चिन्तन / परंतप मिश्र

Gadya Kosh से
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भौतिक जगत के मूल में सूक्ष्मता से जीव के विकास की यात्रा इतिहास की पुरातनता पर विज्ञान की नवीनता का क्रमिक विस्तार है। पशु जगत के विशाल साम्राज्य में मानव ने श्रेष्ठता प्राप्त करते हुए निरंतर नए आयाम अर्जित किये हैं। पशु से मानव तक की यात्रा कि हर कड़ी को समय ने युग परिवर्तन के रूप में झुक कर चलने से सीधे खड़े होने तक के प्रयास का साक्षी रहा है।

प्राचीन युग से आरम्भ पाषाण में अनुभूति की नदियों की धाराओं ने जन्म लेकर अपने किनारों पर भावनाओं की उर्वरा मिट्टी में सम्बन्ध के बीजों को रोपकर सभ्यता और संस्कृत के हरित वनों से मानवता कि आधारशिला को कभी संरक्षित किया था।

अनवरत विकास के साथ नये प्रतिमान और निर्मित होते आदर्शों के स्थापन में, दृष्टि से दर्शन की गति बौद्धिक विकास की अंतहीन शृंखला कि कड़ियों को चिन्तन के प्रकाश में परखा है। पुष्ट होते मानव के आत्मरक्षा कि प्रवृति पर गुफाओं में पलते सामाजिक स्पंदन की बयार ने परिवार की अनिवार्यता को स्थापित करने के साथ विचारों के अनुकूलन के आधार को समूह की व्यवहारिक स्वीकार्यता को पल्लवित होने में सहयोग किया है।

सम्बन्धों की अनिवार्यता पर विकसित हुई सामाजिक विचारधारा नें पाषाण-पशुओं की शुष्कता से विलग होकर आत्मिक सम्वेदनाओं को मानवता के रगों में प्रवाहित किया था। सम्बन्ध-परिवार-समाज-सभ्यता और संस्कृतियों ने नैतिक मूल्यों से व्यवहारिक धरातल को कर्म के कुशल उपकरणों से समतल कर पशुओं की सहभागिता सुनिश्चित करते हुए ऋतुओं के संयोजन का आलम्बन लेकर फल व अन्न के महत्त्व को आत्मसात करते हुए कृषि की दिशा में बढ़ चले डगों ने आत्मनिर्भरता के पथ पर अपनी यात्रा के स्मृति चिन्हों को भविष्य के लिए सुरक्षित कर लिया था।

प्रकृति के उपहार से उत्साहित निरंतर प्रयोगों से परिष्कृत होते उपयोगी उपकरणों का संसाधन विचारशील मनु के मन से मानवता के मनन का मार्ग प्रशस्त हुआ। अनुभव जनित अभिव्यक्तियों से उपजे आत्मज्ञान को सुरक्षित करने और संचरित करने के लिए संवाद से श्रुत ज्ञान के रूप में सहेजकर अनेक पीढ़ियों तक सफल यात्रायें की। भाषाओं के विज्ञान ने लिपि का आविष्कार कर चिरकाल तक अपनी उपस्थिति को अंकित कर दिया है।

विश्वगाँव की विस्तृत धराभूमि पर संरक्षित जागते सांस्कृतिक विरासतों के अवशेषों पर विज्ञान ने उपयोगिता का मूल्यांकन किया है। पशुओं के जगत से विकसित मानव ने अपनी श्रेष्ठता कि यात्रा में महामानव से अतिमानव तक की परिकल्पना को स्थान दिया है। प्रकृति की व्यवहारिक स्वीकार्यता ने सर्वश्रेष्ठ के चयन से योग्यता और समय के सामंजस्य का परिणाम दिया है।

पुरातन और नवीन संस्कृतियों के बनते और बिगड़ते भौगोलिक परिवर्तनों की पाण्डुलिपियों ने उपलब्ध विशाल साहित्य में अंततः परमतत्व के अन्वेषण की ललक को बौद्धिक धरातल पर सम्पादित करने के निरंतर प्रयास किये हैं। काल प्रसूत युग की महान विभूतियों ने अपने उपयोगी सिद्धान्तों से अनेक विद्याओं के विकास से मानवीय सम्बन्धों को प्रतिपादित किया है जो आज भी तर्क और वितर्क की कसौटी पर अपने अस्तित्व को सुरक्षित पाते हैं।

सहजीविता को परिभाषित करती विचारधारा ने जड़-चेतन जगत में निर्जीव-जीव को समान रूप से सम्मानित कर उनके संरक्षण के लिए विश्व कल्याण की भावना को पोषित किया गया है। पाषाण के कठिन प्रयासों से झरते स्वेद बिन्दुओं पर सूक्ष्म जीवों का अवतरण निर्जीव से सजीव के सम्बन्धों की मर्यादा है, तो वहीं पृथ्वी पर लहराती अपार जल सम्पदा का आलम्बन अचर से चर तक की सहानुभूति है।

मानवता के महासागर में आकर मिलती न जाने कितनी सभ्यताओं की नदियों ने अपनी सांस्कृतिक धारा को तिरोहित किया है। उनके दोनों किनारों पर स्थित प्रतिस्थापित मूल्यों की हरियाली से नैतिक कर्तव्यों के पुष्प पुष्पित कर आदर्शों के फल को फलित किया है।

आधुनिक युग का मानव विकास की अद्भुत यात्रा का प्रयास है। विवेक से ज्ञान और विज्ञान का उपयोग सांसारिक और पारलौकिक पथ पर प्रगति का सफल प्रयोग है। बहुधा यांत्रिक विकास और बौद्धिक पराकाष्ठा से आत्ममुग्ध जीव अपने भावनात्मक संवेदनाओं को काल के सापेक्ष अनुभूतियों की अनिवार्यता को मान्यता न देकर, भौतिक विकास के रथ पर आरूढ़ होकर प्राचीनतम नैतिक मूल्यों-आदर्शों और सामाजिक व्यवहारिकता को उपयोगिताओं का कृत्रिम आधार देकर केवल प्रदर्शन तक सिमित कर जाते है।

अपनेपन की कोमल भावनाओं से सिंचित सम्बन्धों की माटी पर स्वार्थ के कैक्ट्स की खेती की जा रही है तो वहीं आत्मिक संयोग से झरता प्रेम का श्रोत अब परस्पर लगाव और निर्भरता कि परिधि से बहुत दूर आदर व सम्मान की सुगंध को त्याग कर तृषित व्यवहारिकता सूखते शब्दों की ठूँठ पर दिखावे की नकली औपचारिकताओं का असफल मंचन मात्र रह गया है।

परिवर्तन श्रृष्टि का नियम है तो योग्यतम का चुनाव प्रकृति स्वयं करती है। काल-क्रम एक साक्षी हैं, तो ज्ञान हमारे चक्षु। विनाश और विकास की अनवरत शृंखला में विश्व का कल्याण मानव के महामानव बनने के पथ का पड़ाव हो सकता है। पर अतिमानव एक लक्ष्य है जिसके लिए मानव सभ्यता का इतिहास निहार रहा है।