चार जुलाई / गौरव सोलंकी

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कोई शहर किसी का सब कुछ कैसे छीन लेता है?

यह सवाल पूछने वाला आदमी अगर उस चार जुलाई को, ऊँची इमारतों और छोटे दिलों के उस शहर में मेरे साथ कुछ क्षण बैठ जाता और मुझे कुछ जवाब सुझा देता तो आज न तो इस जख़्म का दर्द मेरे हर शब्द में समा जाता और न ही मैं यह सवाल दोहरा रहा होता।

वैसे सवाल में कुछ संशोधन करना होगा...


कोई शहर किसी का सब कुछ क्यों छीन लेता है?

जानती हो नेहा? उस आखिरी एस.एम.एस. को भेजने से पहले मैं तुम्हारे ऊँची इमारतों वाले शहर की एक भीड़ भरी बस में कितना फूट-फूटकर रो रहा था?

भला तुम कैसे जानोगी? वैसे जो जानते थे या जो देख रहे थे, वे भी कुछ नहीं बोले थे। कुछ देर बाद मैं ही थककर चुप हो गया था। उस दिन अंतिम बार थका था मैं।

कैसे लोग हैं ना तुम्हारे शहर के...बिल्कुल तुम्हारी तरह।

शायद वह शहर ही ऐसा था और तब से मुझे भी लगता है कि उस शहर ने तुम पर भी कुछ जादू-टोना कर दिया था। वरना तुम कहाँ किसी की हत्या कर सकती थी?

हाँ, सच कह रहा हूँ। मैं उसी दिन मर गया था नेहा...

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मैं एक गैरज़िम्मेदार बेटा था नेहा, एक गैरज़िम्मेदार भाई भी और शायद एक गैरज़िम्मेदार इंसान भी था। पिता जी चाहते थे कि अपनी पीढ़ी के होनहार नौजवानों की तरह मैं भी डॉक्टर या इंजीनियर बनूँ। मैं नहीं बन सका। मैंने बनना ही नहीं चाहा। सच कहूँ तो मैंने उनकी कोई बात कभी मानी ही नहीं। ऐसा लगता है कि जन्म से ही एक पूर्वाग्रह सा था। जो वे कहते थे, वो मैंने कभी नहीं किया।

तुम्हें नहीं पता, बचपन में जब वे मुझे साइकिल चलाना सिखाया करते थे तो मैं उनका बताया एक भी तरीका नहीं आजमाता था। अजीब सा पूर्वाग्रह था ये, जो होश संभालने से पहले ही मेरे सीने से आकर चिपक गया था। कभी उनपर भरोसा ही नहीं कर पाया। वैसे मुझे पता है कि यह मेरी ही गलती थी। लेकिन मुझे कभी गलतियाँ सुधारना नहीं आया, नेहा।

और हाँ, मैं सब कुछ हो सकता था, लेकिन एक गैरज़िम्मेदार प्रेमी नहीं था।

हाँ, मुझे कोई तारीख याद नहीं रही कि कब तुमसे पहली दफ़ा मिला था, तुम्हारा जन्मदिन कब आता था या और कुछ...

लेकिन तुम बहुत सी बातें जानती भी तो नहीं थी।

पिछली बार जब तुमसे मिला था और तुम्हारे कानों में जो बालियाँ पहनाई थीं, जिनको देखकर तुम उनके महंगी होने को लेकर चिंतित हो गई थी और मैंने कहा था कि ये आर्टिफिशियल हैं...

वे असली सोने की थी, नेहा।

अब सोचोगी कि मेरे पास इतने पैसे आए कैसे? मैंने कहा न, मैं गैरज़िम्मेदार भाई भी था।

तुम्हारा जन्मदिन तो मुझे आज भी याद नहीं है। लेकिन मैंने यह भी तो कभी नहीं बताया कि साल के जिस जिस दिन किसी बात पर तुम मेरे सामने रोई थी, आने वाले सालों के उन दिनों में मैंने कभी रोटी का एक टुकड़ा तक नहीं खाया।

सीने से चिपके उसी जन्मजात पूर्वाग्रह की वज़ह से भगवान पर भी कभी भरोसा नहीं हुआ, लेकिन साल के उन बीस-तीस दिनों में मैंने तुम्हारे लिए व्रत रखे।

और जानती हो, भगवान से क्या माँगा?

