चलो जी किस्सा मुख्तसर ! / प्रत्यक्षा

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चलो जी किस्सा मुख्तसर !

कोई ताला था जिसकी चाभी बस मेरे पास थी। नीम अँधेरी रातों में अपने भीतर की गर्माहट में उतर कर देखा था मैंने ..ठंड से सिहरते किसी ऐसी अनजान लड़की को बाँहों में भरकर ताप दिया था और फिर पाया था, अरे इसकी शकल तो हू बहू मेरी है। उसके चेहरे को हथेलियों में भरकर कितने प्यार से उसके भौंहों को चूमा था। उस हमशकल की आँखें कैसी मुन्द गई थीं सुख से। उसके नीले पड़े होंठ पर जमी बर्फ पिघल रही थी। किसी ने कहा था न कभी कि ऑर्किड के फूल पास रखो तो उम्र बढ़ती है ..बस ऐसे ही उसके नीले ऑर्किड होंठ अपने पास, अपने होंठों पर रखने हैं। अचानक खूब लम्बी उम्र हो ऐसी इच्छा फन काढ़ती है।

पीछे से कोई अपनी उँगलियों से गर्दन सहलाता है। ठीक बाल के नीचे का हिस्सा। एहसास के रोंये हवा में लहराते झूमते हैं। फिर ऐसी झूम नीन्द आती है कि बस।

वे

आजकल उसने पाया है कि हर रात सपने आते हैं। जब से उससे मिली है तबसे। उससे मिलना भी क्या मिलना था। किसी बिज़ी ट्राफिक सिग्नल पर अगल बगल दो गाड़ियों के चालक, शीशे के आरपार एक दूसरे को पलभर नाप लें। काले चश्मे और सॉल्ट पेपर दाढ़ी में अटकी आँख एक बार फिर देख ले। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था। क्षण भर को अपना चेहरा मुस्कान में खिंचता सर्द होता है इस भावहीनता पर। रात वॉशबेसिन पर दिनभर की गर्द धोते शीशे में नज़र जाती है। उसकी आँखों से देखती हैं होंठों की बुनावट जब मुस्कान इतनी फिर इतनी फिर इतनी होती है। क्या दिखा होगा कि उसने कुछ नहीं देखा ..कुछ भी नहीं देखा।

उसने कुछ अस्फुट मंत्र बुदबुदाये थे। अब मैं तुम्हारे सपने में मिलूँगी। उन नीली कुहासे ढँक़ी पहाड़ियों की तराई में, नीले हाथियों के झुंड के पीछे किसी पत्तों भरी टहनी से ज़मीन बुहारते तुम्हारे पदचिन्ह खोज लूँगी।

जे

गाड़ी के शीशे के पार गीयर न्यूट्रल करते बेपरवाही से मुड़ा था। उसका साफ शफ्फाक चेहरा और पीछे समेटे सारे बाल में खिलता उगा चेहरा अचानक एक मुस्कुराहट से भीग गया था। जबतक उसकी मुस्कान को मैं छूता पकड़ता गाड़ी आगे बढ़ गई थी। मेरे बाँह पर के रोंये अचानक खड़े हो गये थे। स्टीरियो पर लियोनार्दो कोहेन ' डांस मी टू द एन्ड ऑफ लव ', गा रहा था।

मेरे पिछले चार सालों का अकेलापन हरे हाथी घास की तरह बेतरतीब बाढ़ में बढ़ आया। रात देर रात अकेला बैठा जार्मुश की कॉफी ऐंड सिगरेट देखता रहा ..सिगरेट का धूँआ पीता रहा, ब्लू वोदका कटग्लास के भीतर छलकता रहा। अल्फ्रेड मोलिना का चेहरा मुझे खींच रहा था। बार बार रिवाईंड करके 'कजंस" वाला हिस्सा देख रहा था।

बड़े दिनों बाद के की तस्वीर देखने की इच्छा हुई। खोजता रहा। आखिर गिंसबर्ग के पीछे और निकी जोवन्नी के आगे धूल से अटा मिला।किसी नशे की बहक में फ्रेम को झाड़ पोछ कर सामने रखा। जार्मुश की ब्लैक ऐंड व्हाईट फ्रेम्स की सफाई, उनका लय, क्लियर बोल्ड स्ट्रोक्स । मन उसी सुर पर घूम रहा था। उस रात कई दिनों बाद, कई कई दिनों बाद के मेरे साथ थी। अपने देह के साथ मेरे साथ थी। उसके जंगली घुँघराले बालों की महक और उनका कड़ा स्पर्श मेरे हाथों में था। उसका शरीर मेरे शरीर से लिपटा था। नीले अँधेरे में उसके पेट के नीचे नाभि के फूल पर मेरे होंठ गीत गा रहे थे। एल्ला फिट्ज़ेराल्ड की 'आई गॉट अ फीलिंग आ ऐम फालिन।'

उसके बदन की रेखायें लम्बी और नाज़ुक थीं, मेरे पोरों के नीचे दहकती हुई। उसका अनावृत शरीर सहज नैसर्गिक था जैसे मेरा प्रेम, मेरा उसको बाँहों में जकड़ लेना, किसी पागल उन्माद के हवाले खुद को कर देना, उस धीमे नृत्य का किसी छाती धौंकते कगार से उन्मत्त गिरने का विराट विशाल खेल। जार्मुश के फिल्म की तरह ब्लैक ऐंड व्हाईट में कोई सांगीतिक चित्रकारी।

इन चार सालों के बाद अब भी के मेरे साथ थी। मेरे मुँह में सुबह हैंगओवर का खट्टा बासी स्वाद था।

..

पी

दिन में बड़ी मेज़ पर पोस्टर्स और कागज़ फैलाये मैं धूप पीती हूँ। बारीक महीन इलस्ट्रेशंज़। मेरे पास दो महीने का समय है। उसके मन्यूस्क्रिप्ट के शब्दों को मैं जीभ पर घुलते महसूस करती हूँ। हर शब्द के अर्थ तीन चार। तलाशती हूँ गुप्त संकेत। शब्दों और वाक्यों के ऊपरी मायने के भीतर बहती नदी जो सिर्फ मेरे लिये कही गई है। उन अर्थों के संदर्भ खोजती हूँ।

उस दिन मैंने कहा था जाना चाहती हूँ कहीं अज़रबैजान,या पेरू या फिर काहिरा की किन्हीं तंग गलियों में।

उस दिन उसने लिखा था उस लड़की की कहानी जो कहीं नहीं जाती, जो सिर्फ पूरा जीवन एक जगह बिताती है।

फिर कहा था मैंने छिटके हुये धूप में उदास रंग और उदास क्यों लगते हैं ?

उस दिन उसने लिखा था .. रंग रंग होते हैं। वॉन गॉग के उस कमरे की बात की थी जहाँ रंग चटक धूप से खिलते थे किसी ख्वाब में।

फिर उसने कहा था, सुनो मैं के से ज़रा ज़रा नफरत करता हूँ।

और मैंने सुना था, सुनो मैं के को अब भी नहीं भूल पाया हूँ।

फिर उसने कहा था ये इलस्ट्र्शंज़ अगर सही न बने मैं इन्हें फेंक दूँगा।

मैंने कहा था जहन्नुम में जाओ।

शाम को उसने फोन किया था।

मैंने पूछा था, कहाँ ?

उसने कहा था वहीं जहाँ तुमने मुझे भेजा था .. जहन्नुम में।

उसके आवाज़ की हँसी मुझे लहका गई थी। उसने फोन रख दिया था। मैंने फोन बहुत देर तक नहीं रखा था। उस दिन मैंने ढेर सारे स्केचेज़ बनाये थे। हैरान भौंचक लड़के की, एक कतार में तालाब के किनारे चलते बत्तखों की, जंगल के छोर पर एक अकेले घर की, मूड़ी निकाले कछुये की, दौड़ते चूहों की और अंत में दो आँखें बस। मेरी उँगलियाँ तड़क रही थीं। रात के बारह बजते थे। मैंने उसे फोन किया था ..

सुनो आ जाओ।

उसने कहा, क्यों ? मैंने कहा, इसलिये कि मेरी गर्दन दुखती है, मेरी पीठ अकड़ती है, आ जाओ।

मेरी आवाज़ की अकड़ खत्म हो गई थी। उसने फोन रख दिया था। मैं सो गई थी ..थकी नींद में।

..

वे

दिन में वो पाँच बार मिलते थे। गिनकर पाँच बार। और पता नहीं कितनी बार फोन करते थे। वो ब्यालिस साल का नामचीन होने की राह का लेखक था, ये नामचीन होने की राह पर अड़तीस साल की इल्सट्रेटर थी, पेंटर थी। कवितायें लिखती थी अंग्रेज़ी की महीन पैशनेट दिल तोड़ने वाली जंगली आग सी कवितायें। वो पढ़ाता था, थियेटर करता था। कभी पेंट किया करता था, मिनिमलस्टिक, सफेद और काले। अब सारे पेंटिंग्स कहीं ऐटिक में धूल खाते हैं। ये पीछे दो टूटे सम्बन्ध छोड़ आई थी। वो एक पत्नी और जाने कितने दिल छोड़ आया था।

..

पी

जब उसने पूछा था उससे, बस ऐसे ही

सो ओ गी मेरे साथ ? मैंने क्यों उसे उसी वक्त थप्पड़ नहीं मार दिया ? क्यों उसी वक्त उसका मन्यूस्क्रिप्ट उसके मुँह पर नहीं फेंक दिया ? क्यों नहीं दुनिया को सर पर उठा लिया ?

