चिड़िया की उड़ान / महेश दर्पण

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कहानी : चिड़िया की उड़ान


- महेश दर्पण


रिनी जब नियत समय पर ऑफ़िस न पहुंची तो पांच मिनट बाद से ही जी हुजूरियों ने मैडम तक किसी न किसी बहाने यह ख़बर पहुंचाने में कोई कसर न छोड़ी. मटकू अपने अंदाज़ में मैडम के पास जा पहुंचा था, मैडम, आज बाज़ार लेट हो जाएगा.


क्यों?

सेम प्रॉब्लम...अभी तक पहुंची नहीं.

जैसे ही आए, मुझे बताओ...इस लड़की को आज ठीक करना ही पड़ेगा. और देखो, आज बाज़ार तुम कर दो...पेपर का काम नहीं रुकना चाहिए.

जीनियस कनखियों से खीझते हुए लौटते मटकू को देख तो रहा ही था. उसने जैसे खुद से कहा, 'और करो चमचागीरी!


मटकू अपनी सीट पर आकर बड़बड़ा रहा था, उंहऽऽ पेपर का काम रुकना नहीं चाहिए...

रश आवर निकल जाने के बाद चीफ कमरे में मैडम से बतिया रहे थे, इस लड़की को समझा दीजिएगा, ऑफ़िस का डिसिप्लिन तोड़ना मुझे पसंद नहीं. आज कोई फ़ोन किया इसने?

जी नहीं.

मोबाइल पर फ़ोन लगाइए ज़रा, देखिए तो आज न आने का कौन-सा बहाना मारती है.

चीफ़ के कमरे से बाहर आते ही जीनियस ने चुटकी ली, सर, रात को पार्टी में ज्यादा हो गई होगी न!


मैडम ने जीनियस की तरफ नज़रें घुमाईं और मुस्करा दीं. अचानक जाने उन्हें क्या सूझी, जैसे जीनियस की फब्ती का जवाब देना हो, ए, तुम ये तीन पीस आधे घंटे में बनाकर मुझे दो. बाद में अपना रेल का रैकेट करते रहना.

टीम अपने में डूबी, कहीं गहरे में, काम की लय पकड़ चुकी थी. झुके हुए सर और की-बोर्ड पर जंप करती उंगलियां बता रही थीं कि जल्द से जल्द बहुत कुछ कर डालना चाहते हैं समय संदेश के ये कारिंदे. ठीक इसी वक्त रिनी से काफ़ी पहले, उसके आने की ख़बर आ पहुंची थी.

न्यूज़ डेस्क के पास खड़े दिल्ली एनसाइक्लोपीडिया ने शरारती आंखें नचाते हुए कहा, लो भई, हो ही गई.


क्या हो गई सर...? जवाब में समवेत स्वर.

सगाई. मिठाई का डिब्बा लेकर आ रही है.

हूंऽऽऽ मैडम ने सिर कुर्सी की पीठ से शीर्ष पर टिका दिया.


बहुत ख़ूब...हमें तो पहले ही से पता था मैडम. जीनियस ख़ामोश कैसे रह सकता था.. ख़ामोश ज्वालामुखी ने एक जोरदार सांस ली और क़रीब-क़रीब सांप की तरह फुंफकार-सी लगाते हुए दोनों हाथ इस तरह ऊपर उठा लिए जैसे कहना चाहते हों, ये तो होना ही था..मटकू खुश था, मैडम, मिठाई खाओ खुशी मनाओ. अब सब ठीक हो जाएगा. डिप्टी साहब, जो हमेशा की तरह अपनी रौ में डूबे, मेज़ पर फैलाए दो-तीन सौ विजिटिंग कार्ड्स में से तुरंत काम में आ सकने वाला कोई ख़ास खोज रहे थे, जैसे सोते-सोते चौंक पड़े हों, क्या हुआ भई, कुछ हमें भी तो बताओ!


बस, यही वह क्षण था जब रिनी हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए सामने आ खड़ी हुई.. उसने एहतियात से डिब्बा अपनी मेज़ पर रखा और फिर पूरे कमरे को ग़ौर से अपनी तरफ़ देखते हुए एक नज़र में देख लिया. वह जैसे पूरे शरीर से प्रफुल्लित थी. उसने अपनी दोनों हथेलियों के गद्दे आंखों पर रख लिए थे और खुद को इस बात के लिए तैयार कर रही थी कि खुशखबरी प्रसारित किस तरह से करे!

कमरा शायद उससे भी कहीं ज्यादा बेताब था. मटकू ने शुरुआत की, रिनी, मिठाई हमारे लिए है न!'


हां सर! भर्राए हुए स्वर में उसके मुंह से निकला.

मैडम कुछ न करते हुए भी बहुत कुछ करने के अभिनय में लगी चौकन्ने कानों से यह संवाद सुनने के बाद खुद को तैयार कर ही रही थीं कि डिप्टी साहब नाकों मुस्कराते हुए बोले, तो रिनी, आख़िर हो ही गया काम है!

हां सर! रिनी ने सिर झुकाते हुए ख़ास अंदाज़ में कहा.

ख़ामोश ज्वालामुखी ने मौन तोड़ा, अरे भई बांटो भी अब, ये लाई काय के लिए हो?

चीफ़ अभी सीट पर नहीं है सर.


जीनियस सिर झुकाए जैसे अपने की-बोर्ड को संबोधित कर रहा था, 'हां भाई, टेक्नीकल प्वाइंट है. चीफ़ का अप्सेंस में मिठाई कैसे बंटेगा.

दरवाज़े पर खड़ा दिल्ली एनसाइक्लोपीडिया अपने साथ क्राइम की अंगुली पकड़े चीफ़ की खोज में निकल गया, रिनी, हम आते हैं अभी चीफ़ को लेकर...ये लोग चाहे जो कहते रहें, तुम न जुबान खोलना और न डिब्बा, ओ के?

रिनी ने पूरा सिर हिलाकर कहा, यस सर!


कमरा मैडम और रिनी के जुड़े सिरों के बीच से आती फुसफुसाहटों को सुनने की कोशिश कर ही रहा था कि चीफ़ सामने आ खड़े हुए, क्या रिनी, दफ्तर के काम की तरह तुमने लड़का खोजने में भी इतना टाइम लगा दिया? लाओ, निकालो, कहां है मिठाई?

नहीं सर, वो बात नईं है. रिनी खुला डिब्बा लिए चीफ़ के सामने खड़ी थी.

फिर क्या बात है?

सर, पहले आप मिठाई खाइए!


हूंऽऽ अब बोलो! चीफ ने बरफी का पीस उठाते हुए पूछा.

सर, मुझे ए चैनल में जॉब मिल गया!'

लेटर दे दिया?

यस सर... रिनी की खुशी में सातों आसमान शामिल थे.


लैटर तो ले लिया, अब ज़रा खुद भी लिटरेट हो जाओ! मीडिया के लिहाज से अभी तुम्हें बहुत कुछ सीखना बाक़ी है. प्राण खींच के रख देंगे 'ए चैनल' वाले. और ये मत समझना कि... चीफ जाने क्या कुछ कहे जा रहे थे और पूरे कमरे की दिलचस्पी उसे सुनने से भी कहीं ज्यादा इस बात में थी कि सुनते हुए दिखाई ज़रूर दे. इसी वक्त चीफ़ का मोबाइल बजने लगा और वह बतियाते हुए कमरे से बाहर निकल गए.


मिठाई का डिब्बा आगे बढ़ाती रिनी को शायद पहली बार अब इस बात की कोई फ़िक्र न रह गई थी कि वह इस काम में औरों की तरह ही वरिष्ठता क्रम का ख़याल रखे.

उसकी एक आंख में खुशी नज़र आ रही थी तो दूसरी में समय संदेश के लोगों से बिछुड़ने का दुख.


जैसे ही रिनी मिठाई का डिब्बा लेकर कमरे से बाहर निकली, मटकू ने अपनी चेयर का रुख मैडम की तरफ़ कर लिया, अब समझ आया मैडम, ये हर दूसरे दिन डॉक्टर के पास क्यों भागती रहती थी.

हालांकि कमरे के चौकन्ने कान सब सुन रहे थे, लेकिन मैडम की कोशिश यही थी कि कोई सुन न ले. उन्होंने क़रीब-क़रीब फुसफुसाने वाले अंदाज़ में कहा, अरे, मैं तो कुछ और ही समझी थी.


पीठ किए बैठा जीनियस, जो प्राय: एटिकेट्स का पूरा ख़याल रखता था, खुद को रोक न सका, वही तो हम भी सोचे थे मैम...

मटकू को उसका बीच में टपक पड़ना अच्छा तो नहीं लगा, लेकिन उसने लगभग आक्रामक शैली में पूछा, क्या समझा था तू? बता ज़रा, क्या समझा था! अबे, तुझे पता भी है कि मैम कह क्या रही हैं!

पूरी प्रतिष्ठा दांव पर लगी देख जीनियस को मन की बात कहनी ही पड़ गई, अरे, हम तो समझे थे न डॉक्टर-वाक्टर कुछ नहीं है. ई त जाती है अपना ब्वॉयफ्रेंड का पास.

पानी सिर से ऊंचा उठता देख ख़ामोश ज्वालामुखी ने मुंह खोला, 'तुम लोग तो पहले ही शादी करके बैठ गए...और उसके बारे में सोचते हो कि इत्तो बड़े सहर में किसी को अपना भी न बनाए!


