चरित्रहीन / शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय / पृष्ठ-2

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सतीश ने कहा, ‘‘व्यक्ति विशेष के लिए यह कठिन नहीं है, मैं मानता हूं। यही देखिए न, हाईस्कूल पास कर लेना कोई कठिन काम नहीं है, फिर भी पास करना तो दूर रहा, तीन-चार वर्षों में मैं उसके पास तक भी पहुंच न सका। अच्छा, बताइए तो, स्वामीजी नामक मनुष्य को पहले कभी आपने देखा है, या इनके सम्बन्ध में किसी दिन आपने कुछ सुना है।’’

किसी को भी कुछ मालूम नहीं है, यह बात सभी ने मान ली। सतीश बोला, ‘‘यह देखिए, एक गेरुआ कपड़े के अलावा उनका और कोई सर्टिफिकेट नहीं है, फिर भी आप लोग पागल-से हो उठे हैं, और मैं स्वयं अपने काम को नुकसान पहुंचाकर उनका भाषण सुनना नहीं चाहता, इसके लिए आप नाराज हो रहे हैं।’’ भूपति ने कहा, ‘‘पागल क्या यों ही हो रहे हैं। ये गेरुआ वस्त्रधारी संसार को बहुत कुछ दे गए हैं। जो कुछ भी हो, मैं नाराज नहीं होता, दु:ख अनुभव करता हूं। संसार की सभी वस्तुएं सफाई और गवाही साथ लेकर हाजिर नहीं हो सकतीं, इस कारण अगर उन्हें झूठ समझकर छोड़ देना पड़े, तो बहुत-सी अच्छी चीजों से ही हम लोगों को वंचित रह जाना पड़ेगा। भला, आप ही बताइए, जिस समय आप संगीत में सा-रे-गा-मा साधते थे, उस समय आपको कितने रस का स्वाद मिलता था ? उसकी कितनी अच्छाई-बुराई आपकी समझ में आती थी ?’’

सतीश बोला, ‘‘मैं भी यही बात कह रहा हूं। संगीत का एक आदर्श यदि मेरे सामने न रहता, मीठे रस का स्वाद पीने की आशा यदि मैं न करता, तो उस दशा में इतना कष्ट उठाकर मैं सा-रे-गा-मा को साधने नहीं जाता। वकालत के पेशे में रुपये की गन्ध अगर आप इतने अधिक परिमाण में नहीं पाते, तो एक बार फेल होते ही, रुक जाते, बार-बार इस तरह जी-तोड़ मेहनत करके कानून की किताबों को कंठस्थ नहीं करते। उपेन भैया भी शायद किसी स्कूल में अध्यापकी पाकर ही इतने दिनों में सन्तुष्ट हो गए होते।’’

उपेन्द्र हंसने लगे, लेकिन भूपति का मुंह लाल हो गया। तिल का जवाब ताड़ से दिया था। यह बात वे सभी समझ गए। क्रोध दबाकर भूपति ने कहा, ‘‘आपके साथ बहस करना बेकार है।’’ सब लोग रास्ते के किनारे बैठ गए थे। सतीश उठ खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोला, ‘‘क्षमा कीजिए भूपति बाबू ! छ: तरह के प्रमाणों और छत्तीस प्रकार के प्रत्यक्षों की आलोचना इतनी धूप में सही नहीं जा सकती। इससे तो अच्छा यही है कि सन्ध्या के बाद आप बाबूजी की बैठक में आइएगा, जहां आधी रात तक तर्क-वितर्क चल सकेंगे। प्रोफेसर नवीन बाबू, सदरआला गोविन्द बाबू, और घर के भट्टाचार्यजी तक ऐसे ही विषयों पर आधी रात तक बहस किया करते हैं। उनके पास वाले कमरे में मैं रहता हूं। तर्क-वितर्क के दांव-पेंच की बातों से मेरे कान अभी तक पूरे पके तो नहीं हैं, लेकिन मुझ पर रंग चढ़ने लगा है। लेकिन असमय में पेड़ों के नीचे गिरकर, सियार-कुत्तों के पेट में जाना मैं नहीं चाहता। इसलिए इस विषय को छोड़कर अगर और कुछ कहना हो तो कहिए, नहीं तो आज्ञा दें, चलूं।’’