क्यों चुपचाप सारे कागज़ फोल्डर में समेट कर उठ आई। क्यों इंतज़ार किया कि फिर से ऐसी बात वो कहे। क्यों रात को सालों सालों बाद किसी के शरीर को अपने शरीर के साथ सोच कर रोमाँच हुआ। क्यों उसका चेहरा अपने चेहरे पर झुका हो सोचते ही शिद्दत से तलब हुई कि बस अभी, अभी अभी अभी .. ऐसा हो जाये। ..

जे

मैं उसके साथ सोना तक नहीं चाहता था। मैं सिर्फ के के साथ सोना चाहता था अब भी। मैं सिर्फ उसकी शकल देखना चाहता था उसे ऐसा सुनते हुये। मैं सिर्फ के को देखना चाहता था। मैं के को बिलकुल बिलकुल नहीं देखना चाहता था। मैं उसे देख रहा था। मुझे लगा था कि अब वो तमक कर मेरे चेहरे पर सारे स्केचेज़ फेंक मारेगी। मैंने सिगरेट हथेलियों की ओट लेकर सुलगाया और कहा

तीन दिन बाद, तीन दिन हाँ, और मुझे पहले लॉट वाले स्केचेज़ चाहियें।

मैं उसे जाते देख रहा था। और मुझे उसे ऐसे ठंडे प्रतिक्रिया विहीन जाते देख कर नफरत हुई थी उससे। उस दिन ढेरों काम थे, भागा दौड़ी थी, कमसे कम सौ किलोमीटर ड्राईव किया था, दफ्तरों के चक्कर काटे थे, किसी से उलझा था। इन सब के बीच उस नफरत को मुट्ठी में दबाये घूमा था मैं सारे दिन। शाम को पुराने साथी पलाश का फोन आया था। तुम्हें पता है ? के इज़ इन टाउन। अच्छा ! गुड। अपनी ठंडी आवाज़ पर मुझे हैरानी हुई थी।

.

पी

उसने बताया के शहर में है। मैंने उसके चेहरे को टटोलने की कोशिश की। उसकी आवाज़ को पकड़ने की कोशिश की।

मिलने जाओगे ? मेरी आवाज़ संयत थी। कसे तार जैसी।

देखेंगे।

उसकी आवाज़ में लापरवाही थी। मुझे चौकन्नापन दिखा, लापरवाही की कोशिश की सतर्कता दिखी।

..

जे

के बहुत बदल गई थी। बहुत। उसका चेहरा दमक रहा था। उसने अपने बाल एकदम छोटे करा रखे थे। पिक्सी लुक। सिगरेट पीते उसकी दुबली कलाईयों की हड्डी इतनी नाज़ुक और सुबुक लग रही थी। जाने कितनी बार उसकी इन कलाईयों को अपनी हथेलियों की गोलाई में जकड़ा था। अब छू भी नहीं सकता। अजीब। के क्या उन अंतरग क्षणों को सोच रही होगी ? मेरा शरीर उसे याद होगा ? मैंने एक ठंडी जिज्ञासा से सोचा।

.

के

अब तक भी ..इस पर कुछ भी नहीं बीता। मैं थी साथ, मैं न थी साथ, अभी इतने साल बाद हम बैठे हैं साथ .. लेकिन इसके चेहरे पर कुछ नहीं ..कुछ भी नहीं। अपने काले चश्मे और साफ माथे में अपनी भूरी सफेद दाढ़ी में .. ओह ही इज़ स्टिल अ हैंडसम ब्रूट, हार्टलेस ऐंड हैंडसम। सिर्फ एक कॉफी बस। उसकी छाती के बाल हवा में ज़रा सा हिलते हैं। मैं अगर अपनी उँगलियाँ बढ़ाकर सहला लूँ एक बार, जैसे प्यार करने के बाद हर बार

मैं बैग से सेल फोन निकालती हूँ। किसी का फोन आया है। जय मुझे बात करते देखता है। उसके चेहरे पर एक मुस्कान है। कुछ कुछ उस तरह की मुस्कान जैसे वो किसी चहेते एडिटर या पब्लिशर को देता जो उसकी कहानी, किताब छाप रहा हो।

जय के साथ रहकर हमेशा ऐसा ही महसूस किया। जैसे मेरी रौशनी पर उसका अँधेरा भारी पड़ता हो।

मैं उसे अपनी किताब दिखाती हूँ। बच्चों के लिये लिखी किताब। मेरी तीसरी किताब। किताब के कवर पर बकटूथ खरगोश किसी छिले घुटनों वाले, गिरे बालों वाले छोकरे की पीठ पर सवार था। छोकरे के सिर पर एक लम्बी चोंचवाला तोता और कमीज़ की पॉकेट से शैतान गिलहरी झाँकती थी। महीन बारीक रेखाओं की डीटेल्स वाला शानदार स्केच।

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जे

उसकी किताब मोहक थी। बढ़िया कवर, चमकदार कागज़, सुन्दर छपाई। मैंने किताब हाथ में ली। किताब का कवर इलस्ट्रेशन उम्दा था, बेहद। इन रेखाओं को मैं पहचानता था। उनके एक एक पेंसिल स्ट्रोक और ब्लैक पेन की शेडिंग मेरी अपनी थी। मेरी छाती में एक दुख सवार हो गया।

के हँस रही थी। अपने पब्लिशर के सनकपने के किस्से सुना रही थी, आईरिश कॉफी के घूँट भर रही थी। बगल की मेज़ का लड़का उसे ताक रहा था। के इस बात से लापरवाह थी। इसी लापरवाही में उसकी खूबसूरती छुपी थी। पुराने दिनों हम कहीं जाते और लोग उसको देखते, मुझे कहीं अच्छा लगता। अब भी कहीं अच्छा ही लग रहा था। उसपर अचानक एक उद्दात्त प्यार उमड़ा।

के, तुम बिलकुल नहीं बदली

लेकिन तुम बदल गये, उसकी आवाज़ अचानक कोई सीक्रेट शेयर करने वाली फुसफुसाहट में बदल गई।

अच्छा ! मैंने भी फुसफुसाकर जवाब दिया।

फिर मुझे याद आया पलाश ने कहा था, के आजकल किसी रिकार्दो अयेर्ज़ा नाम के लातिन अमरीकी के साथ है। कुछ बिज़नेस है उसका, कुछ पब्लिशिंग हाउस भी चलाता है, पैसे वाला है। के को हमेशा खूब पैसे चाहिये होते थे।

उसकी नाज़ुक उँगलियों में हीरे जगमगा रहे हैं। के वाज़ अल्वेज़ वेरी अम्बिशियस। अम्बिशियस तो मैं भी था। अब भी हूँ।

अफसोस बदले में मैं तुम्हें अपनी किताब नहीं दे सकता। मैं कुछ घटिया मज़ाक करना चाहता था ..कुछ अमेज़िंग विट का नगीना पेश करना चाहता था।

मैंने तुम्हारी किताब के रिव्यूज़ पढ़े थे। यू हैव ज्वायन्ड द लीग। के की आवाज़ में एक नकली उत्साह था।

शायद लेकिन के, अब मैं निकलता हूँ ..फिर मिलते हैं। उसकी किताब मैं काँख में दबाये निकल आया था।

पी

उसका फोन तीन बार आया और मैंने तीनों बार नहीं उठाया। आज कई दिन बाद माया मिली थी।

क्या करती रही हो इन दिनों ? उसने पूछा था। एक किताब का कवर और अंदर के स्केचेज़ बना रही हूँ।

किसकी ?

मैंने भरसक आवाज़ को सपाट बनाते हुये जे का नाम लिया।

यू बी केयरफुल हाँ

मतलब ? मेरी आवाज़ अब भी सपाट बनी रही। तुम्हें पता है उसकी बीवी ने उसकी पहली किताब में उसकी बहुत मदद की थी।

क्या ? के ने ? माया की भौंह ऊपर उठी थी .. अच्छा वो उसे के बुलाता है। पर के तो कोई .. मैं चुप हो गई थी। सच मुझे तो बिलकुल नहीं पता था कि के कौन थी क्या करती थी। फिर मैंने ये कैसे सोच लिया था कि के कोई सनकी पागल फितूरी लड़की थी जिसने जे को छोड़ दिया था। अच्छा कभी जे ने ऐसा खोल कर कुछ कहा भी नहीं था। लेकिन वो शब्दों का जादूगर था। कुछेक शब्दों की ज़मीन पर पूरी कहानी पूरा दृश्य रच लेने की उसकी क्षमता से क्या मैं वाकिफ नहीं थी।

मेरा खून दौड़ना बन्द हो रहा था। मैं सर्द हो रही थी।

किताब जब लगभग पूरी हुई तुम्हारे जे ने अपनी बीवी को छोड़ दिया। उसे लोगों का इस्तेमाल बखूबी करना आता है।

रिफ्लेक्स ऐक्शन में मैं अपनी बाँहें और हथेलियाँ गरमाने के लिये रगड़ रही थी।

देर रात नींद में ही बजते फोन को उठाया तो जे की आवाज़ किसी गुस्से के तीखे भाले पर सवार मुझे बींध रही थी। उसकी आवाज़ तेज़ थी लगभग चिल्ला रहा था। फोन क्यों उठा नहीं रही थी ? क्या तमाशा है तुम्हारा ? मत चीखो मुझपर, मैं घबड़ाये गुस्से में काँपने लगी थी।

दो मिनट में दरवाज़ा खोलो मैं नीचे हूँ।

अंदर घुसते ही उसने दरवाज़ा बन्द किया। सिगरेट सुलगाते उसके हाथ काँप रहे थे।

दो मिनट की चुप्पी के बाद उसने संयत आवाज़ में कहा, तुमने बताया क्यों नहीं कभी कि केतकी के किताब का कवर तुमने बनाया है ?

