चमत्कारी चूर्ण / दीनदयाल शर्मा

Gadya Kosh से
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दीदी, आज स्कूल में बड़ा मजा आया। सात वर्षीय दुष्यंत ने आंखें मटकाते हुए अपनी बड़ी बहन ऋतु से कहा।

'कैसे ?' बिस्तर पर लेटी ऋतु ने तकिये के सहारे बैठते हुए पूछा।

'दीदी, पहले यह बताओ कि आपका पेट दर्द तो ठीक है ना।' कंधे से भारी बस्ता उतारते हुए दुष्यंत ने पूछा।

'अब तो ठीक है, ऋतु धीरे से बोली। परन्तु स्कूल में मजा कैसे आया, बता ना ?'

'बताता हूं...बताता हूं... थोड़ा धीरज रखो।' कहते हुए दुष्यंत ने जेब से एक पुडिय़ा निकाली।

'क्या है ये पुडिय़ा सी ?'

'अरी, पुडिय़ा ही तो है... खाओगी तो मजा आ जाएगा।'

'क्या है इसमें ?'

इसमें साधु बाबा का दिया हुआ चमत्कारी चूर्ण है। साधु बाबा ने कहा था कि इसे खाने से तुम्हारे पंख आ जाएंगे और फिर तुम उड़ कर कहीं भी जा सकोगे।

'ही...ही...ही...' ऋतु ठहाका लगा कर हंसी।

'अरी। हंसती क्या हो... मेरी बात सच नहीं हो तो देखना। साधु बाबा ने यह पुडिय़ा दस रुपए में दी है। समझी।'

'दस रुपए में। हाय राम... इत्ता सा चूर्ण... इसका मतलब तू हिन्दी सुलेख की कापी नहीं लाया। मैं अभी बोलती हूं मम्मी से ...मम्मी।' ऋतु ने जोर से मम्मी को आवाज दी।

 'प्लीज दीदी, आज आज मुझे माफ कर दो...प्लीज दीदी, मम्मी से कुछ मत कहना।' दुष्यंत ने दबी आवाज में कहा। 

'तो क्या कहेगा मम्मी से ? कॉपी तो लाया नहीं। अब बच्चू को घर में मम्मी मारेगी और स्कूल में सर जी।' अंगूठे के इशारे से चिढ़ाते हुए ऋतु बोली।

'दस रुपए तो मैं पापा से ले लूंगा। कह दूंगा कि गणित की कॉपी लानी है।' दुष्यंत ने कहा।

'तो अब तू झूठ भी बोलेगा। क्या तुमने नहीं सीखा कि झूठ बोलना पाप है।'

'फिर क्या करूं दीदी। आप बता दो।' दुष्यंत ने मायूस हो कर कहा।

'यह चूर्ण की पुडिय़ा साधु को वापस कर दो। अरे मूर्ख, चूर्ण खा कर भी कोई उड़ सकता है भला ? मुझे तो लगता है वह कोई साधु नहीं, जरूर कोई ठग था।' ऋतु बोली।

'नहीं दीदी, ठग नहीं वह साधु ही था।'

'देख दुष्यंत, तू बहुत छोटा है। अभी नहीं समझेगा। आजकल कई ठग साधु के वेश में घूमते हैं और मौका मिलते ही किसी को भी ठग लेते हैं।'

'लेकिन ददी, वह साधु बाबा ठग नहीं था। उन्होंने कहा था कि घर और स्कूल में किसी को भी मत बताना। नहीं तो चूर्ण का असर खत्म हो जाएगा।'

'देखो दुष्यंत, तुम अपने दिमाग से सोचो। क्या कोई चूर्ण खाकर उड़ सकता है ? उडऩे के लिए पंख होने चाहिए।'

'मैंने भी साधु बाबा से यही बात कही थी। परन्तु दीदी, मेरी बात सुनकर साधु बाबा बोले, बेटा टीवी में आपने अनेक धार्मिक सीरियल देखें हैं।'

'हम सबने कहा, हां, वो तो अब भी देखते हैं।'

'साधु बाबा ने फिर कहा- धार्मिक सीरियल में भगवान जी तो बिना पंखों के ही उड़ते हैं। आप यदि यह चूर्ण खा लोगे तो रात भर में ही पंख आ जाएंगे। फिर उडऩे में कोई दिक्कत नहीं होगी। लेकिन मेरी एक शर्त याद रखना। स्कूल या घर में दस वर्ष से बड़े बच्चे को बताओगे तो चूर्ण का असर खत्म हो जाएगा।'

'सच्ची। ऐसा कहा था साधु बाबा ने। मैं तो अभी उन्नीस अगस्त को नौ साल की हुई हूं।' ऋतु ने खुश हो कर कहा।

'हां दीदी, तभी तो मैंने आपको बताया है।'