तुम कैसे जानोगी, मैंने कभी बताया ही नहीं था।

मैंने माँगा कि तुम्हें एक मुस्कान मिले और बदले में मेरी हज़ार मुस्कुराहटें छीन ली जाएँ।

नेहा, अब लगता है कि भगवान है। उसने मेरे खाते की सब मुस्कुराहटों को हज़ार से भाग देकर शायद तुम्हें ही दिया होगा। मैं फिर कभी नहीं मुस्कुरा पाया।

तुम तो बहुत हँसने लगी थी ना?

मैं तुम्हें दुखी नहीं देखना चाहता, लेकिन तुम इतना हँसती क्यों थी नेहा?

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-- जानते हो...मैं इस दस मंजिला इमारत की छत पर टहल रही हूँ।

तुम एक रात फ़ोन पर कह रही थी। पता नहीं कहाँ रही होगी...छत पर, पाताल में या धरती पर!

हो सकता है कि तुम अपने कमरे में आराम से लेटी थी और तुमने अपनी कल्पना से वह दसमंजिला इमारत का सीन मेरी कल्पना में बुन दिया था। मैं तुम्हारा ही तो भरोसा करता था। तुम्हारा कहा सब सच और बाकी सब...बाकी सब सुनता ही कहाँ था?

वैसे एक बात है कि तुम कहानियाँ अच्छी बनाती थी। एक और दिन, जब मैं तुम्हारे बेवक़्त के फ़ोन पर चौंका था और तुमने बताया था कि तुम अभी-अभी मेरे शहर में आई हो और रास्ते में कुछ आवारा लड़के तुम्हारे पीछे पड़े हैं।

तुम शायद देखना चाहती थी कि मैं क्या करता हूँ?

और मैं फ़ोन वहीं पटककर तुम्हारी मौसी की गली तक दौड़ा चला गया था। तुम कहीं भी नहीं थी...किसी भी रास्ते पर। तुम कभी भी, किसी भी सड़क पर मुझसे नहीं टकराई ना? तुम्हारा हर रास्ता जाने कहाँ से होकर गुजरता था?

खैर, दो घंटे घूम-फिरकर जब लौटा तो फिर से तुम्हारा खिलखिलाता हुआ फ़ोन आया था। तुम बहुत हँसी थी मुझपर और अपनी कहानी की सफलता पर।

कौन जानता है कि वह दसमंजिला इमारत भी किसी कहानी का हिस्सा हो।

लेकिन जानती हो...वह छत, जो मैंने कभी देखी भी नहीं या संभवत: थी भी नहीं, हमेशा छलनी करती रही मुझे।

-- यहाँ से पूरी दिल्ली दिखती है।

तुम्हारी आवाज़ में एक नशा था उस दिन। जाने किस चीज का नशा था?

मैं चुप रहा। उन दिनों मौन ही मेरी नियति बनता जा रहा था।

-- मुझे लगता है कि तुम मुझ पर भरोसा नहीं करते...

-- पता नहीं।

मैं भी तुम्हारी तरह ‘पता नहीं’ बहुत कहने लगा था। तुम चुप रही। मैं तुम्हारी आँखों से रात की जगमगाती हुई दिल्ली देखता रहा और तुम...तुम क्या देख रही थी? हो सकता है कि तुम अपने बिस्तर पर अधलेटी थी और तुम्हारी हाथ में टी.वी. का रिमोट कंट्रोल था। तुम उसे ‘म्यूट’ करके लगातार चैनल बदल रही थी। मैं भी तो...तुम्हारे साथ भी ‘म्यूट’ सा हो जाता था और तुम्हारे बिना भी।

लेकिन उन क्षणों में मैं तुम्हारे टहलते हुए कदमों के साथ उस छत को महसूस कर रहा था। जानती हो...वह छत बाद के कुछ दिनों में मेरे ऊपर घिरने लगी थी। रोज़ सिमटती जाती थी और मेरी घुटन बढ़ती जाती थी।

खैर, मैं बोल ही पड़ा था। दर्द ने सब रिमोट कंट्रोल बेकार कर दिए थे शायद।

-- नेहा, दो ही रास्ते हैं। तुम्हें पा लूँ या मर जाऊँ...

