चकबंदी / हुस्न तबस्सुम निहाँ

Gadya Kosh से
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उसकी अजब गजब मनःस्थित और करतूत को देख सब हतप्रभ थे। किसी को कुछ कहते या समझते नहीं बन रहा था। हवलदार साहब विस्फारित नेत्रों से सामने का दृश्य देखते रह गए। क्रोध व अवसाद से तप कर कनपटियाँ लाल हो गईं। गुर्राए -

'क्या कर रहे हो रामदीन?' तो बड़ी विनम्रता से उत्तर दिया गया -

'चक बाँट रहा हूँ, हुजूर...'

एक बारगी पूरी भीड़ में 'हा...हा...हू...हू...' की ध्वनि लहरा गई। हवलदार के जले पर पर नमक पड़ गया। घूरती आँखों से भीड़ पर निगाह डाली -

'क्यूँ बे... खींसें निपोर रहे हो, तुम्हारी बहनों का मुजरा हो रहा है क्या...?'

हवलदार की हुंकार सुन भीड़ में ठंडा सन्नाटा पसर गया। मगर इस भभ्भड़ से उदासीन रामदीन अपनी ही क्रीड़ा में मस्त था। भीड़ के बीचों-बीच तीन लाशें पड़ी थीं। सिरकटी लाशें। तीनों लाशों के सिर धड़ से अलग थे। रात से अब तक खून बह-बह के जमीन में सिक्त हो चुका था। मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। पनीली हवा में दुर्गंध पूरी तरह व्याप्त थी। तीनों लाशें बराबर से पड़ी थीं। सिरहाने रामदीन बैठा था। पास ही गड़ाँसा पड़ा हुआ था। मामला बिल्कुल पारदर्शी था। किसी खोजबीन या तहकीकात की कोई गुंजाइश नहीं। तीनों खोपड़ियों से रामदीन मगन हो कर खेल रहा था। एक धड़ की खोपड़ी दूसरे में लगाता, दूसरे की तीसरे में फिर तीसरे की पहले में। इस तरह बार-बार इधर से उधर, उधर से इधर खोपड़ियाँ जोड़-तोड़ रहा था। पूरा शरीर लहू से नहाया था। तन पे केवल अंडरवियर, वो भी लहू के रंग की हो कर सूख-सूख चिकटा गई थी। पूरे परिदृश्य पे मक्खियों का साम्राज्य था। हवलदार लिखा-पढ़ी करते-करते फिर गूँजा -

'इन सालों को कोई पहचानता है?'

'जी हुजूर...' एक नौजवान आगे खिसक आया -

'ई खोपड़ी तो पटवारी साहेब की आए' उसने तीनों सिर में से एक को इंगित करते हुए कहा। जिसका चेहरा अत्यंत रोबीला बड़ी-बड़ी मूँछें, और सिर पे खिचड़ी बालों की हल्की फसल। दूसरे बाशिंदों ने भी 'हाँ-हाँ' दोहराई। हवलदार डंडे से खोपड़ी इधर-उधर करते बोला -

'और इसका धड़...?'

ये सुन सब बगलें झाँकने लगे। संयोग से तीनों शरीरों की कद-काठी भी उन्नीस-बीस ही थी और तंदुरुस्ती भी। किंतु जिनकी लेखपाल के पास आमद-रफ्त थी, वे ताड़ गए। इस तरह एक शरीर मुकम्मल किया गया। रामदीन, जिसे खींच कर दूर बैठाया गया था, अब भी जमीन पर आड़ी-तिरछी रेखाएँ खींच रहा था। बुदबुदा रहा था। बच्चों की भीड़ उसे गोला बनाए घेरे खड़ी थी। छेड़छाड़ में कोई बच्चा बोल देता

'दीनू भैया, क्या कर रहे हो...?'

तो एक सपाट उत्तर मिलता

'चक बाँट रहे हैं' बच्चे खिलखिला उठते।

अब मसला फँसा था दूसरी दो लाशों का। इन्हें कोई चीन्ह ना पाया। अब दिक्कत थी। एक बार हवलदार ने भी प्रयास किया। बारी-बारी से सरों में धड़ों को जोड़-जोड़ देखा। किस देह पर कौन सी खोपड़ी फबती है। किंतु नहीं। जिस धड़े पर जो खोपड़ी लगाओ, वही सटीक लगती। हवलदार संतुष्ट न हो सका। अलबत्ता कई तरफ से फबती कसी गई -

'हुजूर, चक बाँट रहे हैं... का...?'

