चंदन खुशबू की दुकान / शिवदयाल

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आखिरकार सब कहीं से थककर मैंने एक दुकान खोल ली। पिता ने इसके लिए मकान के सामने की जमीन पर दस बटा आठ का एक कामचला कमरा खड़ा कर दिया। उसमें दरवाजे की जगह शटर लगवा दिया। पहले मैंने सोचा कि शायद किराए के लिए दुकान बनवा रहे हों, गाड़ी के लिए गैराज तो बनवा नहीं सकते। लेकिन नहीं, उनकी गरज तो कुछ और थी। एक दिन उन्होंने मुझे बुलवाया। काम की हड़बड़ी थी, फिर भी गया।

‘‘अब तक तुम कितनी कम्पनियाँ बदल चुके हो?’’ हठात् यह प्रश्न सुनकर मैं तो गिनती ही भूल गया। फिर सोचा, बूढ़े भी पता नहीं क्या-क्या लेकर बैठ जाते हैं।

‘‘यही कोई सात-आठ ...’’

‘‘अभी किस कम्पनी में हो?’’

लो, यह तो पकड़े गए। दो महीने से एक तरह से खाली ही था।

‘‘अच्छा छोड़ो, कितना कमा लेते हो?’’

कमजोरी पकड़े जाने पर ताकत दिखाने का हौसला भी बनता है। मैं कुछ तन कर बोला -

‘‘ठीक ही ठाक चल रहा है। नरम-गरम सब खुद ही तो झेल रहा हूँ। कभी आपसे कुछ कहा ?’’

बच्चा था तो कभी-कभी बैलून फुलाते हुए बैलून की हवा वापस मुँह में चली आती थी।

‘‘बकवास बंद करो। बीवी की कमाई पर अकड़ दिखाते हो, वह भी अपने बाप को। दो-दो बच्चे हो गए और अभी भी मिजाज स्कूली लौंडों वाला है.....’’

वे आगे भी कुछ बुदबुदाए, जरूर मुझे गाली दी होगी। वे कभी-कभी हम भाइयों को गालियाँ दिया करते थे।

‘‘मुझे किसलिए बुलाया आपने?’’

‘‘यह जो दुकान है, तैयार हो रही है, इसे संभालो अब। आवारागर्दी से बाज आओ। इसमें स्टेशनरी लगाओ, एक फोटो कॉपियर भी रखो। बाद में चाहो तो पी.सी.ओ. भी लगा लेना। दवाइयाँ बहुत बेच चुके, और भी जाने क्या-क्या बेचा होगा !’’

शाम में घर लौटा खाली हाथ। कमीशन के चेक की प्रत्याशा थी, नहीं मिला। बड़े बच्चे पर झुँझलाया, छोटे को झिड़की दी। पत्नी ने देखा तो लक्षणा-व्यंजना वाली अपनी शैली में सवाल दागा - ‘‘यह मुँह फुलाए कहाँ से चले आ रहे हो?’’

‘‘तुमने यह क्यों नहीं पूछा कि मुँह उठाए कहाँ से चले आ रहे हो?’’ मैंने सवाल वापस किया।

‘‘छिः, मैं ऐसा कैसे पूछती? वैसे भी तुम्हारा चेहरा तो बिल्कुल गिरा हुआ है! वह हँसकर बोली तो मैं भी कुछ हल्का हुआ।

‘‘अब बोलो भी, बात क्या है?’’ वह चाय लिए आ गई।

‘‘बात क्या होगी। अब तो अपने दुःख दूर होने वाले हैं।’’

‘‘सच? वह कैसे?’’

‘‘मेरे बाप से पूछो! मेरे लिए दुकान खोल रहे हैं।’’

‘‘दुकान खोल रहे हैं? कहाँ, किस मार्केट में?’’ उसकी हर्ष भरी उत्सुकता देख मुझे बहुत चिढ़ हुई।

‘‘किस मार्केट में ! अरे यह जो फाटक के बगल में कमरा बन रहा है, वहीं अपनी दुकान लगेगी। गद्दी पर बैठकर अब सौदा-सामान बेचने के दिन आए!’’

