चुकारा / पंकज सुबीर

Gadya Kosh से
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'नमस्कार मेजर साहब।' नमस्कार करने वाला एक पच्चीस छब्बीस साल का युवक है। मेजर रविकांत गार्डन अम्ब्रेला के नीचे बैठे सुब्ह की चाय की चुस्कियाँ ले रहे हैं। सुबह की चाय और सुबह का अख़बार रोज़ के नियम की तरह।

'नमस्कार, सॉरी मैंने आपको पहचाना नहीं।' मेजर रविकांत ने कुछ उलझन भरे स्वर में उत्तर दिया।

मेजर रविकांत सेना से सेवा निवृत्त हो चुके हैं। सेवा निवृत्ती के बाद लगा कि चलो वापस अपने पैतृक शहर को ही अपना ठिकाना बना लिया जाये, तो यहाँ आ गये। पैतृक मकान बरसों से किराये पर ही चल रहा था। मकान में शिफ्ट होने से पहले लगभग उतना ही काम करवाना पड़ा था जितना कि नये मकान बनाने में होता है। जब सब कुछ मन माफ़िक हो गया तो रहने को आ गये दोनों पति पत्नी यहाँ। दोनों पति पत्नी इसलिये कि बच्चे सब अपने-अपने कॅरियर में सेटल हो चुके हैं, शादियाँ हो गईं हैं, तो अपने-अपने परिवारों के साथ मस्त हैं और व्यस्त भी। अब पिछले दस बारह सालों से दोनों पति पत्नी यहीं हैं। बीच-बीच में बच्चे आते रहते हैं, या कभी-कभी ये लोग भी बच्चों के पास चले जाते हैं।

'आप मुझे नहीं पहचानते, मेरा नाम राहुल वर्मा है।' उस युवक ने विनम्रता के साथ उत्तर दिया।

'बैठिये, बताइये मैं क्या कर सकता हूँ आपके लिये?' मेजर रविकांत ने कुछ शिष्टता के साथ बैठने का इशारा करते हुए पूछा। उनके कहते ही वह युवक पास ही रखी हुई कुर्सी पर बैठ गया। उसके बैठते ही मेजर रविकांत उस युवक के लिये भी चाय तैयार करने लगे। ये उनकी आदत में शुमार है। अपने हाथों से ही चाय बना कर देना।

'शुगर?' मेजर रविकांत ने पूछा।

'जी, एक चम्मच।' युवक ने उत्तर दिया।

चाय की चुस्कियाँ लेते हुए कुछ पलों के लिये दोनों ख़ामोश ही रहे। कुछ देर बाद युवक ही कुछ झिझकते हुए बोला 'मैं एक छोटा-सा अनुरोध लेकर आया हूँ आपके पास।'

'बताइये-बताइये, मैं क्या कर सकता हूँ।' मेजर रविकांत ने तुरंत उत्तर दिया।

'जी दरअसल मैं एक दुकान डाल रहा हूँ, रेडीमेड कपड़ों की। मेन मार्केट में, जहाँ एक ही छत के नीचे सारे प्रमुख ब्रांडेड कपड़े मिलेंगे।' युवक ने ख़ाली चाय का कप बेंत की टेबल पर रखते हुए उत्तर दिया।

मेजर रविकांत कुछ उलझन में पड़ गये। रेडीमेड कपड़ों की दुकान से उनका क्या लेना देना और फिर ये तो पहले ही कह चुका है कि कोई परिचित नहीं है। उनका तो कोई जान पहचान वाला भी रेडीमेड व्यवसाय में नहीं है। फिर क्यों आया है ये यहाँ। कहीं पैसा वैसा माँगने तो नहीं आया। लेकिन अपरिचित व्यक्ति एकदम से पैसा माँगने कैसे आ सकता है।

'ये तो बहुत अच्छी बात है, शहर में इस प्रकार का कोई रेडीमेड स्टोर है भी नहीं। अच्छा सोचा है आपने। बताइये मैं क्या कर सकता हूँ आपके लिये।' मेजर रविकांत ने प्रत्यक्ष में उत्तर दिया।

'जी मैं चाहता हूँ कि उस दुकान का शुभारंभ आपके ही हाथों से हो।' युवक ने उत्तर दिया।

'मेरे हाथों? मेरे हाथों क्यों भई? मैं तो कोई पोलिटीशियन नहीं, उसके लिये तो आपको किसी पोलिटीशियन को बुलाना चाहिये, पेपर-वेपर में फोटो भी छप जाएँगे और आपको पब्लिसिटी भी मिल जायेगी।' मेजर रविकांत ने हल्के-फुल्के अंदाज़ में उत्तर दिया।

'नहीं सर मुझे तो आपकी ही स्वीकृति चाहिये। आप यदि अपने हाथों से फीता काट कर उस दुकान का उद्घाटन करने की स्वीकृति दे दें तो मुझ पर बड़ा उपकार होगा।' युवक ने कुछ और विनम्रता अपने स्वर में घोलते हुए कहा।

'लेकिन मैं क्यों भई?' मेजर रविकांत ने इस बार कुछ हँसते हुए पूछा।

'आपने देश की सेवा की है सर। इतने सालों तक सेना में रहे हैं आप। काश्मीर से लेकर देश के सभी मुश्किल इलाक़ों में आपने अपनी सेवाएँ दी हैं, भला आपकी बराबरी कोई पोलिटीशियन कैसे कर सकता है।' युवक ने उत्तर दिया।

'हूँ...आप तो काफ़ी कुछ जानते हैं मेरे बारे में।' मेजर रविकांत ने मुस्कुराते हुए कहा।

'कौन नहीं जानता है सर आपके बारे में, मेरी इच्छा है कि मेरी दुकान का शुभारंभ आपके शुभ हाथों से हो, ना कि किसी पोलिटीशियन के... ।' कहते-कहते युवक ने बात को बीच में ही छोड़ दिया।

मेजर रविकांत ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे उठकर गार्डन अम्ब्रेला का डायरेक्शन ठीक करने लगे। उसके बाद हवा से फड़फड़ा रहे अख़बार के पन्नों को एक साथ मोड़कर बेंत की टेबुल पर रख कर उस पर अपनी भारी-सी एश ट्रे रख दी। युवक चुपचाप बैठा था।

'अगर ऐसा है तो मेरी सलाह ये है कि आप अपनी माँ के हाथों से अपनी दुकान का शुभारंभ करवाएँ, माँ से ज़्यादा शुभ हाथ बच्चों के लिये कोई नहीं होते।' मेजर रविकांत ने कुछ गंभीर होते कहा।

'आप सही कह रहे हैं सर, लेकिन मेरी माँ नहीं हैं।' युवक ने उत्तर दिया।

'ओह, आय एम सॉरी।' कह कर वे चुप हो गये और सिगरेट जलाने लगे। युवक सिर झुका कर बैठा हुआ था। कुछ देर के लिये फिर से ख़मोशी छा गई। मेजर रविकांत चुपचाप धुँए के छल्ले उड़ाते रहे। फिर एक छल्ले से पार आसमान में आँखें जमाते हुए बोले 'वेल, अगर आप इतना ही इनसिस्ट कर रहे हो तो मैं आ जाऊँगा।'

'थैंक्स सर, बस एक छोटा-सा अनुरोध और है कि आप मैडम को भी साथ लेकर आएँ।' युवक ने कृतज्ञता से भरे स्वर में उत्तर दिया।

'हाँ हाँ बिल्कुल वह तो वैसे भी साथ ही रहती हैं। कब आना है वैसे?' मेजर रविकांत ने उत्तर और प्रश्न एक साथ किये।

'जी छब्बीस जनवरी को दोपहर एक बजे आना है। मैं कार्ड देने आऊँगा उसमें सब डिटेल्स होंगीं। अच्छा मैं चलता हूँ।' कह कर युवक उठ कर खड़ा हुआ और उसने मेजर रविकांत के पैर छू लिये।

'अरे अरे... बस बस... खुश रहो।' मेजर ने कहा। युवक ने एक बार हाथ जोड़ कर अभिवादन किया और तेज़-तेज़ क़दमों से गेट की तरफ़ बढ़ गया। मेजर रविकांत सिगरेट का धुँआ छोड़ते हुए उस जाते हुए युवक की पीठ को ग़ौर से देखते रहे। वे अभी भी उलझन में थे।

'कौन था ये? क्यों आया था?' उनकी पत्नी ने पूछा, जो युवक को जाता देख कर अंदर से आकर उनके पास खड़ी हो गईं थीं।