हवलदार खिसियाया, पर अगले ही क्षण खिसियाहट दबाते हुए गुर्राया -

'कौन बोला बे?'

सबकी सिट्टी गुम। हवलदार झल्ला कर उठा। तीन बोरे मँगवाए। तीनों लाशों को बोरे में रख कर गाड़ी पर लदवाया और रवाना हो गया। दूसरी जीप पर रामदीन को हथकड़ियों में जकड़ कर शेष सिपाही लेते गए। एक-डेढ़ घंटे में ही गाँव में जैसे विष घुल गया। खाना-पीना भूल सारी औरतें और मर्द अपनी-अपनी मंडली बनाए इस असामायिक घटना पर दीदे फेरने लगे। रामदीन की पत्नी व माँ का अलबत्ता बुरा हाल था। गाँव से थाने तक एक दहशत व्याप्त थी। लोग रह-रह कर 'हाय...।' कह उठते।

लाशें थाने के लॉकअप में रखी गई थीं। लाशों की शिनाख्त के लिए सूचना निकाली गई। लेखपाल के महकमे से पता दरयाफ्त कर उनके परिजनों को सूचित कर लाश अन्यत्र परीक्षण के लिए भेज दी गई। अब शेष दो लाशों का मसला था।

सड़क से लगे जंगल के पीछे बसी इस देहाती बस्ती की दुर्दशा सीधे-सरल किसान किसी अजाब की मानिंद ढोते आ रहे थे। ईंट-गारे में ढले मकानों में रहनेवाले संभ्रांत वर्ग की श्रेणी में गिने जाते थे। बाकी झोंपड़पट्टीवाले निम्नाति निम्न कोटि में सीमित कर दिए गए थे। जीविकोपार्जन के स्रोत शून्य...। जीने के संसाधन के नाम पर केवल कृषि। वो भी केवल उच्च या मध्यग वर्ग के किसानों के लिए। मजदूर कृषकों के लिए वो भी नहीं। आधे से अधिक भूमि, बंजर या परती। जिन मजदूर किसानों के पास कृषि योग्य भूमि थी भी, वो भी धुप्पल में हथिया ली गई थी। वे संसाधनहीन किसान अपनी भूमि से भी वंचित कर दिए गए। 'कब?' उन्हें भी नहीं पता। अचानक कोई मजबूत, सेठ तुल्य किसान के हरकारे आ कर खेत जोतने लगते। खेत का वास्तविक मालिक जब हस्तक्षेप करता तो उसे दुत्कार कर 'हँका' दिया जाता। रपट अव्वल तो लिखी नहीं जाती। लिख भी ली जाती तो कागजात पलटवाने पर पता चलता कि वो भूमि उक्त मजदूर किसान की कभी थी ही नहीं। वो तो दया, कृपावश उसे बोने दिया जा रहा था। और कोई तर्क...?

इस प्रकार वो मजबूर किसान, किसान से सिर्फ मजदूर रह जाता। निर्धन कृषकों के पास सिफारिश नहीं, मोटी रकम नहीं, छल-हृदय के हथकंडे नहीं... विवश...। आहत...। 'कभी अपनी जमीन थी' इस कड़वे सच को हसीन ख्वाब सोच कर भूल जाने की चेष्टा करते। नहीं भूल पाते तो साँसों की दुकान समेट जिंदगी की छाँठ से उड़कर चलते बनते।