‘‘तो क्या! पहले भी तो अब तक तुम सामान ही बेचते रहे हो! ठीक तो है, अब घर बैठे सामान बेचा करो। वाह! अच्छा आइडिया है। इसी से घर में बूढ़े-बुजुर्गों का साया जरूर ही होना चाहिए। हमेशा संतान के सुख की ही कामना करते हैं। देखो, बाबूजी ने हमारे लिए कितनी अच्छी बात सोची।’’

‘‘अरे, मेरे पास मार्केटिंग का डिप्लोमा है यार! वह क्या इसीलिए है कि मैं घर में दुकान खोलकर बैठ जाऊँ ?’’

‘‘तो अब तक कौन-सा तीर मार लिया, बताओ? अपनी दुकान से तुम्हें क्या परेशानी है आखिर? दूसरे दुकानों की खाक छानने से तो यह लाख गुना बेहतर है। हाँ, तुम इतना करना कि राशन-तेल लेकर न बैठ जाना?’’

‘‘क्यों? उसमें तुम्हें क्या परेशानी है, जरा सुनुँ तो?’’

‘‘बू आएगी! बस, मुझे अच्छा नहीं लगेगा! तुम्हारे बदन से तेल-मसालों की गंध् मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती।’’ यह बात उसने इस अदा से शर्माते हुए कही कि मेरा दिल जल गया।

‘‘तो ऐसा करता हूँ। यह दुकान मैं तुम्हारे ही नाम पर खोल लेता हूँ - खुशबू जेनरल स्टोर्स। ठीक न?’’

‘‘नहीं जी, दुकान तो अपनी स्वर्गीया माताजी के नाम पर ही रखो, बरकत होगी।’’ वह साफ बच निकली।

आखिर वही होकर रहा। मेरे घर में ही दुकान खुल गई - शांति स्टोर्स - स्टेशनरी एवं फोटो स्टेट के लिए पधारें! बड़ी झिझक के साथ मैंने ‘गद्दी’ संभाली - एक छोटी-सी खूबसूरत, गद्देदार रिवॉल्विंग चेयर। निहायत अवास्तविक प्रतीत होने वाली वास्तविकता से साक्षात! पूजा-पाठ, धूप-बत्ती के बाद ‘गद्दी’ पर बैठा तो दोनों बच्चों ने मिलकर कितने ही चक्कर खिलाए। उनकी माँ खिल-खिल कर हँसती रही और उनके बाबा और अन्य लोग मुस्कराते खड़े तमाशा देखते रहे। भीड़ छँटी तो खुशबू रानी ने पास आकर कुर्सी के दोनों हत्थों पर झुकते हुए कहा - ‘‘यह तो बड़ा अच्छा किया जी, रिवॉल्विंग चेयर ले आए। तुम्हें तो घूमने की आदत रही है न? अब बैठे-बैठे चक्कर खाते रहना।’’

वैसे खुशबू ने दुकान जमाने में खूब मदद की। सबसे पहले तो उसने एक छोटी-सी बेंत की छड़ी में पुराना कपड़ा बाँध कर ‘झाड़न’ बनाया, मुझे धूल झाड़ने की तरकीब भी बताई। उसने खुद ही दो छोटे बोर्ड भी बनाए। एक पर लिखा - ‘आज नगद, कल उधर’ और दूसरे पर - ‘उधर माँग कर शर्मिन्दा न करें।’ मैंने आपत्ति की और मुँह बिचकाया तो उसने मुझे लगभग डाँटते हुए समझाया - उधार वालों से बचकर रहना, उन पर कोई रियायत नहीं करना। एक बार जो तुमने छूट दी तो समझना - यू आर फिनिश्ड! अपना से अपना आदमी भी उधर माँगे तो कहो - क्या बताएँ, हम पर तो खुद यह पूरी दुकान ही उधर चढ़ी है। ‘‘मुझे ताज्जुब हुआ। खुशबू को दुकानदारी का तजुर्बा कब हुआ आखिर? पूछने पर उसने बताया, उसके चचेरे भाई ने अकेले तीन-तीन दुकानों का बेड़ा गर्क किया था! बहुत खूब!