मैं जैसे आसमान से गिरी। केतकी ? के ?

मुझे कहाँ पता था कि तुम्हारी के केतकी रैना है। तुमने कभी बताया ?

मुझे लगा तुम जानती होगी। सब जानते हैं .. उसकी आवाज़ थकी थकी थी। उसने बालों को माथे के पीछे उँगलियों से समेटा, फिर अपनी दाढ़ी के बाल उँगलियों से सँवारे। मैं किसी सम्मोहित जानवर की तरह उसकी तरफ देखती रही।

पी, मैं बहुत थका हूँ बहुत ..

धीरे से वो सोफे पर पसर गया।

मुझे एक कॉफी पिला सकती हो ? फिर मैं निकलूँगा।

कॉफी लेकर जब मैं आई वो किसी शिशु सी मासूमियत चेहरे पर ओढ़े सोफे पर अधलेटा सो रहा था। उसकी उँगलियाँ निकोटीन से पीली थीं। उसके कान के लव लाल थे, उसके सफेद भूरे बालों के पीछे उसकी कनपटी साफ स्वच्छ थी, उसकी कुहनी सख्त नहीं थी। मुझे सख्त कुहनी वाले और सख्त पैर वाले लोग बेहद नापसंद थे। नीश के पैर सख्त थे, कड़े खुरदुरे और मोटी चमड़ी वाले। मिलने के दौरान मैंने उसके पैर नहीं देखे थे। जब हम साथ रहने लगे थे तब हर रात मैं उसे क्रीम की शीशी पकड़ाती थी। रात को मेरा पैर उसके सख्त चमड़े वाले घड़ियाली पैर पर पड़ता तो मैं किसी गिजगिजाहट से भर जाती। फिर भी मुझे उससे स्नेह था। एक बच्चे की मासूमियत भरा स्नेह था। मैं उसे खुश करना चाहती थी हर वक्त। वो मुझसे खुशी लेना जान गया था। देने की सीखने की उसने ज़रूरत कभी नहीं समझी। जब दो साल साथ रहने के बाद एक दिन बस ऐसे ही किसी बेचैनी में उसने कहा था

मैं निकल जाऊँगा एक दिन पिया

मेरे चुप रहने पर उसने झुँझलाहट भरी आवाज़ में कहा था, तुम समझोगी नहीं, इस दुनिया में क्या हम सिर्फ औरत और मर्द बने रहने आये हैं ? कुछ और चीज़ें हैं जिन्हें करनी है और यहाँ रहकर वो चीज़ें नहीं हो सकतीं। और मकसद हैं जीवन के

मैंने कहा था,

तुम्हें रोकूँगी नहीं ..

उसके चेहरे पर रिलीफ और दुख का एक अद्भुत मिश्रण था। छूट जाने का, छोड़ जाने का।

जे को सोता छोड़ कर मैं अपने कमरे में आ गई थी। सुबह नींद में लगा कि कोई बगल में लेट रहा है। किसी के साथ सोने की आदत कितने वर्षों से नहीं रही थी। कुछ अनग्वार जैसा लगा था।

..

वे

उनका शरीर एक दूसरे में बैठ गया था, जैसे ऐसा ही होने को बना था। उनकी साँस एक सुकून में, एक गर्माहट में एक साथ चलती थी। जैसे बस यही घर था। जैसे पँछी शाम को नीड़ में लौटता हो, जैसे खेलता बच्चा माँ की गोद में ढुलक कर निढाल शाँत सो जाता हो ऐसे सुकून में उनका शरीर एक दूसरे में लिपट गया था। उनकी त्वचा ऐसे टकराती थी जैसे अपनी ही त्वचा हो, वे दोनों एक थे, ऐसे एक थे जैसे साँस भी एक होकर निकलती थी, कि जो हवा उनके बीच थी वो भी उनकी बाँटी हुई थी, कि उनका शरीर, उनके अंग प्रत्यंग सब साझे अंग थे। जीभ के कोर पर जो अनुभूति थी, उँगलियों के नाखून पर जो स्पर्श था, नाक के नुकीले कोने पर जो थरथराहट थी वो दोनों से होकर गुज़रती थी, जो एक महसूस करता था वही दूसरा भी और इस महसूस करने में भी वो एक थे। उन्हें शब्दों की ज़रूरत नहीं थी। उनके बीच किसी पुल की ज़रूरत नहीं थी। ये कोई आवेग नहीं था .. बस था उनका यों इस तरह एक होना।

..

जे

पी के साँवले बदन पर मेरे आँसू कैसे फैल गये थे। मेरी उँगलियों के नीचे उसकी हड्डियाँ कोमल पिघलती थीं। मैं और वो नदी की तरह बह रहे थे। अगर इस वक्त वो कुछ भी पूछती कहती मैं टूट कर बिखर जाता। अपने पौरुष में टूट जाता। उसे मैं कैसे बताता कि बस यही एकमात्र सच है। कैसे बताता कि मेरे सब शब्द बेकार हैं, कि सिर्फ वो है सिर्फ वो .. उसकी छाती पर पर मैंने अपनी उँगली से अपना नाम लिखा है ..कैसे बताता ..

पी

उसके बदन में सिमटी हुई मैं हिलग रही थी। मेरे आँखों के कोने से मेरा प्यार बह रहा था। अपनी उँगलियों से उसकी छाती पर मैं उसका नाम लिख रही थी। उसे कुछ नहीं पता,कुछ भी तो नहीं ..

.

पी

आज उसने मेरे आधे स्केचेज़ लौटा दिये।

नहीं ये उस मूड से बिलकुल अलहदा है जैसी मैं चाहता था

मैं बहस कर रही थी। वो मान नहीं रहा था। मैं गुस्से में निकल आई थी।

बहुत देर तक सड़क पर निष्प्रयोजन चलती रही थी। शाम उतर रही थी। सड़क के दोनों ओर बत्तियाँ जगमगाने लगीं थीं। मुझे एक दूसरा अस्साईनमेंट मिला था जिसे छोड़ना नहीं चाहती थी। जे की किताब का काम खत्म होता तो इस पर शुरु करती लेकिन जे की किताब खत्म होने को दिखती नहीं लग रही थी।

अभी तक जे ने कभी मेरी तारीफ नहीं की। बुरा नहीं है ये हाँ, इससे ज़्यादा उसने कभी कुछ कहा नहीं। और मैं जो इसकी आदी थी कि लोग सुपरलेटिव्स इस्तेमाल करते मेरे इलस्ट्रेशंज़ की .. मैं जे से व्हाई शुड आई टेक दिस शिट फॉम हिम ? व्हाई ?

डॉक्टर सूस की ग्रीन एग्स ऐंड हैम याद करो ..मे विल्सन प्रेस्टन के स्केचेज़ याद करो.. चार्ल्स डाना गिब्सन कुछ देखा है तुमने ? सीखो सीखो पी .. अपने को अलग हटा कर देखो .. कीप यॉर आईज़ ओपेन, वाईडेन यॉर सेन्सिबिलिटीज़

जॉन शेली के ब्लैक व्हाईट चिल्रेंस इल्लस्ट्रेशन देखे ? ये देखो .. किसी दराज़ से तुरत कोई फोलियो निकाल कर जे मेरी तरफ बढ़ाता .. ये देखो ..उसकी उँगलियाँ किसी दो चोटी वाली डस्टबिन उठाये हैरान लड़की, किसी गोल चश्मे वाले लड़के या किसी औरत के पीछे कटखने कुत्ते पर प्यार से फिरतीं

देखो ज़रा सी उठी भौं, ये देखो ये गोल होंठ ? एक्सप्रेशंज़ देखो .. एक पेन स्ट्रोक से ..बस एक पेन स्ट्रोक ..

जे की आवाज़ किसी अव्यक्त पैशन से गहरी हो जाती। मैं गुस्से से निकल कर उसकी आवाज़ के रौ इंटेंसिटी पर सवार ऐसी दुनिया में पहुँच जाती जहाँ अपनी सीमायें पार की जा सकती थीं।

अपने में विश्वास रखो पी .. किसी के भी कहने पर मत जाओ

तुम्हारे भी ?

हाँ, मेरे भी .. उसका चेहरा संयत और आवाज़ शाँत होती

पार्क के बेंच पर बैठी मैं कुछ भी नहीं सोच रही थी। कल रात देखी वॉंग कार वाई की चुंगकिंग एक्स्प्रेस सोच रही थी। फे वॉंग की विस्फरित आँखों से झलकते प्यार की सोच रही थी। उस पुलिस वाले की सोच रही थी जिसकी दोस्त उसे छोड़ जाती है और वो दर्जनों टिन पाईन ऐप्ल्स खा जाता है। पाईन ऐपल टिन के एक्सपायरी डेट की तरह उसका प्यार भी एक्सपायरी डेट के साथ आया था।

मैं सोचती हूँ केतकी ने क्यों छोड़ दिया जे को, या जे ने उसे ? केतकी का दिलकश चेहरा याद आता है। कैसे कोई उसे छोड़ सकता है, कैसे ? मैं याद करना चाहती हूँ एक एक बात जो जे ने बताया था केतकी के बारे में .. बुनना चाहती हूँ उन शब्दों और वाक्यों से कोई ऐसी चादर जिसे बिछाकर मैं देख लूँ कि उस पर लेटे दोनों कैसे लगते हैं, क्या बातें करते हैं ? उनके बीच क्या दिखता है ? प्यार जो खत्म हुआ ? प्यार जो स्वार्थ में बदल गया ? क्या क्या क्या ?

