चलन / राजनारायण बोहरे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुलसा की निश्चिंतता खरे साहब को हैरानी में डाल रही थी। ... और यह निश्ंिचंतता उन्हे ही क्या किसी को भी हैरान कर सकती थी। जब किसी की जवान बेटी एकाएक किसी के साथ बिना बताये घर से भाग जाए और बाप एकदम निश्चिंत बना रहे तो कौन सामान्य रह सकता था भला! लेकिन तुलसा ऐसा ही प्रदर्शित कर रहा था, ...उन्हे लगता है कि प्रदर्शित नहीं कर रहा बल्कि सच में ऐसा ही फील कर रहा था वह।

खरे साहब बड़बड़ाये-ताज्जुब है ऐसा बेशर्म बाप नहीं देखा।

उन्हे लगा कि बाहर से देखने में तो तुलसा ऐसा नहीं दिखता फिर क्यों ऐसा कर रहा है? वे सेाच में डूब गए।

तुलसा यानी उनके क्वार्टर समेत अनेक सरकारी आवासों के बागीचों और लॉन की देखभाल करने वाला भोला और ईमानदार आदिवासी सरकारी माली। वह रोज सुबह उनके बंगले के लॉन की देखभाल करता है। आज भी रोज की तरह अपना काम काज निपटाकर वह सलाम करने आया तो सदा की तरह तुरंत गया नहीं बल्कि उनके सामने जमीन पर ही बैठ गया।

खरे साहब ने प्रश्नवाचक निगाहों से घूरा तो वह सकपका गया था, बोला 'साहब, मैं परसों-तरसों तक काम करने नहीं आ सकंूगा।'

'क्यों ऐसा क्या काम आ गया। तुम तो कभी छुट्टी नहीं माँगते' उन्हे न उत्सुकता थी न कोई सरोकार, फिर भी एक सहज चालाक मालिक की तरह उन्होने पूछ ही लिया।

'साहब मेरी छोकरी भाग गई कल के भगोरिया मेले में ...!' निर्पेक्ष-सा तुलसा बोला था तो वे चौंक उठे थे। तुलसा को देखा तो वह सहज था और आगे बता रहा था, 'उधर के गाँव का एक लड़का भी घर से भागा है। ऐसा पता लगा है कि दोनों साथ-साथ।'

'तुम मेरे साथ थाने चलो...' अपने सहायक की मदद को तैयार होता उनके भीतर का अफसर तन कर खड़ा हो गया था, 'हम लोग उस लड़के और उसके पूरे कुनबा के खिलाफ रपट दर्ज करा देते हैं।'

'नई साब, ऐसा नहीं कर सकता मैं, ऐसा कर दिया तो मर ही जाऊंगा। मेरी बिरादरी के लोग जाति बाहर कर देंगे मुझे, फिर जीना मुश्किल हो जाएगा मेरा अपने समाज में।' तेजा काँपता-सा बोला था।

'अरे, ये कैसा रिवाज है तुम्हारी बिरादरी का?' वे चकित थे।

'हमारे इधर ऐसा ही चलता है साब! ऐसे ही शादी ब्याह होते हैं हमारे यहाँ!'

'तो तुम क्या करोगे अब?'

'उस लड़के के बाप के साथ लड़ाई झगड़ा करने जाना होगा।'

'गजब करते हो यार, कानूनी मदद के लिए पुलिस के पास जाना नहीं चाहते और खुद फौजदारी करने पर उतारू हो।'

'इधर ऐसा ही चलन है साहब। वह तो झूठमूठ की लड़ाई होती है हमारी।'

'लड़ाई भी झूठमूठ की...?' बुदबुदाते खरे साहब एक मिनट को खामोश हुए, फिर बोले थे, 'तुम जैसा ठीक समझो निपटा लो, न निपटे तो मुझे बताना।'