खैर, तो दुकान शुरू हुई तो उसके साथ ही कई चीजें भी शुरू हो गईं, सुबह नौ बजे दुकान खोलता था, सवा नौ बजते-बजते नींबू-मिर्च वाला हाजिर। तीन रुपए में धगे में गुँधा हुआ कागजी नींबू और साथ में दो-चार हरी मिर्च। बुरी नजर से बचाने का टोटका। दाम तीन रुपया लेकिन उसे टाँगने का झंझट उसका। लगभग उसी समय ब्रेड वाला आकर काउंटर पर ब्रेड सजा जाता। दस बजते-बजते खुशबू पाउडर-परफ्यूम की संयुक्त खुशबू के साथ दुकान में हाजिर। आते ही दुकान की सजी हुई चीजों को भी सजाती, फिर हिदायतें भी देती, खासकर उधर के मामले में काफी सख्त ! ऑफिस जाने के पहले तीन-चार बार कहती - तो चलती हूँ जी, देखना ... भूख लगे तो कुछ खा लेना। .... तो चलती हूँ जी, जी छोटा न करना ..., तो चलती हूँ जी, शुरू में थोड़ा मंदा रहता ही है ... तो चलती हूँ जी, देखना ....। इस बीच कोई ग्राहक आ जाए तो उत्साह से उसे खुद ही संभालती।

पी.एफ. से लोन लेकर उसने फोटो कॉपियर भी लगवा दिया था, उसे लाड़ से एक बार जरूर छू लेती। साढ़े दस बजते-बजते वह आखिरकार निकल जाती। उसे जाने देने का मन नहीं करता। कुछ दूर जाकर वह एक बार पीछे मुड़कर देखती, पिफर तेज कदमों से मेन रोड की ओर निकल जाती।

खुशबू के जाते ही दुकान को लेकर मैं उधेड़बुन में खोन को होता कि कभी पता पूछने वाले, तो कभी एजेन्सी वाले, कभी चंदा माँगने वाले तो कभी पास-पड़ोस के कोई सज्जन टोह लेने पहुँच जाते। दुकान से सबका कोई न कोई सरोकार था। सूर्यास्त के बाद दो व्यक्तियों का आगमन एकदम सुनिश्चित था। पहला, एक थाली में दीपक की लौ को हथेली से ढाँपे पास की अतिक्रमित जमीन पर बनाये गए छोटे से मंदिर का पुजारी, और दूसरा व्यक्ति होता था एक पाराबैंकिंग कम्पनी का कलेक्टर जो रोज रेकरिंग डिपोजिट के बीस रुपए ले जाता था और रसीद मर्त्तबानों के बीच फँसा देता था। उन दोनों से शायद ही कोई संवाद होता। एक धर्म खाते का आदमी और दूसरा बचत खाते का। नागा होने का सवाल ही नहीं था।

यह तो रही दुकान की बात। दुकान के इतर भी मेरी जिम्मेदारियों और किरदार में इजाफा हुआ। मैं अब घर के लिए चौबीसों घण्टे उपलब्ध था। बच्चों को बस स्टॉप से घर ले जाने की जिम्मेदारी अब मेरी थी। घर में बिजली खराब है, चंदन को बुलाओ। पानी का मोटर खराब है, चंदन ठीक कराएगा। टेलीफोन गड़बड़ है, चंदन को टेलीफोन ऑफिस भेज दो। बिल जमा करना है, चंदन को दे दो न! बच्चों की फीस देनी है, चंदन है न! दवा-दारू चंदन ले आएगा। दुकान है तो पिफर चंदन है, चंदन है तो पिफर क्या गम है। ये व्यस्तताएँ उन दो घंटों की थीं जब दुकान बंद रहती थी। घर में बूढ़े बाप के अलावा दो कामकाजी भाई थे, भाभियाँ थी, उनके सयाने होते बच्चे थे, आवाजों का पीछा करता कमरा-दर-कमरा लुढ़कता एक नौकर था। काम की कोई कमी नहीं थी।