'कितना खाना है यह चूर्ण ?' ऋतु ने चूर्ण की पुडिय़ा को देखते हुए पूछा।

'हम दोनों आधा-आधा खा लेंगे। ममी पापा से मत बताना। ठीक है ना दीदी।'

'ठीक है नहीं कहूंगी। चलो, यह चूर्ण अभी खा लेते हैं और दोनों ने आधा-आधा चूर्ण खा लिया। कुछ देर बाद दोनों भाई बहन अपनी साइकिल लेकर घर से बाहर आ गए।'

'दीदी, पहले मैं लगा हूं एक चक्कर। फिर तू लगा लेना।'

दुष्यंत ने कहा।

'ठीक है लगा ले। एक चक्कर ही लगाना।' ऋतु के इतना कहते ही दुष्यंत साइकिल को तेज गति से चलाता हुआ दूसरी गली में मुड़ गया।

ऋतु उसका इंतजार करने लगी। वह सामने की गली की ओर देख रही थी परन्तु दुष्यंत पीछे की गली से आ गया। दीदी...मैं जल्दी आ गया ना ? अरी दीदी, देख तो... कहते हुए दुष्यंत ने साइकिल एक तरफ पटक दी। फिर अपनी बुशर्ट को पीछे से ऊंची करते हुए ऋतु क ेपास जा कर बोला, देखना तो दीदी... पंख आ रहे हैं क्या ? चूर्ण वाली बात याद आते ही दुष्यंत खुजली को भूलकर अपनी पीठ पर खुद ही दायां हाथ फिराने लगा।

ऋतु को भी जिज्ञासा हुई। वह उसकी पीठ को ध्यान से देखते हुए उस पर धीरे-धीरे हाथ फिराने लगी कि कहीं सच में ही तो पंख नहीं उग रहे हैं।

'दीदी, मम्मी-पापा से बिल्कुल नहीं बोलना कि हमने कोई चमत्कारी चूर्ण खाया है।' दुष्यंत ने कहा।

'अरे बाबा, नहीं बोलूंगी। फिर वह बुशर्ट को नीचे झटकती हुई बोली- पंख-पंख तो आए नहीं हैं अब तक मुझे तो लगता है कि चूर्ण नकली था।'

'नहीं दीदी, ऐसा नहीं हो सकता। चूर्ण तो बिल्कुल असली था। पंख तो आएंगे। जरूर आएंगे। अभी चूर्ण खाए समय ही कितना हुआ है।'

'हूं।' लम्बी सांस छोड़ते हुए ऋतु ने कहा- 'ठीक है-चूर्ण तो हम दोनों ने एक साथ ही खाया है। तो पंख भी एक साथ ही आंएगे।' और नजर बचा कर वह अपनी पीठ पर हाथ फिराने लगी। उसे लगा कि अभी तक उसके भी पंख नहीं आए हैं।

'अब मैं साइकिल के दो चक्कर लगाऊंगी।' यह कहते हुए ऋतु ने साइकिल उठाई और वह जैसे ही उस पर बैठने लगी तो पीछे वाली सीट पकड़ता हुआ दुष्यंत बोला, 'जल्दी आना दीदी, फिर मैं भी दो चक्कर लगाऊंगा।'

ऋतु साइकिल लेकर पास ही गली की तरफ मुड़ी तो दुष्यंत ने अपनी पीठ पर हाथ फिरा कर देखा कि पंख आएं हैं या नहीं।

दिन छिपने तक ऋतु और दुष्यंत के पंख नहीं आए थे। इसी बीच उन दोनों ने चुपके-चुपके एक दूसरे से कई बार पूछा- कि पंख आ गए क्या ? और इसी इंतजार में उन्हें नींद आ गई।

रात के वक्त अचानक दुष्यंत की आंख खुली। उसे लगा जेसे उसकी पीठ में कुछ चुभ रहा है। उसने पीठ पर हाथ फिरा कर देखा तो वह खुशी से उछल पड़ा। उसके पंख आ गए थे। उसने देखा कि ऋतु दीदी गहरी नींद में सो रही है।

दुष्यंत बिस्तर से उठ बैठा और ऋतु से बोला- 'दीदी, सुनो... दीदी सुनो तो...।'

ऋतु आंखें मलती हुई बोली- 'क्या है ?'