तुलसा उठा और फिर झुककर सलाम करता हुआ बाहर चला गया था।

तुलसा तो चला गया पर खरे साहब एक बार फिर उस द्वंद्व में फंस गये थे जहाँ पिछले चार दिन से हर रात बसेरा करते हैं वे अपने पलंग पर लेट कर और हर वह बाप करता है जिसकी बेटी जवान हो रही होती है। इस इलाके में जब से आये हैं तमाम नई चीजें चौंकाने लगी हैं उन्हे।

... पिछले साल इस आदिवासी इलाके में तबादले का सरकारी हुकमनामा मिला तो बड़े खुश हुए थे वे, मन की यह मुराद पूरी होने जा रही थी कि किसी पिछड़े क्षेत्र में रह कर वाकई विकास के काम करायें, न कि विकसित जिलों की तरह झूठे-सच्चे पत्रक भरें। आदेश मिलने के हफ्ते भर के भीतर अपना बोरिया बिस्तर बांध कर ग्वालियर से इधर चले आये थे वे।

उनकी बेटी ग्यारहवें दर्जे में पढ़ रही थी और बेटा नवें दर्जे में था। मिशनरी द्वारा चलाये जा रहे एक पब्लिक स्कूल में दोनों का एडमीशन कराके वे निश्चिंत हुए और अपने काम-काज में लग गए थे।

यहाँ आकर जाना था उन्होने कि इस इलाके में विकास अधिकारी का बेहतर उपयोग करती है सरकार। एक महीने में अपने पद की उपयोगिता महसूस कर पूरी रूचि से काम करने लगे। रूचि से काम करने का एक कारण और था कि चम्बल के आम वाशिंदों के झगड़ालू स्वभाव संे इतने बरसों से अब आजिज आ चुके थे वे, भले ही खुद उसी इलाके के वासी थे। यहाँ के किसी भी आदमी का स्वभाव झगड़ालू न था, बल्कि अपना काम शांति से कराने में विश्वास करता था इधर का आदमी।

चार दिन पहले की रात उन्हे ठीक से याद है। पत्नी सोनल ने डरते हुए बताया उन्हे, 'नाराज मत होना, एक ज़रूरी बात करनी है।'

'बोलो, बोलो!' वे उत्सुक थे।

'अपनी तान्या को कैसे संभालूं, यह समझ में नहीं आ रहा।'

वे चोैंके, 'क्या हुआ तान्या को?'

'हुआ कुछ नहीं है। में देख रही हूँ कि वह अपने सहपाठी अलपेश के साथ कुछ ज़्यादा ही वक्त बिता रही है आजकल।'

'कौन है अलपेश?'

'आपकी कलेक्टोरेट के ही किसी अफसर का बेटा है-बनर्जी साहब हैं कोई.'

'होंगे।' उन्होने बिना सोचे कहा फिर सोनल से बोले 'जयादा वक्त बिताने से क्या मतलब है तुम्हारा!'

'स्कूल से लौटकर दिन में कई दफा फोन पर बात करती है तान्या उससे।'

'तुमने सुनी कभी उनकी बातें? ...कैसी बातें करती है वह! बित्ते भर की तो छोकरी है अभी।'

'बातें तो वह ही पढ़ाई-लिखाई और स्कूल की करते हैं, लेकिन आखिर बेटी की जात है, इसतरह किसी लड़के से दोस्ती रखना...'

'तुम भी पुराने जमाने की हो अब तक। अरे जब कुछ ऐसा-वैसा नहीं सुना तो काहे को परेशान हो' एक अनुभवी अफसर पिता पर हावी हो उठा था।

'ऐसा वैसा सुननने का इंतजार काहे करें। मैं चाहती हंूू कि शुरू से ही क्यों ना इस मेल-मिलाप पर बंदिश लगा दी जाय'

'तो क्या घर बैठा लोगी उसे!'

'नहीं, आप तो उन बनर्जी साहब से कहके उनके लड़के को थोड़ा डांट-फटकार दिलवा दो, इससे शायद...' इसरार करती सोनल का वाक्य अधूरे में दम तोड़ गया था।

वे हँसे, 'तुम्हारी मति मारी गई है क्या? समझााना है तो अपनी बेटी को समझाओ मैं डांटता हूँ उसे अभी। ज़रा बुलाओ तो ...!'