दिन खाली था - दुकान की ही तरह। मैं ऊँघता हुआ ‘बिजनेस वर्ल्ड’ देख रहा था। अभी बच्चों को लाने का समय नहीं हुआ था। आवाज आई -

‘‘चंदन तुम? कैसे हो? क्या हाल है भाई?’’ मैंने नजर उठाई तो सामने कमलेश था - पैंट-शर्ट और टाई में, माथे का पसीना पोंछता, मुस्कराता।

‘‘ओह तुम! कैसे हो कमलेश? यह क्या हुलिया बना रखा है? इतनी गर्मी में टाई क्यों लगा रखी है यार?’’

‘‘क्या करें यार, मजबूरी है। टाई लगाकर ही तो टारगेट को पीछा करना है। तुम्हारा धंधा कैसा चल रहा है - वह सफाई मशीन वाला?’’

‘‘यार, उसके बाद तो दो और कम्पनियाँ छोड़ चुका हूँ, तुम अभी वहीं हो।’’

‘‘चलो, तुम्हारा क्या है, आजाद पंछी हो। वाइफ कमाती है, तुम्हे किसकी परवाह! ... लेकिन यार, यह दुकानदार कहाँ गया? दुकानवाले बड़े रईस हो गए हैं ...’’

‘‘क्या चाहिए तुम्हें?’’

‘‘कुछ रजिस्टर चाहिएँ और ... यह कुछ जीरॉक्स कॉपी निकलवानी है ...’’

‘‘हो जाएगा, लाओ ...’’ मैं उठा, उसे निपटाने में लगा।

‘‘यार, दुकानदार को ही बुला लो, तुम क्यों जहमत उठाते हो। ... वैसे दुकान अच्छी खोली है, अच्छा किराया मिल जाता होगा, है न?’’

मैंने उसकी बातों पर ध्यान न देकर उसे रजिस्टर और जीरॉक्स कॉपियाँ पकड़ाईं और हिसाब जोड़कर बताया।

‘‘लेकिन दुकानदार ... ’’

‘‘तुम्हें काम से मतलब है या दुकानदार से?’’

‘‘मतलब तो काम से ही है ... ’’

‘‘यह दुकान मेरी ही है यार! अब तो निश्चित हो जाओ।’’

‘‘अरे वाह! बहुत अच्छे! लेकिन निश्चित कैसे रहूँ, तुमने कोई कनसेशन तो किया नहीं?’’ वह हँसा, मैंने उसे दो रुपए दराज से निकालकर और लौटाए।

‘‘अब तो खुश हो?’’

‘‘अरे, मैंने तो यूँ ही कहा!’’ वह हँसा।

‘‘लेकिन यार, उड़ती चिड़िया पिंजरे में बंद हुई तो कैसे?’’

‘‘कुछ नहीं, दाल-रोटी का सब चक्कर है यार?’’

‘‘ताज्जुब है!’’

‘‘ताज्जुब की क्या बात है?’’

‘‘यह काम तुम्हारी पर्सेनलिटी को सूट नहीं करता। देखो, तुम अभी भी कितने हैण्डसम हो। तुम्हें तो मार्केटिंग टाइकून होना था चंदन। यह सब तो हम जैसे ... ’’

‘‘तुम इतना बोलना कबसे सीख गए भाई? आओ, अंदर आ जाओ, कुछ देर बातें करते हैं। मैंने उसे बीच में रोककर कहा। वह अंदर आकर छोटे स्टूल पर बैठ गया।

‘‘सुनो, अगर मैं वाकई हैण्डसम दिखता हूँ तो मुझे फिल्मों में होना चाहिए था, मार्केट में नहीं। वैसे भी मैं एक तरह से इस लाइन में फेल ही हो चुका हूँ। बात कहीं बन ही न सकी।’’ मैं उदास हो गया।

