चंदू टुंडा / कुँवर दिनेश

Gadya Kosh से
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कहने को तो चंदू लाल टुंडा था, पर गाँव के लोगों से झगड़ा-फ़साद करने में, दूसरों की घासनी से घास चुराने में और पेड़ों से पाती निकाल लाने में उसका वही हाथ, जिसे वह नकारा कहता था, सबसे तेज़ चलता था। लोगों को उस पर पूरा सन्देह होता, किन्तु विश्वास नहीं कर पाते थे कि वही टुंडा वैसा सब करता था।

वैसे उसके टुंडा होने की भी बड़ी दिलचस्प कहानी है। बहुत साल पहले वह फ़ौज में सिपाही भर्ती हुआ था। वह ख़ुशी-ख़ुशी नौकरी पर गया। जब-जब छुट्टियों में घर आता तो बड़े ठाठ से आता। बहुत-सा सामान जैसे फ़ौज के कम्बल, जूते, कपड़े आदि लेकर आता। पूरे परिवार व गाँव वालों पर रुआब मारता। फ़ौज की कैंटीन से सस्ता सामान लाता। कुछ रिश्ते वालों को जो उसकी मिन्नत करते, उन्हें भी कैंटीन से कुछ सामान दिलवाता। हुआ यूँ कि कुछ साल बाद भारत-पाकिस्तान का युद्ध छिड़ गया। जिस बटालियन में वह सिपाही था, उसको भी आदेश हुए सरहद पर कूच करने के लिए। उसे जाना पड़ा, पर वहाँ का माहौल देख कर वह घबरा गया। उसे चिन्ता खाने लगी कि वह वहाँ से जान कैसे बचाए। बहुत परेशान होकर उसने गाँव में अपनी कुलदेवी का ध्यान किया। जोत, धूप व अगरबत्ती जलाई, रोट चढ़ाया और मनौती कर डाली कि अगर वह वहाँ से छूट कर ठीक-ठाक घर पहुँच जाए तो वह देवी को एक बकरे की बलि चढ़ाएगा। कुछ दिन और परेशानी में निकले और फिर एक रात जब वह अपने अफ़सरान के साथ चल रहा था, अचानक वह एक गड्ढे में गिर पड़ा और जब उसे बाहर निकाला गया व पूछा गया कि वह कैसा है, उसने कह दिया कि उसका दायाँ हाथ सुन्न-सा हो गया है और उसमें सोज़िश भी आ गई है। बाक़ी शरीर में कुछ जकड़न-सी आ गई है। ऐसे में उसके अफ़सर ने एक सिपाही को आदेश दिया कि उसे जल्द-अज़-जल्द फ़र्स्ट-एड व पूरे मैडिकल चैक-अप के लिए कैम्प में ले जाया जाए।

कैम्प में डॉक्टर ने उसे फ़र्स्ट-एड दिया, हाथ में मरहम पट्टी की व रात भर निगरानी में रखा। सुबह जब डॉक्टर ने उससे पूछा कि अब वह कैसा है। उसने बताया कि और तो सब ठीक होता लग रहा है पर हाथ सीधा नहीं हो पा रहा है। उसके हाथ पर कुछ दिन के लिए फिर से मरहम पट्टी की गई, पर उसने जब फिर से कहा कि हाथ काम नहीं कर रहा है, तो डॉक्टरों ने उसके अफ़सरों को सलाह दी कि उसे सेवानिवृत्त करके घर भेज दिया जाए, क्योंकि वह अब फ़ौज के लिए अनफ़िट हो गया है। और इस प्रकार वह टुंडा हो गया। पीठ पीछे गाँव वाले सब उसे टुंडा ही कहने लगे थे। उसने घर पहुँच कर कुलजा देवी के मन्दिर जाकर एक बकरे की बलि दी। मन ही मन वह बहुत ख़ुश था।

फ़ौज की नौकरी छूटने के बाद चंदू अब खेती-बाड़ी व घर का काम-काज देखने लगा। फ़ितरत से हुज्जती तो वह था ही। आए दिन गाँव वालों के साथ झगड़ा-फ़साद में उलझने लगा। कभी किसी का घास चुराने पर तो कभी किसी के खेतों में अपने पशु छोड़ देने पर तो कभी किसी के पेड़ों से लकड़ी-पाती निकाल लाने पर गाली-गलौच, हाथा-पाई व फ़ौजदारी होने लगी।

