चिठ्ठी / अखिलेश

Gadya Kosh से
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कुटिया पर मुझे साढ़े-साते बजे तक पहुँच जाना था और सात बज गए थे। एक तो मेरी जेब में रिक्शे-भर के लिए मुद्रा नहीं थी, दूसरे आज इस जाड़े की पहली बारिश हुई थी और इस समय रात के सात बजे तेज हवा थी। जाड़े में ठंडी के अनुपात में हमारा शरीर सिकुड़ जाता है और चाल धीमी हो जाती है। तो धीमी गति से कुटिया पर साढ़े-सात बजे कैसे पहुँचा जा सकता था।

मैंने मफलर से कानों के साथ-साथ समूचे सिर को ढक लिया। गर्दन पर लाकर दोनों किनारों को गाँठ लगाई। अब मैं अपनी समझ से सर्दी से महफूज कुटिया तक पहुँच सकता था। मफलर के भीतर से मेरी आँखें और नाक झलक रही होंगी।

कुटिया में आज हम दोस्तों का सामूहिक विदाई समारोह था। कहने को तो, हम बड़े दिन की छुट्टियों में घर आ रहे थे। पर इस बार का जाना साधारण प्रस्थान नहीं था। इस बार हमारे गमन में उत्साह नहीं मजबूरी थी। घरों से मनीआर्डर आने की अवधि बढ़ती जा रही थी और हम किसी भी कंपटीशन में उत्तीर्ण नहीं हो रहे थे। हमने कुछ अखबारों के दफ्तरों और रेडियो स्टेशन में चक्कर मारे। पहली बात तो वहाँ काम का टोटा था। गर काम था, तो क्षणजीवी किस्म का। उसमें भी श्रम ज्यादा और धन कम का सिद्धांत सर्वमान्य था।

सबसे पहले रघुराज ने घोषणा की, "मैं घर चला जाऊँगा। इलाहाबाद में मेरा पेट भी नहीं भर पाता है।"

कृष्णमूर्ति त्रिपाठी ने गंभीरता का नाटक करते हुए कहा, "सब्र करो और ईश्वर पर भरोसा रखो। ऊपरवाला जिसका मुँह चीरता है, उसे रोटी भी देता है।"

हम हँस पड़े। कृष्णमणि की यह पुरानी आदत थी। वह नास्तिक था और ईश्वर की बात करके वह ईश्वर का मजाक उड़ाता था। उसका चेहरा मुलायम था और हाथों पर बड़े-बड़े घने बाल थे।

यह प्रारंभ था। बाद में एक दिन हुआ यह कि फैसला हो गया, हम अपने-अपने घरों को चले जाएँगे।

विनोद ने कहा था, हम इस तरह नहीं जाएँगे। हम एक दिन जाएँगे और जाने के एक दिन पहले मेरे कमरे पर बैठक होगी और उसमे मैं शराब सर्व करूँगा।

विनोद ने अपने कमरे का नाम 'कुटिया' रखा था। मैं विनोद के कमरे पर जा रहा था। कुटिया जा रहा था। जहाँ पर बाकी दोस्त मिलेंगे। वे भी कल मेरी तरह इस शहर को छोड़ देंगे।

आगे की कहानी संक्षिप्त, सुखहीन और मंथर है, इसलिए मैं थोड़ा पहले की कहानी बताना चाहूँगा। उसमें उन्मुक्त विस्तार, प्रसन्नता और गति है। तो आखिर चीजें इतनी उलट-पुलट क्यों हो गईं, यह रहस्य मैं इस उन्मुक्त, प्रसन्नता और गति से भरे हिस्से के बाद, यानी अभी-अभी जहाँ पर कहानी ठहरी थी, उसके बाद के अंश में खोलूँगा...

विनोद से मेरी पहली मुलाकात एक गोष्ठी में हुई थी। उसमें उसने कविताएँ पढ़ीं, जिनकी मैंने जमकर धुनाई की। सचमुच उस गोष्ठी में उसकी कविताएँ रुई थीं और मैं धुनिया। बस उस गोष्ठी के बाद विनोद मेरा दोस्त बन गया। हमारी गाढ़ी छनने लगी। हमारी जो कुछ लोगों की मंडली थी, उसमें सिफारिश करके मैंने उसका दाखिला करा दिया। उधर उसका दाखिला हुआ था और इधर मेरा मकान-मालिक सात महीनों का बकाया किराया माँगने पर हरामीपन की हद तक उतर आया। एक बार मैंने मजाक में मामला रफा-दफा करने की गरज से कहा, "नौ महीने हो जाने दीजिए। सात महीने में जच्चा-बच्चा दोनों को खतरा रहता है।" सुनकर मकान-मालिक ने पिच्च से थूक दिया। पान की पीक ने मेरी वाक्पटुता की रेड़ मार दी थी।

आखिरकार मैंने पाया कि इस मामले में सात महीने का मुफ्त निवास भी उपलब्धि है, मंडली में कमरा तलाश करने की बात चलाई। अगले दिन सभी कमरे की खोज में सक्रिय हो गए। नवागंतुक विनोद भी इस काम में जोत दिया गया था।

कमरे के मामले में मकान-मालिक सिद्धांतवादी होते हैं। उन्होंने कुछ सिद्धांत बना रखे थे, जैसे शादीशुदा लोगों को ही किराएदार बनाएँगे। नौकरीवालों को वरीयता देंगे। नौकरी स्थानांतरणवाली हो। कुछ लोग गोश्त-मछली खाने पर पाबंदी लगाते, तो कुछ रात में देर से आने पर। वगैरह...वगैरह!