डिप्टी, जो अब काम का कार्ड मिल जाने से काफ़ी संतुष्ट नज़र आ रहे थे, अपने शहर की लड़की के बारे में यह सब सुनने को शायद क़तई तैयार नहीं थे.


डिप्टी काफ़ी कुछ बोलते, लेकिन जीनियस और ख़ामोश ज्वालामुखी ने आंखों ही आंखों में एक-दूसरे को इशारा किया और समवेत राय ज़ाहिर की, लो जी, अब प्रवचन शुरू...

तमाम, दूसरी जिम्मेदारियों के साथ ही डिप्टी को 'आस्था' कॉलम भी एडिट करना होता था. इस काम का उन पर ऐसा असर पड़ता जा रहा था कि वह जब चाहते ध्यान योग करने लगते. खुद में ऐसे डूब जाते कि उन्हें फिर दीन-दुखिया की कुछ ख़बर ही न रहती. उन्होंने डिपार्ट में रिनी को प्रवेश दिलाने में न सिर्फ़ काफ़ी मेहनत की थी, बल्कि मानने के लिए तैयार ही न थे कि रिनी ने औरों की तरह उनसे भी यह राज़ छिपाए रखा. वह इस प्रसंग पर अपनी सुविचारित टिप्पणी प्रस्तुत कर रहे थे: देखो भाई, साफ़ बात तो ये है कि जिसे ज्यादा पैसा और बेहतर जॉब मिलेगा, वह ज़रूर जाएगा. तुम लोगों को अगर पहले से बता देती तो सबके सब उसकी मदद करने के बजाय सारा जोश ठंडा करने में लग जाते. मैं तो कहता हूं... उनकी बात अभी पूरी भी न हो पाई थी कि रिनी खुला डिब्बा हाथ में लिए कमरे में आ पहुंची. ऐसे में डिप्टी के अधूरे वाक्य का सिरा कुछ इस तरह पूरा हुआ, लाओ रिनी, किसी को हुई हो या न हुई हो, हमें तो भई ख़ूब खुशी हुई तुम्हारे नए जॉब की. लाओ, ज़रा एक पीस और दो. काजू की बर्फी का एक पीस तो दांतों के बीच ही अटका रह जाता है.


रंगीन और टेप संगीत से मिलते हुए रिनी जब बिजी विदाउट वर्क के पास पहुंची तो उनकी ठेपी अपने ही अंदाज़ में खुली, हमें तो ख़ैर पहले ही पता था कि ये लड़की यहां ज्यादा दिन टिकने वाली नईं है. दिखने और होने में बड़ा फ़र्क़ होता है पंडज्जी. आज के मीडिया में जुगाड़ फिट करने वाला चइए, आज यहां तो कल वहां. और फिर हमारे ज़माने की तरह अब जॉब छोड़कर कहीं जाना उत्ता ख़राब भी नहीं माना जाता. जो जित्ता कूदता-फिरता है, उत्ता तरक्की. वह एक तरह से यह भी कहना चाह रहे थे कि हमारी तरह एक ही जगह पड़े-पड़े सड़ने में कौन बड़ी समझदारी है. हम तो ख़ैर घर-परिवार से बंधे हैं, इस लड़की का अभी क्या है...शुरुआत में जित्ता भी रिस्क ले सको, ज़रूर लेना चाहिए.


शहर, कंपनी, फ़िल्म और मेडिकल से मिलते हुए रिनी अपनी ही सीट पर किसी बेगाने-सी आ बैठी थी. कभी वह अपने कंप्यूटर तो कभी आलमारी की तरफ़ देख रही थी..कमरा ख़ामोश था. उसे शायद अब सचमुच लगने लगा था कि लड़की तो गई.

एक व्यक्ति के रहने और न रहने के बीच का फ़र्क़ अब कमरे की चिंता का विषय खुद-ब-खुद बन गया था. सबसे निखट्टू मानी जाने वाली मिनी 'क्या-क्या नहीं कर पाती थी' के बजाय अब यह सोचा जा रहा था कि 'वह क्या कुछ संभाल लेती थी.' वह भी हँसते-खीझते, सीट दर सीट बदलते हुए.


सुबह जब वह आती, उसे रिपोर्टर्स के साथ बैठना होता चूंकि डेस्क की तमाम सीटें ऑकुपाइड होतीं. काम उसे डेस्क का करना होता, लेकिन एडजस्ट रिपोर्टर्स के साथ करना पड़ता. नई-नई आई इस लड़की को कभी फ़िल्म के कंप्यूटर पर काम करना पड़ता तो कभी रंगीन के. आउट डोर शूटिंग से फ्री होकर जिस दिन ये दोनों उसी के वक्त पर आ बिराजते वह अपना बैग, जैकिट और टिफिन उठाए नए ठिए की खोज में भटकती रहती. आख़िर में उसे पंचायत में रखा कंप्यूटर मिला था जहां बैठकर काम करना सबसे कड़ा इम्तेहान माना जाता था. इसके एक तरफ़ दो विभागीय सहयोगी बैठते थे और दूसरी तरफ़ दो पियन. और फिर समय मिलने पर उनके मुंह लगे लोग भी आ बैठते. काम हुआ तो ठीक, वरना दफ्तर की मुसलसल आलोचना इस जगह का स्थाई एजेंडा हुआ करता.


एकाध दिन तो चलो ठीक, लेकिन रोज़मर्रा की यही चाल रहे तो कोई कैसे काम कर सकता था वहां! जिस रोज़ रिनी ने कहा कि वह वहां बैठकर काम नहीं कर सकती, नया एरेंजमेंट तो ज़रूर कर दिया गया, लेकिन साथ ही यह भी बता दिया गया कि अख़बार के ऑफ़िस में किसी की कोई नियत जगह नहीं होती. हर तरह के लोगों के बीच उठना-बैठना पड़ता है, शोर-शराबे के बीच भी काम करना होता है.


नई व्यवस्था के तहत रिनी को सुबह तीन घंटे एक सीट पर काम करना होता, क्योंकि फेंग शुई अक्सर लेट आता था. तीन घंटे बाद वह उस सीट पर आ जाती जिसे शेयर बाज़ार खाली करता. वह वहां आ ज़रूर बैठती, लेकिन चार घंटे बाद जब उसी सीट पर स्पोर्ट्स आ खड़ा होता तो उसे फिर अपने लिए नई जगह तलाश करनी पड़ती. इस समय तक कंप्यूटर तो कई खाली हो जाते, लेकिन जगह बदल-बदलकर काम करने से उसकी लय टूट जाती. वह अपने काम में कंसनट्रेट न कर पाती और नतीजतन उसे कभी किसी की तो कभी किसी की झाड़ खानी पड़ जाती. दफ्तर में इस मामले में सभी एकमत थे कि न्यू एंट्री को जितना ज्यादा काम से लाद सको, लाद दो. ग़लत करे तो झाड़ने से भी मत चूको.


अक्सर ऐसा होता था कि वह बाज़ार कर रही होती और डिप्टी साहब उसे दो-तीन न्यूज एडिट करने के लिए और ट्रांसफर कर देते. उनकी नज़र में भले ही वह काम मामूली होता, लेकिन रिनी के लिए तो वह एक दबाव ही बन जाता. वह भी ऐसी हालत में जबकि घर से चलते वक्त न वह ठीक से नाश्ता कर पाती और न ही पूरा दूध पी पाती. कलाई में बंधी घड़ी की जल्दबाजी से चिढ़ती वह किसी तरह बस पकड़ लेती तो ट्रैफिक जाम उसे ऑफ़िस समय से न पहुंचने देता.


ऑफ़िस के क़ायदे के मुताबिक महीने में दो-तीन रोज़ तो पंद्रह मिनट लेट आया जा सकता था, लेकिन ट्रैफिक को तो आप यह क़ायदा नहीं समझा सकते न! तेज़ चलती-चलती ब्लू लाइन अचानक किसी स्टैंड पर ऐसी खड़ी होती कि फिर हिलने का नाम ही न लेती. ऐसे में अक्सर ऑफ़िस पहुंचने में उसे सवा दस-दस बीस हो ही जाता. वह पहले ही घबराई होती, उस पर उसके पहुंचते ही आक्रमण शैली में कई-कई तरफ़ से आदेशों की बौछार शुरू हो जाती.


_रिनी, यू आर ऑलरेडी लेट. जल्दी से एजेंसी न्यूज एडिट करो.

_सुनो, रिनी को बोलो दो लोकल भेजी हैं...

_अभी तक किया नहीं, ये फोनोफ्रेंड बाद में हां.

_बाज़ार कर दिया है खेल ने. एक नज़र देख लो. यस सर, यस मैडम करती सूखे गले में भी रिनी यह भूल ही जाती कि ऑफ़िस पहुंचकर दो घूंट पानी भी पी ले.


चलो, अब इस सबसे छुट्टी मिली. सोच रही है रिनी. तभी मैम उसे टोकती हैं, तुम्हें लेटर तो मिल गया है न!

यस मैम...पूरे 20 हजार की स्टार्टिंग

है.

गुड! काम करना ज़रा जी लगा के. प्रिंट और विजुअल का फ़र्क़ तो तुम समझती ही होगी...

यस मैम...


