चित्र / शंकर पुणताम्बेकर

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वह चित्र बना रहा था। सामने स्‍टैंड पर फलक, हाथ में कूँची, नीचे रंग फैले हुए।

वह चित्र बना तो रहा था, पर क्‍या चित्र बना रहा था उसे नहीं मालूम! आँखों के सामने धुँधलका। धुँधलके में से वह चित्र खोजने की कोशिश करता।

दरवाजे पर दस्‍तक। वह उठकर दरवाजा खोलता है।

दरवाजा खोलने पर सामने क्‍या देखता है कि रूस के अध्‍यक्ष मिखाइल गोर्बाचेव खड़े हुए हैं।

"आइए, आइए!" वह उनका स्‍वागत करता है और उन्‍हें अंदर लाता है।

फलक के पास एक कुर्सी थी, उसी में वह गोर्बाचेव को बैठाता है।

"माफ करना, मैंने तुम्‍हें डिस्‍टर्ब किया। तुम काम में हो।" गोर्बाचेव बोले।

"नहीं, नहीं, आपने डिस्‍टर्ब नहीं किया।" वह बोला, "मैं काम में जरूर था। मेरे हाथ में कूँची तो थी लेकिन आँखों में दृष्टि नहीं थी। पता नहीं कूँची से क्‍या उतरता।"

"मेरा एक काम करोगे? मुझे एक चित्र बना दो। कबूतर का चित्र।"

"कबूतर का चित्र।" वह बोला।

"हाँ," गोर्बाचेव ने कहा। "अब तक हमने बड़े गलत चित्र बनाए कबूतर के। हमने से मतलब क्‍या रूस ने क्‍या अमेरिका ने। चित्र तो हम लोगों ने कबूतर का बनाया लेकिन उसके अंदर रखे शस्‍त्र… अणुशस्‍त्र। ऊपर से कबूतर अंदर से गिद्ध। ऐसा चित्र क्‍यों बनाया? इसलिए कि हम स्‍वयं ऊपर से कबूतर और अंदर से गिद्ध थे।"

"आप क्‍या लेंगे? चाय या कॉफी? बोडका तो मेरे यहाँ है नहीं।"

गोर्बाचेव हँसे। बोले, "जो भी तुम पिलाओ। सही कबूतर के चित्र के साथ तो जहर भी पिलाओगे तो मैं पी लूँगा।"

उसने गोर्बाचेव के लिए कबूतर का चित्र बना दिया।

गोर्बाचेव बड़ी खुशी-खुशी उसके यहाँ से विदा हुए।

वह चित्र बना रहा था।

वह चित्र बना तो रहा था, पर क्‍या चित्र बना रहा था उसे नहीं मालूम। आँखों के सामने धुँधलका। धुँधलके में से वह चित्र खोजने की कोशिश करता।

दरवाजे पर दस्‍तक।

दरवाजा खोलने पर सामने देखता है तो धर्म की मूर्ति शंकराचार्य।

वह स्‍वागत कर उन्‍हें अंदर लाता है और फलक के पास की कुर्सी में बैठाता है।

"क्षमा करना, मैं तुम्‍हारे पास एक काम से आया था। मुझे एक चित्र बना दो। हंस का चित्र।"

"हंस का चित्र।" वह बोला।

"हाँ," शंकराचार्य ने कहा, "शुभ्र वर्ण का हंस, रक्‍त वर्ण का नहीं। मोती चुगनेवाला… राजनीति, अर्थनीति, धर्मनीति में से केवल नीति चुगनेवाला हंस। पानी-का-पानी और दूध-का-दूध कर देनेवाला हंस।"

"लेकिन आप स्‍वयं ऐसा हंस प्रस्‍तुत करते रहे हैं। कबीर ने प्रस्‍तुत किया, नानक ने प्रस्‍तुत किया, स्‍वामी विवेकानंद ने प्रस्‍तुत किया।"

"हाँ, किया। लेकिन लोकतंत्र में इसे अब लोक के हाथों ही प्रस्‍तुत होने दो। लोगों को हमारी कूँचियों में सांप्रदायिकता के रंग नजर आते हैं, हमारे हंसों में कौआ नजर आता है।"