'पागल हुए हो क्या? इस वक्त आधीरात को ...! और फिर सीधा आपका कहना ठीक नहीं होगा।' परेशान होती सोनल के चेहरे पर बेचारगी के भाव थे।

'तो तुम जैसा ठीक समझो वैसा करना' कहते उन्होने आँख मींच लीं थी, सोने के लिए.

'मैं ही तो कुछ ठीक नहीं समझ पा रही। ऐसा करती हूँ कि निशा दीदी से पूछूंगी...' अपने में गुम होती सोनल बुदबुदा उठी।

वे चौंके, 'अरे उन तक बात मत पहुंचाना। वे जाने क्या सोचें और जाने कहाँ-कहाँ क्या कह दें।'

'तुम अपनी सगी भाभी पर शंका कर रहे हों। ...घर की समस्या पर घर में ही तो विचार-विमर्श करना होगा। दो बेटियाँ पाली हैं, उन्हे ज़्यादा तजुर्बा है ऐसी बातों का।' तुनकती सोनल उठ कर बैठ गई थी।

सोनल को आगे कोई जवाब दिये बिना वे करवट बदल कर लेट गए और मन से एकाग्र हो नींद का इंतजार करने लगे थे।

...लेकिन नींद ऐसे नहीं आना थी।

उन्होने तब सोनल को तो समझा दिया, लेकिन अपने मन को किस तरह समझाते! उन्हे अचानक अपने आसपास के परिवेश पर गुस्सा आ गया, वे झुंझला उठे समाज के बदलते परिवेश पर। च्च-च्च च्च, मिटा डाला इन सोप ऑपेराओं ने हमारे समाज को! जिस चैनल पर देखो वहाँ ऐसी-ऐसी कहानियाँ मोजूद हैं कि सारी शर्म-लिहाज खत्म हो रही है। हर कहानी में हर औरत के अनगिन अवैध सम्बंध, देखने को मिलते है और वह भी बिना किसी गिल्टी कांशस के. जिस म्युजिक चैनल पर नजर डालो वहाँ बदन पर नाम मात्र की चिंदियाँ बांधे अश्लील मुद्रा में मटकते नर्तक और युवतियाँ। दरअसल प्रेम-प्यार का मतलब सिर्फ़ दैहिक सरोकार और कामसूत्र की आसन सिखाती फ़िल्में जिस उत्तर आधुनिक युग में ले आई हैं इस देश को, अभी उसके काबिल ही कहाँ था यहाँ का आम जन!

अगर सोनल की आशंका सच है तो अभी ही टोकना होगा तान्या को, अभी आरंभ है बात संभल जायेगी। अन्यथा बात बिगड़ने में समय ही क्या लगता है? बहुत से अच्छे-अच्छे घरो ंकी छीछालेदर होते देखी है खरे साहब ने ऐसे मामलों में।

उस दिन मन की बात मन में रह गई. रात पूरी यों ही बीत गई पर मन का क्लेश न मिटा। तब से हर रात यही हो रहा है। ...आज तुलसा ने तो एक वैचारिक भंवर में ला पटका उन्हे, उस दिन भी ऐसा ही लगा था ढंके तौर पर।

वे भगोरिया मेलों की सार्थकता-निरर्थकता में उलझ गए.

लगभग दस दिन पुरानी बात है, उस दिन वे दफ्तर में उदास से बैठे थे कि बड़े बाबू झिझकते से भीतर घुसे, 'आ सकता हूँ सर!'

'हाँ, आओ न!' उनकी चिंतित निगाहें पचास साल में बूढ़े़ हो चुके बड़े बाबू के चेहरे पर गड़ी।

'अधर के आदिवासी अंचल में इन दिनों भगोरिया मेले चल रहे हैं साहब। आपने तो देखे नहीं होंगे, आज चलें देखने को ...मैंने एक सरपंच से बात कर ली है।'

'भगोरिया माने...'

