चतुराई का मूल्य / जगदीशचन्द्र जैन

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किसी राजा की चित्रशाला में अनेक चित्रकार काम करते थे। उनमें एक बूढ़ा चित्रकार भी था। उसकी कन्या कनकमंजरी अपने पिता के लिए प्रतिदिन घर से भोजन लाती थी।

एक दिन वह भोजन के लिए आ रही थी कि रास्ते में उसे एक घुड़सवार मिला, जो बड़ी तेजी से अपना घोड़ा दौड़ाये लिये जा रहा था। कनकमंजरी घोड़े के नीचे आने से बच गयी और बड़ी कठिनता से प्राण बचाकर अपने पिता के पास पहुँची।

कनकमंजरी जब चित्रशाला में पहुँची तो उसका पिता शौच गया हुआ था। इस बीच में उसने फर्श पर मोर का एक सुन्दर पंख चित्रित कर दिया। राजा चित्रशाला में मौजूद था। उसने दूर से उस पंख को देख उसे उठाने के लिए हाथ बढ़ाया, परन्तु उसका हाथ फर्श में लगा, और उसका पंख उठाने का प्रयत्न निष्फल हुआ।

कनकमंजरी यह देख रही थी। उसे हँसी आ गयी। राजा के पूछने पर उसने कहा, “महाराज, तीन पैर से चौकी खड़ी नहीं होती, उसके लिए चौथे पैर की आवश्यकता होती है। भाग्य से चौथे पैर आप मिल गये।”

राजा - “यह कैसे?”

कनकमंजरी - “महाराज, मैं रास्ते में चली आ रही थी। एक घुड़सवार तेजी से घोड़ा दौड़ाये ला रहा था। उसे इतनी समझ नहीं थी कि यदि कोई आदमी घोड़े के नीचे आ जाएगा तो क्या होगा? मैं बड़ी कठिनता से यहाँ तक पहुँच सकी हूँ। यह घुड़सवार पहला पैर हुआ। दूसरा पैर है राजा, जिसके यहाँ कोई कायदा-कानून नहीं। उसकी चित्रशाला में अनेक चित्रकार काम करते हैं। एक-एक चित्रकार के कुटुम्ब में बहुत-से कमाने वाले लोग हैं जबकि मेरे पिता के कुटुम्ब में कमानेवाला अकेला मेरा पिता है। परन्तु राजा को इस बात का जरा भी ख्याल नहीं, वह सबको एक-सा वेतन देता है। तीसरा पैर है स्वयं मेरा पिता। आमदनी की अपेक्षा उसका व्यय अधिक है, और जबसे उसने इस चित्रशाला में काम करना शुरू किया है, उसने अपना पूर्व-संचित सब धन खा डाला है, और जब मैं ठण्डा-बासी भोजन लेकर आती हूँ तो वह शौच चल देता है।”

राजा - “तुमने मुझे चौथा पैर कैसे कहा?”

कनकमंजरी - “राजन्! यह हर कोई सोच सकता है कि फर्श के अन्दर मोर का पंख कहाँ से आएगा? फिर आपने उसे उठाने का प्रयत्न क्यों किया?”

राजा - “तुम ठीक कहती हो।”

यह कहकर राजा अपने भवन में चला गया, और कनकमंजरी अपने पिता को भोजन खिलाकर घर लौट गयी।

अगले दिन राजा ने कनकमंजरी की मँगनी के लिए दूत भेजा। कनकमंजरी के माता-पिता ने कहला भेजा कि हम लोग अत्यन्त दरिद्र हैं, राजा का स्वागत हम नहीं कर सकते। राजा ने कहलवाया कि आप लोग इसकी चिन्ता न करें। राजा ने कनकमंजरी का घर धन से भर दिया, और शुभ मुहूर्त में दोनों का विवाह हो गया।

कनकमंजरी को कहानी कहने का बहुत शौक था और राजा को सुनने का। कनकमंजरी ने कहानी कहना आरम्भ किया :

“किसी लड़की की तीन स्थानों से मँगनी आयी। एक जगह की मँगनी लड़की की माता ने, दूसरी जगह की उसके भाई ने और तीसरी जगह की मँगनी उसके पिता ने ले ली। विवाह की तिथि निश्चित हो गयी, और तीनों स्थानों से बारात आ पहुँची। दुर्भाग्यवश जिस रात को भाँवर पड़नेवाली थी, लड़की को साँप ने काट लिया और वह मर गयी। लड़की के तीनों वरों में-से एक वर तो लड़की के साथ ही चिता में जल मरा, दूसरे वर ने अनशन आरम्भ कर दिया, और तीसने ने देवी की आराधना कर संजीवन मन्त्र प्राप्त किया। इस मन्त्र से उसने लड़की तथा उसके वर को पुनः जीवित कर दिया। अब तीनों वर उपस्थित होकर लड़की माँगने लगे। बताइए, राजन्, तीनों में से वह किसे मिलनी चाहिए?”