संवाद के बीच में उछलकर आई रकम ने कमरे का ध्यान अपनी तरफ़ खींच लिया था. 20 हज़ार मीन्स थ्री टाइम्स. कमरा हैरान था. कमरा परेशान था. कमरा सकते में था. कमरा सुखी था, यह कह पाना मुश्किल है. एक कुर्सी दोनों हथेलियों के बीच ठुड्डी लगाए सोच रही थी कि मरगिल्ली-सी इस लड़की को देखो तो ज़रा! दूसरी बाहर से खुशी ज़ाहिर करते हुए भी भीतर से आहत थी. तीसरी चौथी और पांचवीं आपस में गिटपिट करते हुए क़रीब-क़रीब इस नतीजे पर जा पहुंची थीं कि अरे इंटरव्यू-विंटरव्यू क्या होना है...इसका काम तो किसी जानकार के थ्रू ही हुआ होगा. आजकल इसके बगैर कहीं कुछ नहीं होता.


जीनियस ने चुटकी ली, ए रिनी, अब तो तुम सीधे स्क्रीन पर नज़र आओगी!

कह नहीं सकती सर! वहां कई तरह के काम होते हैं.

मुझे पूरा यक़ीन है कि एक दिन ये लड़की घर-घर टीवी पर देखी जाएगी. मटकू ने राय ज़ाहिर की.


ख़ामोश ज्वालामुखी ने काफ़ी देर बाद समवेत संवाद में खुद को शामिल किया, क्यों, अब भी कोई सक है क्या? ये लड़की वह सब कर सकती है जिसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते.

माहौल गरमाता देख रिनी उठी और यह कहती हुई चल दी कि अभी कुछ फॉर्मेलिटीज इस दफ्तर की भी पूरी करनी हैं.


रिनी उठकर क्या गई, लगा सचमुच चली ही गई. दिल्ली एनसाइक्लोपीडिया ने नाक पर मुस्कराहट खींचते हुए कमरे में प्रवेश किया, हां भाई, मुझको तो बस इत्ता बता दो कि दिल्ली ड्रामा अब कौन एडिट करेगा? लड़की तो गई.


सर, आपका लिखा एडिट होता ही कब है! वह तो हेडिंग लगाकर रवाना कर दिया करती थी, बस. जीनियस ने स्मार्टनेस दिखाई.

तो फिर ठीक है कल से दिल्ली ड्रामा तुम करोगे एडिट. ओ.के.! मैडम ने जीनियस को तुरंत प्रसाद थमा दिया. जीनियस के मुंह से मरा-सा स्वर निकला, जी मैम!

अपन तो भैया अब आराम से बैठेंगे. अब अपुन से कोई कुछ कहने वाला नहीं. मटकू ने बेफ़िक्र अंदाज़ में कहा ही था कि मैडम ने कुर्सी घुमाते हुए उसी की तरफ़ रुख कर लिया, लड़की के चले जाने का मतलब ये नहीं है कि तुम छुट्टे घूमते फिरोगे. आज लंच के बाद तुम फ्रंट की सेलिब्रिटी बनाओगे...और हां उसका नया फ़ोटो भी सर्च करना है तुम्हें, समझे.

मैं तो ऑलरेडी बहुत बिजी हूं मैम! जान बचाने की एक फिजूल कोशिश.


कोई बात नहीं. सबका हाल तुम्हारे जैसा है. जवान आदमी हो, थके हुए बूढ़ों की तरह बात मत किया करो. कहते हुए मैडम ने विभाग के जिस शख्स को ख़ासतौर पर सुनाना था, उसे भी लगे हाथ निबटा दिया.


कमरे को अचानक अब रिनी का चले जाना खलने लगा. हर सीट के साथ रिनी की कोई न कोई जिम्मेदारी अलग से चस्पा कर दी गई थी.

हां सर, अब ज़रा देखिए तो क्या काम रह गया ऐसा जो बारह के बाद रिनी करती थी? मैडम ने अचानक कंप्यूटर पर क्रिकेट खेलते डिप्टी साहब को चौंका दिया.

वह ध्यानावस्था में थे, अरे मैडम, आपने जो भी किया है, ठीक ही किया होगा. आपके होते हुए समय संदेश को चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं.


चिंता की बात नहीं कर रही हूं मैं, ज़रा ये बताइए कि वीकली भविष्य कौन करेगा और लोकल कैप ज़रा आप खुद देख लीजिएगा. ओके?

ऐसा करते हैं मैम, लैटर्स को ही भविष्य भी सौंप देते हैं. यूं भी वह आजकल हर अंगुली में अंगूठी पहने घूमता है. लोकल कैप तो वैसे भी मुझे ही देखने पड़ते थे...रिनी का हाल तो ये था कि मामला करोल बाग का होगा और वह उसे बना देगी आरके पुरम का. उसके किए काम को ग़ौर से देखो तो समझो खुद गए काम से... डिप्टी खुद को ज़िम्मेदार बताते हुए रिनी की समीक्षा कर डालना चाहते थे, लेकिन मैम ने जैसे इस वक्त यह ठीक न समझा. वह डिप्टी की ओर मुखातिब हुईं और शुरू हो गईं, आपका काम ही जूनियर्स के काम को देखना है. वैसे अब ज़रा ग़ौर से करना लोकल कैप. पहले तो उस पर ग़लती का कंटीला ताज़ रखकर बेफ़िक्र हो जाते थे, अब ये संभव नहीं होगा.


हर वक्त तो उसका मोबाइल रिंग मारता रहता था...काम क्या करती...? डिप्टी ने जैसे खुद से कहा और काम के अभिनय में लग गए.


जीनियस ने उनके स्वगत को भी कैच कर लिया था, सर एक ही नंबर से आता था बार-बार, बॉयफ्रेंड होगा. तभी तो मोबाइल लेकर बाहर चली जाती थी, हर बार.

तुम ज़रा खामोश ही रहो तो बेहतर होगा...खुद को भूल गए, कैसे शादी से पहले फ़ोन पर फ़ोन आया करते थे! मटकू ने मज़ा लेने की कोशिश की.


आप अपना काम कीजिए तो, मैं इस समय सर से बात कर रहा हूं. जीनियस ने तुर्श लहजे में उसे झिड़क दिया, तुझसे तो उसकी बुराई सुनी कहां जाएगी. अभी पता लगेगा बेटा, जब 'दिल्ली मॉडल्स' भी तेरे ही सिर पड़ेगा...बड़ा बोलता था न कि मैडम आप फ़ैशन शो में रिनी को क्यों भेज देती हैं.


तू यार हर चीज़ को पर्सनल मत बनाया कर...

चल-चल, अब तुझे पर्सनल नज़र आ रहा होगा, हैं!

बात बढ़ती देख मैडम को बीच में आना पड़ा, ए, तुम दोनों अब ज़रा दिमाग़ से ये बात निकाल दो कि किसी के चले जाने से पेपर का काम रुक जाता है. और हां, मैंने दो-दो स्टोरी तुम दोनों को ट्रांसफर की हैं. चुपचाप एडिट करो और काम में मन लगाओ...जो चला गया, उसे जाने

दो.


जीनियस मूंछों में मुस्कराया और मटकू ने बालों को एक लहरदार झटका देकर सेट करने की कोशिश की. यह इन दोनों का खुद को जब्त कर लेने का नायाब तरीक़ा था. उन्हें ऐसा करता देख डिप्टी साहब के साथ-साथ मैडम की भी हँसी छूटते-छूटते रह गई.

सब अपने-अपने काम में मस्त थे कि अचानक ध्यान योग से उठे डिप्टी ने एक वाक्य हवा में उछाला, आगे बढ़ने के लिए रिस्क तो लेना ही पड़ता है.


ख़ामोश ज्वालामुखी ने फ़ौरन लपक लिया, तुम यार तब से इसी सोच में डूबे हुए थे? अरे, ये यंग जेनरेसन है. रिस्क लेना खूब जानती है. हमारी-तुम्हारी तरह नहीं कि एक ही जगह पड़े रहो. हमें तो पग-पग पर इनसिक्योरिटी के बादल मंडराते नज़र आ जाते हैं.

भई देखो, हमारी बात और है, उसके सामने तो सारा आसमान फैला पड़ा है. किसी ने कहा ज़रूर पर उसकी बात हवा में कहीं बिला गई.


एक पैर के ऊपर घुटना मोड़े दूसरा पैर रखे मटकू सुकून से छत की तरफ़ देख रहा था. अब उसे कोई नहीं, कोई नहीं टोकेगा...उसने दोनों हाथों की अंगुलियों को एक-दूसरे में फंसाया और उनका स्टैंड-सा बनाकर गुद्दी उसी पर टिका ली. वह पूरे इत्मीनान में था.

जीनियस से उसकी बेफ़िक्री देखी न गई, देखिए न मैम, ऑफ़िस को इसने रेस्टरूम बनाकर रख दिया है. और अब तो रिनी भी नहीं है जो इसे ठीक से बैठने को कहे. सबसे ज्यादा इत्मीनान इसे ही महसूस हो रहा है.


अब चाहे जैसा वॉल पेपर लगा ले! कौन टोकेगा.

मटकू जैसे सोते से जागा हो, हां यार, बताओ ये भी कोई बात हुई! ऐसे नहीं, ऐसे बैठो!...ये फ़ोटो बहुत अश्लील लगता है...अबे यार, जो फ़ोटो हम अपने अख़बार में छाप सके हैं, उसका वॉल पेपर क्यों नहीं बना सकते! इक्कीसवीं सदी में ये सोलहवीं की आत्मा कहां से आ गई भटकने के लिए! वो भी ऐन मेरी बगल में...मैंने तो इसीलिए हारकर राधाकृष्ण का वॉल पेपर बना लिया था. बस धूपबत्ती की कसर रह गई थी.