'भगोरिया माने...माने... ये कहेे कि आदिवासियों का बसंतोत्सव! फागुन के महीने में हर साल गाँव-गाँव में मनाया जाता है भगोरिया। होडी का डांड़ा गढ़ा नहीं कि भगोरिया चालू हो जाते हें इस अंचल में। जिस गाँव में जिस दिन की हाट हो उसी दिन वहाँ का भगोरिया मेला तय रहता है अपने आप।'

'चलो, देखते हैं। ...कब चलना है?'

'आज ही चलें साहब।'

जीप गाँव के भीतर न जा सकी, गाँव के बाहर ही उतरना पड़ा उन्हे। भारी भीड़ थी गाँव में। गली-मुहल्ले, चौक-चौगान में उमड़े पड़ रहे थे आदिवासी स्त्री-पुरूष। छोटी-छोटी दुकान सजाए दुकानदार बैठे थे अनगिनत। बिंदी-चुटीला, अंगूठी-आईना, कंगन-झुमके और वंदनवार से लहराते रूमाल व चोली की दुकानें, पान-तम्बाकू की दुकानें, घर के राशनपानी से लेकर चना-चबेना तक की दुकानें। सजे-धजे आदिवासी लोग खरीदारी में जुटे थे हर दुकान पर। गोरी-चिट्ठी आदिवासी युवतियाँ नई-नकोर साड़ी को कछोटादार शैली में बांधे हुए यहाँ से वहाँ इतराती घूम रहीं थीं। किसी ने पान से अपना मुंह रचा रखा था तो कोई्र आईसक्रीम चूसे जा रही थीै। किशोर होते बच्चों के झुण्ड अलग थे और युवाओं के अलग। किसी का कोई नातेदार साल भर बाद भेंटा रहा था तो किसी की सहेली से दो साल बाद मिलना हो रहा था।

चौपाल पर पुरूष-स्त्रियों का बड़ा हुजूम इकट्ठा था। गाँव का संरपंच खरे साहब की बाट ही जोह रहा था संभवतः। वे दिखे तो वह लपककर आया और उनके स्वागत कर सत्कार में लग गया। वे ना-ना कहते रहे और वह खोवे का बना कलाकंद और बेसन के बने रंग-बिरंगे मोटे सेव, गाड़े दूध की मलाईदार चाय लेकर हाजिर होता रहा। देर तक चलता रहा यह क्रम। खरे साहब झुंझला ही पड़े आखिरकार।

अंततः चौपाल के मैदान मंे ढप-ढप की आवाज गुंजाता एक समूह प्रकट हुआ जिसके बीच में कुछ लोग एक बड़ा-सा ढोल गले में लटकायें बजाये जा रहे थे। ढोल वादक के चारों ओर कई आदिवासी युवक जुटे हुए थे। उनके माथे पर सफेद टोपी थी बदन में लाल रंग की कमीज और कमर के नीचे घुटनों तक बदन को ढंकने के लिए धोती या गर्म शॉल लपेटे वे लोग मस्ती से सराबोर थे। नृत्य के नाम पर वे सब अपनी गरदन को दांये-बायें हिलाते हुये, कमर थिरकाते हल्के-हल्के उछाल-सी भर रहे थे।

सरपंच ने बताया, 'इस वक्त इस झुण्ड के लोग अपने सबसे अच्छे माँदर को परख रहे है। जिसका सुर उम्दा होगा वही माँदर इस झुण्ड में सबसे आगे चलेगा।'

'माँदर यानी कि...!' खरे साहब की आँखों में प्रश्न था।

' माँदर जिसे आप पढ़े-लिखे लोग माँदल बोलते है, यानी कि वह ढोल जो बीच वाले लोग अपने गले में लटकाए हैं। हमारे समाज में हर सामाजिक उत्सव पर यही बाजा बजाया जाता है।

कुछ देर बात एक-एक कर कई-झुण्ड मैदान में उतर चुके थे। अपना बेहतर माँदल आगे किए एक झुण्ड गाना आरंभ कर रहा था-

कालिया खेत में डोंगली चुगदी

बिजले नारो डोंगली का रूपालो, डुरू

डुरू...