सतीश का हाथ जोड़कर बाते करने का तरीका देखकर सभी हंसने लगे। नाराज भूपति दोगुने उत्तेजित हो उठे। क्रोध के आवेश से तर्क का सूत्र खो गया, और ऐसी दशा में जो ही मुंह से निकला। उसी की गर्जना करके वे कह उठे, ‘‘मैं देख रहा हूं आप ईश्वर को भी नहीं मानते।’’ यह बात बहुत ही असम्बद्ध और बच्चों की सी निकल पड़ी। स्वयं भूपति बाबू के भी कानों में यह बात खटके बिना न रह सकी। भूपति के लाल चेहरे पर एक बार तीक्ष्ण दृष्टि डालकर फिर उपेन्द्र के चेहरे की तरफ देख सतीश खिलखिला कर हंस पड़ा और भूपति की तरफ देखकर वह बोला, ‘‘आपने ठीक ही किया है भूपति बाबू, ‘चोर-चोर’ के खेल में दौड़ने में लाचार होने पर ‘बुढ़िया’ को छू देना ही अच्छा होता है।’’

इस कड़ी बात से आग-बबूला होकर भूपति ज्यों ही उठ खड़े हुए त्यों ही उपेन्द्र ने हाथ पकडकर कहा, ‘‘तुम चुप रहो भूपति, मैं अभी इस मनुष्य को ठीक करता हूं। बुढ़िया को छू देना, ठिकाने जा पहुंचना, ये सब कैसी बातें हैं रे सतीश ! वास्तव में तेरा जैसा संशयी स्वभाव है, इससे सन्देह हो ही सकता है कि तू ईश्वर तक को भी नहीं जानता।’’ सतीश ने आश्चर्य प्रकट कर कहा, ‘‘हाय रे मेरा भाग्य ! मैं ईश्वर को नहीं मानता। खूब मानता हूं। थियेटर का खेल समाप्त होने के बाद आधी रात को कब्रिस्तान के पास से लौटता हूं। कोई भी आदमी नहीं रहता, डर के मारे छाती का खून बर्फ बन जाता है। हंस रहे हो उपेन भैया, भूत-प्रेत मानता हूं, और ईश्वर को मैं नहीं मानता ?’’ उसकी बात सुनकर कुद्ध भूपति भी हंसने लगे। बोले, ‘‘सतीश बाबू, भूत का भय करने से ही ईश्वर को स्वीकार करना होता है ये दोनों आतें क्या आपके विचार से एक ही है ?’’

सतीश ने कहा, ‘‘हाँ, एक ही हैं। आसपास रख देने से पहचानने का उपाय नहीं है। केवल मेरे लिए ही नहीं, आपके लिए भी यही बात लागू है, उपेन भैया के लिए भी, बल्कि जो लोग शास्त्र लिखते हैं, उनके लिए भी। वह एक ही बात है। नहीं मानते तो अलग बात है, लेकिन मान लेने के बाद जान नहीं बचती है। अभाव में, दु:ख में, विपद में, बहुत तरह से मैंने सोचकर देख लिया है, लेकिन जो अन्धकार पहले था वही अन्धकार अब भी है। छोटा-सा एक निराकार ब्रह्म मानो या हाथ-पांवधारी तैंतीस करोड़ देवताओं को ही स्वीकार करो-कोई युक्ति ही इस में नहीं लगती। सभी एक ही जंजीर में बंधी हुई है। एक को खींचने से सभी आकर उपस्थित हो जाते हैं। स्वर्ग-नरक आ जाएंगे, इहकाल परकाल आ जाएंगे, अमर आत्मा आज जागी, तब कब्रिस्तान के देवताओं को किस चीज से रोकेगे ? कालीघाट के कंगालों की बात लो। चुपके-चुपके तुम किसी एक आदमी को कुछ देकर क्या छुटकारा पा जाओगे ? पलभर में बहुत से कंगले आकर तुमको घेर लेगें ? ईश्वर को मानूं और भूत से डरूं नहीं....?’’

जिस ढंग से उसने बातें कीं उससे सभी ठठाकर हंसने लगे। झगड़े के जो बादल घिर आये थे, इस सब हंसी की आंधी से न जाने कहां विलीन हो गये। किसी को होश नहीं आ रहा कि दुपहरिया बहुत पहले बीत चुकी है और इतनी देर हो जाने से घर के भीतर भूख-प्यास से बेचैन नौकरानियां आंगन में चिल्लाहट मचा रही थीं और रसोईघर में रसोइया काम छोड़ देने के दृढ़ संकल्प की बार-बार घोषणा कर रहा था।