कमरे को रह-रहकर रिनी और उसका होना याद आ रहा था. एक नज़र में बेहद मासूम और भोली नज़र आने वाली यह लड़की स्टैंड लेने में और जवाब देने में कितनी तेज़ हो सकती है यह उस रोज़ सबके सामने कैसे ज़ाहिर हो गया था! फ़ोन तब शायद मैडम ने ही उठाया था. किसी पीआर एजेंसी से था. रिनी के लिए.


रिनी, तुम्हारा फ़ोन.

येस!

...

लिसिन, माइंड युअर लैंग्वेज़! आप हमें डायरेक्ट नहीं कर सकते कि हमें क्या और कैसे छापना है समझे.


......

नो, इट इज़ अवर वर्क. लैट अस डू. नो, नथिंग डूइंग. एंड डोंट कॉल मी अगेन. वी आर नॉट पी आर.

मैडम ने रिनी का यह कॉन्फिडेंस देखा तो भीतर ही भीतर खूब खुश हुईं, लेकिन बाहर से उन्होंने उसे समझाया, कूल बेबी. व्हाट हैपन्ड?


कुछ नहीं मैम, ये लोग चाहते हैं, जो ये कहें, वहीं हम करते रहें. व्हाय?

ओ के, ओ के! अभी तुम पानी पियो और आराम से बैठो. ब्लड प्रैशर नईं बढ़ाने का.

जहां कोई न जाना चाहता, वहां कवरेज के लिए रिनी को भेज दिया जाता. कभी वह खुद जाना चाहती तो कह दिया जाता कि पहले डेस्क का काम मन लगाकर करना सीखो, फिर घूमना. फर्स्ट प्रूव योअरसेल्फ.


भाषा यही होती, कहने वाले अलग. समय और मौक़े अलग-अलग.

रिनी कभी मन मसोसकर बैठी रह जाती तो कभी उसे लगता कि जो कुछ वह कर सकती है वह उससे करवाया क्यों नहीं जाता! अक्सर उसे ऐसी ख़बरें थमा दी जातीं जो अख़बार में न भी छपतीं तो कोई ख़ास असर न पड़ता. वह परेशान थी कि कुछ लोग मौक़ा पाते ही बयान देने और फ़ोटो खिंचवाने पर उतारू क्यों हो जाते हैं. उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं रहती कि मसला है क्या. बस, जुलूस निकाल लेंगे, विरोध या समर्थन में विज्ञप्ति जारी कर देंगे और कुछ न हुआ तो रक्तदान शिविर, जागरण या फिर नि:शुल्क धार्मिक यात्राओं के आयोजन करवा डालेंगे. क़रीब-क़रीब हर अख़बार में यही लोग अपने लिए जगह निकलवा लेते हैं. इसके कुछ ख़ास तरीके जाने कैसे ईजाद कर लेते हैं ये लोग...रिनी जब हैरान होती, तो उठ कर इधर से उधर घूमने लगती. कभी वह खुद से ही बोलने लगती या फिर दो-एक मिनट के लिए आंखें बंद कर ध्यान में चली जाती.


कमरा उसे देखता और बेआवाज़ हँस देता. कमरा उसकी आंखें खुलने पर नाटक करता_क्या हुआ रिनी, आर यू ऑल राइट?

हां सर, मैं तो ठीक हूं... रिनी मुस्करा देती.

रिनी अक्सर सोचती कि क्या इसी सबके लिए उसने मासकौम से डिप्लोमा किया था. क्या इसीलिए वह अपने घरवालों से इतनी दूर इस बेगाने शहर में चली आई थी. क्यों? क्यों? क्यों आई थी वह?


उस रोज़ तो उसकी हैरानी की कोई सीमा ही नहीं रही जब उसने पूरे मन से एक रिपोर्ट मलिन बस्तियों पर तैयार की और उसे मैगजीन को सौंप दिया. देखते ही मैगजीन ने साफ़ कह दिया कि ये सब हमारे लिए बिल्कुल बेकार है. यह तो किसी एनजीओ बुलेटिन में छपवा लो. थोड़ा रिसर्च और कर लो तो प्राइज भी मिल सकता है.


रिनी कभी हताश हो जाती, कभी दुखी. कभी वह खुद को समझाती, कभी किसी परिचित को फ़ोन कर मन हल्का कर लेती. अक्सर ऐसा होता और रिनी की मासूम मुस्कराहट कुछ घंटों के लिए ग़ायब हो जाती. वह खाना मंगा लेती, पर उसे खाने का होश ही न रहता. चाय आती और ठंडी हो जाती. चार बज जाते और स्पोर्ट्स आकर जब उसके सिर पर हाथ फिराता तो उसे होश आता कि अरे, चार बज भी गए?


ऐसा नहीं था कि वह हरदम ऐसी ही रहती हो. कभी-कभी वह ख़ूब चहकती. औरों की तरह बातचीत में ख़ूब शामिल होती, सर मेरे साथ भी ऐसा एक केस हो चुका है.

कोई कुछ खा रहा होता और वह

एक झटके से उठकर उसके पास पहुंच

जाती, सर, क्या खा रहे हैं आप? मैं भी खाऊंगी.


मटकू तो अक्सर नाश्ता साथ ही लेकर आता था. चाय आते ही वह टिफिन खोलता और कभी आलू तो कभी गोभी के परांठे निकालकर खाने लगता. रिनी उसे खाते देखती तो झट से हाथ बढ़ा देती, मुझे भी दीजिए न सर!

उसका अनौपचारिक अंदाज़, चाहे अपनत्व प्रदर्शन का हो या नाराजगी ज़ाहिर करने का, अनूठा ही था. उस रोज़ ही कैसे वह श्रीमान शरीफ के पास जा खड़ी हुई थी, सर, आपने मेरा नया पर्स देखा?


देखें तो, कितने का लिया है?

सर वन फिफ्टी का, सीपी से.

प्योर लेदर लगता है.

अरे नहीं सर, पता नहीं प्योर रेक्सीन भी है कि नहीं. दिल्ली में कुछ प्योर थोड़े ही मिलता है. वह भी इतनी कम क़ीमत पर!


जीनियस को याद पड़ रहा था कि कैसे एक दिन रिनी एकदम गुमसुम होकर आ बैठी थी अपनी सीट पर. उसने जब डिप्टी सर को इशारा किया तो उन्होंने उसके पास जाकर ही पूछ लिया, क्या बात है, किसी ने कुछ कहा क्या तुमसे?

नहीं सर... कहते-कहते फफक ही तो पड़ी थी रिनी. सर, मैं मॉडल सीन नहीं करूंगी अब.

क्यों?

कहानी : चिड़िया की उड़ान (अंतिम किश्त)


- महेश दर्पण

(कहानी का प्रथम भाग यहाँ पढ़ें - http://rachanakar.blogspot.com/2006/06/blog-post_115080566233016660.html


सर, मुझसे वह नहीं हो सकता बस. बहुत वल्गर होता है...

अच्छा-अच्छा, तुम बॉस से कह देना...कोई और कर लेगा.

देर तक रिनी सुबकती ही रही थी फिर. जाने क्यों, वह हर चीज़ के साथ खुद को एडजस्ट नहीं कर पाती थी. वह विरोध करना तो चाहती, लेकिन खुलकर कर न पाती. हर पल उसे यही डर लगा रहता था कि कहीं उसे नाकारा ही न मान लिया जाए.


अक्सर ऐसा होता कि वह किसी न किसी ऊलजलूल वजह से ध्यान लगाकर काम न कर पाती और ग़लतियां कर बैठती. ठीक-ठाक भाषा जानने के बावजूद उसका वाक्य प्रयोग गड़बड़ा जाता और वह किसी सीनियर द्वारा ग़लती पकड़ी जाने पर बुरी तरह अफ़सोस में डूब जाती. वह खुद को एकाग्र कर तय करती कि अब ऐसा नहीं होने दूंगी, लेकिन हर दूसरे-तीसरे दिन कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता कि उसे शर्मिंदा हो जाना पड़ता.


कभी-कभी जीनियस उसकी मदद भी करता, पर उसका भी अपना स्वभाव और सीमा थी. मटकू भी चाहता, लेकिन वह कर न पाता. उसके भीतर एक सहयोगी इनसान ज़रूर था, लेकिन वह किसी का अक्खड़पन बर्दाश्त ही नहीं कर पाता था. उसकी रिनी से कोई जाती दुश्मनी तो नहीं थी, लेकिन यह ज़रूर चाहता था कि वह कम से कम उस पर अपनी पसंद थोपे तो नहीं. और रिनी थी कि कभी बगैर अपनी राय ज़ाहिर किए रहती न थी. मटकू कोई फ़ोटो सलेक्ट करता और रिनी पास बैठी बोल उठती, क्या सर, ये भी कोई फ़ोटो है?


तुमसे पूछा है किसी ने? मूड ठीक न होता तो मटकू उसे वहीं चुप करा देता.

रिनी का मुंह उतर जाता और वह खट-खट-खट...की-बोर्ड पर ज़ोर-ज़ोर से अंगुलियां मारते हुए यह भूल ही जाती कि उसके ट्रेनर ने कंप्यूटर के लिए पहला शब्द बताया था, किसिंग टच.