मैं इन सभी मानदंडों पर अयोग्य था फिर भी छल-प्रपंच कर कमरा प्राप्त ही कर लेता। दरअसल हम भी कोई ऐरे-गैरे नहीं थे। मेरा और मेरी मंडली का भी एक सिद्धांत था कमरे को लेकर। कमरा उसी मकान में लिया जाएगा जिसमें और जिसके आसपास नैसर्गिक सौंदर्य हो, यानी कि सुंदरियाँ हों। इस बात की जानकारी हेतु हमारे पास उपाय था। हम पान और चाय की दुकानों पर गौर करते, जहाँ मुस्टंडों का जमावड़ा होता, उसके आसपास कमरा पाने के लिए जद्दोजहद करते। कमरा न मिले यह दीगर बात है किंतु हमारे प्रयोग की प्रामाणिकता कभी भी संदेहवती नहीं हो पाई थी। वाकई वहाँ सुंदरियाँ होतीं। चाय-पान की दुकानों के अलावा एक और दिशासूचक था हमारे पास पड़ताल का। हम मकान के छज्जों और छतों पर दृष्टिपात करते। यदि शलवार, कुर्ते, दुपट्टे या अंतरंग वस्त्र लटकते होते, तो हम वहाँ बातचीत करना मुनासिब समझते।

विनोद इस प्रसंग में कुछ ज्यादा ही मुद्दहर निकला। नैसर्गिक सौंदर्य या नैसर्गिक सौंदर्य के वस्त्र देखता, तो पहुँच जाता और पूछता, "मकान खाली है क्या" "नहीं" सुनने के बाद वह प्रश्न करने लगता कि बताया जाए आसपास में कोई मकान खाली है? खैर, काफी छानबीन के बाद एक कमरा मिला। बातचीत के पहले हमने छज्जे पर कुँवारे कपड़े देखे और छत पर तीन नैसर्गिक सौंदर्य।

मकान-मालिक को तुरंत एडवांस दिया और पहली तारीख से रहने की बात पक्की कर ली। जब हम कमरे में आए तो यह जिंदगी का बहुत बड़ा घोटाला साबित हुआ था। मंडली के प्रत्येक सदस्य का चेहरा गमगीन हो गया था। वे तीनों सौंदर्य विभूतियाँ रिश्तेदार थीं जो मंडली से बेवफाई करके घर चली गई थीं। रघुराज ने कहा, "सालियों के शलवार, कुर्ते और दुपट्टे अब कहीं और टँगते होंगे और युवा पीढ़ी को दिशाभ्रमित करते होंगे।" प्रदीप ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा, "सब माया है।" और कमरे में कोरस शुरू हो गया :

माया महा ठगिनी हम जानी। तिरगुन फाँस लिए कर डोलें बोलै मधुरी बानी। केशव के कमला है बैठी शिव के भवन भवानी। पंडा के मूरति होई। बैठी तीरथ में भई पानी... योगी के योगिन है बैठी राजा के घर रानी। काहू के हीरा है बैठी काहू के कौड़ी कानी... भक्त के भक्तिन है बैठी ब्रह्मा के ब्रह्मानी। कहै कबीर सुनो हो संतो वह अब अकथ कहानी... माया महा ठगिनी हम जानी।

मंडली में कई लोग थे, प्रदीप, रघुराज, कृष्णमणि त्रिपाठी, विनोद, दीनानाथ, त्रिलोकी, मदन मिश्रा आदि। हम विश्वविद्यालय के बेहद पढ़े-लिखे लड़कों में थे। हमारी पढ़ाई-लिखाई वह नहीं थी, जो गुरुओं के पाजामे का नाड़ा खोलने से आती है। हम उस तरह के पढ़नेवाले भी नहीं थे, जो प्रकट हो जानेवाले ग्रस्त रोगी की तरह अपने बाड़े में ही दुबके रहते हैं। ऐसों को प्रायः हम डंडा करते थे। राजनीतिक रुझान भी थी हमारी।

हम लोग लड़कियों के दीवाने थे। कोई हमारी आंतरिक बातें सुनता तो हमें लंपट और लुच्चा मान लेता। मगर हम ऐसे गिरे हुए नहीं थे। लड़कियों के प्रति यह आसक्ति वास्तव में जिज्ञासा और खेल थी। सीमा का अतिक्रमण हराम था हमारे लिए। सच कहूँ, हम इतने नैतिक थे कि अवसर को ठुकरा देते थे। वैसे तो हम लोगों की तरफ अनेक लड़कियाँ लपकती थीं। हम अपने-अपने विभाग के हीरो थे। यह भी बता दूँ कि चिकने-चुपड़े गालों, सफाचट मूँछों और दौलत की वजह से हीरो नहीं थे। बल्कि हममें से अधिसंख्य तो दाढ़ी भी रखते थे। जहाँ तक दौलत का प्रश्न है, तो हम लड़कियों से प्रायः चंदा माँगते थे। इस राह पर त्रिलोकी दो डग आगे था। वह व्यक्तिगत कामों के लिए भी लड़कियों से चंदा वसूलता। लेकिन वह उन नेताओं की तरह नहीं था जो सामूहिक कल्याण के लिए चंदा लेकर अपने तेल-फुलेल पर खर्च करते हैं। त्रिलोकी को जब निजी काम के लिए जरूरत होती, तो जरूरत बतलाकर पैसा लेता। वह कहता, "विभा, भोजन के लिए पैसा नहीं है, लाओ निकालो।"

एक बार एक लड़की ने त्रिलोकी से पूछा, "तुम हम लड़कियों से ही क्यों हमेशा चंदा माँगते हो?"

"क्योंकि वे दयालु होती हैं। लड़के घाघ और क्रूर होते हैं।"

त्रिलोकी की इस स्थिति की वजह उसकी एक खराब आदत थी। घर से जब उसका मनीआर्डर आता तो वह सनक जाता। रिक्शा के नीचे उसके पाँव नहीं उतरते थे। दोस्तों के साथ नानवेज खाता और सिनेमा देखता। एक-दो बार जन-कल्याण भी करता। जन-कल्याण मंडली में शराब का कोड था और देशभक्ति प्यार-मुहब्बत का। हाँ तो हफ्ते-भर में त्रिलोकी के पैसे चुक जाते और वह सड़क पर आ जाता।