एक रात चंदू ने भगत राम की ज़मीन में से एक तुन्नी का पुराना पेड़ काट डाला। भगत राम ने नए घर के निर्माण के लिए तुन्नी के ऐसे कुछ पेड़ चिन्हित कर रखे थे और आते-जाते उनकी ओर देखता तो कुछ देर के लिए नए घर की कल्पना में खो जाता था। अगले दिन जब सुबह वह शौच निवृत्ति के लिए खेतों की ओर निकला तो उसने देखा टोडे पर से तुन्नी का पेड़ किसी ने काट डाला है। वह बड़ा दु:खी हुआ। लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि यह हरकत किसने की होगी।

दोपहर बाद वह अपने आँगन में उदास बैठा था। उतने में पड़ोस के गाँव से उसका एक मित्र आ पहुँचा। उसने भगत राम से पूछा कि वह उदास क्यों बैठा है। सारी बात सुनने पर उसने भगत राम को चेताया कि यह शैतानी कहीं चंदू लाल टुंडे की तो नहीं . . . क्योंकि वही ऐसी हिमाकत कर सकता है। भगत राम बोला, “ऐसे किसी पर इल्ज़ाम लगाना ठीक नहीं होगा। कोई सबूत भी तो नहीं है . . .|” बातों-बातों में उसके मित्र के दिमाग़ में एक बात आई। उसने कहा ―”देख भगत राम, वह तुन्नी का पेड़ तो मकान के दार के लिए ही काम आ सकता था। हो न हो चोर ने या तो उस पेड़ को घर में कहीं छिपाया होगा . . . या फिर चिराई के लिए आरे पर छोड़ा होगा। . . . क्यों न जाकर आरे वाले से पूछताछ की जाए?”

यह सुझाव भगत राम को ठीक लगा। वह अपने मित्र के साथ आरे पर गया। आरे वाले गोपी चंद से पूछताछ करने से मालूम पड़ा कि एक तुन्नी का पेड़ वही टुंडा पिछली रात वहाँ छोड़ गया था। भगत राम को यह जान कर कि टुंडे ने पेड़ को काटा है कोई हैरानी नहीं हुई बल्कि उसे बहुत खेद हुआ।

भगत राम सीधा व शरीफ़ आदमी था। उसने सोचा टुंडे के मुँह कौन लगे, वह तो गाली-गलौच व हाथापाई पर उतर आएगा। उसने अपने मित्र व परिवार वालों के मशविरे से पंचायत में उसके ख़िलाफ़ शिक़ायत दर्ज करा दी।

चंदू लाल को पंचायत का समन पहुँचा। मामले की सुनवाई के लिए जब पंचायत बैठी तो चंदू से पूछा गया कि उसने पेड़ काटा है या नहीं। पहले तो वह इन्कार करने लगा। किन्तु जब भगत राम ने आरे वाले गोपी चंद को गवाह बनाकर पेश किया और उसने इतना बताया कि चंदू उस रात को एक तुन्नी का पेड़ उसके आरे पर लाया था, तो चंदू मानने लगा कि पेड़ उसने ही काटा है, किन्तु जो पेड़ उसने काटा है वह तो उसकी अपनी ज़मीन पर था।

अब मामला और उलझने लगा। पंच कहने लगे यह मुआमला तो दीवानी का है, अब तो यह तय करवाना होगा कि ज़मीन किसकी है तभी साबित होगा वास्तव में पेड़ किसका है।

भगत राम को लगा यह मामला तो अब लम्बा चलने वाला है। वह कोर्ट-कचहरी से गुरेज़ करता था। उसे मुआलूम था कि मामला एक बार वकील के हाथ गया तो बस फिर व्यक्ति की उम्र निकल जाती है अदालत के चक्कर काटते-काटते। और फिर अदालती कारर्वाई के लिए शहर के न जाने कितने चक्कर काटने पड़ेंगे। . . . वकील तो लूटेंगे ही, पटवारी, क़ानून-गो वग़ैरह भी कहाँ छोड़ेंगे। वह इन सब बातों के बारे में सोच कर ही परेशान हो रहा था।