ज्यादा दूर क्यूँ जाइए, पिछले साल ही इसी गाँव के ग्यारह कृषक बैंक के कर्ज तले दब कर मर गए। इस वर्ष भी, पटेसर, घूरे, सलालुद्दीन व जगरूप ने आत्महत्या कर ली। गाँव ऐसे ही सिमटता गया। छह हजार की आबादीवाला गाँव इतने में ही सिमटा-सहमा घूमता है। जिनकी भूमि हड़पी गई वे अपनी ही जमीन पर कृषक-मजदूर बन कर तिनके बीन रहे हैं। अपनी जमीन की खाक को ऐसे कलेजे से लगाते हैं जैसे मक्का, काबह... या जैसे दरिंदों द्वारा हथिया ली गई अपनी खुद की जायी बेटी । जिन्होंने आत्महत्याएँ कर लीं, उनके बीवी-बच्चे पलायन कर गए। शहरों के शुष्क व क्रूरतम परिवेश मंं वे खप गए। कोयले बीनते हैं, पत्थर तोड़ते हैं औरतें देह तक बेच चुकी हैं। बच्चे भीख तक माँगते हैं।

हाँ, इस बार किंतु चमत्कार हुआ कि रामदीन अन्याय के विरुद्ध बोल गया। बोला ही नहीं, गड़ाँसा तक उठा लिया। और राक्षसों का काम तमाम कर दिया। भले ही मानसिक संतुलन गँवा बैठा किंतु भू-माफियाओं का किस्सा तमाम कर दिया था। सारे भुक्तभोगी मजदूर कृषक भीतर-भीतर हरक गए थे। उसकी पीठ ठोंक रहे थे जैसे दीनू ने सारे प्रताड़ित किसानों का प्रतिशोध ले लिया था। विशेषकर वे, जो आज अपनी भूमि खो कर अपनी ही भूमि पर मजदूरी कर रहे थे। जो खून के आँसू बारहों महीने रोते थे। इस प्रकार भू-माफियाओं के चंगुल में निर्धन किसान बुरी तरह फँसे पड़े थे। बहरहाल, दूसरे ही दिन भोर का झुटपुटा खुलते-खुलते हवा में तैरती एक दुबली-पतली सत्तर-पिचहतर के बीच झूलती बूढ़ी स्त्री थाने में दाखिल हुई। आँखों में अजब सोयापन व दर्द तैर रहा था। पता चला वह लाशों की शिनाख्त करना चाहती है। दरोगा साहब ने बुला कर फौरी तफ्तीश की -

'कहाँ से आई हो माताजी...?'

'कग्गर से...'

'तुम्हारे घर का कोई मर्द गुम है?'

'हाँ साहेब, हमारा बेटा...' वह आँखें आँचल से पोंछती बोली

'साहेब, हम सीतापुर से हैं। पाँच साल से हम यहीं कग्गर में आ कर बस गए हैं। बेटे की शहर में ही कपड़े की दुकान है। बहू चल बसी। दो बच्चे हैं, जिन्हें मैं पाल-पोस रही हूँ।

'सुमिरन कल भोरहे निकला था चकबंदी के सिलसिले में। हमारी करीब के गाँव लाल पुरुवा में कुछ जमीन निकलती है।'

वह कहते-कहते थमी ही थी कि पास ही जमीन पर दीवार से टेक लगाए, पालथी मारे बैठी दो-दो हाथ का घूँघट डाले रामदीन की पत्नी बुक्का फाड़ चिल्ला पड़ी 'हाँ, हुजूर... यही सब बेईमान अऊर घूसखोरन ने मिल कै हमरी हरी भरी जमीन लील ली। अऊर बदले माँ पत्थर चट्टान हमरे गले मढ़ दीन्ह। जिमा खोपड़ी फौड़े से भी दूब नाए उगत... पिछली चकबंदी माँ हमार दुई देवर नहरिया में बूड़ के अपना जीवन लीला समाप्त कर लीन्ह... इन्हीं सबके कारन हुजूर...'

दरोगा ने उसकी बातें ठेलते हुए वृद्ध को देखा फिर बोला -

'चलिए, अंदर चलिए...'

बीच का गलियारा फाँद के वे एक सीलन युक्त दुर्गंध से भरी कच्ची कोठरी के पास पहुँचे। खुलवाया, स्त्री भीतर गई। चेहरों से कपड़ा हटाया गया। वैसे ही वृद्धा लहराती हुई जमीन पर आ गिरी। सिपाही चीख सुन कर दौड़े। पानी से चेहरा भिगोया गया। चेतते ही चीख मार कर रो पड़ी और एक लाश से लिपट गई। किसी तरह वृद्धा को लाश से अलग किया गया और शिनाख्त होते ही लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया। कागजी लिखा-पढ़ी के उपरांत स्त्री भी वापस हो गई।

दरोगा साहब झल्लाते हुए अपनी कुर्सी पर बैठे

'स्...साले... आह कमाओगे, तो आह भुगतोगे...'

