें आने लगी तो किसी ने जाकर अम्माँ को खबर की थी। अम्माँ मन ही मन अनुमान लगाती लौट आई थीं कि घर में क्या हुआ होगा।

घर आके बहू को पुचकार के चुप कराया और झेंपते खड़े कालका को बाहर जाने का इशारा किया था।

अम्माँ ने बहू को सुदमती करने के लिए गाँव भर के गौड़-घटोइया, देई-देवता मनाने शुरु कर दिये थे। एक सयाने को बुला के झाड़ा भी दिलाया था। पर सब बेकार रहाँ चँपा को याद है कि पहले की तरह भौजी बावरी-सी बनी सिर खोले, पल्लू लटकाये कभी भी अपने कमरे से बाहर चली आतीं। वे कभी आंगन की मोरी पर बिना लिहाज धोती उठाके पेशाब को बैठ जातीं। कभी घर भर में समय-बेसमय झाड़ू लगाने लगतीं, तो कभी धुले-अनधुले कपड़े उठाके पानी में भिगो देती और कुटनी से कूट-कूट कर उनका मलीदा बना देतीं।

वे दिन बड़ी मुश्किल के दिन थे।

भौजी की बात गाँव में फैलने लगी थी। अम्माँ शर्म संकोच में डूबी हूई घर में बंद रहने लगी थीं। गाँव में कुछ औरतों का कुटनी का ही जन्म होता है न, सो उनमें से कोई किसी न किसी बहाने घर में चली आतीं और सुर्र-फंू निकालने का यत्न करतीं। अम्माँ कुछ न कहतीं। भौजी की बात यूं ही टाल जातीं। पर ऐसी बातें छिपाये नहीं छिपतीं, सो एक मुंह से दूसरे, फिर तीसरे होती हुई कालका की बहू के पागलपन की बातें घर-घर में पहुंच गयीं थीं।

घर के दूसरे सदस्य भी परेशान थे। मुन्नी जिज्जी आपसी चर्चा में भौजी की बात उठने के डर से अपनी सहेलियों के पास जाने का साहस नहीं कर पातीं थीं और चम्पा प्रसाद पढ़ाई के बहाने गाँव में नहीं लौटते थे, कस्बे में ही बने रहते थे। पिताजी तो सदा से इकल मिजाजी रहे, न ऊधो का लेना न माधो का देना। सो उन्हें कोई दिक्कत न थी। वे अपने डाकघर के काम में लगातार व्यस्त रहते। कालका भैया तो सबसे ज़्यादा दुखी व परेशान थे।

़ सावन का महीना आया। आमखेड़ा से कालका भैया के साले अपनी बहन को लिवाने आये तो अम्माँ ने उनकी खूब आव-भगत की और भौजी को बिदा करके हमेशा के लिये अपने हाथ झटकार लिए.

महीनों बीते। आमखेड़ा से एक दो कहनातें आयीं। तीसरी बार ज्वालाप्रसाद खुद आये। पर अम्माँ नहीं मानी। वे सिर्रन बहू को अपने घर में रखने को तैयार नहीं हुई. भौजी मायके में ही ज़िन्दगी बिताने लगी।

चाय का खाली गिलास उठाने पंडिताइन खुद आई थी। पति को टोकना चाह रहीं थीं पर पंडित जी को गंभीर बना देखके कुछ बोलने का साहस नहीं हुआ। सो चुपचाप लौट गई. इस वक्त चम्पा प्रसाद भी चाह रहे थे कि रोक के कमला (पत्नी) से कुछ मशविरा करें। लेकिन वे पुरानी यादों में डूब उतरा रहे थे, सो मन नहीं हुआ कि अतीत के गुनगने जल में से ऊपर उछरंे और वर्तमान की कड़क धूप में अपनी देह तपायें। आदमी का अतीत कैसा भी क्यों न हो वह सदैव ही अच्छा और स्मरणीय लगता है उसे। वर्तमान में तो विकल्प चुनने के खतरे ही खतरे है, लेकिन अतीत में कोई विकल्प नहीं होता।

दसवीं पास करते-करते चम्पा प्रसाद की भी शादी कर दी थी अम्माँ ने। इसके पहले उन्होने मुन्नी जिज्जी को भी शादी करके ससुराल विदा कर दिया था।

चम्पा प्रसाद की बहू घर में आई, तो कालका भैया का आंगन में प्रवेश निषेध हो गया। वे दालान या पौर में ही बैठे रहते या फिर पिताजी के साथ डाकघर का काम निपटाते रहते। चम्पा प्रसाद जब भी पत्नी के साथ होते एक अजीब-सा अपराध बोध उन्हें घेर लेता। वे भारी संकोच में रहते। घर में बिना घरवाली वाला ब्याहा थ्याहा बड़ा भाई बैठा था और छोटा जवानी का सुख भोग रहा था।

कालका भैया का ध्यान खेती में लगने लगा था और वे भुरहरा-बेला खेत-टगर में निकल जाते फिर रात गये तक ही उधर ही रहते।

ऐसे में ही एक दिन अचानक पिताजी सोते के सोते रह गये। घर पर आफत टूट पड़ी थी। अम्माँ का धीरज एक बार फिर काम आया। उन्होने तेरही होने के पहले ही कालका प्रसाद को डाकघर का काम संभलवा दिया। डाकखाने के बड़े अफसरों को दरख्वास्त भेजी गयी कि पिता की जगह पुत्र को डाकघर का काम दे दिया जाये। बाद में कालकाप्रसाद के नाम का रुक्का भी आ गया था, तो अम्माँ ने चैन की सांस ली थी। चम्पा प्रसाद की पढ़ाई छुड़ा के वापस बुलाया और अम्माँ ने उन्हें घर द्वार संभालने की जिम्मेदारी सौप दी थी। सब कुछ ठीकठाक चलने लगा था। गाँव के एक मात्र पूजा स्थल राम जानकी मन्दिर की सेवा पूजा भी पंचों ने कालकाप्रसाद को सौंप दी, तो उनकी दिनचर्या सुबह से शाम तक एकदम तंग और कसी-कसी-सी हो गई थी।