कमोबेश मंडली के हर सदस्य की स्थिति यही थी। हमारी त्रासदी थी कि हम सुखमय जीवन जीने की कामना रखते थे किंतु हमारे मनीआर्डर वानप्रस्थ पहुँचानेवाले थे। यह दीगर बात है कि सब लोग त्रिलोकी की तरह महीने के पहले हफ्ते में ही कंगाल नहीं होते थे लेकिन महीने के अंत में भोजन को लेकर तीन तिकड़म करना सभी की बाध्यता थी। कृष्णमणि होटल में रजिस्टर देखता। जितने मीटिंग गेस्ट लिखा होता, उससे दो गुना मीटिंग वह अपने एक रिश्तेदार के यहाँ खाकर संतुलन स्थापित करता। मदन मिश्र प्रायः कमरे में खिचड़ी पकाकर मेस में एब्सेंट लगवाता। रघुराज भूखा रहकर भी हँसते रहने की क्षमता अर्जित कर चुका था। प्रदीप जिसमें ऐसी कोई योग्यता नहीं थी, लोगों के यहाँ घूम-घूमकर खाता। पंकज सक्सेना शर्मीला था, सो मंडली ने विनोद को समझा दिया था, वह उसका सत्कार करता। विनोद फले-फूले परिचितों से सम्मानजनक रकम कर्ज लेता था, जिसे कभी नहीं चुकाता था।

छुट्टियों के बाद यूनिवर्सिटी खुली थी, इसलिए लोगों के चेहरों पर एक खास तरह का नयापन और उल्लास था। पर ये चीजें उतनी नहीं थीं, जितनी इस मौके पर होनी चाहिए थीं। क्योंकि कल इस जाड़े की पहली बारिश हुई और आज हवा तेज चल रही थी, इसलिए लोग ठंड से सिकुड़े हुए थे।

मैं कुछ ज्यादा ही पहले अपने हिंदी विभाग आ गया था, इसलिए सामने के लान में खड़ा धूप खा रहा था। मुझे त्रिपाठी का इंतजार था कि वह आए तो चलकर चाय पी जाए। मोहन अग्रवाल साले का पीरियड कौन अटेंड करे।

मैं सदानंदजी के अलावा और किसी का पीरियड अटेंड नहीं करता था क्योंकि बाकी अध्यापक पढ़ाई के नाम पर कथावचन करते थे या खुद सही किताब से नकल करके इमला लिखवाते थे। एम.ए. में नकल का इमला। मैंने इनकी कक्षाओं का बायकाट कर दिया पर मेरे इस कुकर्म पर वे भन्नाने की जगह परम प्रसन्न हो गए। क्योंकि अब वे क्लास में निर्भीक भाव से लघुशंका-दीर्घशंका समाधान कर सकते थे...

मुझे त्रिपाठी पर झुँझलाहट हुई, आ क्यों नहीं रहा है। कहीं डूब गया होगा बतरस में। त्रिलोकी को बोलने का भयानक चस्का था। उसके बारे में प्रसिद्ध था कि त्रिलोकी जब बोलना शुरू करता है तो सामनेवाला केवल कान होता है और वह केवल मुँह।

मेरे विभाग में उसके आने का एक उद्देश्य सुंदरियों को देखना भी होता था। यहाँ एम.ए. के दोनों भागों में लड़कियों की तादाद लड़कों से ज्यादा होती थी, इसलिए यह विभाग अन्य छात्रों का तीर्थ होता था। यहाँ लोग विपरीत सेक्स के चक्कर में इस तरह मँडराते, जेसे अस्पताल और मंदिरों के आसपास मँडराते हैं। वैसे यह विश्वविद्यालय का मीरगंज बोला जाता था। मीरगंज इलाहाबाद का वह स्थल है, जहाँ नैतिकतावादी लोग बहुत सतर्क होकर घुसते और टिकते हैं और बाहर निकलते हैं। तभी सदानंदजी का स्कूटर रुका और वह अपना हैलमेट हाथ में झुलाते हुए आने लगे। हमारी मंडली उनका बेहद सम्मान करती थी लेकिन उनसे हमारे संबंध बेतकल्लुफ थे। एक बार हमने उनसे शराब के लिए रुपये भी लिए थे। वह अपनी मेधा और वामपंथी रुझान के अतिरिक्त एक अन्य प्रकरण की वजह से भी चर्चित थे, उन्होंने प्रेम-विवाह किया था किंतु विभाग की अध्यापिका सुनीता निगम से प्रेम करते थे। दोनों दुस्साहसी थे और भरे विभाग में एक-दूसरे का हाथ पकड़ लेते थे। कई लोगों ने उन्हें सिविल लाइंस के एक अच्छे रेस्तराँ में देखा-सुना था। गुरु के बारे में ज्यादा क्या कहा जाए, समझदार के लिए इशारा काफी है। मतलब यह, कि विवाह न करने के बावजूद दोनों दंपत्ति थे।

सदानंदजी मुझे देखकर मुस्कराए और पास आकर मेरी अभी हाल में छपी एक कविता की तारीफ करने लगे। मैंने सोचा इस तारीफ को कोई सुंदरी सुनती तो आनंद था। तभी एम.ए. प्रीवियस की नई किंतु सुंदर लड़की उपमा श्रीवास्तव दिखी। हम दोनों का हल्का-हल्का चक्कर भी चल रहा था। मैं उसे बुलाकर सदानंदजी से परिचय कराने लगा। परिचय के बाद मैंने कहा, "हाँ तो सर, मेरी उस कविता में कोई कमी हो तो वह भी कहें, तारीफ तो आपने बहुत कर दी।"

वह मुस्कराकर बोले, "नहीं भई, यह तुम्हारी बहुत अच्छी कविता है।"

"सर प्रणाम!"

त्रिलोकी आ गया था। आज हम चार लोग धूप के एक वृत्त में खड़े थे। तभी विभागाध्यक्ष महेश प्रसाद जिन्हें मंडली गोबर-गणेशजी कहती थी, लपड़-झपड़ आते दिखाई पड़े। उन्हें देखकर उपमा थोड़ी दूर खिसककर खड़ी हो गई। कई दूसरे लोगों ने भी अपनी पोजीशन बदल ली। क्योंकि सदानंदजी और गोबरगणेशजी में दाँतकाटी दुश्मनी थी। गोबर-गणेशजी हिंदी विभाग का अध्यक्ष होने के नाते अपने को साहित्यकार लगाते थे पर साहित्य में मान्यता सदानंदजी की थी। इसके अतिरिक्त गणेशजी प्रो. वी.सी. लॉबी में थे जबकि सदानंदजी एंटी वी.सी. लॉबी में थे।

और सबसे खास बात, इस विश्वविद्यालय के अध्यापकों में ब्राह्मण और कायस्थ जाति के लोग शक्तिशाली थे जबकि सदानंदजी सिंह थे। इस मामले में भी गणेशजी का कहना था कि असल में वह सिंह नहीं यादव थे। सदानंद मथुरा के नंद कुलवंशी थे।

गणेशजी निकट आए, तो सदानंदजी ने नहीं लेकिन मैंने और त्रिलोकी ने प्रणाम किया। जवाब में उनका सिर काँपा तक नहीं और आगे बढ़ गए। त्रिलोकी उनके पीछे हो लिया, "सर, हमारा और आपका मुद्दा आज हर हालत में साफ हो जाना चाहिए।"

मैं भी सदानंदजी को छोड़कर लपका। त्रिलोकी गणेशजी के संग उनके कमरे में घुस गया, तो मैं चिक से सटकर खड़ा हो गया।

"कैसा मुद्दा?" गणेशजी हाँफ रहे थे।

"भक्ति आंदोलन के सामाजिक कारण क्या थे?"