‘‘सीनियर्स तुम्हारे जल जाते होंगे तुमें देखकर और क्या ! लेकिन हिम्मत रखो यार, अभी बहुत मौके आएँगे। वैसे जगह तो हमारे यहाँ भी खाली है ....’’ वह उठने को हुआ तो मैंने उसका खूबसूरत ब्रीफकेस देखा। ऐसा ब्रीफकेस मुझे तो कभी नसीब नहीं हुआ आठ साल की मार्केटिंग लाइफ में।

‘‘यह भी कम्पनी ने ... ’’

‘‘हाँ, और क्या!’’ उसने मुस्कराकर हाथ मिलाया और चला गया।

उसके जाते ही मुझे अपनी दुकान कोई परायी-सी चीज महसूस हुई। स्टुल पर पैर फैलाकर मैंने सिर अपनी कुर्सी पर टिका लिया। सामने कैबिनेट के शीशे में अंदर के सामानों के साथ-साथ मेरी अपनी छवि भी प्रतिम्बित हो रही थी, जैसे एक कोलाज बन रहा था। मैं दृष्टि को अपनी ही छवि पर केन्द्रित करने की कोशिश करता रहा।

शाम में खुशबू लौटी। चाय-नाश्ता लिए दुकान में ही चली आई, हमेशा की तरह। मैं अनमना था, उसने भाँपा।

‘‘क्योंजी, आज कोई अच्छी शक्ल देखने को नहीं मिली क्या?’’

‘‘हुँह, यहाँ ऐसा रुखा-सूखा दिन गुजरता है?’’

‘‘मामला ऐसा रूखा-सुखा है तो यह मलाई कैसे निकली आ रही है?’’ उसने मेरी छोटी-सी तोंद में अंगुली घुसा दी। मुझे गुदगुदी हुई और चाय छलककर पतलून भिंगो गई। मैं बिगड़ा लेकिन खुशबू हँसती रही - ‘‘मैंने ऐसा जोर से तो कुछ नहीं किया था, क्यों दुखती रग थी क्या जी?’’

‘‘तुम्हीं न उसे मलाई समझ रही हो। और कुछ दिन यहाँ बिठाए रखा तो हलवाई नजर आऊँगा, फिर समझना ...’’

‘‘मन नहीं लगता न? लेकिन यह सब मन लगाने के लिए तो है नहीं, मजबूरी है न! बच्चे बड़े हो रहे हैं...’’ खुशबू कुछ गंभीर हो आई, अचानक ,और दूसरी चाय लाने चली गई।

रात को बच्चों को सुलाते हुए खुशबू बोली - ‘‘एजी, सचमुच, दुकान में बैठे-बैठे तुम्हारा ‘डैश’ जैसे खत्म हो रहा है। न हो तो उसे किसी और को दे दो, तुम वही करो जो तुम्हें अच्छा लगे।’’

‘‘क्यों भई, तोंदू चंदन पसंद नहीं आ रहा क्या? कल से वर्जिश शुरू कर देता हूँ जी,फ़िर देखना।’’ मुझे खुशबू का गुरु-गम्भीर अंदाज पंसद नहीं था। लेकिन वह ठहरी नहीं, कहती गई -

‘‘नहीं-नहीं, ऐसे मन मारकर बैठे रहते हो, मुझे क्या अच्छा लगता है? आदमी काम वही करे जो मन को भाए। मैं भी कहाँ बाबूजी की बातों में आ गई। उसे किसी को दे दो। अब और कुछ नहीं ..., जो होगा वह देखा जाएगा।’’

‘‘ओह खुशबू, तुम तो खामख्वाह अभी सोते समय दुकान लेकर बैठ गई। इस पर आराम से सोचेंगे न!’’

सुबह-सुबह बच्चों को स्कूल बस तक छोड़कर जब लौटने लगा तो रात की बात याद आई। मन में कुछ हौसला जगा। कमलेश का ध्यान आया।

कदम उसके घर की ओर बढ़ चले। रास्ते में दो एक मॉर्निंग वाकर मिले। मेरा नहीं, दुकान का हाल पूछा और मुस्कराते आगे बढ़ गए।

कमलेश घर पर नहीं था। उसकी पत्नी ने बताया।

‘‘क्यों भाभी, रात वह कहीं और गुजारता है क्या? वरना इतनी सुबह कोई घर में न मिले?’’