कार्तिक का महीना आया तो गाँव भर की औरते "कतक्यारी" बन गईं और कार्तिक नहान का व्रत ले बैठीं। हर दिन सुबह पांच बजे औरतों के ठट्ठ के ठट्ठ कुआँ-तालाब की तरफ चल पड़ते। नहाने के बाद भीगे कपड़ों में ही स्त्रियाँ मूर्ति के आसपास गोल बनाके बैठ जाती फिर देर तक भगवान को पूजती रहतीं। वे आपस में खूब चुहल बाजियाँ भी करतीं। इतनी स्त्रियों की सुरक्षा के लिए एकाध मर्द बहुत ज़रूरी था, सो सब महिलाओं ने परस्पर घोका-विचारी करके पुजारी कालकाप्रसाद से थराई-विनती करी और उन्हें नहाने के बखत साथ चलने को राजी कर लिया।

चम्पा प्रसाद अनुमान लगा सकते हैं कि बाहर से वैराग्य का प्रदर्शन करते कालका भैया का मन भीतर से कैसा क्या रहा होगा। उन क्षणों में उनका मन कैसे स्थिर रह पाता होगा, जब सिर्फ़ एक गीली साड़ी बदन पर लपेटे, अगल-बगल से अपने गुदाज-ठोस स्तनों की झलक दिखाती, कनखियों से कालका की नजरों को पढ़कर आँखें में सुखानुभूति भरे अर्धनग्न महिलायें पूजा करती हुई गीले कपड़ो में देर तक उनके सामने चुहल करती होंगीं। ...और जब कोई कतक्यारी अपनी सखी के कान में फुसफुसाती होगी कि 'रात को कुत्ता छू गया सो मेरा तो धरम भिरस्ट हो गया। मैं पूजा कैसे करूं गुइयां' या 'कल मेरे ऊपर कल छिपकली गिर पड़ी जो हर बार चौथ-पांचे को गिरती थी दारी इस दफा परमा को ही आन गिरी, सो आज मैं पूजा नहीं कर पाऊंगी।' साधारण बात है कि "कुत्ता" और "छिपकली" के प्रतीकार्थ कालका भैया खूब समझते होंगे।

सुबह के स्नान में कतक्यारियों के सखा बने कालका भैया दोपहर के दूसरे स्नान के बाद लौटती उन्हीं सखियों का रास्ता छेड़ लेते-

प्यारी यहाँ दधिदान लगे, मम घाट यहाँ तुम जानत नाहीं।

दै दधिदान खौं जाव घरै, बस और यहाँ कछु लागत नाहीं॥

सखियाँ कहती-

इकली छेड़ी वन मैं आय श्याम तूने कैसी ठानी रे।

कंस राजा ते करुं पुकार, मुसक बंधवाय दिवाऊँ मार,

तेरी ठकुराई देय निकार,

जुलम करे नहीं डरे हरे तू नारि विरानी रे। इकली छेड़ी ...

कालका भैया झूम कर गाते-

कंस का खसम लगे तेरो, वह तनहा कहा मेरो,

काउ दिन मार करु ढेरो,

करुं कंस निरवंश मिटा दऊँ नाम निसानी रे। इकली छेड़ी...

कालका भैया को सैकड़ों कवित्त, सवैया, लावनी और दोहे मुखाग्र याद थे, जबकि सखियाँ अपने हाथ में किताबें लेकर मुकाबला करतीं। पर अन्त में कालका भैया की ही जीत होती और सखियों को प्रचलित रिवाज के मुताबिक उन्हें थोड़ा-थोड़ा दान और माखन मिश्री देना पड़ता।

तीसरे पहर उजले सफेद धोती कुर्त्ता में सजे-धजे, इत्र से महकते कालका भैया मन्दिर में बैठ के प्रेमसागर की कथा कहते।

कृष्ण चरित्र की गाथायें सुनाते-सुनाते कालका भैया कथारस में गहरे डूब जाते और कथा में चल रहे हर प्रसंग, हर दृश्य और हर भाव का बारीक-बारीक वर्णन करते। उन्हें सारी बृज लीलायें अपने समक्ष साकार होती दिखतीं। गाँव वृन्दावन लगने लगता और सारी स्त्रियाँ गोपी. कालका भैया को भ्रम होता कि वे कान्हा बन गये हैं और वे कुछ ऐसी-वैसी हरकत कर डालते।

शुरु-शुरु में मजाक मान के किसी ने कुछ न कहा पर रोज-रोज वही हरकत देख एक महिला ने घर जाके शिकायत कर दी, तो उस दिन लखन नौगरैया उलाहना लेकर अम्माँ के पास आ गये थे।

अम्माँ ने उन्हे समझा-बुझा के वापस भेजा, तो अगले दिन पंचमसिंह दाऊ आ धमके थे। अब कर्री बीध गई थी, पटक्का होना था। अम्माँ ने उनसे थराई विनती कर क्षमा माँगी और कालकाप्रसाद को तत्काल ही कथा-भागवत के कार्य से बेदखल कर चम्पा प्रसाद को उनका चार्ज दिला दिया था। चम्पा प्रसाद ने निर्पेक्षभाव से कथा सुनाानी शुरू कर दी थी। कुछ ही दिनों में उन्हे अनुभव होने लगा कि सखियों को इस रूखी-सूखी कथा में मजा नहीं आ रहा है। वे कथा में दो अर्थ वाले संवाद नहीं जोड़ते थे, न रासलीला प्रसंग को लम्बा खींचते थे। दरअसल उनके घर में नवयौवना, सुंदर, सुघड़ दुलहन थी, सो उन्हे फुरसत ही नहीं थी कि गाँव की किसी भौजी को नजर भर के देखें।