'देखो तो... मेरे पंख आ गए दीदी। आपके देखना तो।'

'क्या। ऋतु का मुंह आश्चर्य से खुला ही रह गया।'

'अरी, ऐसे क्या देख रही है। ...आपके दिखाना तो..वाह। आपके भी आ गए।'

'सच्ची।' इतना कह कर ऋतु ने अपनी पीठ पर हाथ फिराया तो वह बेहद खुश हुई। उसके भी पंख आ गए थे।

'दीदी, अब मान गई न साधु बाबा को।'

ऋतु ने अपने मुंंह पर अंगुली रखते हुए उसे चुप रहने का इशारा किया और वे चुपके से दबे पांव घर से बाहर आ गए।

ऋतु ने धीरे से घर का दरवाजा बंद किया और जैसे ही मुड़ी तो देखा कि दुष्यंत गायब है। वह इधर-उधर देखने लगी।

'दीदी।' दुष्यंत की आवाज ऋतु के कानों में पड़ी। उसने आवाज की तरफ गर्दन उठाई। चांद की रोशनी में ऋतु ने देखा कि दुष्यंत बीस-पच्चीस फीट की ऊंचाई पर उड़ रहा था।

'दीदी, आप भी आओ ना... बड़ा मजा आ रहा है।'

'लेकिन मैं कैसे आऊं... मुझे तो डर लग रहा है।' दुष्यंत को उड़ते देख ऋतु घबराने लगी।

'अरी, डरती क्यों हो। आपके भी तो पंख हैं। आप भी उड़ सकती हो। दीदी उड़ो ना।'

'मगर कैसे ?'

'कैसे क्या... अपने हाथ ऊपर करो...और पंखों को धीरे-धीरे हिलाओ।'

ऋतु ने ऐसा ही किया। उसे लगा कि वह गिरेगी... लेकिन गिरने की बजाय वह अब दुष्यंत की ओर बढ़ रही थी।

खुश होते हुए दुष्यंत बोला- 'हां दीदी, ऐसे अब पंखों को हिलाती रहो। बंद कर दिया तो नीचे गिर पड़ोगी। '

'अब मैं नहीं गिरूंगी दुष्यंत। अब मुझे भी उडऩा आ गया।'

चांदनी रात में ठण्डी हवा के झोंकों का आनंद लेते हुए ऋतु और दुष्यंत उड़ते-उड़ते अपने घर से बहुत दूर निकल आए। हाऊसिंग बोर्ड से दुर्गा कॉलोनी आ गई।

'वो पप्पू भाई जी का घर है ना दुष्यंत...लम्बी एण्टिना वाला।' एक एण्टिना की ओर अंगुली से इशारा करती हुई ऋतु बोली।

'हां, वही है।'

उधर, दीवार की तरफ देखना तो। तीन-चार आदमी खड़े हैं। अरे, ध्यान से देखो। वे दीवार तोड़ रहे हैं। मुझे तो चोर लगते हैं।

'हां, दीदी, चोर ही हैं। अपने वापस चल कर पुलिस को फोन करते हैं।'

'चलो।' और वे दोनों तेज गति से उड़ते हुए घर आ गए।

दुष्यंत ने टेलीफोन डायरेक्टरी में पुलिस थाने के नम्बर देखे। उसे देखते ही याद आया कि पुलिस थाने के टेलीफोन नम्बर एक शून्य-शून्य यानि सौ है। उसने फोन नम्बर मिलाए। नम्बर मिलते ही फोन की घंटी की आवाज उसे साफ सुनाई दे रही थी। ट्रन-ट्रन-ट्रन। जैसे हीआ घंटी की आवाज बंद हुई। दुष्यंत बोला- 'हैलो...हैलो...हैलो...।'

तभी ऋतु की आवाज आई- 'दुष्यंत, ये सुबह सुबह 'हैलो...हैलो..' किसे कह रहा है ?'

आंखें मलता हुआ दुष्यंत उठा।

'क्या बात है कोई सपना देख रहा था ?'

'नहीं दीदी...हां दीदी...।' कहते कहते दुष्यंत ने चुपके से अपनी पीठ पर हाथ फिरा कर देखा कि उसके पंख हैं या नहीं। पीठ पर पंख नहीं थे। तो क्या ये सपना था ?

'दीदी, देखना तो... आपके पंख आए हैं क्या ?'

ऋतु ने अपनी पीठ पर झट से हाथ फिरा कर देखा। वह बोली- 'नहीं तो। और तुम्हारे ?'

'मेरे भी नहीं आए' दुष्यंत मायूस हो कर बोला।

'अरे मूर्ख, चूर्ण खाने से कभी पंख आते हैं क्या ?'

'तो क्या ये सपना था ?...दीदी, आपको कोई सपना आया था ?'

'नहीं तो। क्यों ?'

'इसका मतलब मैने सपना ही देखा था।' सपने का सारा किस्सा ऋतु को सुनाने के बाद दुष्यंत बोला, 'दीदी, मम्मी-पापा से कुछ मत कहना।'

'नहीं कहूंगी। लेकिन अब किसी से चूर्ण-वूर्ण मत खरीदना। चल अब उठ। खड़ा हो। स्कूल की तैयारी कर।'

थोड़ी देर बाद वे दोनों स्कूल चले गए। स्कूल में अनेक बच्चे साधु बाबा के चमत्कारी चूर्ण और पंख आने की बात ही कर रहे थे।