"आप क्‍या लेंगे चाय या कॉफी? दूध तो मेरे यहाँ है नहीं।" वह बोला।

"मैं जानता हूँ, नहीं होगा। दूध शुभ्र होता है और विडंबना यह कि शुभ्र ही इससे वंचित रह जाता है। तुम मुझे सिर्फ पानी दो।"

"लेकिन मेरा वर्ण तो…"

"कला का, श्रम का, चरित्र का, न्‍याय का कोई वर्ण नहीं होता। बल्कि इनका उच्‍च वर्ण होता है। हमें जो उच्‍च वर्ण अभिप्रेत है वह इन्‍हीं का वर्ण है। इन्‍हीं से विहीन शूद्र वर्ण है।"

उसने शंकराचार्य के लिए हंस का चित्र बना दिया।

शंकराचार्य बड़ी खुशी-खुशी उसके यहाँ से विदा हुए।

वह चित्र बना रहा था।

वह चित्र बना तो रहा था, पर क्‍या चित्र बना रहा था उसे नहीं मालूम। आँखों के सामने धुँधलका। धुँधलके में से वह चित्र खोजने की कोशिश करता।

दरवाजे पर दस्‍तक।

उसने उठकर दरवाजा खोला तो देखा अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस के नेता नेल्‍सन मंडेला खड़े हैं।

स्‍वागत कर वह उन्‍हें अंदर लाया और फलक के पास की कुर्सी में बैठाया।

"मैं जरा जल्‍दी में हूँ भाई! तुम तो जानते हो मैं इसी माह (11 फरवरी, 1990) वर्षों बाद जेल से छूटा हूँ। बहुत काम पड़े हैं। मैं चाहता हूँ तुम मेरे लिए एक चित्र बना दो। एक कोकिल का चित्र।" मंडेला बोले।

"कोकिल का चित्र!" उसके मुँह से निकला।

"हाँ," मंडेला ने कहा, "कोकिल का चित्र… काली कोकिल का चित्र, जिसको अब तक सफेद चमड़ी के हंस नामी बगुलों ने कौआ समझ रखा था।"

"हे कलाकार, तुम तो जानते हो राजनीति में केवल दो ही वर्ण होते हैं - एक सफेद, एक काला। सफेद अपने काले पर पोतने के लिए और काला औरों के सफेद पर पोतने के लिए। कलानीति में ऐसा नहीं होता। वहाँ तो वर्ण नहीं रंग होते हैं - विविध रंग। कलानीति में तो काला भी उतना ही सुंदर है जितना कोई और रंग। काला राजनीति में कौआ है तो कलानीति में कोकिल।"

"आप महान हैं मंडेला साहब, आप महान हैं। राजनीति में रहते भी आपको कला की परख है।"

"मेरे कलाकार, अब क्‍या बताऊँ मैं तुम्‍हें! कोकिल के चित्र बनते रहे, पर अंदर उसके तोता रहता। अंदर तोता, सो पिंजरे में बंद आराम की जिंदगी जीता और पढ़ाए हुए को ही गाता।"

"आप क्‍या लेंगे चाय या कॉफी?"

"दोनों ही कुछ अंतर से लूँ तो?" मंडेला हँसते हुए बोले, "जेल इन्‍हीं पर तो काटी है भाई! चाय तो अभाव और गरीबी का एकमात्र सहारा है।"

उसने मंडेला के लिए कोकिल का चित्र बना दिया।

मंडेला बड़ी खुशी-खुशी उसके यहाँ से विदा हुए।

वह चित्र बना रहा था।

वह चित्र बना तो रहा था, पर आँखों के सामने धुँधलका होने से कोई स्‍पष्‍ट चित्र उसकी नजरों में नहीं था।

तभी दरवाजे पर दस्‍तक हुई।

उसने उठकर दरवाजा खोला तो पाया - महान अमेरिकी लेखक आर्थर मिलर खड़े हैं।

"आइए, आइए!" उसने उनका स्‍वागत किया और वहीं फलक के पास की कुर्सी पर बैठाया।

"तुमने मुझे पहचाना इसके लिए मैं तुम्‍हारा शुक्रगुजार हूँ। लोग खिलाड़ियों और अभिनेताओं को ही पहचानते हैं।"

"मैं शुक्रगुजार हूँ कि आप मेरे यहाँ आए। शब्‍दों का एक महान चितेरा मुझ जैसे सामान्‍य रंगकार के यहाँ!"