'पता नहीं कौन था? मुझसे अपनी दुकान का उद्घाटन करवाना चाह रहा है।' मेजर रविकांत ने हँसते हुए पत्नी को उत्तर दिया।

'तुमसे? कौन सिरफिरा है ये?' पत्नी ने भी उसी प्रकार से हँसते हुए पूछा।

'क्यों? इसमें सरफिरा होने की क्या बात है? भई हमने भी देश की सेवा की है, हम भी तो ख़ास हो सकते हैं? क्या ख़ास होने का अधिकार केवल पॉलिटीशियंस को ही है? और हाँ आपको भी साथ चलना है, आपको भी ख़ास तौर पर बुला कर गया है वो।' मेजर रविकांत ने चुटकी लेते हुए कहा।

'मुझे भी? मैं क्या करूँगी वहाँ, आप तो उद्घाटन करने जा रहे हैं।' पत्नी ने टेबुल पर रखे चाय के मग्स को ट्रे में सहेजते हुए कहा।

'अरे भई आप वहाँ से कुछ ख़रीद कर उसका उद्घाटन कर देना। अब जा रहे हैं तो कुछ तो ख़रीदना ही होगा। छब्बीस जनवरी को चलना है याद रखना। वैसे वह कह गया है कि कार्ड देने भी आयेगा अभी।' मेजर रविकांत ने कुर्सी पर बैठे-बैठे अपने शरीर को खींचते हुए कहा और उठ कर खड़े हो गये। पत्नी टेबुल का सामान समेटने में लगी थीं।

दोनों पति पत्नी बिना किसी शिकवा शिकायत के अपनी ज़िंदगी का जी रहे हैं। इस प्रकार से कि कोई नहीं कह सकता कि जी नहीं रहे हैं बल्कि काट रहे हैं। अपने-अपने हिसाब से व्यस्त रहते हैं। न समय से कोई शिकायत और न बच्चों से। मेजर रविकांत अक्सर अपने दोस्तों के झींकने पर कहते हैं-वेल, ज़िन्दगी से बहुत ज़्यादा एक्सपेक्टेशन ही मत रखो, जो मिल रहा है उसी को जीते रहो। समय की नियती है बीत जाना, उसके बीत जाने से पहले उसमें से अपने हिस्से का सुख निकाल लो।

सप्ताह भर बाद युवक फिर आया। इस बार कार्ड देने आया था। कार्ड को मेजर रविकांत की पत्नी के हाथों में देकर उनके पैर छू लिये उसने। पत्नी के हाथ से कार्ड लेकर मेजर ने देखा। सादगी भरा कार्ड था। जिसमें लिखा था हमारे नये प्रतिष्ठान का शुभारंभ मेजर रविकांत जोशी और श्रीमती उर्मिला जोशी के कर कमलों से होगा आप सादर आमंत्रित हैं।

'अरे! तुमको इनका नाम कैसे पता चला? उस रोज़ तो पूछा नहीं था।' मेजर ने अचरज से पूछा।

'मैं आपके बारे में सब जानता हूँ सर।' युवक ने सहजता से उत्तर दिया, लेकिन उत्तर से मेजर को लगा कि युवक कुछ रहस्यमय अंदाज़ में उत्तर दे रहा है 'सब' शब्द पर ज़ोर डालते हुए।

'मैं किसी को भेज दूँगा आपको लेने के लिये।' युवक ने मेजर को उलझन में देखा तो कहा।

'नहीं नहीं, मत भेजना, हम आ जाएँगे, पास में ही तो है। टहलते हुए आ जाएँगे दोनों।' मेजर ने युवक की बात पर तुरंत उत्तर दिया।

'नहीं सर, आप क्यों तकलीफ करते हैं, मैं भेज दूँगा किसी को। अच्छा चलता हूँ।' कहते हुए युवक ने दोनों के पैर छुए और चला गया।

'श्रीमती उर्मिला जोशी, उसे तो चाय नहीं पिलाई, अब हमें तो पिला दीजिये।' युवक के जाने के बाद मेजर ने चुहल की।

'उसने समय ही कब दिया पूछने का, हवा की तरह आया और चला गया। लाती हूँ चाय।' कहती हुई उनकी पत्नी अंदर जाने को मुड़ीं।

'और हाँ श्रीमती उर्मिला जोशी, फीता-वीता काटने की प्रेक्टिस कर लेना, ऐसा न हो कि वहाँ जाकर फीता ही नहीं कटे।' मेजर ने एक बार फिर से चुहल की। पत्नी ने मुड़ कर एक बार आँखें तरेरीं और अंदर चली गईं।

दोनों पति पत्नी इतने बड़े घर को इसी प्रकार अपने तरीके से भरा पूरा रखते हैं। अपने आप को किसी की कमी महसूस नहीं होने देते।

छब्बीस जनवरी को जब मेजर रविकांत अपनी पत्नी के साथ दुकान के उद्घाटन के लिये पहुँचे तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। दुकान के ऊपर बड़ा-सा ग्लो साइन बोर्ड लगा था 'मेजर रविकांत जोशी रेडीमेड स्टोर'। युवक ने दोनों को देखा तो लपक कर दोनों के पैर छू लिये।

'अरे अरे, बस खुश रहो। लेकिन राहुल ये तुमने दुकान का नाम मेरे नाम पर क्यों रखा?' मेजर ने सपाट से लहज़े में प्रश्न किया।

'आपको बुरा लगा क्या सर, मैं पहले आपसे पूछना चाहता था, लेकिन फिर मुझे लगा कि पूछने पर आप स्वीकृति नहीं देंगे, बस इसीलिये आपसे पूछे बिना ही नाम रख दिया। आपको बुरा लगा हो तो क्षमा चाहता हूँ।' युवक ने क्षमायाचना के स्वर में कहा। मेजर अभी भी सहज नहीं हो पा रहे थे। दुकान का नाम अपने नाम पर रखा जाना उनको अटपटा लग रहा था। पत्नी ताड़ गईं कि मेजर सहज नहीं हैं, इसलिये बात को संभालने के लिये तुरंत बोलीं 'अरे नहीं नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है, आपने तो ऑनर दिया है मेजर साहब को। लेकिन उनके कहने का मतलब ये था कि दुकान का नाम तो अपने माता पिता या देवी देवताओं के नाम पर रखा जाता है। उसको शुभ माना जाता है। आपने मेजर साहब के नाम पर क्यों रखा, बस ये ही थोड़ा अजीब लग रहा है।'

'मैडम जो लोग सीमा पर ठंड गर्मी, बरसात की परवाह करे बिना डटे रहते हैं, हम सबकी सुरक्षा करते हैं, वे भी तो हमारे यिे देवी देवता ही हैं। लेकिन अगर सर को ऑड लग रहा है तो मैं बदलवा दूँगा।' युवक ने गंभीर लहज़े में कहा।

'अरे नहीं नहीं, वैसी कोई बात नहीं है। बस आजकल कौन सोचता है इस तरह से, यही सोच कर कुछ उलझन हो रही थी। ऑड लगने जैसी कोई बात नहीं है, आपने तो मुझे सम्मान दिया है मुझे ऑड क्यों लगेगा।' मेजर ने मानो नींद से जागते हुए एकदम से उत्तर दिया।

'थैंक्स सर, मुझे तो लग रहा था कि कहीं आप नाराज़ न हो जाएँ, बिना पूछे रखने को लेकर। आइये दुकान का शुभारंभ कीजिये।' कहते हुए युवक उन दोनों को लेकर दुकान की तरफ़ बढ़ गया।

शुभारंभ की औपचारिकताएँ पूरी करने के बाद युवक उन दोनों को लेकर अपने एक छोटे से चैंबर में आया। जो दुकान के ही एक हिस्से में बना था। कुर्सी के ठीक पीछे मेजर रविकांत का बड़ा-सा फोटो लगा हुआ था। सेना की वर्दी में मुस्कुराते हुए। मेजर कुछ देर तक उलझन में उस तस्वीर को देखते रहे। उनको अब ये रहस्य और गहराता हुआ लग रहा था।

