चिन्ता कि मकडी / गोवर्धन यादव

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आदमी ज़िन्दगी में तीन काम बमुश्किल कर पाता है, बच्चों की पढाई-लिखाई, उनकी शादियाँ और एकाध छोटा-सा मकान, यह सब करते-करते वह या तो दुनिया से कूच कर जाता है या फिर उसकी जेब पूरी तरह से खाली हो जाती है, यदि वह जीवित रहा तो केवल उसके पास शेष रह जाती है भूली-बिसरी बातें जिनके सहारे वह-वह अपना एकाकी जीवन काटता है, रामलालजी के परिवार में दो बेटे त्तथा एक बेटी है, उन्होंने नौकरी में रहते हुए अपना एक आशियाना बनवा लिया था, सभी की उचित परवरिश करते हुए उन्हें उच्च शिक्षा दिलवाई थी, दोनों बेटों की शादी वे कर चुके थे, आज दोनों बेटे तथा बहूएँ सरकारी मुलाजिम है, अच्छा खासा कमाते भी हैं, सेवानिवृति से पूर्व वे अपनी बेटी की शादी नहीं करवा पाए थे, बस इसी बात का दुख उन्हें सालता है,

काफ़ी प्रयास के बाद एक रिश्ता आया, लडका देखने में स्मार्ट था और वह एक इंजिनियर के पद पर कार्यरत थी, लडका दहेज लेने के पक्ष में नहीं था लेकिन पिता को मोटी रक़म दहेज में चाहिए था, उनका अपना कहना था कि लाखॊं ख़र्च करके लडके को पढाया-लिखाया है, सो अपना घाटा इस तरह पूरा करना चाहते हैं, खैर बात आगे बढी, रामलालजी को उम्मीद थी कि वे रक़म का इंतज़ाम कर लेगें,

घर के पूरे सदस्य बैठकर इस पर विचार-विमर्श कर रहा थे, उन्होंने अपनी व्यथा उजागर करते हुए कहा कि अब उनके पास पेन्शन के अलवा कुछ भी देने को बचा नहीं है और शादी में लगभग दस लाख ख़र्च होने है, यदि आप सभी इसमें सहभागी बनते हैं तो बात बन सकती है,

सहमति अथवा असहमति देने की बारी दोनों बेटॊं और बहूऒं की थी, सभी ने मौन ओढ रखा था, सब एक दूसरे का चेहरा देख रहे थे कि पहल कौन करता है,

आखिर बडॆ बेटे ने मुँह खोला, पिताजी........., पिछली साल अम्माजी के बिमारी के चलते मेरे लगभग एक लाख रुपया ख़र्च हो गया, फिर मुझे अपने बेटा-बेटियों को भी तो आगे पढाना-लिखाना है, मैं बडी रक़म तो नहीं दे पाऊँगा, हाँ एकाध लाख फिर भी जुटा लूंगा, दूसरे ने कहा-अभी हम लोगों की इतनी सेलेरी नहीं है, फिर भी पच्चीस-पचास का इन्तजाम तो मैं कर ही दूँगा, बहूऒं ने अपनी ओर से मुँह नहीं खोला, खैर, उनसे उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी,

अपनी-अपनी बात कहकर सब, एक के बाद एक उठकर चले गए थे, हाल में बचे रह गए थे केवल रामलालजी, जो विचारों के भंवर में डूब-चूभ रहे थे और चिंता कि मकडी उनके चेहरे पर घना जाला बुनने लगी थी।