डुरू...

सरपंच ने अर्थ समझाया यह झुण्ड कह रहा है कि हमने अपने काले मिट्टी वाले खेत में प्याज बोई है। प्याज अब पक चुकी है और उसके पौधे का फूल काले खेत मंें ऐसी चमक मार रहा है जैसे आसमान मंे तारा। इस चमक का उजाला सब ओर फैल चुका है।

दूसरे युवा समूह ने पहले समूह के गीत के खत्म होते ही नया गीत उठा लिया था-

अमु काका बाबा ना पोरया रे, अमी डला डम

अमु मामा फूफा ना पोरया ने अमी डाला डम

अमी डला डम! अमी डला डम!

ओ डलियो खिलाडु डालियो

खिलाडु ओ डामियो खिलाडु ओ डम!

बिना पूछे सरपंच ने बताया आदिवासी किशोर किशोरियाँ कह रही हैं कि हम काका-ताऊ और मामा-फूफा के बच्चे हैं हम मिल जुल कर खेलेंगे।

तीसरे समूह ने एक जनवादी गीत सुनाया-

बाटिये बाटिये जासु

बाटिय रेिडयो बोले

होंये रेडियो काय काम को

वो बांन्दला घर लाले सोभा

खरे साहब ने अपने अनुमान से अर्थ लगाकर बड़े बाबू को सुनाया, ' आदिवासी युवक कहता है कि मैं रास्ते-रास्ते जा रहा था कि एक जगह रेडियो गाता हुआ मिला। पहले सोचा कि रेडियो ले लूं। फिर सोचा कि यह रेडियो भला मेरे जेैसे आदमी के किस काम का? रेडियो तो पक्के मकानों की शोभा की चीज है ं

रात उतरती जा रही थी। नाचते-गाते आदिवासियांे की मस्ती बढ़ती जा रही थी। दांये हाथ से अपने घूंघट को ऊंचा उठाये माँदल पर थिरकते पुरूषों को देखती स्त्रियों के हँसते-खिलखिलाते चेहरों पर उनके दांत चमक मार रहे थे। पैट्रोमैक्सांे की रोशनी, मशालों की लप्प-झप्प होती सुनहरी चमक वातावरण को मादकता और रोमानियत से भर ही थी।

खरे साहब को कौतूहल हुआ तो झिझकते हुए उन्होने सरपंच से पूछ ही लिया, 'सरपंचजी, मैंने कई आदिवासी समाज देखे हैं, उन सबका रंग सांवला होता है, लेकिन आपके समाज के लोग एकदम गोरे-चिट्ठे हैं। ऐसा क्यों है?'

'साहब यह ताड़ी का कमाल है। हमारे यहाँ हर सुबह ताड़ी का डिब्बा पेड़ से उतार कर पूरा परिवार पीता है, जिसकी वजह से हम लोग तंदुरूस्त भी रहते हैं और गोरे भी।'

'ताड़ी माने शराब?'

'नहीं साहब, ताड़ी माने ताड़ वृक्ष का ताजा जूस!' बड़े बाबू ने मुझे समझाया, 'किसी दिन आपको पिलवाऊंगा। हल्का खट्टा और खूब स्वादिष्ट होता है साहब, इन दिनों खूब उतरता है इधर।'