या जैसे मैंने नीश को जाने दिया बिना तकलीफ के ..सिर्फ ये जान लिया था कि ऐसा ही सही है और इस जानने में सिर्फ एक आदत का छूटना है बस, कि अब साँस छोटी लेनी है अब लम्बी गहरी। नीश और उसके बाद सुजोय। पर सुजोय के साथ तो कोई बँधन नहीं था। कोई कमिटमेंट भी नहीं। हम सिर्फ तूफान में बहते दो समुद्री जहाज़ थे, कुछ देर के लिये साथ चले थे, अपनी रौशनी की गर्माहट का सुकून दिया था, इस बात का सुकून दिया था कि और कोई भी है, बस।

ओह ! जे .. बताओ मुझे ..कुछ भी ..

घर लौटते मैं अकेली थी एकदम अकेली।

जे

उसका चेहरा उसके भावों को दर्शाता है। के जैसे नहीं कि पता ही न चले कि क्या महसूस कर रही है। प्यार के अंतरंग पलों के चरम पर भी भावहीन।

पी तुम्हारे आँसू का खारापन अब भी ज़ुबान की नोक पर चरपराता है। जब तुम नाराज़ होती हो, तुम्हारा साँवला चेहरा दहकता है। जब उदास होती हो, होंठों के कोने गिर जाते हैं। पी, मैं तुम्हें नाराज़ देख सकता हूँ, उदास नहीं।

तुम किसी चोट खाये हिरण की तरह इधर उधर भागती हो, मैं सब्र से तुम्हारा इंतज़ार करता हूँ, तुम आती नहीं मेरे पास।

किताबों की सफाई करता हूँ। एक एक किताब प्यार से पोछता हूँ। ये स्टाईनबेक, के ने दिया था। ये कल्विनो मैंने उसे दिया था जो वो छोड़ गई। ये ब्रोदेल हमने साथ साथ खरीदा था। कुछ ग्राफिक नॉवेल्स हैं जिनके तर्ज़ पर कुछ बनाने की सोची थी कभी। के ने तंज़ किया था, तुम सिर्फ हवाई उपन्यास लिखो, सच में लिखना, ग्राफिक्स बनाना तुम्हारे बस का नहीं। मैंने गुस्से में उसके हाथ से क्रैग थॉमसन छीना था, किताब के साथ उसकी पतली वॉयल की कमीज़ भी फटकर मेरे हाथ आ गई थी। मेरे अंदर एक दूसरा उन्माद पनपा था। मैंने खींचा था उसे अपनी तरफ। ऐसे वहशी प्यार में उसे मज़ा मिलता था। ऐसे वहशी प्यार के बाद मुझे शर्मिंदगी महसूस होती थी।

मेरे अंदर का आदमी ज़रा ज़रा मर जाता था। के के साथ रहना अपने अंदर के आदमी को शनै: शनै: मरते देखना था। मैं मरना नहीं चाहता था, मैं अपनी पूरे आदमियत में जीना चाहता था।

पी ..मुझे फोन करो ..मैं इंतज़ार कर रहा हूँ। मैं पहल कर तुम्हें दूर कर दूँगा क्या ? मैं तुम्हें पोज़ेस करके मारना नहीं चाहता, मैं तुम्हें उड़ते देखना चाहता हूँ।

रात तीन बजे तक जगा रहा। किसी सेमिनार की तैयारी करनी थी नहीं की। पिछले दराज़ से स्टेडलर लुमोग्राफ पेंसिल्स निकाले, चारकोल निकाला, कुछ पीले पड़े हैंडमेड कागज़ निकाले। आड़े तिरछे लकीरें खींचता हाथ साधता रहा। लेटी हुई औरत के बदन की तस्वीर बनाई, पीछे से उसके रीढ़ की हड्डियों की लम्बी गहरी लाईन खींची, उसके नितम्ब के गोलाई के मादक कर्व को एक सधे हाथ बहते हुये रेखा में खींचते रुक गया।

नीना सिमोन आई वॉंट सम शुगर इन माई बोल गा रही थी। उसकी आवाज़ की थरथराहट मुझे अंदर से भिगा रही थी। ब्लू ब्लूज़ !

इस माया का अंत कहाँ है आखिर ?

पी

तीन दिन हुये। उसने फोन नहीं किया, न मिलने आया। मैं हवा में टँगी हूँ।

अंदर ही अंदर कुछ रिसता है, छाती के अंदर, शिराओं में, नब्ज़ के भीतर, त्वचा के भीतरी सतह पर। बारिश होती है लगातार। मैं काम में जी लगाना चाहती हूँ। सब स्केचेज़ आड़े तिरछे बनते हैं। बालों में खूब सारा तेल लगाकर पीछे समेट कर बाँध लेती हूँ। अपने आप को भी कस कर समेट लेना चाहती हूँ। नहीं मैं फोन नहीं करूँगी। अगले ही पल हाथ फोन पर जाता है। सोचती हूँ ऐसे बेकार छलना का ऐसे वाहियात इगो का क्या करना। क्या करना जब इतना जीवन निकल गया, और भी ऐसे ही क्यों निकालना। सोचा था कि उम्र बढ़ती है तो साथ साथ मन बढ़ता है। अब पाती हूँ कि उम्र बढ़ती है मन घटता है। मान मनौव्वल में समय ज़ाया करना बेवकूफी है।

मुझे पता नहीं उसकी खोज मेरे लिये है या नहीं। मैं एकबार उससे पूछना चाहती हूँ, मुझे खोजोगे ?

मेरे पूछने में और उसके खोजने में इतना फासला क्यों है ? कागज़ निकालकर पेन से कुछ लाईंस घसीटती हूँ ..

मैं चिलकती धूप में और तड़तड़ाते माईग्रेन के नशे में तुम्हारी कमीज़ के पॉकेट में खुद को नहीं भर पाने की स्थिति में कुछ और भर रही थी, खुद को झुठला रही थी, फिर भी बार बार फरेब खा रही थी। तुम किसी गुस्से के झोंक में औंधाये पड़े थे, आईने में खुद को देखते खड़े थे। तुम्हें मनाना था लेकिन हर बार की तरह थकहार कर मैं मना रही थी, लाचारी में खुद को गला रही थी, अपनी तकलीफ का हार बना रही थी। तुम्हारे तने रहने में कहीं खुद को छोटा बना रही थी। भीड़ का हिस्सा होते हुये भी भीड़ से अलग खड़ी थी, देखती थी तुम्हें धीरे धीरे भीड़ में गुम होते और तुम इतना तक नहीं देखते कि मैं अब भी भीड़ से अलग तुम्हें देखते खड़ी हूँ

मैं चाहती हूँ गुम हो जाऊँ, आसमान ज़मीन में खो जाऊँ, सोचती हूँ कहूँ हद है ऐसी नाराजगी ? फोन उठाऊँ और तुम्हारी नाराज़गी पर नाराज़ होऊँ, फिर याद आता है, कुछ याद आता है और बढ़ा हाथ खिंच जाता है। मैं चाहती हूँ ऐसे गुम हो जाऊँ कि तुम खोजो फिर खोजते रहो। मैं चाहती हूँ तुम्हारी खोज तक गुम रहूँ। पर तुम्हारी खोज कब शुरु होगी ये पूछना चाहती हूँ। मैं चाहती हूँ ..कितना कुछ तो चाहती हूँ। फिर मैं फोन उठाती हूँ .. गुमने और खोजने के अंतराल में अब भी बहुत फासला दिखता है ..

किसी वक्त रात के नशे में कोई आवाज़ बोलती है। कहीं बारिश होती है। यहाँ सिर्फ गरम हवा चलती है। जब बारिश होती है तब भी कुछ भीगता नहीं क्योंकि गरम हवा चलती है। रात में भी धूप चिलकती है। किसी दरवाज़े के बाहर कोई कब तक रहे, कब तक ?

वे

कल पढ़ा था उसने साईनाथ का एक चैप्टर, एक इस्ताम्बुल का और ब्रोदेल के कुछ पन्ने, किसी से चर्चा की थी पन्द्रहवीं से अठारवीं सदी में योरप और उसने कहा था आठवीं सदी का भारत, और चर्चा की थी रोमिला थापर और कुछ देर योग साधना की, फिर देखी थी रात में एक्स्ट्रा टेरेस्ट्रियल्स पर एक फिल्म, शायद एम नाईट श्यामलन की और खोजते रहे थे कोई इंडियन कनेक्शन। और इन सब के पीछे घूमती रही थी सिर्फ एक बात ..आखिर इस दिन का ..इन दिनों का अर्थ क्या है ? ठंडी पड़ी कॉफी के प्याले को परे सरकाते अब भी वो सोचते हैं ..इतना क्यों सोचते हैं पर बाहर अब भी चिलकती धूप ही है ..कोई समन्दर क्यों नहीं है ?

..