तुम शायद रुक गई थी। मुझे लगा कि उस क्षण पूरी दिल्ली भी थम गई होगी।। उस इमारत के सामने वाले सिग्नल पर रुकी हुई गाड़ियाँ और भागकर सड़क पार करते-करते सड़क के बीचों-बीच जम गए लोग मुझे दिख रहे थे।

पहले एक ठंडा नि:श्वास सुनाई दिया। हो सकता है कि सामने टी.वी. पर चल रही फ़िल्म के किसी दुखद सीन पर वो ठंडी साँस निकली हो, लेकिन मुझे यही लगा कि सिग्नल की गाड़ियाँ, दिल्ली और तुम, टहलते-टहलते थम गई हो।

-- मैं दुकान पर रखा कोई सामान नहीं हूँ, जिसे पाया जाए। तुम ऐसी भाषा में क्यों कहते हो...

मुझे ऐसी ही भाषा आती थी नेहा..और अगर दूसरी तरह कहना नहीं आता था तो क्या करता?

-- वैसे भी अभी हमारे रिश्ते को वक़्त लेने दो।

वक़्त का इंतज़ार कैसे करता नेहा? मुझे वक़्त पर तो बिल्कुल भी भरोसा नहीं था। इसीलिए तो मैं डरा-डरा सा रहता था। जब तुम पास होती थी, तब भी दूर महसूस होती थी। तुम्हें पाना जीने के लिए जरूरी हो गया था, नेहा....नहीं तो कभी ऐसी बातें न करता।

-- तुम नहीं मिली तो मरने का रास्ता ही बचता है।

सिग्नल पर रुकी हुई गाड़ियाँ, उनसे टकराकर और बचकर सड़क पार करते लोग और शायद तुम्हारे कदम भी चलने लगे थे। तुम्हारा शहर बहुत भागता है। मेरी मौत की चेतावनी भी उसे ज्यादा देर तक रोककर नहीं रख पाई।

-- किसी दिन जब तुम्हें यही आखिरी रास्ता लगे तो प्लीज़ एक बार मुझे बता देना। उस दिन तुम देखोगे कि मैं कितनी हिम्मतवाली हूँ। फिर तुम्हें मरना नहीं पड़ेगा।

-- क्या करोगी तुम?

-- उस दिन पता चल जाएगा।

तुम चैनल बदल रही थी या नहीं, मुझे नहीं दिखा। तुम्हारा चेहरा धुंधला सा होने लगा था।

-- मैं छत की मुण्डेर पर हूँ।

मैं चुप रहा।

-- मन करता है कि कूद जाऊँ। इस दसमंजिला इमारत से गिरकर तो बचने का कोई चांस नहीं है।

-- पीछे हट जाओ, नेहा।

मैं बेचैनी से चिल्ला पड़ा था।

हो सकता है कि उस क्षण तुम्हारी फ़िल्म ख़त्म हो गई हो और तुमने टी.वी. बन्द अर दिया हो। मेरी कल्पना में तो तुम छत से दस मंजिल नीचे सड़क को ही निहार रही थी।

-- अभी नहीं कूदूँगी।

शायद तुम आराम से बिस्तर पर लेट गई होगी।

तभी माँ ने आकर बहुत लाड़ से मुझसे पूछा- क्या खाएगा?

-- ज़हर।

मैं हौले से बोला। जानता हूँ कि माँ पर क्या गुजरी होगी?

-- किसी काम का नहीं है ये। दिनभर पड़ा रहता है और जुबान से एक मीठी बात भी नहीं निकाल सकता। निठल्ला है...और हमारा जीना भी मुश्किल कर दिया है।

माँ बड़बड़ाते हुए तेजी से चली गई थी। जाते-जाते गुस्सा दरवाजे पर उतरा था। तुम भी तो फ़ोन पर सब कुछ सुन ही रही थी।

काश, तुम उस दिन कूद जाती।

तुम उस दिन कूदी क्यों नहीं थी, नेहा?

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-- तुम शराब क्यों पीते हो?