'हाँ साहेब...' सिपाही ने हाँ में हाँ मिलाई...।

'अरे राम आसरे..., मुफलिसों की आह जाया नहीं जाती साऽऽले बाल बच्चे रखा के हराम खाते हैं। ये लेखपाल तहसीलदार वगैरह सब यही करते घूमते हैं... इसी में बने हैं। सरकार की छुरी सिर्फ हम पर ही लटकती है गिनी रोटी नपा शोरबा... जरा खिड़की खोलना आज गरम भी बहुत है...' दरोगा साहब ने वर्दी के सामने के बटन खोले और आस्तीनें चढ़ा कर कुर्सी के पिछले हिस्से पर सिर टिकाया और आँखें बंद कर लीं।

साँझ के लगभग पाँच बजे होंगे। चिलकती गर्मी कुछ ठंडी नमी से भर गई थी। अब थोड़ी राहत थी। दरोगा साहब का दिन बड़ी बेचैनी और उठते-बैठते बीता था। फिलहाल वह अपनी आरामकुर्सी पर बैठे सिगरेट के छल्ले फूँक रहे थे कि थाने में तीन व्यक्ति धड़धड़ाते से घुसे। एक लंबी-चौड़ी कद-काठीवाला भारी-भरकम शरीर झक सफेद धोती-कुर्ते में था। चेहरा रोबीला कतु विनम्र। बाकी दोनों मँझोले कद के व्यक्ति थे और पैंट शर्ट में थे। दुबले-पतले। दरोगा साहब ने उड़ती निगाहों से देखा और अनदेखी कर दी। वे नजदीक पहुँचे। धोती-कुर्तावाला व्यक्ति मेज पर झुकते हुए धीमे से बोला -

'साहब... हम लाश की शिनाख्त करने आए हैं...

- दरोगा ने उन पर दृष्टि डाली -

'कल से कहाँ थे...'

'थे तो हम घर पे ही, लेकिन...'

'ठीक है ठीक है, सुंदर, इन्हें लाश दिखाओ...'

अनमने से वह किसी सिपाही को काम सौंप कर टेबल वर्क में लग गए। क्षण भर बाद एक सिपाही आया और उन तीनों को लॉकअप तक ले गया। खोला।

लाश का चेहरा देखते ही तीनों के चेहरे का रंग उड़ गया। मुँह से हल्की 'आह' निकल गई। वे मुँह पे रूमाल रखे वापस दरोगा के पास आ गए। दरोगा ने मेज पे झुके-झुके ही पूछा -

'पहचाना...?'

'जी हाँ, मेरे भैया ही हैं।'

'नाम और पता...?'

'सलीम अख्तर वल्द अख्तर अली मरहूम।'

'हूँ...'

'नायब तहसीलदार, उमरा विकास खंड। उमरा में ही हमारा निवास है...।'

'हूँ' - दरोगा की कलम चल रही थी। अचानक उस व्यक्ति के चेहरे पे लाल रंग पुत गया। दरोगा की टेबिल पर दोनों हाथ टिकाते बोला -

'मैं ये पूछ रहा हूँ, दरोगा जी, जब आप लोग अवाम की सुरक्षा नहीं कर सकते तो कुछ चूड़ियाँ ले कर भेज दूँ, आप लोगों को... साला... गाजर-मूली की तरह आदमी कटवा रहे हो... लगता है पनिश्मेंट पोस्टिंग पर आए हुए हो...।'

दरोगा साहब को करंट सा लगा। दन्न से सीधे खड़े हो गए -

'क्या कहा... तेरी तो...' सहसा कुछ सोच कर हाथ रोक लिया -

'अबे गधों, तुम लोगों के मुँह तो हराम लगी है। जब गरीब किसानों को लूटोगे, उन्हें बेमौत मरने को मजबूर करोगे तो वे तुम्हारी हत्या नहीं करेंगे तो क्या आरती उतारेंगे... सरकार तो किसानों को उजाड़ फेंकने पर तुली है ही, तिस पर तुम साले भी उनकी मामूली सी संपत्ति बर्दाश्त नहीं कर पाते... मोटी रकम पा कर किसान का गला काटते हो, तब कहाँ रहती है तुम्हारी मर्दानगी...? फिर पीछे मुड़े -

'सुंदर..., इनके मल्वे को रुख्सत कर दो...'