वह बहुत लजाईं, फ़िर धीरे -धीरे बोलीं - ‘‘क्या बताएँ भाईसाहब, ऐसे धंधे में फँस गए हैं कि हम सबका जीना हराम हो गया है। ठीक से सोते तक नहीं। रात-दिन टारगेट-टारगेट! नींद में भी टारगेट।’’

मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा - ‘‘तो कुछ पता चला कि टारगेट है या मारग्रेट, और रहती कहाँ है? पकड़िये उसे जाकर और चार चप्पलें जमाइए। पति हाथ से निकल गया तो क्या कीजिएगा?’’ मैं हँसकर वापसी के लिए मुड़ा तो वे आगे आ गईं। मेरी हँसी गायब हो गई। उनकी आँखों में आँसू थे। यह लो, यह क्या हुआ भाई, मैंने ऐसा क्या कह दिया। आखिर अपने दोस्त की बीवी को कोई बहन जानकर तो बात नहीं करता।

‘‘भाभी, क्या हुआ? माफ कीजिए अगर कुछ बोल गया होऊँ । मैं तो वैसे मजाक ...’’

‘‘क्या कहते हैं भाईसाहब, मैं क्या इतना नहीं समझती? लेकिन आप जरा घड़ी भर को बैठ जाइए।’’

मुझे बैठना ही पड़ा। वे उधर से चाय का पानी चढ़ा आईं। तश्तरी में बिस्कुट लिए सामने बैठीं।

‘‘उन्हें यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगेगा, मुझ पर बहुत बिगड़ेंगे लेकिन आपको बता ही देती हूँ।’’

‘‘क्या हुआ? ऐसी क्या बात हो गई भाभी?’’ मैं घबराया।

‘‘इनकी तो जेल जाने की नौबत है भाईसाहब!’’ उन्होंने आँचल मुँह पर रख लिया।

‘‘टारगेट पूरा करने के चक्कर में किसी से पचास हजार उधर ले लिया। जिस टारगेट के लिए यह सब किया, वह भी नहीं मिला। इसके पहले एक लाख कर्ज लिया था, अभी उसी की अदायगी बाकी थी। पिछले छह महीने से उसकी किश्तें बंद हैं। उधर से नोटिस आ गई है कि पंद्रह दिन के अंदर पैसे चुकाओ नहीं तो धोखधड़ी का मुकदमा चलेगा। उधर यह पचास हजार वाली पार्टी बच्चे को उठवाने की ध्मकी दे रही है। हमारा पागलों-सा हाल है। ये बिचारे कहाँ-कहाँ नहीं गए, लेकिन इतना पैसा आए कहाँ से? कौन इस जमाने में इतनी मदद कर सकता है, ... फिर भी ये कोशिश कर रहे हैं, लगे रहते हैं दिन-रात। दो महीने से बच्चे की फीस नहीं दे पाए। यह तो हाल है। हमारी तो जिन्दगी खराब हो गई भाईसाहब!’’ उन्होंने आँखें पोछीं।

‘‘यह तो बुरा हुआ। कमलेश आए तो उसे बताइएगा। मैं चलता हूँ भाभी ...’’

‘‘भाईसाहब, चाय तो पीते जाइए ... ’’

‘‘नहीं, फिर कभी ... ’’

घर आया। नहा-धेकर दुकान खोली। विलम्ब के कारण कुछ नियमित ग्राहकों के उलाहने सुने। नींबू-मिर्च वाला दो बार लौट चुका था, उसने भी खींसें निपोरी।

जरा-सा खाली हुआ कि खुशबू आ पहुँची। उससे तो अब तक कोई बातचीत ही न हो सकी थी।

‘‘क्योंजी, कहाँ घूम आए?’’

‘‘यूँ ही, कमलेश के यहाँ गया था।’’

‘‘तुम कह रहे थे कि उनके यहाँ जगह खाली है, तुमने बात चलाई?’’

‘‘वह मिला ही नहीं!’’