उसके दिमाग़ में एक तरक़ीब सूझी। उसे ध्यान आया कि चंदू की कुलजा देवी में बड़ी आस्था है, क्योंकि वही देवी उसे जंग के मैदान से बचाकर निकाल लाई थी। उसने पंचों के समक्ष यह प्रस्ताव रखा कि यदि चंदू लाल वहाँ धार पर बैठी अपनी कुलजा देवी की सौगन्ध खाकर कह देगा कि ज़मीन उसकी है, तो वह ज़ब्त कर लेगा।

इस बात पर चंदू भड़क गया। वह कहने लगा कि बुज़ुर्गों ने ज़मीन का वह हिस्सा उसके पिता के नाम किया था। महज़ नीचे का खेत भगत राम के पिता को दिया गया था। यह हमारे बुज़ुर्गों का बाहमी फ़ैसला था। . . . भगत राम तो झूठा इल्ज़ाम लगा रहा है।

पंचों ने उसे समझाने की कोशिश की, “देखो चंदू लाल, इस मामले को क्यों खींचते हो। सच-सच कह दो वरना अदालती चक्कर पड़ेगा और लंबे फेर में पड़ जाओगे। तुम सच्चे हो तो सौगन्ध खाओ। इससे भगत राम की भी तसल्ली हो जाएगी।”

चंदू बात को मज़ाक़ में टालते हुए कहने लगा, “अरे अब देवी ने आकर थोड़े ही अंगुलि लगानी है कि ज़मीन किसकी है। भगत राम तो बेवक़ूफ़ों वाली बात कर रहा है। पर चलो इसकी तसल्ली के लिए मैं क़सम खा लेता हूँ। यह ज़मीन मेरी है। मैं कतई दोषी नहीं हूँ।”

चंदू के क़सम खाने पर पंचायत प्रधान ने भगत राम से कहा ― “अब तो भगत राम तेरी तसल्ली हो गई होगी . . . अगर तेरे दिल में और कुछ है तो कह डाल . . . अगर तुझे लगता है तेरे साथ इंसाफ़ नहीं हुआ है तो तू दीवानी का मुक़द्दमा कर लेना।” ऐसा कहकर पंचायत बर्ख़ास्त कर दी गई।

भगत राम चिन्ता में पड़ गया। घर लौटते वक़्त वह यही सोचता रहा कि क्या किया जाए? उसके साथ नाइंसाफ़ी हुई है। टुंडा तो बहुत बदमाश निकला। उसने तो देवी का भी लिहाज़ नहीं किया। वह देवी का ध्यान करते हुए उससे यही अर्ज़ करने लगा कि वह उसे सही रास्ता दिखाए। साथ ही मित्रों से भी मशविरा लेने लगा। पर अदालती कारर्वाई से वह बहुत डरता था।

भगत राम परेशान रहने लगा। वह रोज़ अपने कागज़ात लेकर मित्रों के पास जाता; उनसे सलाह लेता। कोई कुछ कहता तो कोई कुछ और। वह एक-दो दोस्तों के साथ वकील के यहाँ भी गया। वकीलों ने भी उसे तरह-तरह के दांव-पेंच बताए। उन्होंने उसे राजस्व एवं बंदोबस्त सम्बन्धी कागज़ात को इकट्ठा करने के लिए कहा। कागज़ात की लम्बी फ़ेहरिस्त देखकर व उन्हें इकट्ठा करने की दौड़धूप और ख़र्चे के लिए वह न तो मानसिक रूप से तैयार हो पा रहा था और न ही आर्थिक रूप से। उधेड़बुन में ही तक़रीबन एक महीने से अधिक समय निकल गया।

तभी अचानक एक दिन बड़ी अजीब-सी घटना घटी। यह घटना सचमुच अभूतपूर्व थी। सुबह-सुबह चंदू लाल की घरवाली की ज़ोर से चीख़ने-चिल्लाने की आवाज़ें सुनकर भगत राम व उसके परिवार वाले उसके घर की ओर दौड़े। गाँव के कुछ अन्य लोग भी वहाँ पहुँच गए। चंदू लाल दो दिनों से अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ गया हुआ था।