'बैठिये न सर।' युवक रिवाल्विंग चेयर को खींचते हुए बोला।

'अरे नहीं, ये तो तुम्हारी कुर्सी है तुम बैठो, मैं उधर बैठ जाता हूँ।' कहते हुए मेजर दूसरी तरफ़ बढ़ने को हुए। युवक ने बाँह थाम ली और बोला 'नहीं सर, आपके बैठने से कुर्सी पवित्र हो जायेगी, अपना आशीर्वाद दीजिये मुझे इस पर बैठ कर।' कहते हुए उसने बरबस उनको कुर्सी पर बिठाल दिया। कुर्सी पर बैठ कर मेजर ने देखा कि पत्नी का चेहरा कुछ असमंजस में डूबा हुआ है। उन्होंने पत्नी को सामान्य बनाने के लिये कहा 'हाँ तो श्रीमती उर्मिला जोशी बताइये आपको क्या ख़रीदना है।'

'मुझे अपने पति के लिये एक दो पुलोवर लेने हैं।' पत्नी ने सहज होते हुए कहा।

'कौन से कलर लेना पसंद करेंगीं आप?' मेजर ने चुहल जारी रखते हुए कहा।

'कोई भी दे दीजिये, उन पर तो कोई भी कलर नहीं फबता, लेकिन अब क्या करें ठंड है तो पहनना तो पड़ता ही है।' पत्नी ने भी चुहल का उत्तर चुहल से दिया।

'चलिये राहुल इनको कोई भी कलर के पुलोवर दिखा दीजिये।' मेजर के कहते ही युवक ने पास के काउंटर से दस बीस पुलोवर लाकर टेबुल पर रख दिये। कुछ देर देखते रहने के बाद मेजर रविकांत की पत्नी ने तीन पुलोवर छांट कर अलग निकाल लिये और मेजर रविकांत को देते हुए बोलीं 'ये ठीक हैं, बिल बनवा दीजिये।'

'नहीं नहीं मैडम बिल कैसा? ये तो मेरी तरफ़ से गिफ्ट है आपके लिये।' युवक ने पुलोवर अपने हाथ में लेते हुए कहा।

'नहीं कोई गिफ्ट-विफ्ट नहीं, आज मुहूर्त का दिन है आज कोई गिफ्ट नहीं, चलिये बिल बनवा कर लाइये और वह भी बिना डिस्काउंट के।' मेजर ने कुछ कड़ाई से कहा। युवक तीनों पुलोवर लेकर बाहर चला गया बिल बनवाने। थोड़ी देर में वह बिल बनवा कर लाया। मेजर रविकांत की पत्नी ने बिल लिया उस पर दर्ज एमाउंट देखा और उसके हिसाब से अपने पर्स में से पैसे निकाले तथा पैसे और बिल दोनों को मेजर रविकांत की तरफ़ बढ़ाते हुए बोलीं 'कीप द चेंज।' कमरे में समवेत ठहाका गूँज उठा।

रात को खाना खाने के बाद दोनों पति पत्नी अपनी रोज़ की आदत के अनुसार गार्डन में टहल रहे थे। हल्की-हल्की ठंड मौसम में घुलने लगी है।

'मुझे कुछ समझ में नहीं आया।' पत्नी ने कहा।

'हूँ, समझ में तो मुझे भी नहीं आया। पर कर भी क्या सकते हैं। हो सकता है कि वह सचमुच ही इतने ही ऊँचे विचारों वाला युवक हो।' मेजर ने सिगरेट की डब्बी को उंगली से थपकते हुए उत्तर दिया।

'क्या आपको सचमुच ऐसा लगता है कि वह सचमुच ऊँचे विचारों वाला युवक है?' पत्नी ने कुछ गहरे स्वर में पूछा।

'नहीं मुझे नहीं लगता।' मेजर ने एकदम सपाट-सा उत्तर दिया।

'पता नहीं क्यों मुझे बहुत अजीब-सा लग रहा है।' पत्नी ने धीरे से लगभग बुदबुदाते हुए कहा।

'चलो अब हो गया, कर आये उद्घाटन, अब हमें क्या लेना देना।' मेजर ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा। छोटी-सी बातचीत के बाद दोनों चुपचाप उसी प्रकार से टहलने लगे।

लगभग एक सप्ताह बाद जब मेजर रविकांत उसी प्रकार सुबह की चाय पी रहे थे तो अचानक राहुल आ गया हाथों में दो प्लास्टिक के कैरी बैग में कुछ सामान लिये। आते ही मेजर के पैर छुए और चुपचाप पास की कुर्सी पर बैठ गया।

'और कहो राहुल कैसा चल रहा है नया व्यवसाय, सब कुछ ठीक ठाक चल रहा है ना?' मेजर ने पूछा।

'बस आपका आशीर्वाद है सर। एक सप्ताह में ही काफ़ी अच्छे रिज़ल्ट मिलने लगे हैं। आपका आशीर्वाद मिला है तो ये तो होना ही है।' राहुल ने उत्तर दिया। मेजर ने कुछ उत्तर नहीं दिया मुस्कुरा कर रह गये। अंदर से मेजर की पत्नी ने राहुल को देखा तो प्लेट में स्नैक्स लेकर आ गईं। राहुल ने देखा तो उठ कर खड़ा हो गया।

'अरे बैठो बैठो, मैं तो बस तुम्हारे लिये नाश्ता लेकर आई थी।' मेजर रविकांत की पत्नी ने हाथ से बैठने का इशारा करते हुए कहा और हाथ में रखी प्लेट को टेबुल पर रख दिया। राहुल ने हाथ में पकड़े कैरी बैग उनका थमाये और पैर छू लिये।

'ये सब क्या है?' मेजर की पत्नी हैरान होते हुए बोलीं।

'कुछ नहीं, बस यूँ ही सर्दियों का स्टाक आया था तो उसमें ये दो कार्डीगन बहुत सुंदर और सोबर आये थे। उस दिन आपने कोई गिफ्ट भी नहीं लिया था, तो बस ये आपके लिये ले आया। मुझे लगा कि आपको ये पसंद आएँगे।' राहुल ने कुछ अदब के साथ उत्तर दिया।

'अरे नहीं नहीं, ये तो ग़लत बात है। इस तरह से गिफ्ट वगैरह लेना मुझे पसंद नहीं है।' मेजर की पत्नी के स्वर में कुछ रूखापन आ गया था। उन्होंने दोनों पैकेटों को बेंत की टेबुल पर रख दिया। राहुल ने कुछ उत्तर नहीं दिया सर झुकाये बैठा रहा। पत्नी ने मेजर रविकांत की और आँखों ही आँखों में कुछ इशारा किया, उत्तर में मेजर ने आश्वस्ती का इशारा किया।

'देखो राहुल, हम दोनों अपने नियम क़ायदों से जीते हैं। हमने अपने कुछ सिद्धाँत बना रखे हैं। उनको तोड़ना हमको अच्छा नहीं लगता और फिर तुम तो जानते हो कि मैं सेना में रह चुका हूँ। सेना के लोग तो वैसे भी नियमों के पक्के होते हैं। तुम ये गिफ्ट देकर हमारा नियम तोड़ रहे हो। हम इस उपहार की अवमानना नहीं कर रहे, लेकिन इसे नहीं लेना हमारी मजबूरी है।' मेजर ने जम्बी बात में सब कुछ समेटने का प्रयास किया। राहुल ने कोई उत्तर नहीं दिया, वह उसी प्रकार से सिर झुकाए बैठा रहा।

'और फिर अभी तो हम आपस में उस प्रकार से परिचित भी नहीं हैं कि गिफ्ट का लेना देना कर सकें। अभी कुल मिलाकर दो बार ही तो मिले हैं हम और आज को मिलाकर तीन बार। ऐसे में ये गिफ्ट वगैरह लेना हमें नहीं लगता कि ठीक है। तुमसे मिलकर अच्छा लगा, मुझे लगा कि मुझे तुम्हारी दुकान का उद्घाटन करने जाना चाहिए तो हम दोनों चले आये। तुमने दुकान का नाम मेरे नाम पर रख दिया उस पर भी मैंने आपत्ति नहीं की, क्योंकि वह तुम्हारी अपनी श्रद्धा का मामला है। लेकिन ये गिफ्ट लेना तो हमारा पर्सनल मामला है, इसमें तो हम वही करेंगे जो हमें अच्छा लगेगा। हम तुम्हारी भावनाओं की क़द्र करते हैं लेकिन हम ये गिफ्ट नहीं रख सकते।' मेजर ने राहुल को चुप देखा तो बात को और आगे बढ़ाया।

'मैडम मेरा कोई नहीं है, न माँ है न पिता। हर आदमी के दिल में ये बात होती है कि जब उसकी कमाई होना शुरू हो तो वह अपने माँ-बाप के लिये अपनी कमाई में से कुछ करे। मैं भी करना चाहता हूँ लेकिन किसके लिये करूँ? मेरा तो कोई नहीं है।' राहुल ने उसी प्रकार सिर झुकाये हुए ही उत्तर दिया। मेजर ने अपनी पत्नी की ओर देखा, इस बार पत्नी ने आश्वस्ती का इशारा किया।