"उस दिन बताया था। सुना नहीं क्या?" उन्होंने किसी बच्चे की तरह चिढ़कर कहा।

"उस दिन भक्ति आंदोलन के सामाजिक कारण बतलाने के नाम पर आप सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश करते रहे।"

"मैं तुम्हें क्यों बताऊँ सामाजिक आधार? तुम तो हिंदी के छात्र हो नहीं। आउटसाइडर होकर मेरे विभाग में कैसे घुसे?"

त्रिलोकी कुर्सी खिसकाकर खड़ा हो गया। हाथ के पंजों को मेज पर रखकर थोड़ा-सा झुक गया, "भक्ति आंदोलन पर हिंदीवालों का बैनामा है क्या? रही बात आउटसाइडर की, तो जो साले लुच्चे-बदमाश आपके विभाग में आँख सेंकने आते हैं, उनको कभी आपने मना किया? मना किया? आँय? उनको मना करने में आपकी दुप-दुप होती है। मीना बाजार बना रखा है हिंदी डिपार्टमेंट को। महानगरों की सिटी बसें बना रखा है।"

"मैं कहता हूँ, निकल जाओ यहाँ से।"

"तो आप मुझे बाहर निकाल रहे हैं। मैं हिंदी का विद्यार्थी न होते हुए भी आपको चैलेंज करता हूँ कि हिंदी साहित्य ही नहीं, संसार के साहित्य के किसी मसले पर बहस कर लें। बहस में अगर जीत जाएँ तो मैं पेशाब से अपनी मूँछें मुड़ा दूँगा।"

"मैं कहता हूँ, निकल जाओ... निकल जाओ..."

"मुझसे निकलने को कह रहे हैं। दुरदुरा रहे हैं जबकि मैं साहित्य का योग्य अध्येता हूँ और गुंडों को आप शेल्टर देते हैं। मैं जा रहा हूँ लेकिन जाते-जाते एक बात कह देना चाहता हूँ कि क्या कारण है, जब से आप हेड हुए, यहाँ केवल लड़कियों ने टाप किया?"

वह तमतमाया हुआ बाहर आ गया। मैंने खुश होकर उसकी पीठ पर हाथ रखा, "वाह गुरू! मजा आ गया। चलो, लल्ला की दुकान पर तुमहें चाय पिलाता हूँ।"

"अबे पहले एक ठो सिगरेट तो पिला।"

"हाँ...हाँ... गुरु... लो...।"

हम दोनों सिगरेट पी रहे थे। पढ़ने में रुचि रखनेवाले लड़के-लड़कियाँ हमें मुग्ध भाव से देख रहे थे। लेकिन पास नहीं आ सकते थे। क्योंकि उन नन्हे-मुन्ने प्यारे बच्चों को अच्छे नंबर लाने थे, जो वे समझते थे कि गणेशजी की लेंड़ी तर किए बिना नहीं मिल सकते थे।

उपमा श्रीवास्तव भी एक कोने में खड़ी होकर हमें देख रही थी। त्रिलोकी मुस्कराया, "कहो कब तक भाभीजी को देवर दिखलाते रहोगे। वैसे उनके बगलवाली मेरी श्रीमती हो सकती हैं।"

"श्री शादीशुदा! सपने देखना छोड़ दो।" मैंने कहा।

"लेनिन के अनुसार सपने हर इनसान को देखने चाहिए।"

"वह तो दिनवाला सपना है, तुम तो रातवाले सपने देख रहे हो।"

"तुम कुँवारे साले स्वप्न-दोष से आगे जा ही नहीं पाते..."

"हा...हा...हा..." मैंने ठहाका लगाया और कहा, "इस बात का फैसला लल्ला की दुकान पर होगा।"

लल्ला की दुकान पर लड़कों का खूब जमावड़ा होता था जिसकी खास वजहें थीं। दुकान यूनिवर्सिटी और कई हॉस्टलों के निकट थी। फिर सामने वीमेन्स हॉस्टल था। इसके अलावा लल्ला ने एक हिस्से में जनरल स्टोर्स की भी दुकान खोल ली थी। वीमेन्स हॉस्टल के आसपास में इकलौती अच्छी दुकान थी, सो हमेशा दो-चार लड़कियाँ खरीदफरोख्त करती मिलतीं।

मैं और त्रिलोकी दुकान पर पहुँचे, वहाँ इलेक्शन की चर्चा थी। हमने चर्चा में शरीक होने के पहले जनरल स्टोर्स की तरफ देखा, कुछ लड़कियाँ और कुछ सामान्य जन सामान खरीद रहे थे। त्रिलोकी ने मुझे कोंचा, "वो पीली साड़ीवाली को देखो।"

मैंने देखा, गोरा रंग और बड़ी-बड़ी आँखोंवाली थी वह। पीली साड़ी ने उसके गोरेपन को चंदन का रंग बना दिया था। शैंपू किए चमकते हुए बाल घुँघराले और कटे हुए थे।

मैंने उसे पहले भी कई बार देखा था। वह भेष बदला करती थी। कभी शलवार-कुर्ते में होती तो कभी पैंट-शर्ट में तो कभी स्कर्ट में। उसके कपड़े कभी ढीले होते तो कभी चुस्त। आज पीली साड़ी पहने थी और अलौकिक बाला लग रही थी।

"देख लिया।" मैंने बताया।

"क्या प्रतिक्रिया है?"