पी

पब्लिशर का फोन आया था। उसने बताया कि कवर फाईनल हो गया है। मैं हैरान। कौन वाली ? मैंने तो जे को तीन दिये थे। उसने मुझे बताने की ज़रूरत भी नहीं समझी। मेरा मूड उखड़ गया था।

कल आ जाईये, चार बजे ?

ठीक छे दिन हुये हैं। मैं याद करने की कोशिश करती हूँ किस बात पर बात बन्द हुई थी। कुछ याद नहीं। सिर्फ इतना भर याद है कि छे दिन हो गये हैं हमारी एक दूसरे से बात हुये।

शायद माया सही कहती थी। किताब का कवर हुआ, अब उसे मेरी ज़रूरत नहीं। अचानक मुझे लगता है मैं सदियों से बीमार हूँ।

..

जे

मुझे लगता है सदियों से मैं बीमार हूँ। उसने कोई फोन नहीं किया। पब्लिशर पीछे पड़ा था कवर फाईनल करो। मैंने कहा

कोई भी कर लो उसने कहा, हद है जय कहाँ तो तुम इतने पर्टिकुलर थे अब .. मैंने ठंडे स्वर में कहा बिना सोचे ..दूसरा वाला सही रहेगा

फाईन फाईन

..

वे

जय ने पिया को फोन किया। गाड़ी तेज़ चल रही थी। बाहर बेहद बारिश, एकदम टूटकर। घँटी बज रही थी।

जय कहना चाहता है ..पिया क्या हम अलग भाषा बोलते हैं ?

पिया कहती है, तुम कोई भी भाषा बोलो मगर बोलो, मुझसे ही बोलो, किसी और से मत बोलो। हम अलग अलग भाषा में बोलते बोलते आखिर एक दूसरे की भाषा सीख लेंगे।

जय कहता है, इतना वक्त हमारे पास है ?

पिया कहती है, है। इसलिये है। सुनो .

पिया की आवाज़ फोन पर झरती है किसी संगीत में

तो उस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई। अँधेरा झरता रहा अंदर बाहर। उसने कहा था चित्त लेटो सब शांत हो जायेगा पर रात की रीतती रुलाई लगातार गोल घूमती रही, जाने कौन से चक्रव्यूह बनाती भेदती। कुछ खो गया था। और चाभी उस संदूक की मिलती न थी। हरबार आँख बन्द करते हथेलियों में उसका ठंडा स्पर्श और आँख खोलते गायब। खो गया,क्या अब कभी नहीं मिलेगा ? की हूक उठती थी। कोई पतली लकीर नहीं थी, रेशे में खरोंचा निशान नहीं था। बस विध्वंस था। सब चुक जाने का प्रलयंकारी विलाप।

फूल लेकिन अब भी गमक रहे थे। लतरों पर कनबलियाँ लटकी थीं, हवा में नाचते घुँघरू। और शीशे पर मातम मनाती एक तितली। अँधेरे में काली। दिन में रही होगी सफेद। मैं अब देखती क्या थी। उस रात में ? जिस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई।

बाहर कोई बजाता था कोई धुन बहका हुआ, सुरों के बाहर डोलता लड़खड़ाता हुआ, जीवन से चूर, खुशी से भरपूर, जैसे अंतिम संगीत हो और फिर इसके बाद कुछ नहीं। ऐसी तोड़ देने वाली बहक कि बदन अपने आप झूम उठे, जैसे ये नृत्य भी अंतिम था, ये बात भी अंतिम थी, इसके बाद कोई आवाज़ नहीं। तो, उस रात अंतिम रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई।

उसका खो जाना भी उतना ही नियत था जितना मिल जाना। फिर इस दुनिया की भीड़ में, इस शहर की भीड़ में, इस गली मोहल्ले की भीड़ में,अपने अंदर की भीड़ में अभी था, अभी नहीं। बढ़े हाथ की सबसे लम्बी उँगली के अंतिम छोर पर स्पर्श टिका था अब भी जैसे नब्ज़ धड़कती थी अब भी। बावज़ूद इसके कि उस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई।

सपना अब भी सुबह तक याद नहीं रहता। किसी वक्त पूरे डीटेल्स में रहता था। अब नहीं। अब, गनीमत कि कुछ देखा था का भास याद रहता है। और बहुत बातें याद रहती हैं, जो नहीं रहनी चाहिये वही याद रहती हैं, अपने सम्पूर्ण बेवकूफियों में याद रहती हैं। कोई कील दिमाग में लटका छोड़ी है जहाँ इन फिज़ूल बेकार बातों को टाँग कर भूल जाते हैं, भूल जाते हैं पर कील पर टँगी बात हमें नहीं भूलती। और जो जो इतना जितना नहीं भूलना था उसे फिर उस रात याद किया जिस रात के बाद जैसे सुबह नहीं हुई।

फिर रात लम्बी होती गई। इसलिये कि उसके बाद सुबह की कोई गुँजाईश नहीं थी। इसलिये कि पता था कि अब सुबह नहीं होनी। इसलिये कि जान लेना ही सब कुछ था। इसलिये कि जितना खोना सच था उतना ही पाना। फिर उस रात के बाद कभी सुबह नहीं हुई। फिर उस बात के बाद कोई बात नहीं हुई।

गाड़ी सड़क़ के किनारे लगाकर, टूटती बारिश में जय सुनता है पिया की आवाज़, देखता है शीशे के पार रंगीन छाते के नीचे भीगे चेहरे। उसकी इच्छा होती है अभी इसी वक्त शीशे के पार उस धुँधलाये छतरी के नीचे भीगे चेहरे की एक फोटो खींच ले।

जय कहता है ..तुम्हारे पास कोई कैमरा है क्या ? दरवाज़ा खोल कर रखो मैं दो मिनट में पहुँचता हूँ।

जे

क्यों पी की आवाज़ से मुझे एक आश्वस्ति मिलती है। इस बयालिस साल की उम्र में मैं क्या खोजता हूँ ? मुझे पता नहीं क्या पर जो पता तक नहीं वो उस तक पहुँच कर पूरा हो जाता है, कैसे क्यों ..नहीं मालूम।

पी

उसके बालों पर बारिश के कण जगमगा रहे थे। दाढ़ी में मोतियाँ जड़ी थीं। हम कुछ पल हकबकाये खड़े थे फिर उसने एक हाथ मेरी ओर बढ़ाया था। मैं बाढ़ में धसकती मिट्टी थी, हरहरा कर बह गई, उसने थाम लिया। उसके चूमने में पागलपन था। मैं उसके धूँआ होठों का स्वाद भर रही थी,। उसने हँस कर कहा था,

पी, तुम्हें चूमना जैसे फालसा खाना है। उसकी आवाज़ से हँसी बिछलकर कमरे में बह गई थी।

मैंने कहा था, पर मुझे चूमना नहीं आता। अब तक।

उसने कहा था ..बस इसी लिये तो

फिर हम कैमरा तलाशने लगे थे, इस दराज़ उस दराज़, फिर थक कर बैठ गये थे। उसने कहा था

तुमसे कोई काम कहना अमेज़न नदी पार करना है। मैंने कहा था फिर मुझे कोई काम मत दिया करो।

उस रात मैंने बहुत सारा काम किया। हर रेखा सही लग रही थी। समुद्र और उमड़ते बादल के बीच उड़ते सीगल्स, लाईटहाउस पर आदमी, बनारस की तंग गलियों के बीच साड़ी घुटनों तक समेटे मुड़ कर देखती औरत, हँसता हुआ लामा, चीन की दीवार पर साईकिल सवार लड़की, अकेली नाचती हुई कोई जिप्सी लड़की, पानी दार सूप पीते दाढ़ी वाले बुज़ुर्गवार, मकड़जाल झुर्री वाली हँसती औरत, उसके आँख की चमक ..सब। सभी पेंसिल्स को छील कर दोबारा नोकदार बनाया। चारकोल का टुकड़ा, अंतिम बचा छोटा टुकड़ा फिर भी एहतियात से केस में रखा। कभी दूर कभी पास से सारे स्केचेज़ को देखा, फिर कैमरा जो इस मेज़ की दराज़ में था और चारकोल निकालते वक्त दिखा था, उससे सारे स्केचेज़ की तस्वीर ली। पी सी में डाला और रात के तीन बजे जे को मेल किया।

पी मुझे हफ्ते दस दिन के लिये बाहर जाना था। जे ने छेड़ते हुये कहा था .. मैं कैसे रहूँगा ?

मैंने कहा था ..वैसे जैसे अब तक रहते आये हो

उसने कहा था स्नेह की बस इतनी ही छिछली नदी तुम बहाती हो मेरी तरफ ?

मैंने कहा था तुम्हे इतने से भी स्नेह की ज़रूरत कब ? तुम अपने आप में एक मुक्कम्मल इंसान हो। एक टापू हो जहाँ कभी कभी कुछ इमोशनल रसद कोई नाव से पहुँचाता रहे

उसने कहा था .. इतना जीवन ज्ञान तुम्हें कहाँ से मिलता रहता है ?