"नहीं भाई नहीं, ऐसा न कहो। सच पूछो तो मैं तुम्‍हारे यहाँ मतलब से आया हूँ। तुम एक चित्र बना दो मेरे लिए। मयूर का चित्र!"

"मयूर का चित्र!" उसके मुँह से निकला।

"तुम्‍हें आश्‍चर्य हो रहा है न!" मिलर बोले, "सोचते होगे मुझ-जैसे को तो बंदर का चित्र बनवाना चाहिए। हम लोग कहते तो हैं कि बंदर से आदमी बनें, लेकिन आदमी बनकर अब हम प्रगति के साथ देवता बनने के स्‍थान पर पुनः बंदर ही बन रहे हैं, संपन्‍न बंदर, शक्तिशाली बंदर। बंदर की जो रेस अधिक शस्‍त्र-संपन्‍न, दुनिया को खत्‍म करने की जिसमें अधिक ताकत व अधिक प्रगति।"

"मैं जानता हूँ, आपकी कलम ऐसे बंदरों के खिलाफ पूरी ताकत के साथ जूझ रही है।" वह बोला। और सवाल किया, "आप मयूर का ही चित्र क्‍यों चाहते हैं?"

"इसलिए कि मैं साहित्‍य को मयूर मानता हूँ। अपने रंग-बिरंगे पंख फैलाकर मयूर कितना सुंदर नृत्‍य प्रस्‍तुत करता है! ...और जानते हो मयूर नृत्‍य ही नहीं करता, वह सर्प का सफाया भी करता है।"

"एक बात कहूँ, आप बुरा तो नहीं मानेंगे?" वह बोला, "आज का साहित्‍य यथार्थ के नाम... सर्प का सफाया करने के नाम केवल डंडा नचाता है, साहित्‍य नहीं।"

"आप ठीक कहते हैं।" मिलर बोले, "डंडा... कोई वाद, फिर वह जनता से कितना ही जुड़ा हो साहित्‍य नहीं केवल डॉक्‍टरी एक्‍स-रे है।"

"आप क्‍या लेंगे चाय या कॉफी?"

"कुछ भी। बस गरम हो, आज के सही साहित्‍य-जैसा।"

उसने मिलर के लिए मयूर का चित्र बना दिया।

आर्थर मिलर बड़ी खुशी-खुशी उसके यहाँ से विदा हुए।

वह चित्र बना रहा था। वह चित्र बना तो रहा था पर आँखों के समाने धुँधलका होने से कोई स्‍पष्‍ट चित्र उसकी नजरों में नहीं था। पेट में चूहे बुरी तरह से दौड़ रहे थे। पत्‍नी को दो बार भोजन के लिए आवाज दे चुका था।

जब तीसरी बार आवाज दी तो पत्‍नी अंदर से ही बोली, "कैसे लाऊँ भोजन! पकाने को घर में कुछ नहीं है। कैसे हो सकता है जब तुम कबूतर, कोकिल, हंस, मयूर में डूबे रहोगे।"

तभी दरवाजे पर दस्‍तक हुई।

दरवाजा खोलने पर उसने देखा भेड़िया है।

"देखो, मुझे एक चित्र बना दो तुम। भेड़ का चित्र।"

"नहीं बनाऊँगा।" वह बोला, "भेड़ को छीलनेवाले, भेड़ को खा जानेवाले तुम! मैं जानता हूँ भेड़ का चित्र तुम्‍हें क्‍यों चाहिए। भेड़ से प्‍यार के दिखावे के लिए।"

"मैं तुम्‍हें इतना दूँगा, इतना जो कोई नहीं दे सकता।" भेड़िया बोला।

"नहीं, मैं बिकाऊ नहीं हूँ।"

इतना कह उसने दरवाजा बंद कर दिया और अपनी जगह पर आया।

तभी पत्‍नी बोली, "यह तुमने क्‍या किया! रोटी दरवाजे पर आई थी, और तुमने उसे ठुकरा दिया।"

उधर पत्‍नी बोली और इधर उसके पेट की भूख भी जोर से चीखी।

वह उठा और दरवाजे की ओर भागा।