तुम सवाल बहुत पूछती थी और मेरे पास सवाल-जवाब, कुछ होता ही नहीं था। तुम्हारे लिए बहुत सा प्यार था अन्दर, जिसकी कोई वज़ह ही नहीं थी। बेवज़ह चीजें बहुत दर्द देती हैं, नेहा।

-- तुम मेरी किसी बात का जवाब नहीं देते। तुम्हें दुनिया में किसी की फ़िक्र है ही नहीं।

मैं शराब पीता था?

मुझे तो लगा कि दुनिया की हर चीज मुझे ही पीती रही, तुम भी और शराब भी। और कुछ था ही कहाँ?

उस क्षण तुम क्या सोच रही थी, मुझे नहीं पता। लेकिन मुझे लगा था कि शराब पीने का प्रश्न तुम्हारे लिए मुझसे ज्यादा जरूरी था। मन किया कि....

खैर, मैं बोल ही पड़ा।

-- इसलिए पीता हूँ कि पागल न हो जाऊँ।

-- तुम्हारे साथ दिक्कत क्या है? दुख किस बात का है तुम्हें?

तुम बहुत सुन्दर नहीं थी, नेहा और जब इस तरह झुंझलाती थी तो तुम्हारे चेहरे को देखना कोई अच्छा अनुभव नहीं होता था। मगर मेरे लिए तो तुम जरूरत बन गई थी। सच में...बेवज़ह प्यार, बाकी बेवज़ह चीजों की तरह ही बहुत तकलीफ़ देता है।

-- कौन लड़का है वो?

-- कौन?

तुम कहानियाँ भी अच्छी बनाती थी और अभिनय भी अच्छा करती थी। तुम्हारे चेहरे पर जो चौंकने के भाव थे, वे पकड़े जाने के डर से रंगे हुए थे। तुम्हारा चेहरा ईंटों सा लाल हो गया था।

-- तुम्हारे पास देने को अच्छी उपमाएँ भी नहीं हैं क्या? तुम बिल्कुल भी रोमांटिक नहीं हो।

शुरुआत के दिनों में तुम कहा करती थी। मुझे भी यह कहना कभी नहीं आया कि तुम्हारा चेहरा ईंटों सा लाल नहीं, गुलाब सा लाल हो गया है।

-- कौन?

तुम चौंककर मेरी ओर देख रही थी। मेरी आँखें भी लाल रही होंगी उस वक़्त, सूरज सी लाल।

कैसी उपमा है ये, ईंटों से कुछ अच्छी, पर ज्यादा रोमांटिक नहीं है न?

-- जिसके साथ उस दिन पिक्चर देखने गई थी...

-- मैं किसी के साथ नहीं गई।

मैंने तो यूँ ही पूछ लिया था। तुम अगर सच बोल रही होती तो तुम्हें उस बात पर गुस्सा आता। तुम्हें गुस्सा नहीं आया। तुम केवल घबरा रही थी। मैं समझ नहीं पाया था कि तुम्हारी घबराहट पर यकीन करूँ या तुम पर?

हाँ , कोई तो था जिसका ख़याल उस क्षण तुम्हारे दिल में मचल रहा था। तुम दूसरी ओर देखने लगी थी।

-- मेरे कमरे तक चलोगे आज?

तुम्हारी आँखों में अजीब सा निवेदन आने लगा था। यही वे क्षण होते थे नेहा, जब मैं तुम्हारी घबराहट के मतलब निकालने की बजाय बस तुम पर भरोसा कर लेता था। तुम्हारा कमरा बहुत किस्मत वाला था। तुम्हारी खुशबू से महकता रहता था दिनभर।

उस रोमांटिक सी खुशबू वाले कमरे में मैं अनरोमांटिक आदमी तुम्हारे सामने बैठा रहा। मैं फिर ‘म्यूट’ हो गया था। जानती हो, कोई उस समय मुझसे पूछता कि तुमने किस रंग के कपड़े पहन रखे हैं तो मैं न बता पाता। मैंने तुम्हारे चेहरे के अलावा कभी कुछ देखा ही नहीं...या शायद चेहरा भी नहीं देखता था, केवल सोचा करता था तुम्हें और कभी-कभी तो यह भी लगने लगता था कि तुम मेरी कल्पना ही हो...और कुछ भी नहीं।

तुम मेरे चेहरे पर, होठों पर, सीने पर चुम्बन जड़ती रही...थप्पड़ों की तरह।

फिर खराब उपमा...

