चालबाजी / आत्मकथा / राम प्रसाद बिस्मिल

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कई महानुभावों ने गुप्‍त समिति नियमादि बनाकर मुझे दिखाये। उनमें एक नियम यह भी था कि जो व्यक्‍ति समिति का कार्य करें, उन्हें समिति की ओर से कुछ मासिक दिया जाये। मैंने इस नियम को अनिवार्य रूप से मानना अस्वीकार किया। मैं यहां तक सहमत था कि जो व्यक्‍ति सर्व-प्रकारेण समिति के कार्य में अपना समय व्यतीत करें, उनको केवल गुजारा-मात्र समिति की ओर से दिया जा सकता है। जो लोग किसी व्यवस्था को करते हैं, उन्हें किसी प्रकार का मासिक भत्ता देना उचित न होगा। जिन्हें समिति के कोष में से कुछ दिया जाये, उनको भी कुछ व्यवसाय करने का प्रबन्ध करना उचित है, ताकि ये लोग सर्वथा समिति की सहायता पर निर्भर रहकर निरे भाड़े के टट्टू न बन जाएं। भाड़े के टट्टुओं से समिति का कार्य लेना, जिसमें कतिपय मनुष्यों के प्राणों का उत्तरदायित्व हो और थोड़ा-सा भेद खुलने से ही बड़ा भयंकर परिणाम हो सकता है, उचित नहीं है। तत्पश्‍चात् उन महानुभावों की सम्मति हुई कि एक निश्‍चित कोष समिति के सदस्यों को देने के निमित्त स्थापित किया जाये, जिसकी आय का ब्यौरा इस प्रकार हो कि डकैतियों से जितना धन प्राप्‍त हो उसका आधा समिति के कार्यों में व्यय किया जाए और आधा समिति के सदस्यों को बराबर बराबर बांट दिया जाए। इस प्रकार के परामर्श से मैं सहमत न हो सका और मैंने इस प्रकार की गुप्‍त समिति में, जिसका एक उद्देश्य पेट-पूर्ति हो, योग देने से इन्कार कर दिया। जब मेरी इस प्रकार की दृष्‍टि देखी तो उन महानुभावों ने आपस में षड्यंत्र रचा।

जब मैंने उन महानुभावों के परामर्श तथा नियमादि को स्वीकार न किया तो वे चुप हो गए। मैं भी कुछ समझ न सका कि जो लोग मुझ में इतनी श्रद्धा रखते थे, जिन्होंने कई प्रकार की आशाएं देखकर मुझ से क्रान्तिकारी दल का पुनर्संगठन करने की प्रार्थनाएं की थीं, अनेकों प्रकार की उम्मीदें बंधाई थीं, सब कार्य स्वयं करने के वचन दिए थे, वे लोग ही मुझसे इस प्रकार के नियम बनाने की मांग करने लगे। मुझे बड़ा आश्‍चर्य हुआ। प्रथम प्रयत्‍न में, जिस समय मैं मैनपुरी षड्यन्त्र के सदस्यों के सहित कार्य करता था, उस समय हममें से कोई भी अपने व्यक्तिगत (प्राइवेट) खर्च में समिति का धन व्यय करना पूर्ण पाप समझता था। जहाँ तक हो सकता अपने खर्च के लिए माता-पिता से कुछ लाकर प्रत्येक सदस्य समिति के कार्यों में धन व्यय किया करता था। इसका कारण मेरा साहस इस प्रकार के नियमों में सहमत होने का न हो सका। मैंने विचार किया कि यदि कोई समय आया और किसी प्रकार अधिक धन प्राप्‍त हुआ, तो कुछ सदस्य ऐसे स्वार्थी हो सकते हैं, जो अधिक धन लेने की इच्छा करें, और आपस में वैमनस्य बढ़े। जिसके परिणाम बड़े भयंकर हो सकते हैं। अतः इस प्रकार के कार्य में योग देना मैंने उचित न समझा।