'अच्छा ठीक है मैं रख लेती हूँ तुम्हारा ये गिफ्ट लेकिन एक शर्त है। शर्त ये कि इसके बाद कोई गिफ्ट-विफ्ट नहीं। ये पहला और आखिरी होगा।' कुछ डाँट के अंदाज़ में कहा मेजर की पत्नी ने। सुनते ही राहुल ने सिर ऊपर कर लिया। उसका चेहरा खिल गया था। उसने टेबुल पर रखै दोनों कैरी बैग्स उठाये और फिर से मेजर की पत्नी के हाथ में पकड़ा कर एक बार फिर से पैर छू लिये।

'अच्छा अब मैं चलता हूँ, दुकान का समय हो रहा है।' कह कर वह तेज़-तेज़ क़दमों से गेट की तरफ़ बढ़ गया।

'अजीब है।' मेजर की पत्नी बुदबुदाईं। 'क्यों कर रहा है वह ये सब? कही न कहीं तो कुछ न कुछ गड़बड़ है। क्या हो सकता है।'

'कुछ गड़बड़ नहीं है उसको गिफ्ट लाना था ले आया, तुमको लेना था तुमने ले लिया। अब छोड़ो बात को।' मेजर ने बात को टालने की गरज़ से कहा।

'मैंने ले लिया? अब क्या करती, वह किस बुरी तरह से कह रहा था कि उसका कोई नहीं है। मुझे लगा कि शायद सच ही कह रहा हो। आप भी तो कुछ नहीं बोल पाये थे उस दिन, जब उसने दुकान का नाम आपके नाम पर रख दिया था और बोलते भी क्यों? आपको तो महान बना रहा था वो, आपके नाम पर दुकान का नाम रख कर।' कुछ चुटकी लेने वाले अंदाज़ में कहा मेजर की पत्नी ने।

'वो क्या बनायेगा महान, हम सेना वाले तो वैसे ही महान होते हैं। ग्रेट बाय बर्थ।' मेजर ने कुछ तल्ख अंदाज़ में उत्तर दिया। पत्नी ने कुछ नहीं कहा वे चुपचाप टेबुल को समेटने लगीं।

उसके बाद राहुल के आने का क्रम जारी रहा। हफ्ते-पन्द्रह दिनों में वह एक बार ज़रूर आता। कभी दुकान जाते में सुबह आ जाता तो कभी रात को दुकान से लौटते समय आ जाता। हाँ ये ज़रूर हो गया था कि उसने उस दिन के बाद फिर कोई गिफ्ट वगैरह लाने की या देने की कोशिश नहीं की। लेकिन ये भी था कि कभी ख़ाली हाथ नहीं आता था। कोई न कोई मौसमी फल या कुछ और सामान लिये आता, आते ही कहता 'दुकान के सामने से ठेला निकला, ताज़े दिखे तो ले आया।' कोई मना नहीं कर पाता। कभी संतरे, तो कभी मूंगफली, कभी जामुन, कभी अमरूद, तो कभी गजक, कुछ भी ऐसा जो लाते हुए सहज-सा लगे, ऐसा न लगे कि विशेष रूप से यहाँ आने के लिये ख़रीदा गया है, जैसे मिठाई वगैरह। मेजर की पत्नी को लगता कि ये यहाँ आ रहा था इसलिये इन चीज़ों को ले आया है, या इन चीज़ों के बहाने यहाँ आने के कारण निकाल रहा है।

'आपको कुछ भी अजीब नहीं लगता?' रात को टहलते हुए उन्होंने मेजर से पूछा।

'क्या?' मेजर ने संक्षिप्त-सा प्रतिप्रश्न किया।

'यही, राहुल का यूँ बार-बार आना, इस प्रकार से घनिष्ठता बढ़ाने का प्रयास करना। ठीक है आप सेना में रहे हो, आपने देश सेवा की है, लेकिन वही एक कारण तो नहीं हो सकता इस प्रकार से श्रद्धा उमड़ पड़ने का। अब तो ऐसा लगने लगा है कि वह यहाँ आने के कारण तलाशने लगा है।' स्वर में कुछ चिंता घुली हुई थी।

'हूँ।' मेजर ने एक बार फिर से संक्षिप्त-सा उत्तर दिया।

'कुछ न कुछ तो है, या तो।' मेजर की पत्नी ने किसी बात को पूरा करते-करते छोड़ दिया।

'क्या तो?' मेजर ने ठिठक कर पूछा।

'कहीं उसकी नज़र हमारी प्रापर्टी पर तो नहीं है। सोचता हो कि दोनों तो अकेले रहते हैं। इनके बाद तो प्रापर्टी में कोई रहने वाला नहीं है, अभी सेवा कर दूँ तो हो सकता है बाद में ओने पोने दामों में प्रापर्टी मिल जाये। आख़िर को मौक़े की जगह है। अभी तो वह किराये की दुकान में है, फिर यहाँ भी तो शिफ्ट कर सकता है अपनी दुकान को। अभी गिफ्ट ला रहा है, ये खाने पीने का सामान ला रहा है, हो सकता है किसी दिन पैसे भी ले आये कि मेजर साहब आपने देश की बहुत सेवा की है, ये कुछ मेरी तरफ़ से रख लीजिये मेरी कमाई में से और बाद में उन्हीं पैसों को ढाल बना कर प्रापर्टी हड़पने का सोच ले।' कुछ झिझकते हुए कहा पत्नी ने।

'हूँ।' मेजर भी सोच में पड़ गये 'इस एंगल से तो मैंने सोचा ही नहीं था। मगर वैसा लगता तो नहीं है वो। दिखने दिखाने में तो सीधा और सरल लगता है।' मेजर ने कहा।

'सीधा और सरल बन कर नहीं आयेगा तो कैसे आयेगा हमारे पास और फिर यहाँ का भी नहीं है। कहीं बाहर का है। बताता है कि आठ दस साल पहले पढ़ने आया था यहाँ। उसके बाद बाहर चला गया तो अब लौटा है। मैंने पता किया है, यहाँ उसके बारे में कोई बहुत ज़्यादा नहीं जानते हैं लोग। लगभग अपरिचित है वह यहाँ के लोगों के लिये।' पत्नी ने रहस्मय अंदाज़ में कहा।

'ये तुमने कब पता किया?' मेजर ने प्रश्न किया।

'पता नहीं क्यों मुझे लग रहा था कि कुछ भी ठीक नहीं है। सो पिछले दिनों में जिस भी दुकान पर गई वहीं पर मैंने इसके बारे में पूछताछ की, लेकिन कोई भी कुछ नहीं जानता इसके बारे में। सबका यही कहना है कि बाहर से आया है यहाँ का नहीं है ये। ऐसा कैसे हो सकता है कि यहाँ पर कोई नहीं जानता हो इसको। उस दिन जब मैंने उसी से पूछ लिया कि राहुल तुम कहाँ के हो तो बात को गोलमाल कर गया। कहने लगा कि यहीं का हूँ, पास के गाँव से पढ़ने आया था यहाँ, पढ़ाई बीच में ही छूट गई तो बाहर चला गया, अब लौटा हूँ।' पत्नी ने कहा।

'हूँ। तुमने तो काफ़ी जानकारी इकट्ठी कर रखी है उसके बारे में।' मेजर ने कुछ प्रशंसा के स्वर में कहा।

'बस यूँ ही, ऐसा लगा कि कहीं न कहीं कुछ ग़लत है सो पता कर लिया थोड़ा बहुत। मगर क्या करें अब? बच्चों को बताएँ क्या इस बारे में?' पत्नी ने उलझन भरे अंदाज़ में कहा।

'नहीं नहीं, वह बेकार ही परेशान हो जाएँगे। इतना गंभीर मामला नहीं है और फिर तुम एक सोल्जर की वाइफ हो, तुम्हें तो इस प्रकार की उलझनों से दो चार होना आना चाहिये। हम अपने स्तर पर मामले को सुलझाएँगे तो ठीक प्रकार से सुलझा लेंगे, बच्चे हमें प्राथमिक मान कर सोचेंगे तो हो सकता है कि राहुल को हर्ट कर दें। क्योंकि अभी तो ये भी तय नहीं है कि राहुल' गिल्टी आर नाट गिल्टी'में से क्या है। बच्चे हमारे प्रति बहुत सेंसिटिव हैं उनको ना ही इन्वाल्व किया जाये तो बेहतर होगा। लेट मी ट्राय टू साल्व दिस इशू उर्मिला मैम।' मेजर ने गंभीर बात को अंतिम वाक्य से कुछ सहज बनाने का प्रयास करते हुए कहा। पत्नी ने कोई उत्तर नहीं दिया केवल मुस्कुरा कर रह गईं।

