चमकते खूबसूरत चांद में भी तो दाग है / जयप्रकाश चौकसे

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चमकते खूबसूरत चांद में भी तो दाग है
प्रकाशन तिथि : 27 फरवरी 2021


फ़िल्मकार स्टेन्ले क्रेमर ने 1963 में ‘इट्स ए मेड मेड मेड मेड वर्ल्ड’ नामक फिल्म बनाई थी। फ़िल्मकार की अन्य महत्वपूर्ण फिल्में हैं ‘जजमेंट एट न्यूरमबर्ग’ जिसमें दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात हिटलर के साथियों पर मुकदमे चलाए गए थे और वे दंडित भी किए गए। यहूदियों ने एक संस्था का निर्माण किया था, जिसका काम था कि नाजीवादी लोगों को खोजा जाए और दंडित किया जाए। फ़िल्मकार ने अमेरिका में रंगभेद के सामाजिक रोग के खिलाफ फिल्म ‘गेस हू इज कमिंग टू डिनर’ बनाई थी। इस फिल्म में एक श्वेत व्यक्ति, अश्वेत आरोपियों के खिलाफ मुकदमा लड़ता है और उसकी पत्नी कॉलेज में इन दिनों अमेरिकन सिविल वार पर शोध कर रही है। यह युद्ध रंगभेद मिटाने के लिए लड़ा गया था। उनकी इकलौती पुत्री पत्रकार है और अपने एक मित्र को रात्रिभोज के लिए आमंत्रित करती है। वह संकेत देती है कि इसी मेहमान से वह शादी करना चाहती है। दंपति को यह देखकर झटका लगता है कि उनका होने वाला दामाद एक पढ़ा-लिखा पर अश्वेत है। ये फ़िल्मकार, सोफिया लारा के साथ फिल्म ‘प्राइड एंड पैशन’ भी बना चुका है।

बहरहाल ‘इट्स मेड...’ एक खजाने की खोज में लगे हंसोड़ लोगों की कथा है, जबकि फिल्म का नाम कहता है कि दुनिया पगला गई। अनार्जित संपत्ति को पाने की इच्छा पागलपन ही का एक स्वरूप है। इस विषय पर अनेक हिंदी फिल्में भी बनी हैं। अधिकांश कथाओं में खजाना पाया ही नहीं जाता, क्योंकि उसका अस्तित्व ही काल्पनिक है और अगर वह होता भी है तो किसी के हाथ में नहीं लगता। सारांश यह है कि मेहनत से कमाया धन ही असली है। दरअसल मेहनत अपने आप में एक साध्य है।

जीवन में होने वाली सभी घटनाएं नतीजे नहीं देतीं। दरअसल वस्तुओं और प्रयासों का बेनतीजा होना जीवन का एक हिस्सा है। जीवन में घटी सभी बातों का तार्किक आधार नहीं मिलता। हमें जितना समझ में आता है, उससे कहीं अधिक है वह जो हम समझ नहीं पाते।

प्राय: समझदार और संतुलित लोग भी कभी-कभी पगला जाते हैं। किशोर कुमार द्वारा बनाई गई कई फिल्में इसी पागलपन को रेखांकित करती हैं। वहीदा रहमान अभिनीत फिल्म ‘खामोशी’ में एक नर्स प्रेम से पागलों का इलाज करती है। सभी स्वस्थ हो जाने वाले लोग समझदार होने पर वहीदा के प्रेम को भूल जाते हैं। फिल्म के अंत में स्वयं वहीदा रहमान अभिनीत पात्र पागल हो जाती है। इसी तरह कमल हासन और श्रीदेवी अभिनीत फिल्म ‘सदमा’ में श्रीदेवी अभिनीत पात्र के ठीक होते ही वह कमल हासन अभिनीत पात्र को पहचान भी नहीं पाती। दरअसल दिमागी केमिकल लोचे के समय किए गए कार्य, दिमाग के सही होते ही विस्मृत हो जाते हैं और कोई यह सोच-समझकर नहीं करता। मस्तिष्क की कार्यशैली ही रहस्यमय है।

कुछ लोग कीमती चीजें धरती में गाड़ देते हैं। उस स्थान पर एक निशान बना देते हैं। कालांतर में उसी स्थान को खोदने पर वह वस्तु या दस्तावेज़ नहीं मिलता। विजय आनंद की फिल्म ‘नौ दो ग्यारह’ में वसीयत गाड़ने वाला माली उसी जगह खुदाई करता है, तो वह वसीयत वहां नहीं मिलती। वह बड़बड़ाता है कि मिट्‌टी धोखा दे गई। दरअसल सतत घूमती पृथ्वी में ज़मीन के नीचे गड़ा हुआ दस्तावेज थोड़ी दूर चला जाता है। सभी कुछ चलाएमान है। आमिर की ‘तारे ज़मीन पर’ में स्थिर चित्रों के एलबम के पन्ने तेजी से पलटने पर स्थिर चित्र चलाएमान हो जाने का प्रभाव पैदा करते हैं।

वैचारिक संकीर्णता के दौर में हम प्रार्थना करते हैं कि ‘हे ईश्वर हमें पगला जाने से बचाए रखना।’ हाल ही में खेले गए एक क्रिकेट मैच में पिच पगला गई थी। दरअसल उसका पागलपन बाक़ायदा पूरी तरह से सोच-समझकर इरादतन किया गया था। सभी विजय उजली नहीं होतीं। खूबसूरत चांद में भी दाग है। चांद को धूल धूसरित ही पाया गया था। अंग्रेजों को लगा मानों उन्होंने चांद पर मैच खेला है।