- वह तीनों सिपाही के साथ दाँत पीसते हुए लाश की तरफ बढ़ गए...। कुछ सेकेंड बाद वही धोती-कुर्तेवाला आदमी दरोगा साहब के केबिन में धड़धड़ाता हुआ घुसा 'दरोगा साहब, वह मेरा भाई नहीं है... मेरा मतलब है कि सिर मेरे भाई का है पर धड़ नहीं। ...धड़ किधर है...?'

'बड़े कर्मजर्फ हो, ये भी कोई बात है, ये कैसे मुमकिन है...?'

बात घुमाओ मत, इसके साथ दो लाशें और थीं, यह उन्हीं में से किसी का है...।'

'यदि ऐसा है भी, तो अब क्या हो सकता है, लाशें जा चुकी हैं, संभवतः उनका क्रिया-कर्म भी हो चुका होगा। उन्हें हासिल करने का अब क्या उपाय...? बाई द वे... आप कैसे कह सकते हैं कि वो धड़ आपके भाई का नहीं है। कोई पहचान...?'

'...अमाँ वाह... खूब रही, अमाँ... हम मुसलमान हैं... मुसलमान...' अंतिम शब्द उसने थोड़ा खींच कर कहा, ऊँचे स्वरों में, फिर आगे जोड़ा -

'और वो लाश काफिर की है...काफिर की...'

काफिर शब्द पर दरोगा साहब भीतर ही भीतर तिलमिला गए। लेकिन मौका मुआमले की नजाकत समझते हुए चुप रहे। उन तीनों को बैठने का संकेत किया, अब वह सोच रहे थे समस्या का निदान कैसे हो...? फाइल निकाली, बाकी दोनों लाशों के पते खोजने लगे। जेहन में चक्की चल रही थी...' एक तो तीन हत्या की जवाबदेही थी ही, तिस पर ये चूक... तब तो नहीं, लेकिन इस बार निलंबन तय है, नहीं तो पनिश्मेंट पोस्टिंग तो हर हाल में...'

गहरी साँस के साथ एक जगह उँगली टेक दी। दोनों पते बारी-बारी से पढ़े और दोनों पतों पर दो-दो सिपाही इस ताकीद के साथ रवाना कर दिए कि 'लाशें फौरन ले कर आओ।'

फिर शांत बैठ कर दारोगा साहब अल्ला पीर मनाने लगे। बीच-बीच में वह तीनों व्यक्तियों के चेहरों की ओर एक गहरी तोष के साथ देख लेते। तीनों व्यक्ति भाव-शून्य छत तक रहे थे। गर्मी और उमस से छटपट करते। गाहे-बगाहे मुख्य द्वार से हल्का झोंका आ जाता तो कुछ राहत मिलती। कभी-कभी वे एक साथ बाहर देखने लगते। उन्हें आए एक घंटा हो गया था, और सिपाहियों के गए भी पौन घंटा होने को था, दूर झोपड़ियों में दिए टिमटिमाने लगे थे। दरोगा साहब बैठे-बैठे पहलू बदले जा रहे थे। मच्छरों की भन्न-भन्न से उकताहट सी होने लगी थी। तभी बाहर आ कर एक 'सूमो' रुकी। दरोगा की आँखों में अचरज छलक आया। अभी वह अनुमान लगा ही रहे थे कि उसी वृद्धा ने भीतर प्रवेश किया - 'हुजूर... वो लाश मेरे बेटे की नहीं, किसी मुसलमान की है, मैं वापस ले आई हूँ...' सुनते ही दरोगा समेत तीनों व्यक्ति उछल पड़े। फिर तीनों व्यक्ति बाहर की तरफ बेतहाशा भागे। वृद्धा सीधी लॉकअप की तरफ दो व्यक्तियों के साथ भागी। दरोगा साहब दालान में खड़े लंबी-लंबी साँसें खींचते रहे।