फिर उसकी आवाज़ उदास हो गई थी ..शायद तुम सही हो

ये सुनकर मैं उदास हो गई थी, बहुत बहुत। लेकिन बाद में उसके "मैं कैसे रहूँगा " की छेड़ भरी आवाज़ को मैंने अपने ब्लाउज़ के अंदर रख लिया था। उन दिनों के अकेलेपन में उसे निकालकर कई बार निरिक्षण करती।

उसने अब तक प्यार जैसा कुछ मुझसे नहीं कहा था।

जे

वो गई थी हफ्ते दस दिन के लिये। और उसके जाते वक्त मैंने प्यार जैसा कुछ नहीं कहा था उसे। जबकि ऐसा लग रहा था कि मेरी छाती निचुड़ रही हो। प्यार जैसी चीज़ कही नहीं जाती। रात मेरा शरीर उसके बदन के साथ सोया था। मेरी आत्मा उसके आत्मा को तलाश रही थी।

पी

मुझे उससे हज़ारों लाखों बात करनी थी। उसके सामने बैठकर झगड़ना था। उससे वो सब कहलवाना था जो मैं सुनना चाहती थी और जो कहने से वो हमेशा अलग हो जाता था।

उस दिन किन्हीं पुरानी गलियों में एक किताब की दुकान में कातिये ब्रेसों की किताब इमेजेस अ ला सोवेत ( द डिसाईसिव मोमेंट ) मिल गई थी। किताब का कवर मातीज़ का बनाया हुआ था।

मैं फोन पर उमग रही थी .. पता है वो लाईका 35 एमएम रेंजफाईंडर कैमरे से फोटो खींचता था। वो कभी फ्लैश का इस्तेमाल नहीं करता था, कहता था कि फ्लैश इस्तेमाल करना ऐसा है जैसे किसी कंसर्ट में पिस्तौल ले कर घुसना। उसके श्वेत श्याम तस्वीर की कम्पोज़िंग हमेशा वियूफाईंडर में होती थी डार्करूम में नहीं।

सब्र से सुनते जे ने कहा था ..द वेल्वेट हैंड, द हॉक्स आई। उसकी आवाज़ में हँसी का समन्दर लहरा रहा था। मैं चिढ़ गई थी।

मुझे रोका क्यों नहीं ? इसलिये कि तुममें एक बच्चे सा उत्साह है पी। थोड़ा मुझे दे दो . मैं चुप थी। सन्नाटे में एक जादू उगा था अचानक। अचानक मुझे इसका इल्म हुआ था कि क्यों उसे मेरी ज़रूरत है।

जे

मैं चुपचाप एक ज़रूरत का संसार बुन रहा था। के के बाद इतने साल बाद। मुझमें फिर से जड़ फूट रहा था। मुझे थोड़ी सी ज़मीन चाहिये थी। पी में मुझे वो ज़मीन दिखती थी। मैं ने अगली किताब पर काम शुरु कर दिया था। छोटे छोटे नोट्स। एक भोले मिठास भरे उत्साह से मैं जुटा था। हर छोटी चीज़ पी से डिसकस करने की इच्छा होती। लगता जैसे ये किताब में मैं अपनी सारी कहानी ..जो एक पूरी कहानी मेरे अंदर करवट लेती है, उसे अब लिख डालने का समय आ गया है। कमरे में इज़ेल पर मैंने कुछ रंग डाले थी। उस दिन पी का जन्मदिन था। मैंने कहा था

यहाँ आ जाओ तुम्हें गिफ्ट दिखाऊँ। कमरे में इज़ेल देखकर वो हँस पड़ी थी। ये तो खुद के लिये लिया है। मेरा गिफ्ट कहाँ ?

मैंने कहा तुम्हारे जन्मदिन पर मुझे गिफ्ट मिलेगा और मेरे पर तुम्हें।

लौटेगी तो कहूँगा अपना गिफ्ट लो। आ जाओ यहाँ मेरे साथ। तुम मेरे साथ रहो . नैय्यरा नूर धीमी आवाज़ में गा रही थी।

पी

मैंने कातिये ब्रेसों की किताब भूरे लिफाफे में पैक कराई थी। उसका जन्मदिन था और कायदे से तोहफा मुझे मिलना था। हफ्ते भर से बात नहीं हुई थी। कहा था उसे कि अब बात नहीं ..लौट कर ही। शायद अपने आप को टेस्ट करना चाहती थी। बहुत सारे फोटोग्राफ्स लिये थे मैंने। उसके कहे अनुसार टाईट क्लोज़ाप्स चेहरे और चेहरे, हँसते चेहरे, उदास चेहरे, घबड़ाये चेहरे, बेचैन चेहरे, निर्विकार चेहरे। ब्लैक ऐंड व्हाईट फोटोग्राफ्स .. शार्प, ग्रेनी, सैचुरटेड। मैं जैसे पेंसिल स्केच बना रही थी इनसे। एक एक डीटेल साफ खुदा हुआ।

शहर पहुँचते ही बिना फोन किये धमक जाने का सुख लेना चाहती थी। दरवाज़ा उसने खोला था। मेरी नज़र अंदर गई थी।

सोफे पर कुछ चोगे सा पहने के बैठी थी। उसके गले की हड्डी के सुबुक उभार और पतली स्लेंडर गर्दन पर मस्सा।

जे ने कुछ परिचय जैसा कराना चाहा ..

हलो पिया के की आवाज़ में प्रश्न था।

पी ने मेरी किताब इलस्ट्रेट की है। जे खड़ा था हमारे बीच।

व्हाट ऐन अमेज़िंग कोईनसिडेंस .. के हँस रही थी। बेतहाशा। उसके गले की नस रस्सी की तरह उभर गई थी। उसका पतला सुबुक गला अचानक उभरी नसों का जाल बन गया था। उसके चेहरे पर एक विकृत हँसी पछाड़ खा रही थी।

फिर वह हँसते हँसते खाँसने लगी थी।

जय मैं सोने जाती हूँ। बाय पिया .. ऑवर फैमिली इलस्ट्रेटर। उसकी हँसी फिर रुक नहीं पा रही थी।

मैं उठ गई थी। मैंने लिफाफा जे को पकड़ाया था ..तुम्हारे लिये लाई थी।

पी और जे

माया ने बताया के के नर्वस ब्रेकडाउन के बारे में। शायद खुदकुशी करना चाहती थी।

..और वो लातिन अमरीकी ?

..छोड़ गया। योर जे इज़ नॉट अ बैड गाई। मैंने उसे गलत समझा था। ..मतलब ? .. इतना सब होने के बाद भी वही ख्याल रख रहा है न उसका। .. शायद वो उससे बहुत प्यार करता है। मैंने बात खत्म की थी, और मन ही मन सोचा था .. और मैं उससे बहुत प्यार करती हूँ। और शायद वो मुझसे भी एक तरीके का प्यार करता है। के से अलग तरीके का लेकिन प्यार मुझसे भी करता है। शायद वैसे ही जैसे मैं नीश को उदार स्नेह से याद करती हूँ। शायद वैसे ही उदार स्नेह से जे के को प्यार करता है।

फिर सोचा कि इंसानी रिश्ते ऐसे क्यों होते हैं ? प्यार हमेशा बराबार के लेनदेन का क्यों नहीं होता ? जितना देते हैं उतना ही लेने की कामना क्यों होती है। फिर मैं सोचती हूँ जे इतना उदार क्यों है ? क्यों नहीं वो थोड़ा पेटी हुआ ?

फिर सोचती हूँ उसने तो कभी मुझे नहीं कहा प्यार जैसा कोई शब्द फिर आज मैं कैसे ये जान गई कि वो मुझसे प्यार करता है ? फिर मुझे लगा कि प्यार कोई मन में टँगा कील है, तालाब में उलटी तैरती मरी हुई मछली नहीं, जिसे पानी से निकाल कर फेंक दिया जाय।

फिर मैं सोचती हूँ ..जे मुझे फोन करो, नहीं करोगे तो फिर मैं तो करूँगी ही।

जे सोचता है पी से बात करनी है, बहुत सी बातें ..के ज़रा सँभल जाये ..बस ..फिर एक नई शुरुआत। फिर एक अजीब हैरानी भरी आश्वस्ति से सोचता है .. पी को के के बारे में कुछ क्लीयर करने की ज़रूरत नहीं। वो सब समझ रही है सब।

पी

मैं टेड ह्यूज़ को पढ़ती हूँ धीरे धीरे। फिर सोचती हूँ उसने सिल्विया प्लाथ को क्यों छोड़ दिया ? फिर सोचती हूँ सब धीरे धीरे बदलता है। शायद मेरे और जे के बीच भी किसी दिन कुछ बदल जायेगा ? फिर लगता है बाहर वसंत है। मेरी आँखें अंदर देखती हैं, देखती हैं एक ठहरी हुई औरत को जो वसंत से नहाई हुई है। किसी दिन कुछ हुआ, किसी और दिन और कुछ होगा ..क्या पता क्या पता ..लेकिन आज वसंत है।

जे

I want to do with you what spring does with the cherry trees…. आज वसंत है

पी

पिछले हफ्ते भर से जे से टुकड़ों में बात हुई है। हर बार पीछे से के की इंसिस्टेंट आवाज़ सुनाई देती रही है। जे का बीच बीच में, बोलते बोलते के की किसी नामालूम सी बात का जवाब देना।मुझे लगता है हर बार वो मुझे और उसे दोनों के साथ बात कर रहा है। मैं समझदारी से पेश आना चाहती हूँ। फिर उसे एस एम एस करती हूँ आई कांट बी अंडरस्टैंडिंग ऑल द टाईम। फिर सेंड बटन दबाने के पहले ही डिलीट कर देती हूँ। मेरी उसके संग क्या अंडरस्टैंडिंग है मुझे साफ साफ तौर पर कहाँ पता है। मेरे दिन उदास और अकेले हैं। घनघोर काम के बीच निचाट अकेलापन। अकेलापन पेंडुलम वाली घड़ी है जो हर मिनट टिकटिक करता है। मैं कुछ बेहद उदासी वाला गाना क्रून करना चाहती हूँ, नशे में डूब जाना चाहती हूँ। माई ब्लूबेरी नाईट्स। अँधेरे रौशन कमरों की गीली हँसी में फुसफुसाते शब्दों को छू लेना चाहती हूँ, उस धड़कते नब्ज़ को छू कर दुलरा लेना चाहती हूँ। गले तक कुछ भर आता है उसे छेड़ना नहीं चाहती, बस रुक जाना चाहती हूँ एक बार, तुम्हारे साथ।

चलते चलते धुँध में खो जाना चाहती हूँ एक बार। और एक बार उस मीठे कूँये का पानी चख लेना चाहती हूँ। एक बार तुमसे बात करना चाहती हूँ बिना गुस्सा हुये और एक बार प्यार, सिर्फ एक बार। फिर एक बार नफरत। सही तरीके से नफरत, न एक आउंस कम न एक इंच ज़्यादा, भरपूर, पूरी ताकत से। और उसके बाद तुम्हें भूल जाना चाहती हूँ। और चाहती हूँ कि तुम मेरे पीछे पागल हो जाओ, मेरे बिना मर जाओ ..सिर्फ एक बार !