'देखो उर्मि, किसी भी विषय पर जब सोचा जाये तो दोनों पक्षों से सोचा जाये। हमारा पक्ष और सामने वाले का पक्ष। हम अक्सर केवल अपने ही पक्ष से सोचते हैं और सामने वाले को हर्ट कर बैठते हैं। अक्सर ये होता है कि बात वैसी नहीं होती है जैसी हम सोच रहे होते हैं। इसलिये मेरा मानना है कि राहुल से एक बार मुझे बात करने दो। मैं उसको आहिस्ता-आहिस्ता खोलने का प्रयास करता हूँ। हो सकता है कुछ और ही बात निकले।' मेजर 'उर्मि' नाम का प्रयोग बहुधा नहीं करते। कभी-कभी ही करते हैं। जब भी उनको लगता है कि पत्नी परेशान है या पत्नी को उनके साथ की आवश्यकता पड़ रही है तो वे इस नाम की उपयोग करते हैं। उनको लगता है कि ये नाम लेने से पत्नी उनको अपने और ज़्यादा साथ महसूस करती है। प्रेम के नामों में यही तासीर होती है, वे मुश्किल समय में ठंडक देने का काम करते हैं। जब भी कोई हमें हमारे प्यार के नाम से बुलाता है तो हमें लगता है कि हम अकेले नहीं हैं, कोई है हमारे साथ। वरना यूँ तो सारे दिन कोई न कोई हमारा नाम लेता रहता है और हम अकेले के अकेले बने रहते हैं।

उस रात जब राहुल आया तो उसके हाथ में एक बैग था। आते ही चुपचाप बैठ गया। मेजर खाना खाकर आकर ड्राईंग रूम में बैठे थे और रात के खाने के बाद की अपनी कॉफी धीरे-धीरे सुड़क रहे थे। रात का खाना दोनों पति पत्नी साथ खाते हैं और उसके बाद मेजर यहाँ ड्राईंग रूम में आकर बैठ जाते हैं कुछ देर में पत्नी आकर कॉफी दे जाती हैं। जब तक वे कॉफी पीते हैं तब तक पत्नी खाने की मेज और किचन की सफ़ाई वगैरह कर देती हैं और उसके बाद निकल पड़ते हैं दोनों पति पत्नी टहलने के लिये। मेजर धीरे-धीरे कॉफी पीते हैं ताकि पत्नी के आने तक कॉफी चलती रहे। जब राहुल आया तो उन्होंने पत्नी को आवाज़ लगाई 'अरे देखो, राहुल आया है, एक कप कॉफी और दे जाओ।' थोड़ी ही देर में कॉफी लेकर पत्नी आ गईं 'कुछ खाओगे राहुल, हम दोनों अभी खाना खाकर उठे हैं। फार्मेलिटी नहीं, अगर भूख हो तो बता दो, तुम्हारे लायक खिचड़ी होगी अभी कुकर में।'

'जी ला दीजिये भूख तो लग रही है, दुकान से सीधे इधर ही आ गया घर नहीं गया हूँ।' राहुल ने उत्तर दिया।

'ठीक है तो ये कॉफी मत पीओ अभी, रुको मैं खिचड़ी लेकर आती हूँ।' कहती हुईं वह अंदर चली गईं। थोड़ी देर में लौटीं तो उनके हाथ में खिचड़ी की प्लेट के साथ और भी बहुत कुछ था सलाद वगैरह।

'अरे। इतना सब कुछ, मैं तो बस एक प्लेट खिचड़ी ही लूँगा।' राहुल ने कहा।

'रात का खाना ठीक से खाना चाहिए दुकानदारों को। दिन में तो दुकान के चक्कर में ठीक से नहीं खा पाते हो, चलो अब आराम से खाओ, तब तक मैं अंदर की सफ़ाई करके आती हूँ।' खाने की ट्रे रख कर वह अंदर चली गईं। राहुल चुपचाप खाना खाने लगा।

जब मेजर की पत्नी अंदर से सफ़ाई वगैरह करके लौटीं तब तक राहुल खाना खा चुका था और अपनी ठंडी हो चुकी कॉफी के घूँट भर रहा था। 'अरे! कॉफी ठंडी हो गई होगी, गरम कर देती।'

'नहीं ठीक है, गरम है अभी तक।' संक्षिप्त-सा उत्तर देकर राहुल कॉफी पीता रहा।

'और कैसा चल रहा है काम काज?' मेजर ने पूछा।

'बस आप लोगों का आशीर्वाद है। अब तो साल भर हो गया, काफ़ी अच्छा चल रहा है सब।' राहुल ने कॉफी का मग टेबुल पर रखते हुए उत्तर दिया।

'अब तो गर्मियाँ आ रहीं हैं, अब तो समर कलेक्शन के लिये तैयारियाँ करनी पड़ेंगीं।' इस बार मेजर की पत्नी ने पूछा।

'जी बस उसी की तैयारी हो रही है। ऑर्डर वगैरह तो प्लेस कर दिये हैं। लेकिन एक बार टूर पर निकलना भी होगा। कई चीज़ें ऐसी होती हैं जो ख़ुद जाने पर ही पता चलती हैं।' राहुल ने उत्तर दिया। उसके उत्तर के बाद कुछ देर के लिये मौन छा गया। मेजर के चेहरे से लग रहा था कि वह कुछ तनाव में हैं राहुल के आने के बाद से।

'आज मैं एक ख़ास काम से आया हूँ।' राहुल ने धीरे से कहा। उसके कहते ही मेजर और उनकी पत्नी एक दूसरे की तरफ़ देखने लगे।

'बहुत दिनों से ये काम करना चाहा रहा था लेकिन हिम्मत ही नहीं हो रही थी। हर बार कहते-कहते रुक जाता था। आज बहुत हिम्मत जुटा कर आया हूँ। कि आज तो।' कहते-कहते राहुल ने बात को अधूरा छोड़ दिया और सिर झुका लिया। मेजर और उनकी पत्नी कुछ अचरज में एक दूसरे की तरफ़ देख रहे थे। कुछ देर तक मौन छाया रहा और फिर उसके बाद राहुल उठाा और उसने अपने हाथों में पकड़ा हुआ बैग मेजर के पैरों में रख दिया। फिर वहीं नीचे ही बैठ कर सिसकने लगा। मेजर और उनकी पत्नी दोनों घोर आश्चर्य में डूबे हुए थे।

'अरे! रो क्यों रहे हो भई? क्या हो गया? और क्या है इस बैग में?' मेजर ने कुछ मुलायम लहज़े में पूछा और धीरे-धीरे राहुल का कंधा थपथपाने लगे। वह उसी प्रकार सिर झुकाये नीचे ज़मीन पर बैठा सिसक रहा था। मेजर की पत्नी ने दोनों हाथों को गोल-गोल करते हुए प्रश्न के अंदाज़ में घुमाया। मेजर ने उत्तर में दोनों हथेलियों को फैला कर शांत रहने का इशारा किया।

'राहुल क्या हो गया? कोई परेशानी है क्या? पहले रोना बंद करो फिर बैठ कर बात करते हैं? चलो उठो और बैठो उस कुर्सी पर।' मेजर ने आदेश देते हुए कहा।

'चलो उठो अब, मैं पानी लेकर आती हूँ।' पत्नी ने भी मेजर के स्वर में स्वर जोड़ा। राुहल उठ कर कुर्सी पर बैठ गया। मेजर ने अपने पैरों पर रखा बैग उठा कर गोद में रख लिया। राहुल रुमाल से आँखें पोंछ कर सामान्य होने का प्रयास कर रहा था। इतनी देर में मेजर की पत्नी पानी का ग्लास लेकर आ गईं। राहुल ने ग्लास लेकर थोड़ा-सा पानी पिया और ग्लास को टेबुल पर रख दिया।

'अब बताओ क्या बात है? क्यों रो रहे हो इस प्रकार? और क्या है इस बैग में?' मेजर ने राहुल को सामान्य होते देखा तो आत्मीयता से पूछा।