साठ बीघा खेतों की भरपूर फसल, कालका भैया की डाकघर की तनख्वाह और पुरोहिताई-चढ़ौत्री से इतनी आमदनी हो जाती कि अल्लै-पल्लै पैसा बरसता। उनके घर के लोग कभी भी ज़्यादा खर्चीले नहीं रहे। सब मोटा खाते-मोटा पहनते। सो टाईम-बेटाईम घर में पैसा बना रहता। अड़ौस-पडौस में जिसे ज़रूरत होती, अपना काम चलाने को रुपया माँग ले जाता। बाद में चम्पा प्रसाद ने बाकायदा ब्याज पर रुपया उधार देना शुरू कर दिया। इससे उनका मान-सम्मान और ज़्यादा बढ़ गया। अब वे कंगला ब्राह्यण न थे, बल्कि गाँव के इज्जतदार बौहरे हो गये थे।

धन और प्रतिष्ठा बढ़ी, तो ब्राह्यण समाज की बिरादरी-पंचायतों में वे पंच बनाये जाने लगे। गाँव की ग्रामीण पंचायतों में भी वे सर्वमान्य पंच बन गये। ज्यों-ज्यों इज्जत मिली, त्यों-त्यों वे छुआछूत और ब्राह्यणी संस्कारों के प्रति ज़्यादा कठोर होते चले गये। इस प्रतिष्ठा और मान-सम्मान ने उनके मन पर ऐसा असर छोड़ा कि वे कालका भैया के दूसरे ब्याह की बात तक नहीं सोच पाये। दरअसल कालका भैया को अब इस उमर में कोई कुंवारी लड़की तो देता नहीं, हाँ कोई विधवा या परित्यक्ता ब्राह्यणी मिल पाती। ऐसी औरत ले आने से चम्पा प्रसाद की सारी इज्जत धूल में मिल जाती।

शुरूआत में तो अम्माँ के पास जब-तब कालका भैया की बदचलनी की शिकायतें आतीं तो अम्माँ उन्हे खूब डांटतीं और वे चुप बने सुनते रहते। पर बाद में वे बेशर्म और उग्र होने लगे। एक बार खेती के मईदार (हलवाहे) नत्था की परित्यक्ता बहन झुमकी से सम्बंध बने और अम्माँ ने उनको रोका तो उन्होने अम्माँ को खूब खरी-खोटी सुनाई थीं। उनका तर्क था कि अम्माँ सिर्फ़ चम्पा प्रसाद और उसके बच्चों की फिकर करती हैं, कालकाप्रसाद की उन्हें कोई चिन्ता नहीं है। इसी तरह जब एक बाल विधवा गाँव के स्कूल में मास्टरनी बनकर आयी और कालका भैया का उससे परिचय बढ़ गया तो उनका स्कूल में ज़्यादा आना-जाना होने लगा, तब अम्माँ ने उन्हें टोका तो कालका भैया ऐसे ही बिफर पड़े थे। दरअसल खेती पाती संभालने का हुनर तो घर में सिर्फ़ उन्हीं के पास था, चम्पा प्रसाद तो ऊपरी उठा-धराई करते थे। इसलिए कालकाप्रसाद को खुद के पसीना पर बड़ा घमण्ड था और सब लोग उनसे दबते भी थे।

अभी साल भर पहले की बात है। उस रात अम्माँ को अचानक हैजा हुआ, तो उन्हें तुरन्त ही मोटर सायकिल पर बिठा के कस्बे तक भागे गये। सारा घर परेशान हो उठा। इन्जेक्शन लगेे। बोतलें चढीं। पर अम्माँ बच नहीं पाईं। घर पर अचानक गाज-सी गिर गई. सब लोग बुरी तरह टूट गये।

सबसे ज़्यादा सदमा कालका भैया को लगा। उन पर ऐसा असर हुआ कि वे काम-वासना से एक बार फिर वैरागी से हो गये। उनका ध्यान पूरी तरह से खेती में लगने लगा। एक-एक करके चार कुंये खुदवाये और पूरी जमीन पटवारी की बही में सिंचित रकवा के रूप में दर्ज हो गई. बैल की तरह वे खेत टगर में घूमते रहते और फसल के सीजन में धन-धान्य से घर भर देते। हाँ ठसके से रहने का नया शौक चर्राया था उन्हें। सफेद उजले कमीज-पजामा पहनकर पावों में वे चमड़े के पंप-शू पहन लेते। सिर में महकौआ तेल चुपड़ कर प्रायः गाँव के बस स्टैण्ड पर सुबह ही जा बैठते, फिर सांझ ढले वहाँ से लौटते।

एक बार फिर सब कुछ ठीक हो गया था।

छह महीना पहले गाँव में नया सरकारी अस्पताल खुला और दक्षिण भारत की एक नर्स उसमें स्थायी रूप से नियुक्त होकर रहने के लिए आ गई थी।

पता लगा कि यह नर्स केरल की रहने वाली है और इसका नाम चेलम्मा है। गाँव की औरतें कई दिनों तक चटखारे लेकर नर्स के नाम का उच्चारण करने की कोशिश करती रहीं थीं।