‘‘अच्छा, पिफर मिल लेना। देखो न, मेरी तबीयत अच्छी नहीं लग रही। बुखार जैसा लग रहा है।’’

‘‘तो आज मत जाओ, आराम कर लो।’’

‘‘नहीं जाऊँ ? कैसे नहीं जाउफँ? जरूरी काम है जी।’’ लेकिन देखो, तुम कमलेशजी से मिल जरूर लेना, नहीं हो तो लौटते में उनके ऑपिफस ही चले जाओ।’’

‘‘अच्छा-अच्छा!’’

पिफर खुशबू की वही रोज बाली हिदायतें - ‘‘खाना समय से खा लेना ... जी छोटा न करना ...’’

मैं दुकान में बैठा ‘आउट ऑफ स्टॉक’’ सामानों की लिस्ट बना रहा था कि कमलेश आया। सिर पर हेलमेट, गले में टाई, हाथ में ब्रीफकेस। मैंने उसे अंदर बुला लिया। वह चुपचाप मेरे सामने बैठ गया। निचुड़े हुए चेहरे को तर करता माथे का पसीना।

‘‘यार, अपनी गर्दन तो ढीली कर लो।’’

‘‘फँसी तो हुई है गर्दन, तुम्हें तो पता ही हो गया।’’ उसने गिरी हुई आवाज में कहा और टाई की गाँठ ढीली कर ली।

‘‘लेकिन देखो, मेरा यह कुछ स्पेशल केस है। इसके बिना पर तुम कम्पनी के बारे में अपनी राय मत बना लेना। मैं तो चाहता हूँ कि तुम आ जाओ, यहाँ बहुत आगे तक निकल जाओगे।’’

उसकी बात सुनकर मुझे बहुत हैरानी हुई।

‘‘तुम यार, अपनी कम्पनी के बड़े लॉयल आदमी हो। कम्पनी को तुम पर फख्र करना चाहिए। तुम्हारा कमिटमेंट कमाल का है।’’

उसने जैसे मेरी बातों पर ध्यान नहीं दिया। वह बैचेन दिखता था। उसे कोई जवाब न दे सका। सुबह की बात याद आई। कुछ पल दुविधा रही, फिर मेरे मुख से निकला -

‘‘तुम्हें पैसे की जरूरत है। दस हजार से कुछ बात बनेगी?’’ उसने एकदम ऐसे अविश्वास से मुझे देखा कि क्या कहुँ। उसकी जरूरत बड़ी थी, मेरा ऑफर हल्का। संकोच में घिरा मैं।

‘‘तुम इतना सोचते हो मेरे बारे में चंदन? इतना तो मेरे घरवालों ने भी नहीं सोचा यार !’’ उसका गला भर आया। मैं फौरन उठ गया- ‘‘नहीं-नहीं, ऐसा नहीं सोचते। सबकी मजबूरियाँ है।’’

दुकान बंद कर उसके साथ ही निकला। एटीएम काउंटर से पैसे निकालकर उसके हाथ में दे दिए।

‘‘मैं कोई वादा नहीं कर सकता ...’’

‘‘कोई बात नहीं। चिंता नहीं करो, सब ठीक हो जाएगा।’’

‘‘तुम मेरे साथ चल नहीं रहे? चले चलो, अभी बॉस होंगे।’’

‘‘अभी तो बच्चों को बस स्टॉप से ले आना है। बाद में देखूँगा। तुम अब जाओ।’’ मैंने उससे हाथ मिलाया तो वह फिर भावुक हो उठा।

लौटते हुए अकाउंट्स डिटेल वाली स्लिप देखी। बैलेंस बचा था µ पाँच हजार तीन सौ सत्तर रुपये। बहुत निराशा हुई।

बच्चों को लेकर घर पहुँचा तो बच्चे बिस्तर पर लेटी माँ से चिपट गए। उनके लिए यह अप्रत्याशित सुख था कि इस समय माँ घर में हो। मेरा मन भी खिला लेकिन मैं आश्वस्त नहीं था। खुशबू लेटे-लेटे फोन पर बात कर रही थी।