राजा बहुत देर तक सोचने के बाद भी जब सन्तोषजनक उत्तर न दे सका तो उसने कनकमंजरी से कहा, “तुम्हीं बताओ।”

कनकमंजरी ने कहा, “रात बहुत हो गयी है, इस समय आँखों में नींद भर रही है, कल कहूँगी।”

दूसरे दिन राजा ने फिर पूछा। कनकमंजरी ने बताया, “देखिए, जिसने उस लड़की को जीवनदान दिया, वह उसका पिता हुआ, और जो कन्या के साथ जीवित हुआ, वह उसका भाई हुआ। अब बाकी रहा तीसरा वर, जिसने अनशन किया था, कन्या उसी को दी जानी चाहिए।”

कनकमंजरी की कहानी राजा को बहुत पसन्द आयी। उसने कहा, “कोई दूसरी कहानी कहो।”

कनकमंजरी ने कहा, “किसी राजा के भौंरे में सुनार रानियों के गहने गढ़ते थे। भौंरे में हमेशा अँधेरा रहता, अतएव वहाँ मणि और रत्नों द्वारा प्रकाश किया जाता था। एक बार एक सुनार ने दूसरे सुनार से पूछा, ‘इस समय रात है या दिन?’ उसने उत्तर दिया - ‘रात।’ कहिए, राजन्, चन्द्र-सूर्य के प्रकाश को देखे बिना सुनार ने कैसे जान लिया कि रात है?” जब राजा बहुत सोचने पर भी न बता सका तो उसने कनकमंजरी से पूछा। कनकमंजरी ने कहा, “अब रात बहुत हो गयी है, कल कहूँगी।” अगले दिन राजा ने फिर पूछा। कनकमंजरी ने बताया, “राजन्, रात्रि के अन्धकार को देखकर सुनार ने बता दिया कि इस समय रात है।”

राजा ने कनकमंजरी से और कहानी कहने को कहा। वह कहने लगी -

“किसी राजा ने दो चोरों को एक सन्दूक में बन्द करके समुद्र में छोड़ दिया। बहते-बहते सन्दूक किनारे पर जाकर लगा। सन्दूक को देखकर बहुत-से आदमी इकट्ठे हो गये। जब सन्दूक खोला गया तो उसमें से दो आदमी निकले। लोगों ने पूछा, ‘तुम लोगों को सुमद्र में बहते-बहते कितने दिन हो गये?’ उनमें से एक ने जवाब दिया, ‘यह चौथा दिन है।’ बताइए, सन्दूक में बैठे आदमी को इस बात का कैसे पता लग गया?”

जब राजा की कुछ समझ में न आया तो उसने कनकमंजरी से पूछा। उसने कहा, “इस समय मुझे नींद आ रही है, कल कहूँगी।”

अगले दिन कनकमंजरी ने बताया, “उस आदमी को चौथिया ज्वर आता था, इसलिए उसे मालूम हो गया कि चौथा दिन है।”

राजा ने दूसरी कहानी कहने को कहा। कनकमंजरी बोली -

“दो सौतें एक-दूसरे का विश्वास नहीं करती थीं। एक के पास बहुमूल्य रत्न थे, और वह अपनी सौत के डर से उन्हें जगह-जगह छिपाती फिरती थी। एक दिन उसने अपने रत्नों को एक घड़े में रख दिया और घड़े को लीप दिया। दूसरी सौत ताड़ गयी। उसने मौका पाकर घड़े में से रत्न निकाल लिये और घड़े को उसी तरह लीपकर छोड़ दिया। पहली सौत जब वापस आयी तो वह घड़े को देखकर समझ गयी कि उसके रत्न चोरी चले गये हैं। बताइए घड़े को बिना खोले स्त्री यह कैसे जान गयी कि उसके रत्न किसी ने चुरा लिये हैं?” राजा जब सन्तोषजनक उत्तर न दे सका तो उसने कनकमंजरी से पूछा। कनकमंजरी ने कहा, “रात बहुत हो गयी है, कल कहूँगी।”

अगले दिन उसने बताया, “महाराज, वह घड़ा काँच का था, अतएव उसे ऊपर से लीप देने पर भी उसके अन्दर की वस्तु दिखलाई देती थी।”

राजा के आग्रह करने पर कनकमंजरी ने दूसरी कहानी कही -

“एक बार कोई स्त्री किसी भोज में जा रही थी। उसने एक साहूकार के यहाँ कुछ रुपये रखकर हाथों के कड़े लिये, कड़ों को उसने अपनी लड़की को पहना दिया। बहुत दिन हो गये, परन्तु स्त्री ने साहूकार को कड़े नहीं लौटाये। धीरे-धीरे कई बरस बीत गये। जब साहूकार कड़े माँगता, स्त्री कह देती - ‘दूँगी।’ कुछ समय बाद लड़की सयानी हो गयी और उसके हाथों में से कड़ों का निकलना कठिन हो गया। स्त्री ने साहूकार से कहा, ‘सेठजी, कड़े छोड़ दो, मैं तुम्हें और रुपये दे दूँगी।’ पर साहूकार न माना। उसने कहा, ‘मुझे तो कड़े चाहिए, मैं रुपये नहीं चाहता।’ स्त्री ने कहा, ‘सेठजी, हम दूसरे कड़े बनवाकर दे देंगे।’ परन्तु साहूकार ने कहा, ‘नहीं, मैं तो वे ही कड़े लूँगा।’ कहिए राजन्, क्या उपाय किया जाए जिससे उस गरीब स्त्री को छुटकारा मिले।”

राजा बोला, “तुम्हीं बताओ।” कनकमंजरी ने कहा, “कल कहूँगी।”

अगले दिन उसने कहा, “यदि साहूकार उन्हीं कड़ों को माँगने पर तुला है, तो स्त्री को कहना चाहिए कि मैं तुम्हारे वही कड़े दूँगी, लेकिन तुम पहले मेरे वही रुपये लाओ।”

कनकमंजरी ने और भी बहुत-सी कहानियाँ कहीं, और वह छह महीने तक कहानियाँ कहती रही। राजा कनकमंजरी से बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उसे पटरानी बना दिया।