'आप ख़ुद ही देख लीजिये सर।' राहुल का स्वर अभी भी भर्राया हुआ था। राहुल के कहते ही मेजर ने बैग की ज़िप को खोल कर देखा। देखते ही उनके चेहरे का रंग बदल गया। उनके कानों में पत्नी द्वारा कहा गया वाक्य गूँज उठा-हो सकता है किसी दिन पैसे भी ले आये। उन्होंने पत्नी की तरफ़ देखा। पत्नी ने मेजर को तनाव में देखा तो उनके चेहरे के भाव भी बदल गये। राहुल सिर झुकाये बैठा था। पत्नी ने हाथों के इशारे से ही प्रश्न किया। मेजर ने सीधे हाथ के अंगूठे पर तर्जनी को रगड़ कर पैसों का इशारा किया। इशारा समझते ही पत्नी भी तनाव में आ गईं। मेजर ने फिर बैग के अंदर देखा, उसमें पाँच सौ के नोटों के सात-आठ बंडल रखे हुए थे।

'इसमें तो पैसे हैं राहुल।' मेजर ने कहा।

'जी सर।' राहुल ने उत्तर दिया।

'किसलिये?' मेजर ने फिर से सवाल किया। राहुल ने कोई उत्तर नहीं दिया। मेजर अपनी कुर्सी पर पहलू बदल कर बैठ गये।

'राहुल ये इतने सारे पैसे किसलिये? और इनका रोने से क्या सम्बंध है?' मेजर की आवाज़ कुछ शुष्क हो गई थी।

'ये पैसे आपको रखने होंगे सर।' राहुल ने धीरे से कहा। मेजर और उनकी पत्नी को लगा कि उनके ठीक पास ही कोई धमाका हो गया हो। मेजर का चेहरा ग़ुस्से से तमतमा गया। 'क्यों? क्यों रखने होंगे?' मेजर का स्वर अब कठोर हो चुका था।

'ग़ुस्सा मत होइये सर, पहले मेरी पूरी बात सुन लीजिये उसके बाद जो चाहें कहियेगा।' राहुल ने अनुनय भरे स्वर में सिर उठाते हुए कहा।

'क्या सुन लें? तुम फिर से कोई इमोशनल कहानी सुना दोगे कि मैंने अपनी माँ से कहा था कि दुकान के पहले साल की कमाई उसके हाथों पर लाकर रखूँगा और अब माँ तो है नहीं सो तुम यहाँ देना चाहते हो। तुमने क्या मूर्ख समझ रखा है हम लोगों को।' मेजर ने और भड़कते हुए कहा।

'नहीं सर ऐसा तो मैं सोच भी नहीं सकता। एक निवेदन मान लें। एक बार मेरी पूरी कहानी सुन लें उसके बाद जो आपको उचित लगे वह कर सकते हैं। आप मना कर देंगे तो आज के बाद मैं कभी अपनी सूरत भी नहीं दिखाऊँगा।' राहुल ने एक बार फिर से घिघियाने वाले अंदाज़ में कहा।

'सुन लीजिये न एक बार कि ये क्या कहना चाह रहा है। सुनने में क्या हर्ज है। उसके बाद फ़ैसला तो हम लोगों को ही लेना है कि हमको क्या करना है।' मेजर की पत्नी ने मेजर के कुछ कहने से पहले ही बीच में बात को झेल कर उत्तर दे दिया।

'तुम कह रही हो ये?' मेजर अबकी बार पत्नी से कुछ ऊँचे स्वर में बोले।

'मैं इसका पक्ष नहीं ले रही हूँ, लेकिन यदि ये कह रहा है कि एक बार इसकी बात सुन ली जाये तो वैसा करने में हर्ज ही क्या है। हमारा केवल आज की रात टहलने का ही नुक़सान हो रहा है और तो कुछ नहीं जा रहा। एक बार सुन लीजिये फिर जो कुछ निर्णय आप करते हैं वह ही होगा।' पत्नी ने कुछ ठंडे और समझााइश के स्वर में कहा।

'ठीक है तुम कहती हो तो । लेकिन पहले ये पैसों का बैग अपने पास रखो। इसे मैं अपने पास रख भी नहीं सकता। ये मेरे उसूलों के बिल्कुल ख़िलाफ़ है। मैं अपने बच्चों से भी पैसे नहीं लेता कभी तो तुमसे कैसे ले लूँ?' मेजर ने हाथ में रखा पैसों का बैग राहुल की ओर बढ़ाते हुए कहा।

'ठीक है सर अगर आपकी यही इच्छा है तो मैं इसको अभी रख लेता हूँ। बाद में तो आपको ही फ़ैसला लेना है कि इन पैसों का क्या करना है।' कहते हुए राहुल ने उठकर मेजर के हाथ से पैसों का बैग अपने हाथ में ले लिया और वापस अपनी कुर्सी पर बैठ गया।

'तुम अभी भी ग़लत कह रहे हो, तुम्हारी कहानी सुनने के बाद मुझे फ़ैसला तुम्हारे बारे में करना है, तुम्हारे इन पैसों के बारे में नहीं करना है। पैसों के बारे में तो मैं अपना फ़ैसला सुना चुका हूँ कि चाहे तुम्हारी कहानी में जो कुछ भी हो लेकिन मैं ये पैसे नहीं रखने वाला तो नहीं रखने वाला, समझे?' मेजर का स्वर अभी भी उतना ही तल्ख़ था। पत्नी समझ रही थीं कि मेजर का पारा इस समय सातवें आसमान पर है और केवल किसी लिहाज़ के चलते मेजर राहुल को अभी तक 'गेट आउट' का प्रयोग करके भगाने से अपने आप को रोक रहे हैं।

'बिल्कुल, ये तो सही कह रहे हैं आप, पैसों के बारे में हमारा निर्णय अंतिम है कि हम ये पैसे नहीं लेने वाले। सुनो राहुल ये तुम कहानी सुनाने से पहले ही जान लो। हाँ हम किसी सहानुभूति के चलते तुम्हारी कहानी को सुनने के लिये तैयार हो गये हैं, ये बात अलग है।' मेजर की पत्नी ने मेजर को ग़ुस्से में देखा तो उनकी बात का समर्थन करके उनके क्रोध को शांत करने का प्रयास किया। उनको पता है कि जब भी मेजर को क्रोध आता है तो उस समय उस क्रोध को शांत करने का एक सबसे अच्छा तरीक़ा है कि उनकी बात का समर्थन कर दिया जाये। इससे मेजर का पारा कुछ उतर आता है। ग़ुस्से में यदि कोई मेजर की बात का और विरोध करता है तो ग़ुस्सा ठंडा होने के बजाय और भड़क जाता है। ये सेना का अनुशासन है जहाँ जो कह दिया सो कह दिया वाली बात होती है। यदि बात नियम की, उसूल की हो रही है तो कोई समझौता नहीं। पत्नी ने ग़ुस्से को भड़कता देख कर समर्थन के पानी से उसको बुझाने का प्रयास किया।

'समझ गये न? अब चलो अपनी कहानी सुनाना शुरू करो। फालतू की बातों में वक़्त मत बर्बाद करो। मेजर साहब रात को ठीक समय पर सोने के आदी हैं।' पत्नी इस बार राहुल से मुख़ातिब होकर बोलीं।

'जी मैम' कहते हुए राहुल ने सामने टेबुल पर रखा पानी का ग्लास उठा कर उसमें बचा हुआ पानी गटागट कर पूरा पी लिया। ग्लास को टेबुल पर रख कर उसने एक गहरी सांस ली और कुर्सी पर संभल कर बैठ गया।

'रामनगर से आया था मैं यहाँ, आया था पढ़ने के लिये। माँ ने ये सोच कर भेजा था कि यहाँ रह कर पढ़ भी लूँगा और साथ में कहीं कुछ काम धाम भी करना शुरू कर दूँगा। पिता थे नहीं, मेरे जनम के कुछ दिनों बाद ही वह नहीं रहे थे। दादा दादी के भी गुज़र जाने के बाद बच रहे मैं और माँ। माँ ने ही जैसे तैसे गाँव की छोटी-सी ज़मीन पर सब्ज़ियाँ उगा-उगा कर मुझे पाला था। गाँव के स्कूल से पढ़ाई पूरी करने के बाद यहाँ शहर आ गया। कॉलेज की आगे की पढ़ाई करने के लिये।' कह कर राहुल कुछ देर के लिये चुप हो गया।