मैं बेसुध सा बैठा रहा और हमारे रिश्ते को अपना वक़्त लेते देखता रहा। अब ऐसे वक़्त पर मैं कैसे भरोसा कर सकता था, नेहा?

नीचे गिरी हुई अपनी शर्ट मुझे उस समय दुनिया में सबसे प्यारी लगी थी। उसे भी तुमने उसी तरह उतार कर फेंक दिया था, जैसे मुझे ज़िन्दगी ने उतारकर फेंका था। वही एक अपनी सी लगी थी उस कमरे में। कमरे की सब दीवारें आँखें फाड़-फाड़कर मुझे देख रही थीं। तुम्हारी आँखें बन्द थीं और मैं भर्राई हुई आँखों से (कभी भर्राई हुई आँखें देखी हैं? उस दिन तुम्हारी आँखें बन्द न हो गई होतीं तो देख लेती...) कभी शर्ट को और कभी दीवारों को देखता रहा था।

मैं शराब क्यों पीता था? कभी उन बेशर्म दीवारों से पूछती तो जान जाती।

और तुम्हारे चुम्बन इतना चुभते क्यों थे, नेहा?

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तुम्हें बचपन से ही पालतू जानवरों का बहुत शौक था ना? उन दिनों मैं भी कुछ वैसा ही बनने लगा था। फ़र्क इतना था कि तुम्हारे कुत्ते-बिल्लियाँ शराब पीकर होश नहीं खो सकते थे।

फिर शराब!!!!!!!

मैंने कहा था न, और कुछ रह ही कहाँ गया था तुम्हारे और उसके सिवा।

तुम बस में थी उस दिन, जब मैंने फ़ोन किया। भरोसा करता हूँ कि बस में ही रही होगी। बस में बैठे कुछ बेवकूफ से लोग तुम्हें आँखें फाड़-फाड़कर देख रहे होंगे। तुम्हारे चेहरे पर क्या भाव थे? तुम किस बात पर मुस्कुरा रही थी नेहा और मेरा फ़ोन जाते ही तुम्हारे होंठ सिमट क्यों गए थे? तुम्हारे पास वाली सीट पर कौन बैठा था, मैं नहीं देख पाया।

-- मैं अभी बात नहीं कर सकती तुमसे।

-- क्यों?

-- मैं किसी के साथ हूँ।

दुनिया में ऐसा कौन था नेहा, जिसके सामने तुम मुझसे बात नहीं कर सकती थी? तुमसे अगली सीट पर बैठी लड़की किसी बात पर खिलखिलाकर हँस पड़ी थी और मेरा मन किया कि अभी चार सौ किलोमीटर दूर से उसका गला दबा दूँ।

-- कौन है तुम्हारे साथ?

मेरे दीदे जलने लगे थे। किसी ने जैसे भट्टी का कोयला आँखों में रख दिया था।

-- कोई है। तुम इस तरह मुझ पर शक मत किया करो।

मैं तुम पर शक कैसे कर सकता था, नेहा?

नहीं कर सकता था ना..लेकिन करने लगा था।

क्यों करने लगा था? क्यों करने लगा था? क्यों करने लगा था?

मैंने अलमारी पर लगे काँच में हाथ दे मारा था।

-- क्या हुआ?

चौंकने का अभिनय करते हुए तुम्हारे माथे पर दो सलवटें उभर आई थीं। अगली सीट वाली लड़की तुम्हें देखने लगी थी। तुम्हारे साथ वाली सीट पर कौन था, मैं फिर नहीं देख पाया। तुम शायद उसी की तरफ देख रही थी।

मेरे हाथ में छ: जगह काँच चुभ गया था। खून की धारें निकलने लगी थीं। उस शाम बहुत खून बहा। मैंने भी बहने दिया कि शायद तकलीफ कुछ कम हो जाए।

-- कुछ टूट गया है शायद।

मेरी आवाज़ में रोमांस चाहे न रहा हो, मगर मैंने दर्द भी नहीं आने दिया था। तुम्हें याद है, अजीब सा खालीपन लिए यह वाक्य पहाड़ जितना भारी हो गया था।

तुम्हें याद नहीं होगा.....