अचानक खरे साहब की निगाह गई, देखा कि एक समूह में शामिल होकर तुलसा भी नाच रहा है। वे मुसकराये और उसी वक्त सहसा तुलसा की नजरें भी उनसे टकरा गईं तो उसने वहीं से नमस्कार किया उन्हे। खरे साहब से नमस्कार करके वह अपने झुण्ड से निकला फिर उसने एक क्षण रूक कर मैदान के एक कोने में खड़े महिलाओं के झुण्ड में से किसी को इशारा किया और सरपंच की चारपाई की तरफ बढ़ आया। उसके पीछे-पीछे एक स्वस्थ और सुंदर आदिवासी महिला आ रही थी। उस महिला ने कमर मंे छींटदार कपड़े का घ्ेारदार घांघरा पहन रखा था, एक छोटी-सी दुपट्टानुमा साड़ी का एक कोना नाभि के पास ख्ुारसा हुआ था और बाकी का हिस्सा पीठ पर से होता हुआ सिर पर आया था, जिससे उस महिला का नाक से ऊपर तक का चेहरा घूंघट से ढंका था। लेकिन ताज्जुब कि उसके कमीजनुमा लम्बे ब्लाउस को साड़ी के पल्लू से नहीं ढंका हुआ था, इसकारण भीतर चोली से मुक्त होने के कारण ढंके होने के बावजूद उसके स्वस्थ्य और भरे-पूरे गोल स्तन अपनी तीखी नोक के साथ उसके ब्लाउस को लगभग टांगे हुए थे। खरे साहब ने देखा कि उसके कुछ कदम पीछे एक कमसिन आदिवासी लड़की भी चली आ रही थी।

'ये मेरी बीवी है साहब और ये मेरी छोरी।' तुलसा ने उन दोनों की तरफ इशारा कर के उन दोनों का परिचय दिया। खरे साहब ने हाथ जोड़कर उसकी पत्नी को नमस्कार किया तो उसने भी हाथ जोड़ लिए.

'चल छोरी पांव छू साहब के.' तुलसा ने अपनी पुत्ऱ़ी को आदेश दिया।

पांवों की तरफ झुकती युवती के हाथ पकड़कर खरे साहब ने उसे रोक दिया, 'बस बस! हो गया। हमारे समाज में लड़कियों से पैर नहीं छुआये जाते।'

बाप की तरफ संशय भरी निगाह फेंकती वह युवती रूक गई थी और खरे साहब टकटकी लगाकर सौंदर्य व स्वास्थ्य के संयोग की मूर्ति साकार करती उस युवती को देखते रह गये थे। तीखी लम्बी नाक, सींप बराबर बड़ी आँखें, मटर की छोटी फली से कोमल होंठ, स्वस्थ्य और सुडौल गरदन के नीचे चमक छोड़ते गोरे कंधों से हो कर लम्बे फैले हाथ। नये छींटदार कपड़े के कमीज नुमा ब्लाउस में कसमसाकर अपने युवा होने के परिचय देते उसके नन्हे उरोज युवती के उस सौंन्दर्य का गुणगान कर रहे थे जिसके आगे कोई भी फैशनेबुल शहराती लड़की भोंड़ी दिखती।

तुलसा का इशारा पाकर उसकी पत्नी अपने समूह की ओर चली गई थी और तुलसा खुद अपने नाचते झुण्ड की ओर, जबकि उसकी बेटी उस दिशा में बढ़ी थी जिधर युवकों का एक झुण्ड अलग थलग खड़ा भगोरिया के नाच का आनंद उठा रहा था। उसे आता देख झुण्ड का एक युवक उसकी ओर बढ़ा और उन दोनों के हाथ लगभग अंजलि-सी बांधते हुऐ एक दूसरे से जुड़ गाए. फिर वे दोनांे हँसते हुए जाने किस बात पर अपने दांतो की चमक बिखेरने लगे थे और उस कोने की ओर बढ़ लिए थे जिधर एकांत मंे एक चारपाई खाली पड़ी थी। वे दोनों उस चारपाई पर बैठ कर समूहों का नृत्य देखने लगे थे। खरे साहब भौंचक्के से उन्हे ताकते रह गये और बीच-बीच में कभी तुलसा और कभी अपने पास असंपृक्त भाव से बैठे सरपंच को देखने लगे थे।

रात के जाने कितने बजे तक यह गायन और नाच चलना था। खरे साहब ने संकेत किया तो बड़े बाबू ने उठकर सरपंच से अनुमति माँगी और वे लोग लौट पड़े थे।

उस दिन से दस दिन बीत चुके हैं, लेकिन कल तक तुलसा ने भगोरिया के बारे में कोई चर्चा नहीं की, अन्यथा खरे साहब उसकी बेटी और उस युवक की बात ज़रूर करते।

आज तुलसा ने इस लहजे में अपनी छोकरी के भागने की बात सुनाई है जैसे उसे ना तो बेटी के भागने का कोई बिस्मय है, ना इस बात से इज्जत चले जाने का कोई दुःख।

दफ्तर जाते वक्त वे निश्चिंत थे।

सांझ को घर लौटे तो सोनल अटैची लगा रही थी। उन्हे आश्चर्य हुआ, 'क्या हुआ? कहाँ जाने की तैयारी है?'