घर-परिवार से दूर रिनी भूल ही चुकी थी कि 'किसिंग टच' भी कुछ होता है. दिल्ली आकर उसकी सारी एनर्जी तालमेल बनाने में ही ख़र्च हुई जा रही थी. कभी मकान मालिक के साथ तो कभी दफ्तर के साथ. बाक़ी बचे समय में से कुछ दफ्तर के बाहर होने वाली गतिविधियों में शामिल होने पर. दूर-दराज के जिन इलाक़ों में उसे जाना पड़ता, वहां ले जाने के लिए तो पीआर वालों की गाड़ी वक्त से पहले ही आ धमकती, लेकिन जब घर पहुंचने का वक्त आता तो उसे सबसे आख़िर में छोड़ा जाता. प्रेस के खुर्राट लोग अपने-अपने लिए पहले ही यह इंतजाम सेट करवा लेते कि उन्हें घर पहुंचने में देरी न हो. रिनी का नंबर पूल-सिस्टम वाली गाड़ी में ही आता, लिहाजा वह घर पहुंचने तक थक कर चूर हो जाती. ऐसे में दूसरे दिन सुबह समय से ऑफ़िस पहुंचना उसके लिए और भी मुश्किल हो जाता.


रिनी से जब तक बन पड़ा, वह एडजस्ट करने की कोशिश करती रही, लेकिन धीरे-धीरे उसे लगने लगा कि वह अगर कुछ बरस और समय संदेश में फंसी रह गई तो फिर यहीं की होकर रह जाएगी. मनमाफिक काम पाने के लिए उसने नज़रें दौड़ानी शुरू कर दीं. आख़िरकार उसे मिला ए चैनल का विज्ञापन. इसमें एकदम फ्रेश लोगों की मांग की गई थी. सेलरी का आधार बताया गया था परफॉरमेंस. रिनी ने विज्ञापन देखते ही मन बना लिया था कि कोशिश ज़रूर कर देखेगी. उसका चयन हो या न हो, यह ऊपर वाले पर छोड़ती है. हां, यह राज़ वह और किसी पर ज़ाहिर न होने देगी.


जाने क्या हुआ उसी क्षण कि रिनी में तेजी से बदलाव आता चला गया. टूटी-थकी, हैरान-परेशान, रोनी-धोनी-सी शक्ल बनाए रखने वाली रिनी क्रमश: सतर्क, सतेज, फुर्तीली और चपल होती चली गई. जो काम उसे दिया जाता, वह अपेक्षाकृत कम वक्त में निबटाकर नया काम मांगने लगती. काम न होता तो वह कहती, मैम, मैं ज़रा अपना दांत दिखा आऊं?

जाओ. मैम कहतीं और रिनी अपना बैग कंधे पर डाल चल देती.


पिछले कई दिनों से यह सिलसिला चल रहा था. उस रोज़ भी रिनी ने अपना काम झटपट पूरा किया और मैम से नया काम मांगा तो जीनियस ने मटकू को इशारा किया, देख-देख, अगर आज मैम ने इसे काम नहीं दिया न तो यह फिर कहीं चल देगी.

काम सचमुच उस वक्त क़ुछ ख़ास नहीं था. मैम ने कहा, अब तुम लंच तक आराम करो. इसके बाद देती हूं तुम्हें कुछ काम.


रिनी को जैसे मांगी मुराद ही मिल गई, मैम, मैं ज़रा सीपी हो आऊं? बैंक में कुछ काम था.

ओ के!

उसे जाते देख मटकू ने जीनियस को टोहका दिया, हो गई, दो-

छुट्टी. अब मैम इंतज़ार ही करती रह जाएंगी इसका.


ठीक है यार, तेरा क्या बिगाड़ता है! जाने दो, वह शायद सीपी में ही इंतज़ार कर रहा हो...

इसी बीच मैम पीछे मुड़ देखतीं, ऐ, तुम लोग अपना-अपना काम करो, समझे. कौन कहां जा रहा है, क्या करता है, यह देखना मेरा काम है.


सो तो है मैम... कहता हुआ जीनियस शब्दों को मुंह में ही रख लेता.

इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के बारे में जानकारी जुटाती, रिनी कम से कम समय में ज्यादा से ज्यादा हासिल करने की ग़र्ज़ से भाग-दौड़ करती ही रहती. हां, मैम से छुट्टी लेने का हर रोज़ कोई न कोई नया बहाना ज़रूर ईजाद करना पड़ता. बहाना वह ईजाद भी कर लेती और इस काम में उसकी भोली-सी सूरत खूब काम आती.


ऐसा नहीं था कि रिनी का मन समय संदेश के काम में बिल्कुल लगता ही न हो. बात दरअसल यह थी कि रिनी ने मासकौम से कोर्स करते वक्त ज़ो कुछ सीखा था, उसे वह अपनी पत्रकारिता में भी लाना चाहती थी. उसके घर के पास ही तो रहता था वह परिवार जिसकी कहानी वह अपने पेपर में देना चाहती थी. उसने पूरा होमवर्क किया था उस परिवार के बारे में.


यह परिवार बदलते समय की एक प्रतिनिधि केस-हिस्ट्री देता लग रहा था उसे. बाहर से हँसता-खेलता नज़र आता परिवार अचानक भरभरा कर ऐसे बिखर सकता है, उसने कभी सोचा भी न था.


उस रोज़ वह किसी फ़ैशन शो से रात में कुछ लेट लौटी थी. शायद डेढ़ बजा होगा. सीढ़ियां चढ़ते हुए उसे लगा जैसे किसी स्त्री के रोने की आवाज़ आ रही है. इतनी रात गए रोने का मतलब है पड़ोस में कोई ग़मी हुई है. सीढ़ी चढ़ते रिनी के पैर अब नीचे उतरने लगे. रुदन की आवाज़ का अंदाज़ा लगाती रिनी उसी घर की तरफ़ बढ़ने लगी. उसे लगा, जैसे रोने वाली ठीक से रो नहीं पा रही है. जैसे कोई उसका गला दबाने की कोशिश कर रहा है. मेहता जी के घर के पास आकर उसके क़दम ठिठक गए. उसने सुना, चुप कर करमजली, कोई जा रहा है.


शायद भीतर से किसी ने रिनी के गुज़रने की आहट पा ली थी.

'ऊंऽऽऽ ऊंऽऽऽ की घुटती-सी रोने की आवाज़ के साथ एक नारी स्वर ने जवाब दिया, जा रहा है तो जाने दो. आज मुझे मार ही डालो...रोज़-रोज़ की ये मौत अब मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती...


नहीं कर सकती तो ये ले! कुछ तेज़ पुरुष स्वर के बाद लगा जैसे लात-घूंसों की आज़माइश की जाने लगी है.

एकबारगी तो रिनी का मन हुआ कि वह दरवाज़ा खटखटाकर मेहता से कहे कि पत्नी पर इस तरह मर्दानगी दिखाकर क्या साबित करना चाहता है? लेकिन फिर यह सोचकर चुप ही रह गई कि कहीं मेहता ने उलटे उसे ही झिड़क दिया कि तू बीच में बोलने वाली कौन होती है तो? फिर यह देखकर वह और भी घबरा गई कि इस वक्त सुनसान गली में वह एकदम अकेली खड़ी जिस तरह किसी घर के भीतर की बातें सुनने की कोशिश कर रही है, उसे देखकर कोई उसे चोर ही न समझ बैठे.


घर तो चली आई थी रिनी, लेकिन उसने यह तय कर लिया था कि मेहता की बीवी से मिलकर असलियत ज़रूर जान कर रहेगी. दिन के उजाले में जो परिवार इतना खुशदिल नज़र आता है, आख़िर वहां पति-पत्नी के बीच प्रॉब्लम हो क्या सकती है? रात भर करवटें बदलती रही रिनी. उसकी नींद मिसेज मेहता के रुदन ने छीन ली थी. शादी के सपने देखती रिनी भीतर से हिल ही तो गई थी. सुबह जिस वक्त वह उठ बैठती थी, ठीक उसी वक्त उसकी आंख लग गई थी. उस दिन फिर उसकी हिम्मत ऑफ़िस जाने की न हुई.


साढ़े नौ बजे अचानक पड़ोसी की मोटर साइकिल स्टार्ट होने की आवाज़ से नींद टूटी तो टूटते बदन में उठी रिनी बालकनी पर आकर खड़ी हो गई. उसकी नज़र खुद-ब-खुद मेहता के घर की तरफ़ जा लगी. वहां दरवाज़े-खिड़कियां बंद नज़र आ रहे थे. कालोनी के दूसरे परिवार रोज़ की तरह अपने-अपने कामों में व्यस्त थे.


पहली चाय पीते वक्त रिनी को मिसेज मेहता से मिलने की तरकीब सूझ गई. उसे पड़ोस की किसी लड़की ने बताया था कि मिसेज मेहता साड़ी में फॉल लगाने का काम भी करने लगी हैं. मौसी के बेटे की शादी में रिनी को मौसी ने बढ़िया साड़ी देते हुए कहा था, इसे फॉल लगवाकर पहन ज़रूर लेना.


रिनी ने सर को एसएमएस कर दिया कि आज ऑफिस नहीं आ सकेगी. उसने सोचा था बॉस इस बात से खुश हो जाएंगे कि लड़की ने कम से कम न आने की ख़बर तो कर दी, लेकिन हुआ उलटा ही. बॉस ने जवाबी गोली दाग दी, 'हू इज इट?'


झुंझलाती रिनी को बताना पड़ा था, सर, इट इज रिनी...सॉरी सर.

दोपहर के वक्त रिनी मिसेज मेहता यानी सुधि के पास थी. मौसी की दी साड़ी में फॉल लगवाने का बहाना उसके साथ था. पहुंचते ही उसने कुछ देर रुकने की भूमिका बांध दी थी, भाभीजी, आज तो आपके हाथ की चाय पीकर ही जाऊंगी.