'गाँव में ज़मीन का वह छोटा-सा टुकड़ा ज़रूरतों के हिसाब से सचमुच बहुत छोटा था। जब तक गाँव में था तब तक तो जैसे तैसे खींच खाँच कर गुज़ारा हो जाता था। शहर आने के बाद असली परेशानी शुरू हुई। माँ उस ज़मीन पर सब्ज़ियाँ उगाती थी और उनको पास के क़स्बे में बेच कर आती थी। पीछे से खेतों पर मैं बना रहता था। इधर मैं भी चला आया तो माँ को परेशानी होने लगी। मेरा आना ज़रूरी था। आगे की पढ़ाई के लिये शहर आये बिना काम चलना नहीं था।' कह कर राहुल फिर रुक गया। मेजर और उनकी पत्नी अब तक की इस मेलोड्रामेटिक कहानी से ऊब रहे थे।

'यूँ ही समय गुज़रता रहा। शहर में आकर छोटा मोटा काम करता रहा और पढ़ता रहा और फिर एक दिन माँ भी चली गई। चली गई पिता के पास। मेरे लिये तो जैसे सब कुछ ख़त्म हो गया। सब कुछ मतलब सब कुछ। वैसे भी था ही कौन? न भाई थे, न बहन। रिश्तों की बात करूँ तो मेरे पास कुछ भी नहीं था रिश्तों के नाम पर। माँ के जाने के बाद मुश्किल और बढ़ गई। गाँव में ज़मीन और घर दोनों की रखवाली कौन करे। यहाँ कॉलेज के दो साल पूरे हो गये थे। आखिरी साल था सो उसे भी नहीं छोड़ सकता था। गाँव की खेती और मकान बेचता तो भी कुछ बड़ी पूँजी हाथ में नहीं आनी थी। मगर बेचना तो था ही। आख़िर को सब कुछ बेच बाच दिया और ख़त्म कर लिया गाँव से हर रिश्ता।' राहुल सिर झुकाये कहता जा रहा था। कहानी अब मेजर और उनकी पत्नी को कुछ इन्ट्रेस्टिंग लगने लगी थी।

'फाइनल की परीक्षा होने के बाद जब चला चली की तैयारी होने लगी तो मेरे सामने समस्या थी कि अब क्या? अभी तक तो खेती बाड़ी, घर बेच कर मिले पैसों में से थोड़ा-थोड़ा निकाल कर काम चला रहा था। लेकिन अब आगे क्या? हालाँकि बैंक में अभी भी कुछ पैसे थे, मगर उतने नहीं कि साल भर से ज़्यादा चल सकें। एक दोस्त अच्छा था मेरा संजीव, उसने कहा कि राहुल तेरे पास अगर दो ढाई लाख की व्यवस्था हो तो चल मेरे साथ मेरे शहर। मैं अपना बिजनेस शुरू करने वाला हूँ, मगर पूँजी मेरे पास उतनी नहीं है। दो लाख तू ला, दो मैं मिलाता हूँ। तुझे मैंने और मुझे तूने आज़माया हुआ है। हम दोनों की पार्टनरशिप निभ जायेगी। वहाँ मेरा घर है रहने खाने की व्यवस्था हो जायेगी। दोनों मिल कर मेहनत करेंगे।' राहुल फिर रुक गया। कमरे में शांति छा गई।

'कॉफी लाऊँ और?' मेजर की पत्नी ने कसमसाकर पूछा।

'हूँ ... थोड़ी-थोड़ी ले आओ।' मेजर ने उत्तर दिया। उत्तर सुनते ही वह उठ कर अंदर चली गईं। कमरे में फिर मौन पसर आ गया। मेजर ने टेबुल पर रखे सिगरेट के पैकेट में से एक सिगरेट निकाली और सुलगा ली। कुर्सी की पुश्त पर सर को टिका कर धुँआ छोड़ने लगे। थोड़ी देर में उनकी पत्नी ट्रे लिये लौटीं। दोनों को एक-एक मग देकर तीसरा मग ख़ुद लेकर कुर्सी पर बैठ गईं। मेजर ने गर्म काफ़ी का एक सिप लिया और बोले 'हूँ।' ये राहुल के लिये इशारा था कि कहानी को फिर से शुरू करो।

'मेरे पास था ही क्या? बमुश्किल वे बीस पच्चीस हज़ार थे जो बैंक में पड़े थे। उनसे कुछ होना जाना नहीं था। सवाल तो दो लाख का था। मगर मन में कहीं न कहीं एक लालच था कि अगर संजीव के साथ चला जाता हूँ तो कुछ न कुछ तो हो ही जायेगा ज़िंदगी का। मगर बात वही थी कि आख़िर दो लाख रुपयों की व्यवस्था होगी कहाँ से। संजीव को तो ये पता था कि गाँव की ज़मीन वगैरह बेच कर मुझे काफ़ी पैसे मिले हैं।' कह कर राहुल रुक गया और काफ़ी के बड़े-बड़े घूँट भरने लगा।

'कॉलेज की परीक्षाएँ ख़तम हो गईं थीं, अब हॉस्टल भी छोड़ना था। संजीव भी मेरे लिये ही रुका हुआ था। उसे भी घर लौटना था। मेरे लिये अनिश्चय की स्थिति गहरी होती जा रही थी। संजीव चला जाता तो मेरे लिये सब कुछ ख़त्म हो जाना था। मगर बात वही थी कि दो लाख...? कहाँ से आएँगे दो लाख?' राहुल का स्वर गहरा हो गया था।

'मगर फिर ये हुआ कि व्यवस्था भी हो गई और मैं संजीव के साथ चला भी गया। चला गया ये शहर छोड़ कर उसके साथ उसके शहर। इस शहर से मेरा दाना पानी उठ गया था।' राहुल ने बात को एकदम से ख़त्म कर दिया।

'व्यवस्था हो गई? मगर कैसे हुई इतने पैसों की व्यवस्था? दस बारह साल पहले दो लाख की व्यवस्था करना कोई आसान था क्या? बहुत बड़ी रक़म होती थी वह उस समय।' मेजर ने राहुल की कहानी शुरू होने के बाद पहली बार किसी बात पर प्रतिवाद किया। राहुल ने तुरंत कोई उत्तर नहीं दिया बस बैग की ज़िप को खोलता बंद करता रहा। कमरे में ज़िप के खुलने और बंद होने की आवाज़ गूँज रही थी। बाहर रात धीरे-धीरे गहर रही थी।

'चला गया मैं संजीव के साथ। फिर नहीं लौटा यहाँ। लौटा तो अब लौटा। वहाँ जाकर उसके साथ पार्टनरशिप में रेडीमेड का काम शुरू किया। उसके परिवार का पुश्तैनी काम था ये, शहर में उसके पिताजी की पहले से ही एक दुकान थी, मगर वह कुछ पुराने टाइप की थी जिसमें गाँव की ग्राहकी ज़्यादा थी। मगर फिर भी था तो रेडीमेड का ही काम, उसका अनुभव काम आ गया। काम चल निकला हम दोनों का। चला और ख़ूब चला। दोनों ने मिलकर ख़ूब मेहनत की। सुब्ह से रात तक लगे रहते थे हम दोनों। एक ख़रीदी पर निकलता तो दूसरा दुकान संभालता। धीरे-धीरे उसके शहर का प्रमुख रेडीमेड स्टोर हो गया था हमारा स्टोर। मेरा तो कोई था नहीं सो मैं भी उसके परिवार में ही रमता चला गया। शहर में नाम हो गया हमारा।' राहुल ने लम्बी बात कही।

'मगर तुमने ये तो बताया ही नहीं कि तुम्हारे पास दो लाख रुपये आये कहाँ से?' मेजर ने एक बार फिर से अपनी आपत्ति दर्ज की।

'जी वह भी बताता हूँ।' राहुल ने उत्तर दिया 'बस यूँ ही व्यस्तता में, भाग दौड़ में बीच के दस बरस बीत गये। पार्टनर शिप का काम होने के बाद भी मेरे पास अपनी पूँजी भी काफ़ी हो गई थी। मेरा तो कोई ख़र्चा था नहीं। धंधे में बहुत ईमानदार था संजीव, मुनाफे का पैसा आना पाई से बराबर-बराबर बाँट देता था। धीरे-धीरे करते मेरे पास अच्छी खासी पूँजी हो गई।'