सब लोग घटना के बारे में चंदू की पत्नी से पूछने लगे। वह डरी, सहमी-सी कुछ कह नहीं पा रही थी। वह हाँफ़ रही थी। मात्र अंगुलि से अपनी गौशाला की ओर संकेत कर रही थी, जिसका दरवाज़ा उसने अभी-अभी गाय को दूहने के लिए उघाड़ा था। उसके बच्चे उसे संभालने की कोशिश कर रहे थे। भगत राम भी वहाँ पहुँचा। गाँव के दो-चार मर्दों को लेकर गौशाला की ओर बढ़ा। वहाँ घटी घटना को देखकर वे सभी अवाक् रह गए।

गौशाला के अन्दर ख़ून ही ख़ून फैला था। एक भेड़ का माँस व हड्डियाँ ख़ून में लथपथ पड़ीं थीं। एक गाय व उसका बछड़ा वहीं मौजूद थे, किन्तु आँखें फैलाए मूक चश्मदीद गवाहों से खड़े थे। ऐसा लगता था वे कुछ कहना चाहते हों, मगर बेचारे कह नहीं पा रहे थे। भगत राम ने गौशाला के भीतर क़दम रखा तो वह यह देखकर दंग रह गया कि गौशाला की छत में बीच से काफ़ी खपरैल निकले हुए थे। कुछ खपरैल अन्दर गिरे हुए थे और बहुत से ऊपर ही धरे हुए थे। सहसा भगत राम के ध्यान में आया कि इस भेड़ का एक मेमना भी था पर वह वहाँ से ग़ायब था। यह सारा दृश्य बड़ा ही अजीब और दिल दहलाने वाला था।

भगत राम ने गाँव वालों के साथ गौशाला की चारों ओर मुआयना किया। गौशाला के पीछे डंगे पर, जहाँ छत का झुकाव था, मिट्टी पर किसी जानवर के निशान दिखाई दे रहे थे। बड़े ध्यान से देखने पर भगत राम व अन्य लोगों ने अंदाज़ा लगाया कि हो न हो ये निशान बाघ के पंजों के हैं। फिर उन्होंने गौशाला के भीतर फ़र्श पर व भेड़ के अस्थि पंजर के पास भी ध्यान से देखा और फ़ीके-फ़ीके वही निशान पाए। अब वहाँ उपस्थित सब गाँव वालों ने यही निष्कर्ष निकाला कि बाघ ने ही रात को यह उत्पात किया था। उन्होंने चंदू की घरवाली को ढाढस बंधाया पर सभी इस बात से हैरान थे कि आख़िर बाघ छत की खपरैल निकाल कर कैसे भीतर प्रविष्ट हुआ होगा। कोई यक़ीन नहीं कर पा रहा था कि खपरैल किसी जानवर ने हटाए होंगे . . . जिस सफ़ाई से यह सब किया हुआ था, उससे ऐसा लगता था कि यह सब मानो किसी आदमी की शरारत रही हो। परन्तु बाघ के पंजों के निशानों से स्थिति स्पष्ट हो रही थी।

उधर अगले दिन जैसे ही चंदू टुंडा घर पहुँचा तो वह घटना के विषय में जानकर बेचैन हो गया। उसे कतई विश्वास नहीं हुआ कि यह सब बाघ ने किया था। वह ख़ुद शरारती-फ़ितरती दिमाग़ वाला था, उसे सन्देह होने लगा कि हो न हो यह कृत्य उसके किसी दुश्मन का ही होगा। उसने दुश्मनी भी तो कई लोगों से कर रखी थी। उसे भगत राम पर भी शक़ हो रहा था। उसे लगा उसने अपने पेड़ के काटे जाने का बदला लिया हो।

चंदू की घरवाली ने उसे फ़िज़ूल के संशय से रोका। उसने समझाया कि बाघ के पंजों के निशान सबने देखे हैं। हाँ, यह ज़रूर हैरानी की बात है कि बाघ ने खपरैल किस तरह हटाई होगी। ऐसा तो आज तक नहीं हुआ था, न ही कभी इस तरह की घटना के बारे में कभी सुना था। रही बात भगत राम की, चंदू की घरवाली ने उसे बताया कि वह तो बेचारा भला आदमी है। उसने व उसके परिवार वालों ने तो काफ़ी मदद की। वह कल ही पंचायत में इस नुक़सान के मुआवज़े के लिए सूचना भी दे आया था। पत्नी की व गाँव वालों की बात सुनकर चंदू चुप तो अवश्य था किन्तु अधीर बहुत था। अन्दर ही अन्दर शक़ और ग़ुस्से में घुला जा रहा था।