चम्पा प्रसाद ने चेलम्मा की सराहना सुनी थी कि इतने दूर से अकेली चली आई चेलम्मा सचमुच बड़ी निडर और समझदार औरत है। उसकी तत्परता का ये हाल था कि गाँव में से रात बिरात जब भी बुलौआ पहुँचता वह तुरंत ही अपने कंधे पर सरकारी बेग लादकर हाथ में टॉर्च ले तेज कदम रखती फटाक से गाँव में आ धमकती। गाँव में किसी की जचगी होती या किसी दुल्हन के पहली बार पाँव भारी होने की खबर फैलती चेलम्मा सदा ही वहाँ मौजूद मिलती। धीरे-धीरे गाँव भर में वह इतनी लोकप्रिय हो गई कि लोग उसे घर का सदस्य मानने लगे।

चर्चा सुनी तो एकदिन चम्पा प्रसाद भी टहलते हुये भी अस्पताल जा पहुँचे थे। अस्पताल के चौकीदार ने नर्स को उनका परिचय दिया तो चेलम्मा ने उनके प्रति खूब आदर प्रकट किया और सिर पर पल्लू लेकर बैठ गई. उन्हें सुखद विस्मय था कि देश के किसी भी कोने की महिला क्यों न हो सब एकसी होती हैं-वही शालीनता, वही लज्जा और वही सौहाद्रता। देखने में साँवली और सूखे से चेहरे की चेलम्मा की उम्र मुश्किल से तीस वर्ष दिखती थी। रहन-सहन में वह बड़ी साफ और गरिमामय महिला दिखती थी। उसका हिन्दी बोलना अच्छा लगता था। वह खूब पढ़ी-लिखी थी और दुनियादारी की बातें अच्छे से समझती थी। उस दिन मन ही मन चेलम्मा की तारीफ करते वे वहाँ से लौटे थे।

उन्हीं दिनों की बात है। अचानक कालका भैया को पूरे बदन में खुजली का रोग फूट निकला। ऐसा भयानक कि वे बेहाल हो उठे। हाथ की उंगलियों के जोड़ से शुरु र्हुइं छोटी-छोटी पीली फुंसियाँ जांघों-रानों और जहाँ जगह मिली, बढ़ती चली गईं। खुजली टांगों में फैली तो चलना मुश्किल हो गया, लुंगी बांधे वे टांगें चौड़ी करके चलते थे तो बड़ी तकलीफ होती थी। कांयफर को गुड़ में मसल कर खाया और तेल में मिलाके उन्होने कई दिन लगाया, चिरौंजी और मिश्री कई दिनों तक भसकी पर ठीक न हुये। पहले तो हिचकते रहे, फिर एक दिन अस्पताल जाकर कालका भैया ने खुजली की दवा माँगी, तो नर्स चेलम्मा ने बिना किसी लिहाज के अपने हाथों कालका भैया के शरीर पर नीली-सी दवा पोत दी थी। उसके बेलिहाज आचरण, समर्पित सेवाभाव और खुलेपन पर कालका भैया भावाविभूत हो उठे थे।

चम्पा प्रसाद को ठीक से याद है कि कालका भैया तब से रोज ही अस्पताल पहुंचने लगे हैं। शरीर की बीमारी तो कब की ठीक हो चुकी थी, पर शायद दिल की बीमारी लग गई थी कालका भैया को। फिर तो घर से प्रायः दालें-दफारें, गेंहूँ-चना यानी कि फसल पर जो भी चीज पैदा हो झोलों में भर-भर के चेलम्मा के पास पहुंचने लगी हैं। चम्पा प्रसाद यह सब देखके जान बूझकर चुप रहते हैं।

आरंभ में उनके मन में आया कि चेलम्मा पढ़ी-लिखी खुद-मुख्तार औरत है। उसने जो भी किया होगा अच्छी तरह से सोच समझ के किया होगा। फिर दूसरी औरतो की नांई दूर देश की इस अकेली औरत के वास्ते लड़ने-तकरार करने को कोई नहीं आने वाला है। यह सब उनने खूब सोचा है। चलो अच्छा है, इस बहाने बड़े भैया का कुछ दिन मन बहलता रहे। क्या हर्ज है? कई रातों से बड़े भैया के घर न लौटने पर इसी लिये उनने कुछ नहीं कहा है। पर आज जिस तरह से लूले कक्का ने उन्हें उलाहना दिया, उससे लगता है कि अब गाँव वालों के पेट में दर्द हो उठा है।

बेटी की आवाज से वे चौंके. वह याद दिला रही थी कि दोपहर के दो बज गये हैं और उनने अभी तक न नहाया-धोया न पूजा करी।

उदास से वे उठे और अपनी धोती-बनियान लेकर बाखर के पिछवाड़े वाले हैण्डपम्प पर जा पहुंचे।

सिर पर ठण्डा पानी गिरा तो सारे बदन में एक फुरहरी-सी आ गई. अभ्यस्त भाव से उनने हनुमान चालीसा बोलना शुरु कर दिया-जय हनुमान ज्ञान गुण सागर...

पाठ पूरा होते ही उनने धुले कपड़े पहन लिये थे और पीतल का लोटा माँज के शुद्ध पानी से भर लिया था। बाखर में रखी सैकड़ो साल पुरानी बलुआ पत्थर की खंडित और सांगोपांग रखी अनेक अज्ञात देवताओं की अस्पष्ट-सी प्रतिमाओं पर रोज की तरह जल ढार के उन्होने सूरज भगवान की ओर मुंह उठाया और लोटे को थोड़ा ऊँचा उठाके तुलसाने में जल धार गिराना शुरु कर दी-ऊँ तापत्राय हरं दिव्यं परमानंद लक्षणम्। तापत्राय विमोक्षायतवार्ध्य कल्पयाभ्यहम्।

अटारी के नीचे वाले मढ़ा में बने पूजा के स्थान पर अगरबत्ती जलाके वे पूजा करने बैठे तो लाख जतन करने से भी ध्यान में मन न लगा। न वे जप कर सके, न गोपाल सहस्त्रनाम का पाठ। ...संध्यावंदन तो वैसे भी संभव न था। वे आँख मूंद के वहाँ चुपचाप बैठे रहे। लेकिन मन कहाँ चुपचाप था...!