'घर जा रही हूँ। बाबूजी अस्पताल में एडमिट हैं, उन्हे हार्ट-अटैक हुआ है।'

वे चिंतित हुए, 'कोई खास बात!'

इधर-उधर देखा सोनल ने फिर धीमे से बताया, 'कल रात से मीनल घर नहीं लौटी है।'

'ऐं...!'

'हाँं, कॉलेज के अपने एक दोस्त के साथ भाग गई है कहीं।'

'आज के जमाने में ऐसा तो कभी भी किसी के साथ हो सकता है, इसमें ऐसी कौन-सी बात है कि बाबूजी को हार्ट अटैक हो जाय।' तुलसा का दर्शन बोल उठा था खरे साहब के भीतर के जाने किस कोने से।

'हाय मम्मी!' सोनल हैरानी से उन्हे देख रही थी, 'इतनी बड़ी बात को आप ऐसे हलके से ले रहे हैं और कहते हैं कि एसी बड़ी बात कया है। उधर मेरे मम्मी-पापा अपनी बेटी के गम में हलाकान हैं और आप...'

सचमुच रो उठी थी सोनल।

सकपकाते वे खड़े रहे थे कुछ देर, फिर सोनल को संभाला किसी तरह।

अंततः सोनल को लेकर खुद जाना पड़ा उन्हे ससुराल।

वहाँ पहुंच कर पता लगा कि मीनल जाते वक्त एक खत छोड़ गई्र है जिसमें उसने मम्मी को लिखा है कि वह बालिग है और पूरी तरह से सोच समझ कर घर छोड़ रही है क्योंकि घर रहेगी तो पिताजी उसकी शादी कभी उस के साथ नहीं करेंगे, जिसके साथ वह अभी जाकर शादी करने वाली है।

सांप निकल चुका था, लाठी पीटना बाकी था अब तो। लेकिन खरे साहब मजबूर थे, उन्हे दो दिन रूकना पड़ा। अस्पताल में ससुर साहब बिलकुल चुप्पी साधे लेटे थे और सास का तो रो-रो कर बुरा हाल था। घर में दो ही बेटियाँ तो थीं रिटायर प्रोफेसर प्रभुदयाल जी की जिनमें से छोटी ने थू-थू करा दी उनकी नजर में। खरे साहब दो दिन में कुछ बोले नहीं सिर्फ़ सासु माँ के प्रवचन यानी मीनल के प्रति कड़वे वचन सुनते रहे।

दूसरे दिन सांझ को तब जब प्रोफेसर अस्पताल में थे घर पर पंचायत जुटी. सोनल-मीनल के मामा आये थे और बेहद खफा थे मीनल पर, उधर माँ भी अपने सर्वार्धिक कुद्ध रूप में थी। बिरादरी के अध्यक्ष भी आये थे और घर के कानूनी सलाहकार भी। वकील ने मीनल की बी0 ए0 की अंकसूची देखकर बताया कि वह सचमुच बालिग है और उसके खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही संभव नहीं है। हाँ उसके खिलाफ चोरी का मामला बनाया जा सकता है यह कह कर िक वह घर से जेवर और नगदी रुपया लेकर भागी है। माँ तो इसके लिए भी तैयार थीं, पर मामा तैयार नहीे थे, वे तो लाठी लेकर उस लौण्डे को सबक सिखाने का तत्पर थे, जिसके लिए वकील ने सीधी भाषा में मना कर दिया उन्हे। बिरादरी के अध्यक्ष ने भी कुछ करने से हाथ उठा दिये क्योंकि जिस लड़के के साथ मीनल भागी थी वह उन्ही की जाति का होने के बावजूद गुण्डा किस्म का था, अगर कुछ किया जाता तो अध्यक्ष को भी किसी मामले में फंस जाने का डर सता उठा था। परिणाम यह हुआ कि वह पंचायत बिना परिणाम के ही समाप्त हो गर्इ्र।