सुधि तो जैसे यह सुनकर निहाल ही हो गई थी, अरे क्यों नहीं रिनी, बड़ी मुश्किल से तू आज घर आई है. मैं तो कब से सोच रही थी तुझे बुलाने की...

सुधि चाय बना रही है. रिनी कमरे का मुआयना कर रही है. क्या नहीं है, सबकुछ तो नज़र आ रहा है. बाथरूम के बाहर वाशिंग मशीन, कमरे में कलर टीवी, किचेन में फ्रिज. सैंट्रो से अभी कुछ देर पहले रवाना हुए हैं मिस्टर मेहता.


मेहता का घर से निकलने और घर लौटने का कोई समय तय नहीं है. सुधि से कभी-कभार की बातचीत में जाना है रिनी ने कि वह प्राइवेट कांट्रेक्टर हैं. बड़े-बड़े सौदे होते हैं और मिनटों में हो जाता है लाखों का खेल. शादी को ग्यारह साल हो गए दस का तो अपना टिंकू ही है. सिंटी अभी छह साल की है. हम दो, हमारे दो. आदर्श परिवार. ऊपर से सबकुछ ठीक-ठाक लगता है, लेकिन भीतर से...?


रिनी सुधि के कमरे में बैठी जैसे खुद से संवाद कर रही है. उसे रह-रहकर रात का रुदन याद आ रहा है. वह किचेन के दरवाज़े पर सुधि के एकदम क़रीब जा पहुंची. सुधि को शायद इसका इल्म नहीं. इस वक्त उसका चेहरा अबूझ उदासी से घिरा है.

रिनी को खुद पता न चला कि सीधी-सपाट, वह कैसे सुधि से पूछती चली गईµ

क्यों भाभी, कल रात तुम्हें क्या हो गया था?


मुझे! मुझे क्या होना है!

बनो मत, मैं बाहर खड़ी थी रात को तुम्हारे रोने की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी. ऐसा लग रहा था जैसे तुम्हारा गला घुट रहा हो.

अरे छोड़ रिनी. तू भी...कहां की ले बैठी! चल चाय पीते हैं...

कमरे में आकर रिनी ने सुधि का चेहरा ग़ौर से देखा. उससे कुछ भी छिपाया नहीं जा पा रहा था. अचानक जाने क्या हुआ कि रिनी का हाथ सुधि के कंधे पर दिलासा देने जा पहुंचा, लेकिन यह क्या! सुधि को जैसे करंट लगा हो, वह दर्द से कराह उठी, रिनी, यहां बहुत तकलीफ़ है...


इसके बाद रिनी चाय नहीं, ख़ून के घूंट ही पीती रही. जो कुछ सुधि ने उसे बताया, वह सुनकर कोई भी शर्मिंदा हो जाए. यह एक बिगड़ैल हिंस्र पशु पति की खौफ़नाक दास्तान थी. मेहता ने शादी के वक्त तो खुद को बड़ा कांट्रेक्टर बताया था, लेकिन वह एकदम झूठ निकला. ख़ैर, इस पर भी बड़े घर की बेटी सुधि ने संतोष कर लिया. लेकिन जब आए दिन वह सुधि से मायके से किसी न किसी बहाने मोटी रकम मंगाने लगा तो सुधि का माथा ठनका. उसने पतिदेव के बारे में बाक़ायदा पता करना शुरू किया. जो सच सामने आया वह पैर तले की ज़मीन खिसका देने के लिए कम न था. क्या सोचकर भाई ने सुधि की शादी की थी और क्या निकला मेहता. सुधि ने फिर भी जिंदगी से हार नहीं मानी. वह मेहता को मेहनती आदमी की तरह जिंदगी गुज़ारने को प्रेरित करती रही...यही नहीं, खुद भी उसने घर के काम से बचे वक्त में कुछ न कुछ करना-धरना शुरू कर दिया.


वह कभी साड़ी में फॉल लगा लेती तो कभी गुप-चुप पड़ोसनों के पेटीकोट-ब्लाउज़-सी डालती. काम कर पैसा कमाने से उसे कोई शर्म महसूस न होती, लेकिन मेहता को ऊपरी दिखावे का नशा अब भी था. वह रोज़ क़िसी न किसी काम के बहाने कार पर घर से निकलता और फिर अंधेरा हुए ही लौटता. जब तक वह न लौटता, सुधि सामान्य नज़र आती, लेकिन उसके घर लौटते ही दरवाज़े एकदम बंद हो जाते. और शुरू हो जाता इनडोर यातनाओं का सिलसिला. मेहता सुधि से और पैसा मंगाने को कहता और सुधि इनकार कर देती. वह एक-एक दो-दो लाख करके अब तक आठ-दस लाख भाई से मंगा चुकी थी. मेहता इस पैसे को जाने कहां ठिकाने लगाता जाता. एक दिन सुधि ने साफ़ कह दिया कि जो करना है अपने दम पर करो. अब भाई से एक पैसा नहीं मांगूंगी. बस, यहीं से खींचतान शुरू हो गई.


रोते-रोते सुधि रिनी के कंधे से लग आई थी. उसने सुबकते हुए बताया, मेहता बात-बात पर उसे ताने देता. मार-पीट करना तो रोज़ाना की बात हो गई थी. कल रात तो हद ही हो गई. कहने लगा, 'मेरे साथ गुप्ता के फार्म हाउस चल. वहां पार्टी है, रात को गुप्ता के साथ रह जाना. सुबह आकर ले जाऊंगा. वह हमारा सारा लोन माफ़ कर देगा.'


सुधि जाने किस बेखुदी में यह सब रिनी से कह गई. आंसू बहाती आंखों में ही फिर उसने रिनी की तरफ़ देखकर पूछा, तू बता रिनी, ऐसे में मैं 'हां' कैसे कर दूं.

रिनी का तो जैसे ख़ून ही सूख गया. उसने अधपिया चाय का कप मेज़ के एक किनारे सरका दिया और सुधि की हथेली थाम कर खड़ी हो गई, देखो भाभी, बगैर तुम्हारी हिम्मत के तो कुछ भी होने वाला नहीं. तुम तैयार हो जाओ तो मैं साथ खड़ी हूं. इसी वक्त तय करो कि तुम्हें ज़िंदगी इसी तरह घुट-घुटकर गुज़ारनी है या अपने दम पर खड़े होकर खुली हवा में सांस लेनी है.


मैं खुद यही सोच रही हूं रिनी. अब बहुत हो चुका. सच, अब इससे ज्यादा मैं बर्दाश्त भी नहीं कर पाऊंगी. ये देख ज़रा...


सुधि ने ब्लाउज़ के चिटकनी बटन एक झटके में खोलकर अपनी पीठ मिनी के आगे कर दी. जगह-जगह जली सिगरेट लगाए निशान हैवानियत की कहानी बयान कर रहे थे. सुधि ने बताया, कल रात तो उस पर ऐसा भूत सवार था कि अगर मैं धक्का देकर गिरा न देती तो जाने क्या कर डालता. धक्का लगते ही उसका सर पलंग की पट्टी से टकराया और जाने क्या जादू-सा हुआ कि फिर पट्ट से उसकी आंख गई. पहले तो मैंने सोचा कहीं ख़त्म तो नहीं हो गया, लेकिन फिर हथेली नाक पर ले जाकर रखी तो सांस चल रही थी...सारी रात इसी फ़िक्र में कटी है कि सुबह उठकर जाने क्या बवाल मचाए. लेकिन रिनी सुबह उठकर सब ठीक. उलटे रात की बात पर माफ़ी मांगने लगा. कितना कहती हूं, शराब पीना छोड़ दो, लेकिन मानता ही नहीं. पीते ही, जाने कौन सवार हो जाता है इसके सर पर...


कुछ देर बैठ, माहौल सहजकर रिनी अपनी साड़ी फॉल लगाने के लिए सुधि के पास छोड़ आई थी. घर लौटते हुए उसका पत्रकार जाग चुका था. उसने इस क्षेत्र को बेस बनाकर डीप स्टडी करने की ठान ली थी. आते-आते वह सुधि को यह दिलासा ज़रूर देती आई थी कि अगर उस पर यक़ीन हो तो वह हर पल साथ खड़ी है. जब चाहे, उसे बुला ले. खुद को अकेला न समझे, बस निर्णय ज़रा सोच-समझकर करे.


अगले दिन ऑफ़िस जाते वक्त रिनी अपने साथ सुधि और उसके संघर्ष की कहानी ले गई थी. उसने सोचा था, बॉस उसे शाबासी देंगे और कहेंगे, ये हुई न बात! लेकिन जाने क्या हुआ कि रास्ते में ही वह पांच मिनट लेट हो गई. उसके 'गुड मॉर्निंग मैम' के जवाब में मैडम ने कुछ तुर्श लहज़े में कहा, रिनी, घड़ी देखो ज़रा. महीने-भर इसी तरह तुम पांच-पांच मिनट रोज़ देर से आईं तो जानती हो कितना समय हो जाएगा?


रिनी को इस झिड़की का इतना बुरा नहीं लगा, जितना इस बात का मलाल शुरू हो गया था सुधि वाली स्टोरी के बारे में अब यह बात शुरू ही कैसे कर पाएगी. रूटीन वर्क के दौरान भी उसका मन सुधि में ही अटका रहा. उसकी आंखों के सामने, रह-रहकर, सुधि की पीठ और कंधे पर बने सिगरेट के निशान तैरने लगते. कभी कंप्यूटर स्क्रीन पर अचानक सुधि की तस्वीर उभर आती और फिर उसकी दोनों बाहें विपरीत दिशाओं की ओर फैलती दिखाई देतीं. लगता जैसे वह बहुत कुछ कहना चाह रही हो लेकिन उसकी आवाज़ कहीं अटक कर रह गई है.