बूढ़े-पुराने सच कह गये हैं कि किसी के बारे में कुछ निर्णय लेने से पहले दस बार सोचना चाहिये। लूले कक्का भी खानदान से ब्राह्मण हैं लेकिन पूरे बीस बिश्वा नहीं है, सो गाँव के ब्राह्मण उनसे दूरी बना के रखते हैं। ब्राह्मण दूर रहेे तो प्रतिक्रिया में लूले कक्का शुरू से हरिजनों के हितचिंतक रहे और वहीं उठते बैठते रहे। सो कौन ब्याह करता उनके बेटे के साथ? कक्का का छोटा बेटा प्रकाश पैंतीस साल का होकर अनब्याहा बैठा था। पांच साल पहले प्रकाश ने एक बाल विधवा हरिजन लड़की से सम्बंध जोड़े तो समाज की पंचायत बैठी थी। तब पंच की हैसियत से चम्पा प्रसाद ने प्रकाश के खिलाफ फैसला दिया था और तब से लूले कक्का का बाकायदा गाँव भर में हुक्का पानी बंद है। चोट खाये नाग से फुफकारते हैं तबसे लूले कक्का, दूसरों पर तो वश नहीं चलता, पर चम्पाप्रसाद को नोचिया मार ही लेते है। खुद तो मन मार के कहीं भी चले जाते हैं पर कोई भी उन्हें दिल से आदर नहीं देता। अब कालका भैया के मार्फत उन्हे चम्पा प्रसाद पर निशाना साधने का मौका मिला है, ...वे ऐसे नहीं त्याग देेंगे इसे।

आज लूले कक्का पूरे गाँव में चर्चा फैला देंगे कि कालका दुबे ने अस्पताल की मद्रासी-सी दिखती केरली नर्स को रखैल बना लिया है और पखवारे भर से उसी के क्वार्टर में रात रुकते हैं। कल यही बात ब्राह्मन विरादरी में जायेगी तो मुंह दिखाने काविल नहीं बचेंगे वे। उनने जिन आरोपियों का फैसला किया है, वे अब आकर मुंह पर उलाहना ठोकेंगे। बरतन के मुंह पर तो ढकना हो सकता है, अब आदमी के मुंह पर काहे का ढकना लगायें। कौन-कौन का मुंह रोकते फिरेंगे वे!

मुन्नी जिज्जी की ससुराल तक भी बदनामी पहुंचेगी तो बहनोई और उनके पिता की कहलान आ जायेगी। चम्पा प्रसाद की खुद की ससुराल में यह प्रसंग नमक-मिर्च लगाके पहुंचेगा तो कितनी शर्मिन्दगी उठाना पड़ेगी। सालों और ससुर पर आज जो नाक ऊंची करके अपनी शान बघारते हैं वह सब पल भर में फीकी हो जायगी। उनके घर तो कच्चा कुड़बारा है, घर में जवान होती लड़की है। लड़की की पीठ का लड़का भी सयाना है। वे दोनों अपने ताऊ की बदनामी सुनेंगे तो गाँव में लोगों से कैसे आँख मिला पायेंगे। अपने बाप से भी कैसे नजर मिला सकेंगे।

तो? तो क्या समाधान है इस समस्या का?

...समाधान कहो, रास्ता कहो अब हल तो एक ही है कि कालका भैया को खुली साफ जुबान से समझा दिया जाये कि-तुरंत बंद करो अब अपने ये एैल-फैल। तिलांजलि दो अपने कुकर्मों को। तुम्हारे कुकर्मों की वजह से आज पूरे खानदान की नाक कट रही है। जिस जात कुजात से रिश्ता बनाके बैठ गये हो, छोड़ो उसे!

कालका भैया यदि चम्पा प्रसाद की बात न समझें तो उन पर रिश्तेदारों का दबाब बनायेंगे। मुन्नी जिज्जी के ससुर को बुला लेंगे, उनसे कहलायेंगे।

न होगा तो मामा को बुला लेंगे। उनका कहना तो मानेंगे कालका प्रसाद। जिसका भी कहा मानें, उसी से कहलायेंगे। किसी भी तरह अब ये सम्बंध खत्म करवाना है उन्हें।

चम्पा प्रसाद ने अनेक धर्मग्रंथ पढ़ रखे हैं। उन्होने अध्ययन किया है कि जब किसी व्यक्ति पर वासना का भूत चढ़ता है, तो वह किसी की नहीं मानता। बुढ़ापे में उठी वासना की आग तो वैसे भी ज़्यादा भड़कती है, इसके कितने ही उदाहरण हैं ग्रंथों में। भीष्म के पिता शांतनु इसी उम्र में मछुआरे की लड़की पर मोहित हुये थे और इसी अवस्था में पहुंचकर राजा ययाति भी देवलोक की अप्सरा के वशीभूत हो गये थे। वे तो इस कदर दीवाने हुये कि अपने बेटे की जवानी तक उधार ले ली थी उन्होने।

सहसा उनके विचारों के अश्व रुके... कहीं कालका भैया इस बात पर अड़ गये और चेलम्मा से सम्बंध नहीं तोड़े, तो?

तो...? तो...? तो...?