एक सप्ताह के बाद शारदीय नवरात्रि का पर्व शुरू हुआ। दुर्गाष्टमी के पूजन के लिए गाँव के बहुत-से लोग धार पर कुलदेवी के मन्दिर में एकत्र हुए। दो घण्टों तक पूजा होती रही। तभी देवी व ग्राम देवता के गूरों को देव-पंचायत के लिए उनके थड़ों पर बिठाया गया। उनके आगे ज्योति एवं धूप-अगरबत्ती प्रज्वलित की गईं। उनके भोग के लिए रोट, हलुआ-कड़ाही व प्रसाद चढ़ाया गया। और फिर ढोल-नगाड़े-शहनाई-रणसिंघे बजाकर देवी-देवता का आह्वान् किया गया।

कुछ ही मिनटों में देवी और देवता अपने-अपने गूर के शरीर में प्रविष्ट हो गए और कम्पन करते हुए गूर उनकी वाणी बोलने लगे। मन्दिर कमेटी के पंच प्रमुख व सेवादार लोग उनसे सारे वर्ष के शुभाशुभ के बारे में पूछने लगे। आगामी वर्ष में गाँव की ख़ुशहाली व सर्वविध सुरक्षा के लिए उन्होंने देवी-देवता से शुभाशीष वचन लिए। उसके पश्चात् गाँव के कुछ लोग एक-एक करके अपने प्रश्न पूछने लगे व समस्या समाधान कराने लगे। उनके निपट जाने पर पंचों ने कहा कि किसी और को कुछ पूछना हो तो आगे आ जाए, नहीं तो देवी-देवता को प्रस्थान की अर्ज़ करेंगे।

चंदू टुंडा सरक कर आगे बढ़ा। उसने देवी-देवता के समक्ष अपने साथ हुई घटना बयान की। उस घटना को लेकर गाँव वाले भी देवी-देवता से गुहार करने लगे कि गाँव में ऐसी भयावह घटना क्योंकर घटी। इस प्रश्न को सुनते ही ग्राम देवता कुपित हो गए और कहने लगे यह तो इसे कुलदेवी का दोष लगा है, वही बताएगी। फिर चंदू व सभी पंच कुलदेवी से हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे। देवी ने कुपित स्वर में कहा यह सब चंदू की अपनी करनी का फल है। ग़ुस्साई देवी कहने लगी कि वह तो उसे इससे भी अधिक दण्ड देती, पर यह महज़ चेतावनी थी, क्योंकि उसकी कुलजा होने के कारण वह ज़्यादा कठोर न हो पाई। पर कुलजा वह भगत राम की भी थी। इसलिए देवी ने न्याय करते हुए चंदू से कहा कि वह उसे तभी क्षमा करेगी यदि वह सब पंचों के सामने अपनी ग़लती स्वीकारेगा, सच कहेगा और झूठी क़सम खाने के लिए मुआफ़ी माँगेगा।

चंदू के पास और कोई रास्ता न था। उसने क़बूल किया कि जो पेड़ उसने काटा था वह भगत राम की ही ज़मीन पर था। और फिर देवी से क्षमा याचना करने लगा। सभी पंच देवी से प्रार्थना करने लगे कि वह चंदू को क्षमा कर दे। पंचों के एक स्वर को सुनकर देवी का आक्रोश कुछ शान्त हुआ और उनकी शहादत पर उसने चंदू को सवा रुपए का दण्ड भरने को कहा। चंदू ने तुरन्त दण्ड भरा और उसने नाक रगड़कर मुआफ़ी माँगी।

देवी के इस इंसाफ़ के बाद सभी ने उसके और देवता के प्रस्थान के लिए हाथ जोड़े। कुछ ही क्षणों में ढोल-नगाड़ों की ध्वनि के साथ देवी-देवता वापिस अपने-अपने स्थान को व्रजन कर गए। गूर होश में लौटे और धीरे-धीरे सब गाँव वाले मन्दिर में माथा टेक कर घर की राह लेने लगे। कुछ लोग चंदू को समझा रहे थे। देवी-देवताओं से खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। ज़मीनी अदालत से ऊपर भी एक अदालत होती है। ऊपर वाले से डरना चाहिए। उसकी लाठी में आवाज़ नहीं होती! ¡