मुझे याद है। वो जो दसवीं मंजिल की छत मेरे ऊपर घिरने लगी थी, यह पहाड़ भी ज़िद करके उसपर बैठ गया था।

फिर तुम्हारा नि:श्वास सुनाई दिया था। तुम्हारे माथे की दो सलवटें गायब हो गई होंगी। तुम्हारे पास वाली सीट पर एक चेहरा दिखने लगा था।

और हाँ, उस चेहरे को पता था कि तुमने उस दिन पीला सूट पहन रखा था। शायद मैं ही एक अन्धा था...

-- मैं अभी फ़ोन रखती हूँ।

जानती हो, मैंने कभी पहले फ़ोन नहीं काटा। हमेशा लगता था कि तुम कुछ कहना भूल रही हो और याद आते ही फिर से दौड़कर फ़ोन उठाओगी और कह दोगी।

मोबाइल पर्स में रखकर तुम्हारा हाथ किसी हाथ को छूने लगा था।

मैंने छ: घावों वाला वही हाथ फिर से काँच पर दे मारा।

जानती हो, उस शाम दो घंटे तक खून बहता रहा और फिर थककर बन्द हो गया। मैं गलत था। उसके बाद भी तकलीफ़ कम नहीं हुई थी। आँखों में रखा तन्दूर रात-रात भर जलता रहता था। तुम रात भर उस पर किसी और के सपने सेकने लगी थी शायद...और मेरे सपनों का ईंधन था कि तन्दूर बुझता ही नहीं था।

और हाँ, पालतू जानवर अगर पागल हो जाए तो बहुत खतरनाक हो जाता है। उसे न मारो तो वह तुम्हें मार डालता है।

मैं तभी मार दिया गया था या...?

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चार जुलाई आ गई। तीन की रात को भी मैं सोया नहीं था। सारी रात सिर में बहुत तेज दर्द होता रहा। लेकिन जो नियत था, वह तो होना ही था। मैं सुबह जल्दी ही तुम्हारी दिल्ली के लिए निकल गया था।

ऊँची इमारतें, छोटे दिल, सजे-संवरे लोग, घिनौनी हसरतें, जलते हुए तन्दूर, सिकते हुए सपने...सब कुछ था तुम्हारे शहर में।

-- कहाँ जा रहा है? कब तक लौटेगा?

बेचैन माँ ने चलने से पहले टोका था। उस सुबह जाने क्यों, मैं बरसों बाद माँ के गले लगकर रो पड़ा था। बहुत देर तक रोता रहा था। माँ सवाल पूछती थी, कारण पूछती थी और मैं सावन की झड़ी सा बरसता ही जाता था। मैंने कुछ नहीं कहा। माँ रोने लगी थी और उसे रोता छोड़कर मैं निकल आया था।

सात बजे थे तब...तुम शायद सोकर उठी होगी और बहुत देर तक बिस्तर पर लेटी रही होगी। इतवार था ना उस दिन....एक अभागा इतवार।

मैं माँ के आँसू भी उस छत और पहाड़ के साथ सीने पर रखकर बस में बैठ गया था। जानती हो, उस सफर में मैंने कुछ नहीं सोचा। रास्ते भर बस से बाहर ताकता रहा, बेसुध सा हुआ।

उस काँच चुभने वाली शाम के बाद मैंने शराब नहीं पी थी नेहा, लेकिन एक अजीब सा नशा रहने लगा था। कभी-कभी उस नशे से बहुत डर लगता था। उस दिन भी बहुत लग रहा था।

तुम्हारे कमरे पर मैं पहुँचा तो तुम चौक गई थी। वह अभिनय नहीं था चौंकने का।

तुम पर भरोसा करता हूँ। तुम सच में चौंकी थी मेरे अप्रत्याशित आगमन से।

--क्या खाओगे?

तुम्हारे चेहरे की मुस्कुराहट कुछ असहज सी लग रही थी।

-- ज़हर...