बाज़ार और सुधि के बीच झूलती रिनी की आंखें भर आई थीं. ठीक इसी वक्त उसे मैम का मेल-मैसेज मिला डू युअर वर्क़ फास्ट. क्या कर रही हो?

हमेशा की तरह उसने जवाब भेजा, ओ के मैम.

समय संदेश के रश ऑवर में किसी को यह देखने की फुरसत ही नहीं रहती कि कौन क्या कर रहा है. बस एक गति होती है जो डैड लाइन तक अपना सारा काम निबटाने को आतुर नज़र आती है. एक ज्वार, जिसके ठंडा हो जाने पर फिर कोई यह ख़याल भी नहीं रख पाता कि इसमें किसने कितना सहयोग किया.


अपना काम निबटा कर रिनी सुधि पर स्टोरी करने को सोच रही है. क्या पहले बॉस से पूछ ले? मैम से ही क्यों न पूछ ले! मैगजीन सेक्शन के लिए भी तो की जा सकती है यह स्टोरी! रिनी के साथ दिक्क़त यही है कि वह ऐसे मौक़ों पर मूल काम में इतना ज्यादा मन रमा बैठती है कि अपनी स्टोरी के लिए स्पेस बनवाने में फिर उतनी मेहनत कर ही नहीं पाती.

तीसरी चाय पीते-पीते रिनी ने किसी तरह खुद को तैयार किया, बॉस से बात कर देखती हूं.

थोड़ी ही देर बाद वह बॉस के केबिन में थी, सर...सर मे आई...


हां, बोलो.

सर, मैं एक घरेलू औरत पर स्टोरी करना चाहती हूं, उसका स्ट्रगल...

रिनी, तुम ज़रा पेपर के नेचर को समझने की कोशिश किया करो. रीडर को चाहिए इंट्रस्टिंग मैटीरियल और तुम उस पर घरेलू औरत का स्ट्रगल थोपने पर आमादा हो. अरे वह पहले ही इतना परेशान है...पेपर देखते ही भाग खड़ा होगा...ये सब छोड़ो, देखो अभी रानी मुखर्जी की एक शानदार फ़ोटो सलेक्ट की है मि. बोस ने. तुम ज़रा उसके बर्थ डे पर एक बढ़िया पीस तैयार कर दो. फ्रंट पर जाना है, कॉपी ज़रा क्रिस्प और एट्रेक्टिव होनी चाहिए...ओ के.'

'यस सर' कहकर रिनी अपनी सीट पर आ बैठी थी.


मटकू उसकी तरफ़ देखते हुए भी नहीं देख रहा था. जीनियस ने मैम के पास आकर कुछ कहा तो मैम ने पलट कर रिनी की तरफ़ देखा-भर और फिर अपना पर्स उठाकर कमरे से बाहर निकल गईं.


मैडम के बाहर जाते ही कमरा कुछ खुला-खुला-सा लगने लगा. मटकू उठा और अचानक 'कजरारे-कजरारे तोरे नैना...' गाने लगा. उसने जीनियस की पीठ पर एक धौल जमाया और बोला, चलता है क्या प्रैस क्लब! बहुत दिन हो गए हैं यार जीनियस आईएएनएस की जेम्स बांड पर कोई स्टोरी कर रहा था. उसने मटकू की तरफ़ आंखें तरेरते हुए देखा और बोला, तेरे पास तो कोई काम है नहीं, कम से कम जो लोग कुछ करने की सोच रहे हैं, उन्हें सोचने तो दे. हर समय कजरारे-कजरारे क्या करता रहता है! आज लंच यहीं लेना है. तीन बजे मैं फूट लूंगा समझा. मैम को काम से प्यार है, काम से. जीनियस ने इस बीच अच्छी तरह नोट कर लिया था कि रिनी अपना सिर थामे मेज़ पर झुकी बैठी है. उसकी यह मुद्रा डिप्रेशन में चले जाने पर ही बनती है.


इस वक्त रिनी डिप्रेशन में ज़रूर थी लेकिन वह लंबे समय से तय नहीं कर पा रही थी कि आख़िर वह पेपर के अनुरूप ही बनकर रह जाए या फिर इस दायरे को तोड़ ज़िंदगी में एक रिस्क और ले देखे! घर से बार-बार फ़ोन और चिट्ठियों ने उसकी नाक में दम कर रखा था कि एक-दो बरस में या तो तुम खुद लड़का पसंद कर लो या फिर हम देख कर तय किए देते हैं.


रिनी अक्सर सोचती कि मां-बाप बेटी को घर से भगाने की इतनी जल्दी में क्यों रहते होंगे. क्या उन्होंने कभी उसके नज़रिए से सोचने की कोशिश भी की होगी. जल्दबाजी में अगर वह कभी सुधि जैसी स्थितियों में जा पहुंची तो...? सुधि जैसी और जाने कितनी होंगी. उनकी ज़िंदगी इसी तरह घुटती रह गईं तो?


तो...तो...तो...? जैसे हर तरफ़ से 'तो' का एक जंगल ही उग आया था.

ऐसे में उसे मटकू और जीनियस की बातों में कोई रस नहीं आ रहा था. वह खुद में सिमटते हुए भी अनंत की हो जाना चाहती थी. उसे लग रहा था कि अगर जल्दी ही उसने कोई निर्णय न ले लिया तो वह पागल हो जाएगी. अपने सोच के विपरीत जाना उसे असह्य लग रहा था.


जाने कितनी देर रिनी ऐसे ही बैठी रह गई. अपने से बाहर उसे निकाल कर लाया कैंटीन बॉय. रोज़ क़ी तरह वह सामने आकर मुस्कराता हुआ खड़ा हो गया. बेसुध रिनी ने जब काफ़ी देर तक उसे कोई रिस्पांस न दिया तो श्रीमान शरीफ ने उसका ध्यान खींचते हुए कहा, अरे रिनी खाना तो मंगवा ही लो. कुछ देर तो ठंडा होने में भी लगेगी न.


अक्सर ऐसा होता था. रिनी खाना तो मंगवा लेती, पर फिर वह देर तक ठंडा होता रहता. कभी वह खाना आ जाने पर मोबाइल लेकर बाहर निकल जाती. दस-पंद्रह मिनट खाना रिनी का इंतज़ार न करता रह जाए, यह हो नहीं सकता. खाना ठंडा होता तो सब देखते, लेकिन यह कोई न देख पाता कि कैसे उसने अपने विचारों को ठंडा होने से बचाए रखा है.


उस रोज़ तो ग़ज़ब ही हो गया था. 'महिला शक्ति' का मोर्चा जलूस निकल रहा था. खिड़की पर खड़ी रिनी ने यह दृश्य देखा तो जाने कैसा करंट उसके भीतर दौड़ा कि वह लगा-लगाया खाना छोड़ दौड़ पड़ी. प्रेस लेन से लालक़िले तक मोर्चे के साथ नारे लगाती चलती चली गई. घंटे-डेढ़ घंटे बाद लौटी तो पसीने से लथपथ, हांफती-कांपती. आते ही उसने जग उठाकर दो-तीन गिलास पानी तो गले में उड़ेल ही लिया होगा. उसकी हालत देखकर मटकू तो ख़ामोश ही रह गया, लेकिन जीनियस से चुप न रहा गया, 'गुरु, अब तो देख लेना इस देश में क्रांति होकर ही रहेगी.'


चाय की चुस्की लेती मैडम ने जैसे ही जीनियस का यह संवाद सुना, उनकी हँसी छूट गई. चाय गले में अटकते-अटकते और नाक में प्रवेश करते-करते बची. इस प्रक्रिया में चाय के कुछ छींटे डिप्टी के कपड़ों पर भी आ गिरे. उन्होंने मैडम को रूमाल से मुंह पोंछते देखा तो हँस पड़े. रिनी देख-सुनकर भी न समझ पाती हो, ऐसा न था. लेकिन इस वक्त उसे लगा कि उसके फौरी रिएक्शन का कोई अर्थ नहीं है. क्रांति देश में हो न हो, वह खुद एक निश्चित घेरे में बंधकर नहीं रह सकती. उसके काम करने और होने का अर्थ मासिक वेतन पाना भर नहीं है. यही वह क्षण था जब उसने कुछ तय किया और मैडम के पास जा पहुंची, मैम, मुझे आज चार बजे सीपी पहुंचना है.


काम ख़त्म करो और जाओ, नो

प्रॉब्लम. मैम ने उसका उत्साह बढ़ाया और पूछा, बाई द वे, आज क्या काम है वहां?

मैम, डैंटिस्ट से एपॉइंटमेंट हैं...


उसका सीपी जाने का मतलब होता ए चैनल में काम करने वालों से मेल-मिलाप और अपने लिए स्कोप तलाश करना. वह जब भी ए चैनल की ख़बरें देखती-सुनती, उसे लगता कि काम का असल मज़ा तो वहीं है. कैमरे के सामने रहो तो क्या कहने, न रहो तब भी हर वक्त एलर्ट और इन्वॉल्व रहना ज़रूरी है. बहुत पहले तो वह देखकर हैरान ही रह जाती थी कि कभी-कभी कैसे त्वरित बुद्धि से काम लेकर एंकर खाली स्पेस को भर देती थी. पल में टेंशन, पल में राहत. एक पल ग़मी तो दूसरे में उत्साहजनक माहौल. उसे विजुअल मीडिया काफ़ी चैलेंजिंग और आकर्षक लगता था.