सोनल और खरे साहब ने रात को घर लौटने का निर्णय लिया, घर पर बच्चे अकेले जो थे।

चलते-चलते खरे साहब ने सास से पूछा, 'आपको उस लड़के के घर का पता मालूम हो तो मैं मिल कर आता हूँं। ... ना हो तो अपन लोग खुशी-खुशी उसी लड़के के साथ...!'

'कतई नहीं' लगभग चीखती हुई सोनल की माँ बोली थीं 'उस कुलच्छिनीको मरा मान लो आप सब। इस घर से सारे रिश्ते खतम उसके.'

वे सहम गये थे।

टेªन में सोनल खोई-खोई-सी रही।

लग रहा था कि सब जगह लड़कियाँ भाग रहीं थीं इन दिनों, अगले दिन दफ्तर में पता चला कि कलेक्टर साहब की बहन किसी कुंवारे डिप्टी कलेक्टर के साथ भाग निकली है। औपचारिकता में सांत्वना हेतु खरे साहब कलेक्टर के बंगले पर पहुंचे तो वहाँ का माहौल बहुत गमगीन नहीं लगा उन्हे। भीतर से लौटते स्टेनो-टू-कलेक्टर से पूछा तो दबे स्वर में बोला वह, 'साहब ने इस रिश्ते को स्वीकार कर लिया है। कल वे लोग लौट रहे हैं और लौटते ही बाकायदा ब्याह किया जा रहा है उनका। कल दावत है ऑफीसर क्लब में, आपका नाम भी आमंत्रितों में सम्मिलित है।'

'ऐं...' चोंके वे 'सुना है कलेक्टर साहब की विरादरी का नहीं है वह डिप्टी कलेक्टर!'

हँसा स्टेनो, 'इन अफसरों की काहे की बिरादरी खरे साहब! हो सकता है कल वही लड़का आय।ए.एस. में सिलेक्ट हो जाय, नहीं तो बारह साल बाद आय। ए. एस. एबार्ड तो हो ही जायगी उसे। इससे बड़ी कौन-सी बिरादरी होती है?'

खरे साहब मुंह बाये उसे ताकते ही रह गये और सीधे घर लौट आये।

अगले दिन ऑफिस के लिए बाहर निकले ही थे कि लॉन में काम करता तुलसा अचानक उनके सामने हाजिर था, 'साहब मामला निपट गया सब। लड़के के बाप ने डण्ड भरने का वायदा किया है। हम लोगों की आपसी तकरार खत्म हो गई. रुपया मिलते ही धूमधाम से ब्याह करूंगा उसी लड़के के साथ अपनी छोरी का।'

'ऐं...!' वे फिर से चकित थे।

'हाँ साब,' कहता प्रमुदित तुलसा खुरपी-तसला उठा कर दूब खोदने में जुट गया था।

ऑफिस में अपनी टेबल पर बैठकर खरे साहब काम करने के पहले यह तय करने का प्रयास कर रहे थे कि किस सोसायटी को सही मानें वे, अपने ससुर की, तुलसा की या फिर कलेक्टर साहब की!

सहसा वे चेते।

तुलसा और उसके समाज का जीवनदर्शन बेहद शानदार लगा उन्हे। जिस पर विचार करते हुए एकाएक उन्हे लगा कि तुलसा ने उनके चिन्तन को कितना विस्तृत आयाम दिया है, दृष्टि ही बदल डाली है ऐसी घटनाओं को देखने की। क्या फर्क है तुलसा और बड़े लोगों में, एक से हैं वे, लेकिन खुद की सोसायटी कहाँ है उन दोनों के सामने? वे तर्क-वितर्क की भूलभुलैया में फंसते जा रहे थे।