कहकर मैं तुम्हारे चेहरे को देखता रहा। तुम्हारी पलकें काँपीं, लेकिन माथे पर सलवटें नहीं आईं। तुम बहुत हिम्मतवाली थी नेहा, तुम डरी नहीं थी।

-- ऐसा मत कहा करो।

-- आखिरी बार कहा आज।

तुम उठकर चली थी। शायद चाय बनाने के लिए...या शायद ज़हर लाने के लिए। कौन जानता था?

मैंने तुम्हारा हाथ खींच लिया और दूसरा हाथ तुम्हारी प्यारी सी गर्दन पर जा टिका था। सुराही जैसी गर्दन पर। तुम्हारी आँखों में प्रश्न तैर रहे थे और मेरी आँखों में आँसू। तुम संतुलन बिगड़ने से जमीन पर गिर गई थी।

मेरे हाथ का कसाव तुम्हारी गर्दन पर बढ़ता जा रहा था। तुम्हारी आँखें फैलती जा रही थीं, विवशता और निवेदन लिए। सच कहूँ, तुम पर बहुत तरस आ रहा था। मेरी आँखों से आँसुओं की धार गिरने लगी थी। तुम्हारा चेहरा लाल होता जा रहा था, गुलाब सा लाल।

तुम चिल्लाने की कोशिश कर रही थी। मैंने तुम्हें चिल्लाने दिया। मैंने कभी रोका ही नहीं तुम्हें कुछ करने से।

तुम छटपटाने लगी थी। मेरे चेहरे को तुम्हारे हाथ नोंच रहे थे। शायद वही पहली बार था, जब तुमने सच्चे दिल से मेरे चेहरे को छुआ था। नेहा, बहुत प्यारी लग रही थी तुम। मौत ज्यादा इंतज़ार नहीं कर पाई। तुम्हारी आँखें मिंच गई थीं और छटपटाहट जमीन पर जा लगी थी।

अँधेरा होने तक मैं तुम्हें चूमता रहा था और रोता रहा था।

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मैंने तुम्हें नहीं मारा नेहा। तुमने ही मुझे मारा था।

यही लिखा था मैंने उस आखिरी एस.एम.एस. में। तुम्हारे फ़र्श पर पड़ा मोबाइल ‘अगर तुम मिल जाओ’ की धुन में बजा होगा और तुम फ़र्श पर पड़ी रही होगी। तुम्हारे हाथों के नाखूनों में खून था मेरा। मैंने तुम्हें मरने के बाद भी नहीं छोड़ा था नेहा।

तुम बहुत प्यारी लग रही थी नेहा। काश तुम मुझे न मारती...

हाँ, दुनिया के साढ़े छ: अरब आदमियों में से किसी ने उस शाम के बाद मुझे नहीं देखा।

मैं मर गया था या नहीं, यह मैं भी नहीं जानता।

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नेहा चौधरी की डायरी का एक पन्ना --

आज केवल तुम्हारे लिए ही लिख रही हूँ। जानते हो, आज कौनसा दिन है?

तुम्हें तो कुछ भी याद नहीं रहता, यह कैसे रहेगा?

आज के दिन, चार जुलाई के दिन हम पहली बार मिले थे। काश, आज तुम यहाँ होते। तुम्हारी बहुत याद आ रही है। सुबह से उठी हूँ तो ऐसा ही मन कर रहा है कि उड़कर यह चार सौ किलोमीटर की दूरी तय कर लूँ।

तुम भी तो बहुत अकेले हो मेरे बिना। मैं जानती हूँ कि तुम पागल हो मेरे लिए। पागल ही रहना, अच्छे लगते हो।

तुम्हारी एक शर्ट पिछली बार छूट गई थी। उसे छू लेती हूँ तो लगता है कि तुम्हें चूम लिया है।

तुम बिल्कुल भी रोमांटिक नहीं हो, तुम्हारे पास अच्छी उपमाएँ भी नहीं हैं मेरे लिए, तुम्हें कुछ याद भी नहीं रहता, तुम शक भी बहुत करते हो, तुम पागल भी हो..........

लेकिन तुम दुनिया में सबसे प्यारे हो मुझे। तुम्हारे बिना मैं नहीं जी सकती...सच्ची।

अभी दरवाजे पर कोई आ गया है....बाकी बाद में.....लव यू।