काम ख़त्म कर रिनी ने सीधे सीपी की बस पकड़ी. पिछले तीन दिन से वह यही करती चली आ रही थी. उसके जाने के बाद भले ही काम ज्यादा हो या न हो, लेकिन उसकी अनुपस्थिति का एहसास कराने से कोई न चूकता.


मटकू ने आदतन हवा में अपनी आशंका उछाल दी, भाई, मुझे तो डर लग रहा है.

काहे का डर बे? जीनियस ने प्रश्न किया.


डॉक्टर कहीं दांत देखकर डर न जाए.

अबे चुप कर...हारी-बीमारी में मज़ाक़ नहीं उड़ाया करते... कहते हुए जीनियस ने चुपके से ख़ामोश ज्वालामुखी की तरफ़ देख लिया.


अक्सर ऐसा हुआ है कि जब ये दोनों रिनी की ग़ैरमौज़ूदगी में उसका मज़ाक़ उड़ा कर खुश होते, ख़ामोश ज्वालामुखी सौ सुनार की और एक लुहार की करके चुप करा देता. लेकिन आज वह किसी और ही गुंताड़े में मस्त था. उसके पास मटकू से रहा न गया, चलता है क्या सीपी?


मुझे किसी की जासूसी करने का कोई शौक नहीं. जीनियस ने भांजी मार दी.

दरअसल एक बार दोनों ने बस पर जाती रिनी का बाइक से पीछा किया था. इसके पीछे मकसद तो उनका कोई ख़ास था नहीं, लेकिन चुहलभरी एक मस्ती थी जो उन्हें रिनी के पीछे लगाए थी. रीगल के पास उतरकर रिनी भीड़ में जाने कहां बिला गई, कुछ पता ही न चला. शो छूटते वक्त यों भी काफ़ी भीड़ हो जाती है. बस, इसके बाद पहले रीगल, फिर मोहन सिंह पैलेस तक और फिर पालिका बाज़ार से प्लाजा तक काफ़ी देर टक्कर मारने के बाद दोनों दीवाने बुद्धुओं की तरह ऑफ़िस लौट आए थे. लेकिन यह क्या, रिनी उनसे पहले ऑफ़िस में मौजूद थी, मीट माई फ्रेंड रवींद्र. इन्होंने भी मासकौम से किया है.


क्या आंखें देखकर ही सबकुछ पढ़ लेती है रिनी. दोनों ने सोचा था और रवींद्र से औपचारिकता वश हाथ मिला लिया था.


इसके बाद तो वह जब भी ऑफ़िस से भागती, दोनों के जेहन में रवींद्र का चेहरा उभर आता. दोनों जानना चाहते कि रवींद्र कहीं जॉब भी कर रहा है या नहीं, लेकिन पूछ न पाते.

यह चौथा दिन था. लगातार चार दिन तक न रिनी आई, न उसका मैसेज. ऐसा अब तक न हुआ था.


मैम ने रश ऑवर के बाद शंका ज़ाहिर की, कहीं इस लड़की ने किसी और जगह ज्वाइन तो नहीं कर लिया.

कुछ भी हो सकता है मैम...इस जैनरेसन का कोई ठिकाना नहीं...? जीनियस कह तो गया, लेकिन फिर उसकी जीभ खुद-ब-खुद बाहर निकल गई जैसे कह रही हो ग़लती हो गई. 'इस जैनरेशन का कोई ठिकाना नहीं', दरअसल मैडम का तकिया कलाम ही बन गया था.

मैडम ने रिनी के मोबाइल पर संपर्क करना चाहा, असफल रहीं. लेकिन उन्होंने किसी को यह बताया नहीं. हां मटकू और जीनियस से ज़रूर कह दिया कि फ़ोन करके पता तो करें, माजरा है क्या?


मटकू और जीनियस भी अब कुछ हैरान-परेशान हो चले थे. इस ज़बरदस्त कंपिटीशन के ज़माने में भी इस लड़की की हिम्मत तो देखो, कैसे लगी लगाई नौकरी छोड़कर और बेहतर की चाह में चल निकली है. सोच दोनों रहे थे, पर जुबान पर बात मटकू के ही आई, मानना तो पड़ेगा साहब, लड़की है हिम्मती.


और नहीं तो क्या, तूने उसे अपने जैसा समझ रखा है? जीनियस ने कहा.

आख़िरकार मटकू ने ही फ़ोन किया था. उधर से रिनी का जवाब था, आय एम नॉट फीलिंग वैल. तीन-चार दिन तक आना मुश्किल लग रहा है.


मटकू ने घोषणा कर दी, मैडम, मुझे तो कोई तगड़ा ही नाटक लगता है. या तो ये कहीं ट्रायल दे रही है या फिर इसका कार्ड आने वाला है छपकर.


बात आई गई हो गई. समय संदेश अपने में मस्त होता चला गया. रिनी का थोड़ा काम किसी ने संभाला तो थोड़ा किसी और ने. क्रमश: इस बात पर सबका यक़ीन भी हो चला था कि रिनी वायरल की शिकार हो गई है. यूं भी, डेढ़ हड्डी की तो वैसे ही धरी है. लेकिन जब असलियत सामने आई तो सब हैरान हो गए.


जैसे किसी जमी हुई झील पर अचानक किसी शरारती बच्चे ने दूर से पत्थर फेंक दिया हो और फिर यह देखने चला आया हो कि उसकी इस हरकत से झील पर असर क्या हुआ! पांच फुट की वह सींकिया, मरगिल्ली-सी नज़र आने वाली रिनी, इतनी चतुर सुजान भी हो सकती है, किसी ने सोचा ही कहां था.

गुड मॉर्निंग सर, गुड मार्निंग मैम. चौंका ही तो दिया था रिनी ने, आज फ्री थी, सोचा आप लोगों से मिल आऊं. नौकरी छोड़ने के पूरे तीन महीने बाद आई थी रिनी.

कमरा काम में इतना बिजी तो नहीं था, लेकिन उसे देखकर कुछ ज्यादा ही बिजी हो गया.

गुड मार्निंग, कैसी हो रिनी? जैसा साधारण-सा संवाद तो क़रीब-क़रीब हर किसी की तरफ़ से उछला, लेकिन फिर उसका जवाब सुनने की औपचारिकता शायद मैडम ने ही दिखाई.

वह पहले तो कुछ तेज़ स्वर में शायद इसलिए बोलती रहीं कि सभी को उसके हाल-चाल पता लग जाए, लेकिन फिर क्रमश: आवाज़ धीमी होती चली गई.


जीनियस ने उसकी तरफ़ कनखियों से देखा और सोचा, हूं, लग तो ठीक ही रही है.

मटकू ने जीनियस को उसकी तरफ़ रुख करते हुए देखा और खुद से बोला, आदत से बाज थोड़े ही आएगा!

श्रीमान शरीफ़ ने दो-तीन बार इस फ़िराक़ में गर्दन उठाई भी कि शायद रिनी कुछ उनसे भी कहे, लेकिन वह मैडम के साथ बिजी थी.


रिनी और मैडम, मैडम और रिनी. दो सिर झुके हुए क़रीब-क़रीब फुसफुसा रहे थे. थोड़ी देर बाद अचानक एक वाक्य कुछ ज़ोर से हवा मैं तैर गया, तुम खुश हो वहां, यह जानकर अच्छा लगा. चलो चलकर काफ़ी पीते हैं...


कमरे से निकलते-निकलते रिनी एक झटके से मुड़ी और अपनी पूर्व अलमारी के पास आ खड़ी हुई, सर, इसकी चाबी किसके पास है?

क्यों? मटकू ने कहा.

सर, मेरी जैकेट रखी थी इसमें...

सिर्फ़ जैकेट?

नहीं सर, कुछ लव लेटर्स भी रखे थे... कहते हुए रिनी हँस दी.


अलमारी खुलवा, जैकेट ले, मैडम के साथ कॉफी पीने गई तो फिर लौटकर आई ही कहां!

रिनी नहीं आई?लौटने पर मैडम से जीनियस ने पूछा.

चली गई. उसे एक बजे रिपोर्ट करना था भई. मैडम ने कहा.

लो जी, हम तो इंतज़ार ही करते रह गए... मटकू ने सिर को झटका देते हुए कहा.


जिसे देखो, वही रिनी-रिनी कर रहा था. लेकिन झलक दिखाकर रिनी जा चुकी थी. किसी असरदार छोटे विज्ञापन की तरह.

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वरिष्ठ कथाकार महेश दर्पण का जन्म 1 जुलाई, 1956 को धर्मशाला (हिमाचल प्रदेश) में हुआ. शिक्षा, एम. ए. (हिंदी), कृतियां, 'मिट्टी की औलाद', 'चेहरे', 'अपने साथ' और 'छाया संवाद' (कहानी-संग्रह), 'रचना परिवेश' (साहित्य समीक्षा), 'कथन-उपकथन' (साक्षात्कार), 'विश्व की प्रसिद्ध लोक कथाएँ, (संकलन), 'स्वातंत्रयोत्तर हिंदी कहानीकोश', 'चर्चित कहानियां', 'बीसवीं शताब्दी की हिंदी कहानियां', प्रेमचंद व जयशंकर प्रसाद, 'प्रेम कहानियां', 'राजधानी की कथा-यात्रा' आदि का संपादन. संप्रति : टाइम्स ऑफ इंडिया प्रकाशन समूह के 'सांध्य टाइम्स' से संबद्ध.