अगली ज़िंदगी अगली बार देखी जायेगीफिर एक बार !

जे

मैं किसी कूँये में दिन बिता रहा हूँ। अँधेरापन मुझे लील रहा है। रात को के मुझे जकड़ लेती है। उसके नाखून मेरी पीठ पर गहरे खराश बनाते हैं। उसके उन्मादी होंठ मेरे होंठ को जख्मी कर डालते हैं। अपने कड़े घुँघराले बाल मेरे चेहरे पर छितरा कर मुझे प्यार करती है। तीखा उत्तेजक प्यार। लहुलुहान कर देने वाला प्यार। जंगली बिल्ली सा प्यार। मैं उसके सुबुक जिस्म को थाम कर एहतियात से परे करना चाहता हूँ। वो मुझसे चिपक चिपक जाती है। आहत बड़ी आँखों से पूछती है

यू डोंट वांट मी एनीमोर ?

मैं उसे बच्चे सा गोद में समेट लेता हूँ। मेरा जिस्म पत्थर है जैसे। मेरे अंदर अब कोई उफान नहीं उठता। के के लिये नहीं उठता। मुझे उससे स्नेह है। लेकिन आई एम नो मोर हर लवर।

मैं पी को ऐसे मिस करता हूँ जैसे अपने शरीर का कोई हिस्सा। फैंटम लेग सिंड्रोम। मैं उसे कहना चाहता हूँ कि मैं तुम्हारे भीतर हूँ पी, तुम्हारे शरीर का हिस्सा, मैं तुम हूँ, तुमसे ज़्यादा तुम हूँ। अब उसके फोन नहीं आते। मैं उसे टुकड़ों में बात करना नहीं चाहता। मेरे अंदर कोई ज़ख्म है जो पकता है लगातार।

के को सुलाकर मैं किताब पर काम करता हूँ, गंभीरता से। ऐसे जैसे कोई बच्चा होमवर्क करता हो। रात भर मैं लिखता हूँ, सोचता हूँ, सिगरेट धूँकता हूँ। इन पिछले दिनों में मेरी लिखाई में एक तीखापन है, एक तुर्शी है, एक डिटैचमेंट है। मेरा दिमाग आजकल साफ है। एक क्लैरिटी है। अच्छा है। धुँध के पार का शफ्फाक आसमान।

पी

सब चीज़ें एक्स्पायरी डेट के साथ आती हैं। प्यार, स्नेह, भरोसा, अंतरंगता, भोला सहज विश्वास ..सब। उम्र तक ! मैं कहती हूँ।

तुम कहते हो,चुंगकिंग एक्स्प्रेस का डायलॉग बोल रही हो ?

मैं लेकिन पाईनऐप्पल खाते नहीं मर सकती, मैं हँसती हूँ। मैं दुख में कुछ भी नहीं खाती।

पाईनऐप्पल के सारे टिन जो मैं कल खरीद लाई थी उसका क्या करूँ अब ? ये अब हँसने वाली बात कहाँ रही। लेकिन सचमुच दुख में मैं कुछ भी नहीं खाती। फिर बिना एक्सापयरी डेट जाँचे, मैं सारे टिन गटर में फेंक देती हूँ। सड़क पर चलती औरत ठिठक कर देखती है, खराब है ? पूछती है।

मेरे लिये, हाँ, मैं बुदबुदाती हूँ। बाहर बारिश झूमती है। गाड़ी के अंदर स्टिरियो पर बेगम अख्तर टूट कर गाती हैं

हम तो समझे थे कि बरसात में बरसेगी शराब

आयी बरसात तो बरसात ने दिल तोड़ दिया

मैं बेतहाशा हँसती हूँ। इसलिये कि मुझे रोना नहीं आता। शीशे के पार सब धुँधला है। सड़क नहीं दिखती, गटर नहीं दिखता, वो दुकान नहीं दिखती जहाँ से टिन खरीदा था, तुम भी नहीं दिखते और शायद उससे ज़रूरी, तुम मुझे नहीं देखते, वैसे जैसे मैं तुम्हें दिखना चाहती हूँ।

तुम कुछ कहते हो लेकिन अब मैं नहीं सुनती। मैंने सारे पाईनऐप्पल टिन गटर में जो फेंक दिये।

तुम कहते हो तुम्हें विदा गीत तक लिखना नहीं आता

मैं कहती हूँ मैं अजनबियों से बात नहीं करती

तुम कहते हो मेरी छतरी बहुत बड़ी है

मैं कहती हूँ बारिश में मैं फिर भी भीग जाती हूँ

तुम कहते हो मेरे पास आसमान है

मैं कहती हूँ ज़मीन किधर है

तुम कहते हो सपने नहीं देखती तुम

मैं कहती हूँ मैं सच देखती हूँ, सपने के पार का सच

बारिश थम गई है। तमाम लिखाई के बावज़ूद सच मुझे विदागीत लिखना नहीं आता। उसमें ग्रेस और डिग्निटी नहीं आती, उसमें निस्पृहता नहीं आती। मैं अब तक सड़क पर ठिठक कर देखती फिर आगे बढ़ जाती औरत नहीं बन पाई। मैं अब भी छोटी बच्ची हूँ जो बड़ों की दुनिया में जबरदस्ती घुस आई है।

जे

किताब का अंतिम पन्ना लिखकर खत्म किया .. एक बार पढ़ता हूँ ..

मेरा मन ऐसा क्यों हुआ ? जैसे दरवाज़े पर लटका भारी ताला ? और तुम्हारी

संगत के दिन ? ऐसे थे क्या कि धूप अब खत्म हुई सदा के लिये। मेरे दिन क्या ऐसे ही लाचार बेचारे थे ? अपाहिज़,जो तुम्हारी संगत के बिना एक पल धूप और रौशनी की तरफ चल न पायें ? उन दिनों का रंग माना चटक था, फिज़ाओं में खुशबू ऐसे घुली थी जैसे ज़ुबान पर हमेशा प्लम वाईन का स्वाद | मन में कोई जंगल पत्ते खोलता था, फुनगियाँ आसमान छूती सी थीं ..सही है वो दिन वैसे ही थे। फिर उनकी परछाई इतनी लम्बी क्यों पड़ी कि आज तक के दिन ठंडे, अँधेरे, बिना किसी ताप के हुये। किसी अच्छी चीज़ का बुरा कसैला आफ्टरटेस्ट ?

न ! मैंने स्वाद चखा और अब बस। बस। फिर इसके आगे दिन कुछ और होंगे। जीवन बहुत बड़ा है और तुम्हारा दुख ? दुख है लेकिन ऐसा तीखा नहीं कि पहाड़ों पर छाया सर्द हो गई हो। तुम्हारे साथ के दिन वो चाभी नहीं जो इस ताले को खोल दें। वो चाभी उस अल्बम में भी नहीं जिसके फोटो पीले पड़ गये हैं, उस पीलेपन में उन दिनों की रौशनी और खुशी कैद है। न चाभी उन यादों में है जिन्हें याद कर मैं हंसता तो हूँ पर छाती हुमहुम कर जाती है। पर ये हँसी भी उस तार की तरह है जिसके खिंचने पर अजीब ऐंठी हुई सी खुशी तड़क जाती है। किसी दोपहर में फर्श पर लेटे छत ताकते किसी दोस्त से, किसी पुराने दोस्त से बतियाने जैसा सुख। ऐसा है तुम्हें याद करना, सिर्फ ऐसा। न उससे ज़्यादा न उससे कम।

मेरे मन में तुमने खिड़की खोली थी, किसी और प्यारी दुनिया की झलक दिखाई थी, जब तक थी सुहानी थी। उसका सुहानापन, दिनों के किनारे पर जड़ी किरणें और सितारे थे। उसकी चमक अब भी है मेरे अंदर चमकती हुई लेकिन मैं सिर्फ तुम्हारे साथ के दिनों से खुद को सीमित कैसे कर लूँ ? दुनिया बड़ी है, बहुत बड़ी और जीवन नियामत है, एक बार मिली हुई नियामत। और हज़ार चीज़ें करनी हैं इस एक जनम में। तुमसे मोहब्बत की, टूट कर इश्क किया, मेरी आत्मा में नए रंग भरे। उन रंगों का वास्ता, अब मुझे कुछ और करना है। सामने हरा मैदान फैला है, सड़क कहीं दूर जाती है, कोई अपहचाना छोर कूल किनारा दिखता है। मैं यायावर होना चाहता हूँ, उस नीले आसमान की चमक मुझे खींचती है। मैं तुमसे प्यार करता हूँ, अब भी। इसलिये तुम्हारे बिना जीना चाहता हूँ। दुख तकलीफ में नहीं। खुशी से जीना चाहता हूँ। जैसे कोई बच्चा सुबह उठते ही किलकारी से नए भोर को बाँहें फैला कर गले लगाता है ..वैसे। तुम कहती थीं मेरे बिना तुम टूट जाओगे न। मेरा टूट जाना मेरे प्यार को साबित करता था ? तुम्हारे लिये ?