"भारत की मोनालिसा।"

"सी...ई...ई..., यह पंकज सक्सेना की है। दोनों एक दिन शादी करेंगे और हमें भविष्य भर दावतें देंगे। पंकज की योजना है, नौकरी लगते ही शादी कर लेगा।"

"ईश्वर इसे अखंड सौभाग्यवती बनाए।" मैंने कहा।

हम दोनों आकर दुकान के स्टूल पर बैठ गए। छात्र संघ के चुनाव परिणाम पर चर्चा चल रही थी। इस बार हमारी मंडली जिस संगठन से जुड़ी थी, उसने भी अध्यक्ष पद के लिए प्रत्याशी खड़ा किया था जिसने अच्छी तरह शिकस्त खाई थी। दरअसल आजादी के बाद इस विश्वविद्यालय के छात्र-संघ का इतिहास रहा है कि अध्यक्ष की कुर्सी पर किसी ठाकुर या ब्राह्मण ने ही पादा है और प्रकाशन मंत्री की कुर्सी कोई हिजड़ा-भड़वा टाइप का ही आदमी गंधवाता रहा है। अध्यक्ष विगत अनेक वर्षों से भारतीय राजनीति के एक धुर कूटनीतिक बहुखंडीजी की उँगलियों और आँखों की संगीत, चित्रकला और भाषा को तत्क्षण समझ लेनेवाला होता रहा है। इसके मूल में छिपा रहस्य यह है कि बहुखंडीजी पहले इस बात का जायजा लेते हैं कि कौन दो सबसे वरिष्ठ प्रतिद्वंद्वी हैं। फिर उनका कुबेर दोनों को समृद्ध करता है। इसके बावजूद इस बार हमारा संगठन बहुखंडीजी की मंशा का खंड-खंड करता। बहुखंडीजी ही क्यों, शराब के बड़े ठेकेदार सीताराम बरनवाल, उद्योगपति हाफिज, सभी के फन को कुचलता हमारा संगठन। सभी की लपलपाती जीभ को सिद्धांतों के धागे से नापता हमारा संगठन। लेकिन चुनाव की पिछली रात जनेऊ घूम गया। बहुखंडीजी का प्रत्याशी इस बार ब्राह्मण था। मशाल जुलूस निकालने के बाद वह सभी छात्रावासों में गया और अपनी जाति के लोगों की मीटिंग कर पानी भरने की रस्सी जितनी मोटी जनेऊ निकालकर गिड़गिड़ाया, "जनेऊ की लाज रखो।" और हम हार गए।

हम छात्रसंघ के चुनाव की चर्चा में डूब-उतरा ही रहे थे कि रघुराज हाँफता हुआ आया और मुझसे तथा त्रिलोकी से एक साथ बोला, "छह समोसे खिलाओ।"

हम समझ गए, आज खाना नहीं खाया है उसने। इस समय वह थोड़ा बुझा हुआ भी था कि त्रिलोकी ने उससे पूछा, "कहाँ से आ रहे हो महाराज?"

"यार, दो लड़कियों से आरूढ़ रिक्शे के पीछे साइकिल लगाई। रिक्शा सिनेमा हाल के पास रुका। मैं भी देखने लगा फिल्म।"

हम समझ गए, अब रघुराज शुरू हो गया है। मैंने पूछा, "कैसी थी फिल्म?"

"ठीक ही थी, बस अश्लीलता का अभाव था।" रघुराज की विशेषता थी कि मूड की स्थिति में संसार के सभी क्रिया-व्यापार के मूल्यांकन के लिए उसके पास इकलौता बँटखरा सेक्स था।

"और लड़कियाँ कैसी थीं?" त्रिलोकी का प्रश्न था।

"क्षमा करना यार, मैं बताना भूल गया। उसमें एक लड़की थी, दूसरी नव-विवाहिता थी, भाभीजी!"

"पर तुम किसके लिए प्रयासरत थे?"

"दोनों के लिए। बेशक दोनों के लिए, लेकिन ज्यादा भाभीजी के लिए।"

"लेकिन रघुराज, मैंने प्रायः देखा है कि तुमहें शादीशुदा औरतें ज्यादा अच्छी लगती हैं। इसकी वजह क्या है?"

"इसकी वजह करते समय पर वे चीं...चीं... नहीं करतीं..."

"वाह रघुराज, तुम्हारी पकड़ बहुत अच्छी है। तुमको लेखक होना चाहिए। उपन्यास पर काम करो रघुराज।"

"कर रहा हूँ। एक उपन्यास पर काम कर रहा हूँ - अतृप्त काम वासना का जिंदा दस्तावेज। और एक कहानी पूरी की है - इलाहाबाद के तीन लड़कों को देखकर दिल्ली की लड़कियाँ विद्रोह कर नंगी घर से बाहर।" उसने जोर का ठहाका लगाया, "साले लेखकों की दुम। आज तक मैंने कुछ लिखा है? जो अब लिखूँगा। फिर आज तक बाँझ औरत के कभी संतान हुई है? हा...हा...हा..."

रघुराज अब अपनी रौ में था। हमने वहाँ से उठ लेना ही बेहतर समझा, क्योंकि वहाँ मंडली से बाहर के कई लड़के थे जिनकी निगाह में हम ब्रह्मचारी किस्म के सरल सीधे माने जाते थे।

हम उठने लगे तो दूसरे लोगों ने हमें रोका लेकिन हम रुके नहीं। थोड़ी ही दूर बढ़े होंगे कि रघुराज ने अपना काम शुरू कर दिया। आने-जानेवाली प्रत्येक लड़की को वह टकटकी बाँधकर देखता। हमने टोका तो कहने लगा, "कहाँ कायदे से देख पाता हूँ। ईश्वर ने एक आँख पीछे भी दी होती, तो कितना आनंद होता।"

मैंने सलाह दी, "तुम इसके लिए तपस्या शुरू कर दो।"

"ठीक है।" वह ठिठक गया, "मैं यहीं धूनी रमाऊँगा।" ठीक सामने वीमेन्स हॉस्टल था। मुझे इसकी यह आदत बिलकुल अच्छी नहीं लगी, "देखो तुम वीमेन्स हॉस्टल के बारे में कुछ मत कहना।"

"क्यों?"