‘‘हाँ, घर पर हूँ। बुखार हो गया है, ऑफिस से जल्दी आना पड़ा, ... हाँ वे भी ठीक हैं, दुकान ठीक ही चल रही है लेकिन उनका मन नहीं लगता न! ठीक भी तो है, बैठे-बैठे बोर हो जाते हैं, ... हाँ-हाँ, कहते हैं खूँटा है यह तो ... लेकिन वे जिसमें खुश रहें उसी में मेरी खुशी है .... मैं सोचती हूँ कि कहीं उनकी टैलेंट बर्बाद न हो जाए। किस्मत की बात है, कोई कायदे की जगह ही न मिली ... कोशिश तो अपनी तरफ से हर आदमी करता ही है। .... मेरा क्या है, सिस्टम ऑपरेटर की तनख्वाह उतनी अच्छी तो नहीं लेकिन हमलोग बहुत खुश हैं, किसी को फिक्र करने की कतई जरूरत नहीं .... ठीक है, प्रणाम !...’’

रात को मन में क्या-क्या घुमड़ रहा था। कुछ कहना चाहता था। खुशबू की नाक बज रही थी। उस पर दवा का असर था। करवट बदलकर तब मैं भी सो गया। अगले दिन खुशबू ने ऑफिस जाने की जिद की।

मैं इससे खिन्न हो गया। तब उसने मनुहार करते कहा - ‘‘क्योंजी, मेरे बिना रहा नहीं जाता क्या? नौकरी छुड़वाने का इरादा है? अब तो ठीक है। जाना जरूरी है जी, समझते हो?’’ उसने मेरी नाक पकड़कर हिलाई और तैयार होने चली गई।

मैंने भी अपनी गद्दी संभाली और ग्राहकों को निपटाने लगा। खुशबू से पहले उसकी खुशबू आती थी मुझे विभोर करने। उसने मुझे चाय का कप पकड़ाया और स्टूल पर बैठ गई कुछ गंभीर मुद्रा में। मैं भी चुपचाप चाय पीता रहा।

‘‘सुनते हो, आज जरूर अपनी बायोडेटा दे आना। एक-एक दिन यूँ ही बीता जा रहा है। कुछ कर लेना चाहिए जी अब। इतना कुछ करने के बाद भी लगता नहीं कि पैरों के नीचे जमीन है। क्योंजी, कहाँ खोए हो ? कुछ सुन रहे हो ?’’

‘‘मुझे जाना तो है, लेकिन कहीं और ...’’

‘‘यह लो, किसने जादू चला दिया तुम पर, जरा सुनुँ तो ? कच्चा खा जाऊँगी उसे, समझ लेना।’’ हथेलियों को पंजा बनाकर उसने मेरी ओर बढ़ाया।

‘‘मुझे टेलीफोन ऑफिस जाना है।’’

‘‘क्यों ? बिल तो जमा हो गया न ? जरूर भाभी का कोई काम होगा, उन्हीं की सेवा करते रहो।’’ वह झुँझलाई।

‘‘सोचता हूँ पी.सी.ओ. के लिए अप्लाई कर ही दूँ। एक और जरिया बन आएगा ... ’’

‘‘क्या कहते हो जी? देखो मुझे दोष न देना। अब भी कहती हूँ, चुनाव तुम्हारा है। मेरी तर फ से कोई दबाव न समझना ....’’ कहते-कहाँ वह सहसा रोने को हुईं ।

‘‘नहीं जी, मैं सोच-समझ कर कह रहा हूँ। इतनी मुश्किल है, इसमें जो है, पहले उसी को बचाया जाए खुशबू !’’

यह सुनना था कि वह मुझसे लिपटने को हो आई।

‘‘अरे-अरे, यह क्या कर रही हो, यह दुकान है, पब्लिक प्लेस है यार !’’

‘‘तो क्या, किसी के बाप की दुकान थोड़े ही है ! हमारी अपनी दुकान है। घर की दुकान है।’’ उसने एक बार चारों ओर निगाह दौड़ाई और जो चाहती थी वह कर गुजरी!