मैं हैरान हूँ। मैं जीता हूँ, साबुत हूँ। इसलिये कि एक समय मैंने प्यार किया, बेहद किया। इसलिये, अब तक जुड़ा हूँ। अब शायद तुमसे प्यार नहीं करता। शायद बहुत करता भी होऊँगा, अब भी। प्यार, तुमसे। या प्यार से। प्यार। शायद पागल हूँ कि सफेद कैनवस को रंगना चाहता हूँ उँगलियों से, रीम के रीम कागज़ भरना चाहता हूँ शब्दों से, कैनवस के जूते पहन किसी तंग गलियों में लोगों के चेहरे देखता, घरों की खिड़कियों से भीतर झाँकता, चलना चाहता हूँ, दुनिया के हर कोने का खाना चखना चाहता हूँ, धूप में बैठकर अपने पसंद के लोगों से जी भरकर बात करना चाहता हूँ, कितना कितना करना चाहता हूँ। मैं अपने मन का ताला अपनी चाभी से खोलना चाहता हूँ। मैं जीना चाहता हूँ, तुम्हारे बिना भी ..खुशी से उमगना चाहता हूँ। एक समय मैंने प्यार किया था इसलिये..इसलिये भी कि उस पार जाने के लिये दरवाज़ा मेरे ही अंदर है जो है अगर मैं देख सकूँ, अगर खोल सकूँ ..मेरी यात्रा शुरु होती है अब ..

मैं चाहता हूँ इसे सबसे पहले पी को दिखाऊँ। एक हुमस उठती है छाती में। उसकी हँसी की आभा वाली ज़रा सी टूटती आवाज़ सुनने की हरहराहट होती है। लगता है मेरी साँस रुक जायेगी। पओलो कोंते अपनी खराशदार आवाज़ में लमोरे के गा रहा है। मेरी साँस सचमुच रुक जायेगी।

वे

तुमने कहा था - मैं तुम्हारे लिये गुमनाम सडकों पर बसों से उतरता अकॉर्डियन बजाता रहता हूँ .. ढेर सारी सूखी पत्तियाँ फिर भी झरती रहतीं हैं। बचपन में देखे पोस्टकार्ड्स में पीले और सुर्ख पत्तों से भरे बाग के नीचे एक अकेला बेंच। कुछ कुछ उस फेल्ट लगाये दढ़ियल बूढे की हल्के नशे में बेहद नरम उदासी से बार बार मेर्सी कहना, किसी फिल्म का अटका कोई दृश्य। मुझे कई बार लगता है मैं कोई सोख्ता हूँ और सब एहसास एक एक करके मुझमें जज़्ब होते रहते हैं। मोटी किताबों की कहानियाँ जो भीतरी तह तक रिस कर कहीं लुकछिप बैठी रहती हैं और त्वचा से साँस लेती ज़िंदा रहती हैं और कभी भी, जानते हो, के साथ बाहर उचक कर आ जाती हैं।

मैं तुम्हें कहानी सुनाना चाहती हूँ, तमाम कहानियाँ जो मैंने अब तक देखी पढ़ी हैं, और सारे नए शब्द जो मेरी ज़ुबान पर आ कर चिपक जाते हैं, जैसे कल मैंने पढ़ा ..नदामत ..शर्मिंदगी। और याद करती रही कि इस शब्द को और कब कब बिना अर्थ जाने पढ़ा है और कितनी बार तुम्हें नहीं बताया है या फिर कितनी बार ये कहकर, सुनो तुम्हें एक बात बतानी थी पर अब भूल गई हूँ कह कर सचमुच भूल गई हूँ।

या ये कि मैं बकलावा बनाना सीखना चाहती हूँ और तुम मुझे मोरक्को ले जाओगे ? अकॉरडियन की धुन वहीं सुन लेंगे और वहीं से निकल पड़ेंगे किसी और देश। या फिर ये कि आज नहीं करनी कोई राजनितिक बहस या आर्थिक मंदी पर सर नहीं फोड़ना। ये सब मैंने औरों के साथ कर लिया है, और ये कि परसों, मैं दिनभर किसी कम्पनी के बैलेंस शीट को अनलाईज़ करती रही और अब दुखते कंधे लिये और भारी सर लिये कहीं शब्दों की यात्रा पर निकल पड़ना चाहती हूँ, कि कल मैं सारे दोपहर ऐनी आपा को पढ़ती रही और उदास होती रही कि कभी मिली क्यों नहीं, क्या इसलिये कि मेरी भीतरी औरत उनके बाहरी और भीतरी औरत जैसी है, हू बहू वैसी और इस नाते मैं उनसे जुड़ी हूँ, समय, उम्र के परे, मौत के भी परे। कि उनके शब्द मेरे अंदर एक दुनिया रच देते हैं शायद बिलकुल वैसी दुनिया जैसी उन्होंने देखी थी और मैं देखती हूँ उनके शब्दों से, या उसके परे भी जैसे हर साँस के बाद एक और साँस ज़्यादा भीतर आये, जैसे मैंने बिना देखे भी देख लिया और बिना छूये भी छू लिया। या ये कि, जानते हो कल मैं एक उदास सुखी कर देने वाले सफर पर थी ..पाकिस्तान, सिंध, कोलंबो और उससे भी ज़्यादा ..किसी के भीतर की यात्रा, उसे उसके शब्दों के ज़रिये जानने की दिल तोड़ देने वाले अनुभव, कि देखो अब तक जैसे कुछ जाना ही न था, जैसे परदा अचानक उठ गया हो और धूप खिल गई हो। खूब खूब उदास चेहरे पर हँसी की आभा देखी है तुमने ? रक्त मांस मज्जा के भीतर छू कर देखा है तुमने ? किसी की दुनिया कितनी वाईब्रैंट हो सकती है इसका अंदाज़ा है तुम्हें ?

मैं भी बजाना चाहती हूँ अकॉर्डियन या फिर कोई सा भी सितार। डूब जाना चाहती हूँ फिर हँसना भी चाहती हूँ। तुम भी जानते हो न कैसी बेचैनियों भरी उदासी में भी कैसे कोई गहरा कूँआ खिल जाता है, मीठे पानी का सोता फूट पड़ता है। उसी उदासी के साये में कैसी अमीर खुशी कौंध पड़ती है। आई फील रिच। ऐसी अमीरी ..जानते हो न तुम।

मैं कहता हूँ संजीदगी से - मैं तुम्हारे लिये गुमनाम सडकों पर बसों से उतरता अकॉर्डियन बजाता रहता हूँ ..

एक वृक्ष उगता है। उसके उगने की रफ्तार धीमी है। लेकिन उगता है। उसकी शाखों पर चिड़िया बैठती है। उसकी फुनगी को धूप छूती है। पिया और जय के भीतर यही पेड़ उगता है एकसाथ। गहरा घना, सायादार। किताबें लिखी जाती हैं। जीवन जिया जाता है। दिन उगता है फिर बीतता है। उनके भीतर एक मीठी नदी बहती है। उनके चारों ओर ज़मीन है, जगह है, आसमान है। जे कहता है मैं तुम्हें उड़ने को आकाश देना चाहता हूँ। पी कहती है मैं तुम्हें पाँव जमाने को ज़मीन। जे कहता है तुम मेरे सब शब्द हो। पी कहती है तुम मेरी पेंसिल की रेखायें, मेरा सुबह उठा चेहरा, मेरे मुचड़े कपड़े, मेरी लड़ाईयाँ, मेरे अकेलेपन की जद्दोज़हद। जे कहता है तुम मेरी रुखड़ी दाढ़ी, मेरे बेचैनियाँ, मेरे भीतर के कुछ कर डालने की जुनून, मेरा दीवानापन, सब, मेरी दाल चावल, मेरा शैम्पेन कवियार, मेरी शाम का ठंडा बीयर। पी कहती है हम दो इंसान हैं। हम साथ उड़ना चाहते हैं। हम एक हैं। तुम मैं हो और मैं तुम।

जे हँसता है, कहता है चलो हिमाँचल, वहाँ सेब के बगीचे में दिनभर सेब तोड़ेंगे और रात को रिल्के पढ़ेंगे और प्यार करेंगे। पी कहती है हाँ और बुढ़ापे में तुम किसी पहाड़ी गाँव में बच्चों को पढ़ाना, मैं तस्वीरें बनाउँगी, खूब पैदल चलूँगी और खुश रहूँगी।

ऊपर कोई आसमानी फरिश्ता हँसता है .. कहता है ..एक था आदम एक थी हव्वा।

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