"क्योंकि जब सूरज डूब जाता है तो अँधेरे में लड़कियों का यह हॉस्टल मुझे एक अद्भुत रहस्य लोक-सा लगता है... मेरे भीतर इसके लिए एक पवित्र भाव है।"

"देखो बालक! वैसे मैं तुम्हारे तथाकथित पवित्र बोध को अपवित्र नहीं करना चाहता।" रघुराज गंभीर हो गया, "लेकिन अज्ञान की वजह से जन्मी पवित्रता कोई वजन नहीं रखती इसलिए तुम चाहो, तो मैं तुम्हारी जिज्ञासा को शांत कर सकता हूँ। चाहते हो?"

त्रिलोकी बोल पड़ा "हाँ...हाँ... महाराज बताओ..."

"तो सुनो।" वह रुक गया। हम लोगों को पल-भर देखा। फिर धीरे-धीरे चलते हुए कहने लगा, "मैं कुछ बताने से पहले एक सवाल करना चाहता हूँ। बताओ, इस हॉस्टल में पी.एस.एफ. से जुड़ी लड़कियाँ अधिक क्यों है? हमारे संगठन की तरफ वे ज्यादा आकर्षित क्यों नहीं होतीं?"

"तुम ही बताओ महाराज! सब तुम ही बताओ?" त्रिलोकी ने व्यग्र होकर कहा।

"ठीक है, मैं ही बताता हूँ। इसलिए कि पी.एस.एफ. भद्र लोगों के वर्चस्व वाली संस्था है। उसमें लड़कियाँ इसलिए जाती हैं कि उससे जुड़कर उनमें अपने को विशिष्ट समझने का एहसास होता है। देखो, आजकल संपन्न घरों के सदस्यों में सामाजिक कार्य करने का चस्का जोर पकड़ता जा रहा है लेकिन उनके ये कार्य मूलतः जनता के संघर्ष की धार को कुंद करने के लिए होते हैं, यही बिंदु पी.एस.एफ. और इन सुविधाभोगी लड़कियों के बीच सेतु का काम करता है।"

"रघुराज, हमने तुमसे पी.एस.एफ. और लड़कियों के संबंध पर प्रकाश डालने के लिए तो प्रार्थना की नहीं थी।" मैंने अधीर होकर कहा।

त्रिलोकी ने भी मेरी बात पर हामी भरी।

रघुराज भड़क गया, "तुम लोग तभी तो अच्छे लेखक नहीं बन सके।" वह जोर-जोर से बोलने लगा, "केंद्रीय तत्व को समझे बिना यथार्थ को फैलाने की कोशिश करते हो। यही हड़बड़ी वाली आदत अगर संभोग के समय रही, तो शीघ्रपतन के रोगी कहलाओगे और तुम्हारी बीवियाँ बदचलन हो जाएँगी..."

हमने हाथ जोड़ लिया, "अच्छा भइया, सुनाओ! सुनाओ!"

"चलो क्षमा कर देता हूँ। हाँ तो मेरी उपरोक्त बात से तत्व निकला कि वीमेन्स हॉस्टल की अधिसंख्य लड़कियाँ आर्थिक दृष्टि से दुरुस्त परिवारों से जुड़ी हैं। लेकिन इससे क्या होता है। यहाँ भी कई तरह की भिन्नताएँ कई तरह की कलहों को जन्म देती हैं। अब बहुत संभव है, थानेदार की बिटिया का मनीआर्डर और जूनियर इंजीनियर की बिटिया का मनीआर्डर क्रमशः डिप्टी, एस.पी. और असिस्टेंट इंजीनियर की बिटिया के मनीआर्डर से ज्यादा रुपयों का होता हो। ऐसी स्थिति में पहली दोनों को घमंड अपने बाप के पैसों का होगा दूसरी दोनों को अपने-अपने बाप के पद का। दूसरी तरफ हीनता भी अपने बाप के कारण होगी कि एक का बाप पैसा रखते हुए भी मातहत है, दूसरे का बाप अफसर होते हुए भी मातहत से कम समृद्ध। लड़कियों के बीच कलह का एक प्रमुख कारण यह है। तुम लोग जानते ही हो, इन लड़कियों में होड़ की भावना बड़ी प्रबल होती है। वे पैटी से लेकर प्रेम तक में अपनी चीज को श्रेष्ठ देखना चाहती हैं। कम-से-कम दूसरे से उन्नीस तो नहीं ही देखना चाहतीं। अब जिनकी माली हैसियत अपेक्षाकृत पिछड़ी होती है, वे गड़बड़-सड़बड़ हो जाती हैं। ऐसे में पहला दम किसी मालदार प्रेमी को पटा लेने का होता है। इसके बावजूद कमी पड़ी तो पतन शुरू हो जाता है..." इतना कहकर रघुराज चुप हो गया। हम भी चुप हो गए।

कुछ देर बाद मैंने कहा, "और कुछ ज्ञान दोगे?"

"समय क्या है?"

"तीन चालीस।"

"तो त्रिलोकी तुम भी सुनो, हमें चलना भी है। चार तीस पर जाकर सांस्कृतिक हस्तमैथुन का विरोध करना है।"

"पर तुमने सांस्कृतिक हस्तमैथुन नाम क्यों दिया?"

"क्योंकि किसी भी स्वस्थ कला के निर्माण के लिए इसकी समाज से प्रतिक्रिया अनिवार्य होती है पर जिनको तुम लोग आज डंडा करोगे, वे स्वयं रचते, स्वयं आनंदित होते हैं।"

हम अल्फ्रेड पार्क यहाँ से आधा घंटा में आसानी से पहुँच सकते थे। यानी कि हमारे पास बीस मिनट का वक्त था पर हमने तय किया कि वहीं चलते हैं। वहाँ हम धूप का एक टुकड़ा खोजेंगे और बीस मिनट लेटे रहेंगे।

शहीद पार्क से इकट्ठा होकर हमें कला भवन के लिए कूच करना था। बाकी लोग वहीं मिलनेवाले थे।

मंडली के नेतृत्व में तमाम युवा कलाकार छात्र भवन में हो रहे नाट्य समारोह का विरोध करनेवाले थे। क्योंकि कलाभवन एक सरकारी संस्था थी और इसके कार्यक्रम जनता और उसके अपने कलाकारों से मुँह मोड़े रखते थे। इसमें दर्शक श्रोता अफसर वगैरह होते और कलाकार विदेशी मेकअप में ऐंठे रहनेवाले। यहाँ शराब की झमाझम बारिश और रासलीला के प्रयत्न की सुरसुरी समय-असमय हर समय देखी जा सकती थी।

विनोद ने कहीं से कार्यक्रम का पास उपलब्ध कर लिया था। योजना यह थी कि वह हमारे विरोध के पर्चों का बंडल झोले में छुपाकर भीतर हो जाएगा। और भीतर जितना बाँट सकेगा, बाँटेगा, बाकी लोग बाहर नारेबाजी करेंगे। कलाभवन की कमर तोड़ने की अब हम ठान चुके थे...