मेरी यह अवस्था देख इन लोगों ने आपस में ष्‌डयन्त्र रचा, कि जिस प्रकार मैं कहूँ वे नियम स्वीकार कर लें और विश्‍वास दिलाकर जितने अस्‍त्र-शस्‍त्र मेरे पास हों, उनको मुझसे लेकर सब पर अपना आधिपत्य जमा लें। यदि मैं अस्‍त्र-शस्‍त्र मांगूं तो मुझ से युद्ध किया जाए और आवश्यकता पड़े तो मुझे कहीं ले जाकर जान से मार दिया जाये। तीन सज्जनों ने इस प्रकार ष्‌डयन्त्र रचा और मुझसे चालबाजी करनी चाही। दैवात् उनमें से एक सदस्य के मन में कुछ दया आ गई। उसने आकर मुझसे सब भेद कह दिया। मुझे सुनकर बड़ा खेद हुआ कि जिन व्यक्‍तियों को मैं पिता तुल्य मानकर श्रद्धा करता हूँ वे ही मेरे नाश करने के लिए इस प्रकार नीचता का कार्य करने को उद्यत हैं। मैं सम्भल गया। मैं उन लोगों से सतर्क रहने लगा कि पुनः प्रयाग जैसी घटना न घटे। जिन महाशय ने मुझसे भेद कहा था, उनकी उत्कट इच्छा थी कि वह एक रिवाल्वर रखें और इस इच्छा पूर्ति के लिए उन्होंने मेरा विश्‍वासपात्र बनने के कारण मुझसे भेद कहा था। मुझ से एक रिवाल्वर मांगा कि मैं उन्हें कुछ समय के लिए रिवाल्वर दे दूँ। यदि मैं उन्हें रिवाल्वर दे देता तो वह उसे हजम कर जाते ! मैं कर ही क्या सकता था। बाद को बड़ी कठिनता से इन चालबाजियों से अपना पीछा छुड़ाया।

अब सब ओर से चित्त को हटाकर बड़े मनोयोग से नौकरी में समय व्यतीत होने लगा। कुछ रुपया इकट्ठा करने के विचार से, कुछ कमीशन इत्यादि का प्रबन्ध कर लेता था। इस प्रकार पिताजी का थोड़ा सा भार बंटाया। सबसे छोटी बहन का विवाह नहीं हुआ था। पिताजी के सामर्थ्य के बाहर था कि उस बहन का विवाह किसी भले घर में कर सकते। मैंने रुपया जमा करके बहन का विवाह एक अच्छे जमींदार के यहां कर दिया। पिताजी का भार उतर गया। अब केवल माता, पिता, दादी तथा छोटे भाई थे, जिनके भोजन का प्रबन्ध होना अधिक कठिन काम न था। अब माता जी की उत्कट इच्छा हुई कि मैं भी विवाह कर लूँ। कई अच्छे-अच्छे विवाह-सम्बन्ध के सुयोग एकत्रित हुए। किन्तु मैं विचारता था कि जब तक पर्याप्‍त धन पास न हो, विवाह-बन्धन में फंसना ठीक नहीं। मैंने स्वतन्त्र कार्य आरम्भ किया, नौकरी छोड़ दी। एक मित्र ने सहायता दी। मैंने रेशमी कपड़ा बुनने का एक निजी कारखाना खोल दिया। बड़े मनोयोग तथा परिश्रम से कार्य किया। परमात्मा की दया से अच्छी सफलता हुई। एक-डेढ़ साल में ही मेरा कारखाना चमक गया। तीन-चार हजार की पूंजी से कार्य आरम्भ किया था। एक साल बाद सब खर्च निकालकर लगभग दो हजार रुपये का लाभ हुआ। मेरा उत्साह और भी बढ़ा। मैंने एक दो व्यवसाय और भी प्रारम्भ किए। उसी समय मालूम हुआ कि संयुक्त प्रान्त के क्रान्तिकारी दल का पुनर्संगठन हो रहा है। कार्यारम्भ हो गया है। मैंने भी योग देने का वचन दिया, किन्तु उस समय मैं अपने व्यवसाय में बुरी तरह फंसा हुआ था। मैंने छः मास का समय लिया कि छः मास में मैं अपने व्यवसाय को अपने साथी को सौंप दूंगा, और अपने आपको उसमें से निकाल लूंगा, तब स्वतन्त्रतापूर्वक क्रान्तिकारी कार्य में योग दे सकूंगा। छः मास तक मैंने अपने कारखानों का सब काम साफ करके अपने साझी को सब काम समझा दिया, तत्पश्‍चात् अपने वचनानुसार कार्य में योग देने का उद्योग किया।

तीसरा भाग समाप्त