इस एक अक्षर के प्रश्न की अभेद्य दीवार को भेदने के लिये दो-तीन रास्ते सूझते हैं उन्हें।

एक तो यही कि बदचलनी के अपराध में ब्राह्मणों की बिरादरी से बहिष्कृत करवा सकते हैं वे कालका प्रसाद को। ताकि भूत-प्रेत की तरह ता उम्र अकेले जियें। रखें रहे और निहारते रहें उस काली-कलूटी बदजात औरत को।

दूसरा यह भी कि पूरे गाँव के लोगों को भड़का कर थू-थू भी करा सकते हैं वे अपने बड़े भैया की। गली-गली में लोगों के उलाहने सुनेंगे, तो सारी अकल ठिकाने आ जायेगी।

एक रास्ता यह भी है कि अस्पताल और डाकघर के बड़े अफसरों के पास जाकर चम्पा प्रसाद खुद शिकायत कर सकते हैं। नौकरी ही खतरे में होगी तो दोनों की मस्ती क्षण भर में काफूर हो जायेगी।

नर्स को यहाँ से दूर कहीं तबादले पर भी फिकवा सकते हैं वे थोड़े प्रयत्न से, ... और तबादला न हो पाये तो उसके हाथ-पाँव भी तुड़वाये जा सकते हैं। उनके ये इगड़े-बिगड़े चेले कब काम आयेंगे भला! ज़्यादा तीन-पांच करेंगे तो कालका भैया को भी सबक सिखाया जा सकता है। जमीन जायदाद के हक के लिए तो महाभारत जैसे युद्ध हो गये हैं भाई-भाई के बीच। शास्त्र कहते हैं कि ऐसे युद्ध धर्मयुद्ध होते हैं।

नये-नये उपाय तलाशती उनकी बुद्धि के सामने फिर एक प्रश्न चिह्न उठा-कालका भैया आखिर उनके बड़े भाई हैं, हर रास्ते की काट सोच लेंगे। उन पर विरादरी और गाँव के प्रतिबंधों का भला क्या असर होगा? वैसे भी सुबह पांच बजे से रात दस बजे तक खेत-टगर में समय काटने वाले कालका भैया को इन गाँव वालों, जाति वालों और सरकारी अफसरों का भला क्या डर? उन्हें क्या मूसर बदलना है किसी से! किसी से अपनी संतान थोड़े ब्याहने जाना है। निःसंतान रण्ड-सण्ड आदमी। आज मरे कल तीसरा। डरता-हिचकता वह हैं जिसके पास गंवाने के लिए, खोने के लिये कुछ हो। इनके पास कुछ है ही नहीं, तो खोंयेगे क्या? क्या बिगड़ेगा उनका?

हाँ, सचमुच कालका भैया का कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, यह सोचकर चम्पा प्रसाद बैचेन हो उठे।

कालका भैया कल को ये भी कह सकते हैं कि चलो मैं छोड़ देता हूँ तुम्हारा घर! मेरा हिस्सा-पटा कर दो इसी वक्त!

हिस्सा-पटा!

हाँ सचमुच वे अपना हिस्सा तो माँग ही सकते हैं। हिस्सा माने आधी जायदाद, माने कुल जायदाद में से तीस बीघा जमीन, दो कुँआ, दो भैंसे, तीन बैल और आधी बाखर। अर्थात घर का सब कुछ आधा-आधा। यदि आधा धन चला गया तो क्या बचना है! बहुत कमजोर होके रह जायेंगे चम्पा प्रसाद। कुछ भी तो शेष नहीं रहेगा।

जिस जमीन जायदाद के जोर पर उछल रहे हैं वहीं न बची तो क्या इज्जत रह जायेगी? कानी-बूची जायदाद क्या माथे से ठोकेंगे वे!

कहाँ तो इस बरस नया ट्रेक्टर उठाने का मीजान लगा रहे थे और कहाँ अब मौजूदा चीजें बचाने के लाले पड़ गये हैं। तीस बीधा जमीन में तो कोई भी बैंक वाला ट्रेक्टर का कर्जा नहीं देगा। सारे अरमान अधूरे रह जायेंगे।

घर से ऊँचा-पूरा भाई चला गया तो हिम्मत ही टूट जायेगी उनकी। फिर कैसे संभालेंगे वे अपनी कच्ची ग्रहस्थी? गाँव के लोग तो वैसे ही दुश्मन हैं। वे सब ऐसे ही मौके की तलाश में रहते हैं। अकेला देख के चढ़ ही बैठेंगे चम्पा प्रसाद पर।

... और अगर अपने हिस्से की खेती संभालने की जिम्मेदारी चम्पा प्रसाद पर आन पड़ी तो कैसे संभालेंगे वे अपनी खेती? उन्होने अपनी ज़िन्दगी में खेती करी ही नहीं है कभी। खेती तो बिगड़ ही जायेगी अनाड़ी हाथों में पड़ के. खेती बिगड़ी तो सब कुछ बिगड़ा। फिर भरी-पूरी गृहस्थी का साथ है, आधी-अधूरी फसल में क्या नहायेंगे, क्या निचोड़ेंगे! उधर कालका भैया और उस कल्लो चेलम्मा के मजे ही मजे होंगे। तीस बीघा खेत में दक्ष-सुघड़ हाँथों से पैदा की गई अल्लै-पल्लै फसल, दो-दो तनख्वाहें और खर्च के नाम पर सुखे-पुछे दो जने। रईसी ठाठ होंगे उनके तो।