तो मंडली के लोगों का एक रूप था बौद्धिक, मस्त और निर्भय।

जिंदादिली की रोशनाई में डूबी कलमें थे हम।

पर हम और भी कुछ थे। कहीं कुछ बुरा देखें, बुरा सुनें-हम क्रोध से काँपने लगते। इतने अजीब थे हम कि यदि खुद ही गलत कह या कर जाते तो खुद पर ही खफा होने लगते।

हम पोस्टर चिपकाते। नारे लगाते। हम जुलूसों में होते, सभाओं में होते, हड़तालों में होते। हम पुलिस और गुप्तचरी के रजिस्टर में दर्ज थे। सचमुच हम पढ़ाकू और लड़ाकू थे।

हम गर्म तंदूर पर पक रही रोटियाँ थे।

लेकिन हम ऊपर उड़ते गैस-भरे रंग-बिरंगे गुब्बारों की तरह थे। हम उड़ रहे थे... हम उड़ रहे थे... उड़ते-उड़ते हम ऐसे वायुमंडल में पहुँचे जहाँ हम फूट गए। अब हम नीचे की ओर गिर रहे थे। अपना संतुलन खोए हम नीचे की ओर गिर रहे थे। हमारा क्या होगा, हमें पता नहीं था...।

हमें नौकरी मिल नहीं रही थी जबकि वह हमारे लिए साँस थी इस वक्त।

उपमा मुझसे उखड़ी-उखड़ी रहने लगी। जब भी मिलती मशविरा देती कि मुझे कंपटीशन की पढ़ाई और मेहनत से करनी चाहिए। इस पर मैं क्रुद्ध हो जाता। धीरे-धीरे हमारे संबंधों के पाँव उखड़ने लगे...।

सदानंदजी भी मंडली से दोस्ताना अंदाज में नहीं मिलते। वह मंडली पर दया करने लगे थे।

अब हम भोजन के लिए लाल-तिकड़म नहीं करते थे। न होने पर भूखे रह जाते।

उधार लेने का मनोबल भी खो चुके थे हम।

कोई हमसे पूछता, क्या कर रहे हो? तो प्रत्युत्तर में हम काँपने लगते। किसी से मिलने के पहले ही हमारे दिल की धड़कन तेज हो जाती, कहीं पूछ न लिया जाए, क्या कर रहा हूँ मैं?

आपस में भी मिलना कम होने लगा। हम परस्पर कतराने लगे। हमारे बीच मुहब्बत बदस्तूर थी पर बातचीत में हम थोड़ा कटखने को गए थे। एक बार हम लोग छुट्टियों में अपने-अपने घर गए। लौटने पर हम सभी थके और हारे हुए लग रहे थे। हमने अपने माता-पिता-परिचितों को निराश किया था जिससे वे चिढ़ गए थे। उन्होंने हमें हिकारत से देखा था और हम हार गए थे। थक गए थे।

फिर भी हमने तय किया था कि हम घर चले जाएँगे। हम 'कुटिया' पर इकट्ठा होनेवाले थे - अपने-अपने घरों को प्रस्थान करने के लिए।

हम खुशी या फायदे के लिए नहीं बापस हो रहे थे। हम मजबूर थे। क्योंकि यहाँ तो जीना मुहाल हो गया था। गुजारा मुश्किल था।

बाद की कहानी यह कि हम कुटिया पर इकट्ठा हो गए थे। विनोद का यह कमरा आधुनिक शैली का था पर उसकी जीवन-पद्धति ने इस आधुनिकता का कबाड़ा कर दिया था। किताबें और कपड़े हर जगह फैले हुए थे। उसने हर जगह रंगीन तसवीरें चिपका रखी थीं। चेगवारा की बगल में एक सुंदरी कूल्हे मटका रही थी...

सबसे पहले त्रिलोकी बहका। वह हाथों में शराब का गिलास लेकर खड़ा हो गया और बोला, "भाइयो और बहनो!"

"नेताजी, यहाँ कोई लौंडिया नहीं है।" प्रदीप चिल्लाया। वह भी हल्के, बहुत हल्के सुरूर में आ गया था।

"बड़े अफसोस की बात है।" त्रिलोकी दुखी होकर बोला, "यह भारतवर्ष के लिए बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि हम जैसे महान युवकों के पास न प्रेमिकाएँ हैं और न नौकरियाँ। हम किसके सहारे जिएँ?"

"मैं जानता हूँ...। जानता हूँ...। लो मैं बैठ जाता हूँ...पब्लिक साली अब समझदार हो गई है...सवाल-जवाब करने लगी है..."

'सवाल-जवाब ही तो नहीं कर रही है जनता, वर्ना हमारी यह दशा नहीं होती... नहीं होती...।' दीनानाथ ने धीमे से अपने से ही कहा।

त्रिलोकी को छोड़कर बाकी मंडली अभी नशे में नहीं थी। नशे की पूर्वावस्था सुरूर में थी।

"आखिर हम यहाँ क्यों इकट्ठा हुए हैं?" मदन मिश्र दार्शनिक अंदाज से बोला।

मैंने कहा, "यहाँ हम विदाई-समारोह के उपलक्ष्य में एकत्र हुए हैं।"

"नहीं।" प्रदीप ने बताया, "यह बैठक हमारे सुख की शोकसभा है। हमारे पास जो भी सुख था, इस बैठक के पहले खतम हो गया। कल से हम दुखी दुनिया के दुखी नागरिक होंगे।"

