चंद्रदेव सिंह के नाम पत्र 2 / रामधारी सिंह 'दिनकर'

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प्रिय चन्‍द्रदेव,

तुम्‍हारी बड़ी कृपा है कि नैनीताल में तुम्‍हें मेरी याद आयी।

हिन्‍दी-ग्रन्‍थ-अकादमी के चेयरमैनशिप का ऑफर सरकार की ओर से आया था। तुम जानते हो कि उस पद पर अभी सुधांशुजी काम कर रहे हैं। वे रुग्‍ण तो हैं ही, अभी भारी विपत्ति में भी हैं। अपने पद पर वे बने रहें तो उससे उन्‍हें थोड़ा ढाढ़स रहेगा। यही सब सोच कर मैंने ऑफर को स्‍वीकार नहीं किया। वैसे काम की मुझे जरूरत है। माथे पर अनाथ पोते-पोतियों का बोझ है जो मुझे अब क्षण भर को भी निश्चिन्‍त होने नहीं देता।

क्‍या करूँ, कुछ समझ में नहीं आता है।

हम जिस समाज में जी रहे हैं, उसके प्रोप्रायटर राजनीतिज्ञ हैं, मैनेजर अफसर हैं, बुद्धिजीवी मजदूर हैं।

बूढ़ा मजदूर भर-पेट मजदूरी नहीं कमा सकता, वही हाल मेरा है।

सरस्‍वती और लक्ष्‍मी के बैर को बुझाने की कोशिश मैं जीवन-भर करता रहा, लेकिन वह बैर बुझा नहीं। अभी तो वह जरा तेज ही हो गया है।

भावुकता में विलाप की बातें लिख गया, क्षमा करना।

भगवान तुम्‍हें सुखी रखें।

तुम्‍हारा

दिनकर