चम्पा प्रसाद को कालका भैया का जीवन बड़ा सुखी दिखा। उनने मन ही मन अपनी जीवन शैली से कालका भैया की शैली की तुलना की वह एक ईर्ष्या-सी हो आई उन्हें। बस एक पत्नी की ही तो कसर रही ज़िन्दगी में, इस कमी की क्षतिपूर्ति दर्जनों जगह से करते रहे हैं। घाट-घाट का पानी पिया है कालका भैया ने, हर बिरादरी, हर नस्ल और हर उम्र की बछिया पर हाथ फेरा है। चम्पा प्रसाद हैं कि अपनी पत्नी के खूंटे से बंधे बैठे रहे शुरु से। पंडिताईन की मौटी थुल-थुल देह पहली थी। ...और वही शायद आखरी रहेगी। उन्हें जजमान प्रोहिताई में ऐसी-ऐसी औरतें देखने को मिली हैं कि उनके आगे इन्द्र के दरबार की अपसरा भी फीकी लगें। संगमरमर-सी तराशी नाक-नक्श वाली युवतियाँ जिन्हें देखकर ही अच्छे-अच्छों का मन विचलित हो जाये। पर वे कभी विचलित नहीं हुए. या यों कहो कि उनके भाग्य में पर नारी को भोगना लिखा ही न था। सो वे लंगोट के पक्के बने रहे।

चम्पा प्रसाद को लगा कि मन कुछ बैठ-सा रहा है।

उन्हें अपने भाई पर एक बार फिर झुंझलाहट हो आई-ये कालका भैया भी खूब हैं! अरे दिल भी लगाना था तो किसी ब्राह्मणी से लगाते। आज इतनी बात बढ़ गई थी तो मन मार के उस औरत को घर में ले आते। देखो तो, इस बदसूरत जात-कुजात अंजान मजहब की, कहाँ की औरत से नेह लगाया है, कालका भैया ने।

उन्होने गहरी सांस खींचते हुये सोचा-कदाचित यही औरत उत्तरी न सही दक्षिण भारतीय ब्राह्मण होती। तो भी वे कुछ सोचते। सोचते क्या, खुशी-खुशी तैयार हो जाते। इधर घर की जायदाद बची रहती, उधर नर्स की तनख्वाह के नये करारे पांच हजार रुपये के नोटों की गड्डी हर माह घर में आने लगती।

उनकी आँखों के आगे पांच हजार रुपये की गड्डी तैरने लगी।

उन्हें लगा कि उनके मन में इतनी देर से उठ रहा बवंडर कुछ ज़्यादा ही तेज हो चला है।

प्रतिकूल और आपदाग्रस्त स्थितियों में सदा से चम्पाप्रसाद का मस्तिष्क कुछ तेज ही चलता रहा है। वे अपनी बिरादरी में चतुर दिमाग के माने जाते हैं। खुद की विलक्षण और शरारती क्षमताओं पर उन्हें भी खूब गर्व है। गहरी नींद में भी उन्हें अहसास रहता है कि वे समाज की सर्वोच्च बिरादरी में हैं। लोगों को सही ग़लत बतलाना उनका खानदादी अधिकार है, जो हर ब्राम्हण बच्चे को स्वतः ही जन्म जात मिलता है। बड़ी जाति वालों की मजबूरियों और तकलीफों के शुभचिंतक हैं वे। छोटी जाति वाले तो पशु योनि में रहे हैं। भला इनसे क्या सहानुभूति रखना। यह उन्हें बचपन से ही बताया गया है। अब ब्राह्मण तो ब्रह्मा का मुख हैं-ब्राह्मणो मुख मासीत्। सारे ब्राह्मण एक ही तो हैं चाहे उत्तरी हो चाहे दक्षिणी। यह तो भौगोलिक भेद हैं। सब ब्राह्मणों के गोत्र, पटा, आसपद, वेद और बैक (आंकना) एक है। सब के ग्रन्थ एक, संस्कार एक और धार्मिक प्रतीक भी एक से होते हैं। खाल के रंग और भाषा, पहनावा तो ऊपरी भेद हैं। इन्हें छोड़दे तो सब गड्डम-गड्ड हो सकते हैं। मनुष्य-मनुष्य वैसे भी एक से होते हैं। वही हाथ-पाँव, वही खून-माँस, काहे का फर्क और काहे का भेदभाव?

वे अनायास चेते। मन के किसी कोने से एक स्वर उभरा-यह क्या क्षेत्रवाद और जातिवाद का सबसे बड़ा समर्थक रहा उन जैसा व्यक्ति ऐसा उदार कैसे हो सकता है। उन जैसा कर्मकाण्डी-वेदपाठी व्यक्ति ऐसा सोचने लगेगा तो समाज के दूसरे लोगों का क्या होगा? यह तो पाप हैं, घोर पाप। ऐसा सोचने का दण्ड मिलेगा उन्हें।

एक पल मस्तिष्क शून्य रहा फिर मन ने तर्क गढ़ा-कलियुग में सोचने मात्र से कभी पाप नहीं लगता, पुण्य ज़रूर लगता है। तुलसी बाबा कह गये हैं-कलिकर एक पुनीत प्रतापा, मनसा पुण्य होइ नहीं पापा। समाज के दूसरे लोगों की चिन्ता करने से भला उनका कैसे काम चलेगा! ये भौतिक जमाना है। रुपया पैसा ही सबकुछ है इस युग में। सम्पत्ति बचा लेना सबसे बड़ी सफलता होगी इस जमाने में। वैसे भी छोटी जाति की लड़की लेना तो सदा से अधिकार रहा है बड़ी जाति वालों का। कृष्ण द्वैपायन व्यास की प्रिया भला कोई उच्च वर्ण से थी क्या? मनु स्मृति में कहा गया है कि स्त्री की कोई जाति नहीं होती। जिस बिरादरी का व्यक्ति कन्यादान करे, लड़की का गोत्र वही होता है। जिस खानदान में ब्याही जाये उसी जाति की कुलवधू कहलाती है। चम्पा प्रसाद को याद आया कि समाज में हजारों साल पुरानी कहावत है-राजा घर आई रानी कहलायी, पंडित घर आई पंडिताईन कहायी। स्त्री तो समाज की गूंगी गाय है। न उसकी अनुमति लेना न जाति पूछना, यह पुरातन रीति है इस देश की।