राहुल के चुप होते ही कमरे में ख़मोशी पसर जाती थी।

'फिर मुझे लगा कि अब समय आ गया है कि संजीव और मैं, हम दोनों अलग हो जाएँ। समय पर अच्छे वातावरण में अलग हो जाएँ, इससे पहले कि कहीं कोई ग़लतफहमी हो और मन में खटास लिये हम दोनों अलग हों। संजीव का विरोध था हालाँकि इस मामले में, मगर मैं उसको और उसके परिवार को खोना नहीं चाहता था। जीवन में इतना कुछ खो चुका था कि अब कुछ और खोने से डर लगने लगा था। मैंने ही संजीव को समझाया और उसे अलग होने के लिये राज़ी कर लिया। मगर अभी भी एक बात पर वह अड़ा था कि अगर अलग होना है तो इसी शहर में अपना व्यवसाय शुरू करो। मैं उसके लिये भी तैयार नहीं था। एक ही शहर में काम शुरू करना मतलब संजीव के साथ ही काम्प्टीशन करना। उस व्यवसाय और उस दोस्त के साथ, जो मेरा अपना था।' राहुल ने लम्बी बात को संक्षेप में समेट दिया।

'और अंततः मैं उसको इस बात पर भी मनाने में कामयाब हो गया कि मैं यहाँ इस शहर में आकर अपना रेडीमेड स्टोर खोलूँगा। उसकी एक शर्त थी जो मैंने भी मान ली। शर्त थी कि चूँकि शहर बदल रहा है इसलिये प्रतिष्ठान एक ही रहेगा। ख़रीददारी जैसे काम दोनों दुकानों के एक साथ होंगे, ताकि ऐसा लगे कि एक ही प्रतिष्ठान है केवल पेढ़ी बदली है। बदले में मैंने भी एक शर्त रखी कि उसे मेरे नये प्रतिष्ठान में दस प्रतिशत का पार्टनर बनना होगा। ये शर्त भी उसने मान ली। इस तरह हम दोनों ने एक दूसरे के साथ जुड़े रहने के कुछ तार बचा लिये थे। जो आज तक बचे हैं। शुरू में जब यहाँ का काम शुरू किया तो एक महीने तक वह ही रहा था यहाँ सब कुछ जमा कर गया था। अब भी आता रहता है वह यहाँ हर महीने।' राहुल फिर साँस लेने के लिये रुक गया था।

'वहाँ की दुकान में से भी उसने मेरी पूरी पार्टनरशिप नहीं हटाई, दस प्रतिशत बाक़ी रहने दी। मगर वहाँ की मेरी जमा पूँजी और पार्टनरशिप का पैसा इतना था कि यहाँ की दुकान का सारा सब बहुत अच्छी तरह से जैसा चाहा था वैसा हो गया। आपके हाथों से दुकान का उद्घाटन हुआ तो मानो मेरे लिये शुभ लाभ का आशीर्वाद मिल गया। पिछले साल भर पर अगर नज़र डालता हूँ तो पहले साल के हिसाब से बहुत अच्छा रहा है दुकान का व्यवसाय। दो सीज़न का माल भी भरा और कमाया भी।' राहुल फिर चुप हो गया। मेजर और उनकी पत्नी के लिये कहानी के अनकहे बिंदु परेशान करने वाले साबित हो रहे थे। दोनों के लिये ये कहानी अब बहुत उलझन भरी हो रही थी।

'फिर जब एक साल बाद मुझे लगा कि अब कुछ पैसा निकाला जा सकता है दुकान से, तो मैं ये ढाई लाख रुपये लेकर आ गया। हालाँकि अभी तो ये आधे ही हैं। इनमें उन पैसों का ब्याज शामिल नहीं है। लेकिन वह भी मुझे निकालना है और अगर सब कुछ ठीक ठाक रहा तो अगले साल ब्याज भी निकाल दूँगा ताकि चुकारा पूरा हो जाये। दस साल हो गये हैं रक़म को, इतने सालों में तो बैंक में ही रहती तो जाने कितनी हो जाती। उतना ब्याज नहीं भी दे पाया तो भी जितना हो सका उतना तो कर ही दूँगा।' राहुल कुछ इस प्रकार से बोल रहा था जैसे कोई पागल अकेले में बैठ कर अपने आप से ही बात करता रहता है। बड़बड़ाता रहता है और सचमुच भी इस समय उसकी स्थिति पागलों जैसी ही थी, क्योंकि मेजर और उनकी पत्नी को तो कुछ समझ भी नहीं पड़ रहा था कि राहुल क्या बोल रहा है। कौन-सा पैसा कौन-सा ब्याज, ये सब उनकी समझ से परे था।

'कौन से पैसे और ब्याज की बात कर रहे हो तुम? हम दोनों को तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है कि तुम कह क्या रहे हो। आज पैसे निकाल दिये हैं कल ब्याज भी निकाल दूँगा। अरे भई ये तो बताओ कि ये सब तुम कह क्या रहे हो? इन सबका मतलब आखिरकार है क्या?' मेजर ने कुछ झुँझलाते हुए पूछा। मेजर को इस प्रकार से झुँझलाते देखा तो उनकी पत्नी को लगा कि अब राहुल की शामत आने ही वाली है क्योंकि इतनी देर से मेजर उसकी कहानी आराम से बैठ कर सुन रहे हैं और आख़िर में ये हो रहा है कि राहुल इस प्रकार की बेफिज़ूल की बातें करने लगा है। मगर राहुल के ऊपर मेजर के झुँझलाने का कोई असर नहीं हो रहा था, वह मेजर की तरफ़ से बेख़बर होकर बैग के कुंदों में उंगलियाँ उलझाने और सुलझाने का खेल-खेल रहा था। उसे इस प्रकार करते देख मेजर का पारा धीरे-धीरे चढ़ रहा था।

'कुछ तो कहो कि आख़िर तुम बात किन पैसों की कर रहे हो?' मेजर ने कुछ तेज़ स्वर में पूछा।

'सर पहले आप ये जान लें कि मैं इन पैसों का जो भी मुझसे बन पड़ेगा वह ब्याज भी निकालूँगा। अभी धंधे में गुंजाइश नहीं है लेकिन धीरे-धीरे करके निकालता रहूँगा। मूलधन का चुकारा करना, चुकारा नहीं होता, चुकारा तो तब होता है जब ब्याज का भी भुगतान कर दिया जाये।' राहुल ने सिर उठा कर मेजर की आँखों में आँखें डाल कर कहा।

'फिर वही बात? चुकारा, चुकारा...! अरे मैं कह रहा हूँ कि पहले ये तो बताओ कि काहे का पैसा और काहे का ब्याज और किस बात का चुकारा?' मेजर ने लगभग चीखते हुए कहा।

'और ये भी प्रॉमिस कीजिये कि जब तक मैं ब्याज तक न चुका दूँ तब तक इस घर में मैं आ जा सकता हूँ, उसके बाद जैसा आपका निर्णय होगा। यदि आप मना करेंगे तो मैं नहीं आऊँगा।' राहुल ने फिर मेजर की बात का उल्टा उत्तर दिया।

'फिर वही ...? अरे पहले ये तो पता चले कि ब्याज काहे का है ये?' मेजर ने उसी टोन में कहा। राहुल ने तुरंत कोई उत्तर नहीं दिया। एक गहरी साँस खींची और फिर साँस को छोड़ कर थूक गटकने लगा। बैग के कुंदे से खेलता उसका हाथ कंपकंपाने लगा था। कुछ देर यही स्थिति रही फिर उसने अपने आप को सीधा किया और तन कर बैठ गया। इस प्रकार मानो किसी बात के लिये तैयार हो गया हो। मेजर की आँखों में आँखें डाल कर बोला 'सर आप याद करिये दस बरस पहले की एक घटना।'

'कौन-सी?' मेजर ने उसी प्रकार आँखों में आँखें डाल कर ही उत्तर दिया।

'आप बैंक से एक बैग में ढाई लाख रुपये निकाल कर आ रहे थे।' कहते-कहते राहुल के माथे पर पसीना चुहचुहा आया 'और सिटी पार्क के पास वाले मोड़ पर एक लड़का आपकी कार में से बैग निकाल कर भाग गया था। जब तक आप कार से उतर कर चिल्लाते तब तक वह लड़का हवा हो गया था। बाद में उस लड़के का कुछ पता नहीं चला था। आपने पुलिस में भी रिपोर्ट करवाई थी मगर कुछ भी नहीं हो पाया था।' राहुल ने स्थिर स्वर में कहा।

'हाँ हुआ था, तो?' मेजर ने कहा।

'वो लड़का मैं ही था सर।' राहुल का ये वाक्य कमरे में विस्फोट कर तरह गूँज उठा।