"हम नागरिक नहीं हैं। दुखी दुनिया के नागरिक मजदूर और किसान होते हैं, जिनके श्रम का शोषण होता है। हमारे पास तो सामाजिक श्रम करने का भी अधिकार नहीं है।" त्रिलोकी तैश में आ गया था, "जिसके पास कोई काम नहीं होता, वह आदमी नहीं होता। हम आदमी नहीं हैं, ...इस व्यवस्था ने हमें आदमी नहीं रहने दिया... हमसे हमारा होना छीन लिया गया...।" त्रिलोकी सुबकने लगा। वह सिर झुकाए सुबक रहा था।

जैसे काठ मार गया हो, हम सब स्तब्ध हो गए। इस बात को कृष्णमणि ने सबसे पहले भाँपा। वह आहिस्ते से त्रिलोकी के पास गया और उसके लटके हुए मुँह से एक सिगरेट लटका दी, "नेताजी, ईश्वर एक दिन तुम्हारी सुनेगा जरूर। तुम इसी तरह भाषण करो लेकिन भाषण के बाद असल में सुबकना छोड़ दो तो एक दिन सच्ची-मुच्ची में नेता हो जाओगे और मौज करोगे।"

"हम एक दिन मर जाएँगे। और कोई जानेगा भी नहीं।"

विनोद मेजबानी भूला नहीं, "आप लोगों में जिसके गिलास खाली न हों, कृपया उन्हें जल्द खाली कर लें। यह साकी जाम का दूसरा पैग ढालने के लिए उतावला है।"

"काश, आज हम किसी रूपसी के हाथ पीते तो रात कितनी हसीन होती।" रघुराज था।

"मार साले को।" हमने चौंककर देखा, प्रदीप था। उसे भी चढ़ गई थी। उसने फिर कहा, "मार साले को" और चुप हो गया।

मैंने पूछा, "किसे मार रहे हो।"

"अपने दोस्तों के लिए नहीं कह रहा हूँ। बस। मार साले को।"

हम दूसरा पैग पीने लगे। रात और ठंड दोनों बढ़ गई थी। दीनानाथ ने उठकर खिड़कियाँ बंद कर दीं। हमने सिगरेट सुलगा लीं। उनका धुआँ कमरे में घुमड़ने लगा। मदन ने घूँट लेकर सिगरेट पी और कहा, "रोज मेरी मृत्यु होती है। रोज कई-कई बार मेरी मृत्यु होती है। कोई मुझसे पूछता है, तुम क्या करते हो?' और मैं मर जाता हूँ।"

"मार साले को।" प्रदीप धुत्त होने के करीब पहुँच गया था। वह किसे मारना चाहता था?

"तुम लोग समझते होगे, मैं नशे में हूँ लेकिन मैं होशोहवास में कह रहा हूँ। बेरोजगारी के कारण मैं कई-कई बार रोया हूँ। पिछली बार का रक्षाबंधन था। बहन को देने के लिए मेरे पास कुछ नहीं था। भाई उसके लिए कपड़े ले आए थे। मेरे पास कुछ नहीं था। बहन ने मेरे सिरहाने की किताब में चुपके से सौ का नोट रख दिया। उसे पाकेट में रख खूब रोया। मैंने उसे कुछ नहीं दिया। वह नोट अब भी मेरी डायरी में रखा है। मैं उसे देखता हूँ और उदास हो जाता हूँ।" कृष्णमणि अपने चेहरे पर हाथ फेरने लगा।

"माँ-बाप दो आँखें नहीं करते-यह झूठ है।" विनोद ने एक साँस में कह डाला, "मेरे माँ-बाप मेरे कमासुत भाई की चापलूसी तक करते हैं पर मुझे देखकर जल-भुन जाते हैं।"

"और मैं। मेरा पिता से कोई संवाद नहीं। एक दिन उन्होंने गुस्से में चीखकर कहा, 'लोग पूछते हैं कि तुम्हारा बेटा क्या करता है? मैं क्या बताऊँ उन्हें? बोल। जवाब दो। बोल।' बस, इसी दिन से हम एक-दूसरे से नहीं बोले।"

दीनानाथ आँखें स्थिर कर कुछ सोचने लगा। कहीं खो गया था वह।

"लो मैं भी बता देता हूँ।" रघुराज ने अपना सिर उठाया, उसकी आँखें सुर्ख लाल थीं "मैं अपना रहस्य खोलता हूँ। अब हम जा रहे हैं, तो क्या छिपाना। मैं लड़कियों के पीछे कभी नहीं भागा। मैं एक कपड़े की और एक दवा की दुकान पर पार्ट टाइम काम करता रहा। मालिक मुझे ढाई सौ रुपये का चाकर समझते रहे। मैं...मैं...।" वह चुप हो गया, उसकी आवाज फँसने लगी थी।

मंडली अवाक् थी रघुराज की बात से। रघुराज ने अपना चेहरा फिर घुटनों में छिपा लिया।

हम सभी ने अपनी रामकहानी कही। हमने तीसरा पैग लिया। हमने चौथा पैग पिया। पाँचवाँ पिया...। हम लुढ़कने लगे।

विनोद ने कहा, "हम खाना कैसे खाएँगे?"

"भविष्य में हमें भूखे रहना है, हम आज भी भूखे रहेंगे।" मदन डाँवाडोल होते हुए उठ खड़ा हुआ। हम सभी खड़े हो गए।

हम कुटिया के बाहर खड़े थे, अलग-अलग दिशाओं की तरफ जाने के लिए। रात गाढ़ी थी और हवा सरसरा रही थी। हमारे मुँह बंद और चेहरे भिंचे हुए थे।

"अच्छा दोस्तो!" रघुराज ने गला साफ करते हुए दुबारा कहा, "अच्छा दोस्तो! अब विदा होते हैं...।"

एक क्षण सन्नाटा रहा फिर अचानक हम सब लोग जोर से रो पड़े। हम सारे दोस्त फूट-फूटकर रो रहे थे...

उस दिन अलग होने के पहले हमने तय किया 'हममें से यदि कोई कभी सुखी हुआ तो सारे दोस्तों को खत लिखेगा।'

लंबा समय बीत गया इंतजार करते, किसी दोस्त की चिट्ठी नहीं आई। मैंने भी दोस्तों को कोई चिट्ठी नहीं लिखी है।