पूजा पर बैठे-बैठे ही चम्पा प्रसाद ने अनुभव किया कि उन्होने आज क्या-क्या नहीं सोच लिया। कभी-कभार आत्म निरीक्षण करने पर वे अपने आप को बड़ा सीधा, सौम्य और नीतिवान पाते हैं। लेकिन आज उन्हें स्वयं पर विस्मय था कि आदमी को खुद पता नहीं होता कि उसके अवचेतन मन में परिवार, समाज और विरादरी से क्या-क्या अवधारणा जम जाती हैं। गाँव में लूले कक्का और उनके सहयोगी लोग अब तक जो धूर्त, चालाक और गुरु घंटाल की उपाधियाँ देती रहे वे शायद सच्ची थीं। उन्हें ताज्जुब था कि इन उपाधियों को याद करके उन्हें ज़रा भी लज्जा और हीन भावना अनुभव नहीं हो रही है-बल्कि गर्व-सा लग रहा है।

वे चैतन्य हो गये। मन ही मन उन्होंने एक निर्णय लिया कि उनने जो सोचा है "कदाचित यही औरत उत्तरी न सही दक्षिणी भारतीय ब्राह्मण होती तो वे कुछ सोचते" वह कल्पना हवाई नहीं है। उसे सच भी किया जा सकता है।

हो सकता है चेलम्मा सचमुच दक्षिण भारतीय ब्राह्मण बिरादरी यानी नम्बूदरी या आयंगर ब्राह्मण हो। अब तक उससे जाति पूछी ही किसने है? चम्पा प्रसाद मन ही मन एकाएक उन्होंने बड़ा भीष्म निर्णय लिया जो न उनके पहले किसी ने लिया था न उनके खानदान में शायद कोई ले पाये। चेलम्मा अब इस घर में ज़रूर आयेगी। वह अगर ब्राह्मण जाति की ना भी हो तो क्या फर्क पड़ता है। वैसे भी भविष्य में उसकी असली जाति का पता किसे लगना है। अभी उसी से कहला देंगे की वह केरल के नम्बूदरी ब्राह्मण खानदान की कन्या है। फिर क्या है, गाँव में मंदिर में जाकर विधि विधान से कालका भैया की सप्तपदी करा देंगे, गाँव वालों को खीर-पूरी के साथ पचबन्नी मिठाई की पंगत जिमा देंगे सो वे भी चुप। ब्राह्मण समाज के अध्यक्ष को बुलाकर कहेंगे-पंडित जी आप जो कान्य-कुब्ज, जिझौतिया, सनाड्य और भार्गव जैसे उपभेद समाप्त करने की बात करते हैं ह उससे सहमत हैं और अपने घर में ही यह दिखाने को तैयार हैं। हम तो दो करम आगे जाकर दक्षिण भारतीय ब्राह्मण की लड़की घर में ला रहे हैं। चलो कन्यादान आप ही कर दो।

चेलम्मा से कहके केरल के रहने वालों में से इधर आसपास कहीं कोई परिवार होंगे तो उन्हें न्यौता भेज देंगे। विवाह संस्कार को "दक्षिणी विवाह पद्धति" से सम्पन्न करा देंगे। मलयाली स्त्रियाँ इस अवसर पर कितनी भलीं लगेंगी जब वे एक स्वर होके मलयानी में ब्याहगीत गायेंगी।

विवाह करने के निर्णय के साथ ही उनके मन का सारा द्वंद्व धूल के अंधड़ की तरह एकाएक मंदा पड़ता हुआ शांत हो गया-चलो जायदाद बची रह गई तो जाति और समाज भी सम्मान देगा।

अपने इष्ट देव के सामने उन्होंने सिर झुकाकर प्रणाम किया। उठे और उतावली में आंगन में चले आये।

दिन ढल रहा था पर उन्हें न भूख थी न प्यास। कुछ देर बाद ही वे धुले-चमकदार धोती-कुर्ता पहन कर नये पम्पशू पगँव में उलझाये घर से बाहर निकल पड़े थे।

बाहर दरवाजे के आगे नौहरे में भैंसे और गायें बंधी थीं। उन्हें देखकर चम्पा प्रसाद को एकाएक लाड़-सा उमड़ आया। वे उनके पास गये और पुचकारने लगे। उन्होने सींग की जड़, कान और गर्दन को खुजलाया फिर ढोर के गले में नीचे लटकी नर्म खाल की झालर सहलाते हुये उनका मन मोह में डूबने उतराने लगा।

कुछ देर बाद ही वे अपने खेतों के बीच से गुजर रहे थे। यहाँ से वहाँ तक भरपूर जवानी से लदी गेंहूँ की सुनहरी फसल खड़ी थी। चारों ओर जैसे सोना ही सोना बिखरा पड़ा हो। फसल देखकर उनकी आँखों की चमक और ज़्यादा बढ़ गई-इस साल बीघा पीछे छह क्विंटल से कम क्या झरेगा!

अस्पताल जाने वाले रास्ते पर मुड़ते हुये वे एक कुशल संवाद लेखक की तरह ऐसे वाक्य रच रहे थे, जो चेलम्मा के मुंह से बुलवाये जाने पर न तो बनावटी लगें और न अस्वाभाविक।

अब न उन्हें बैचेनी थी और न कोई भय। बल्कि एक अजीब-सी उत्तेजना थी। उनकी चाल को देख के यह उत्तेजना सहज ही समझ में आ जाती थी।