चुनावी समुद्र-मंथन सामने खड़ा है / जयप्रकाश चौकसे

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चुनावी समुद्र-मंथन सामने खड़ा है
प्रकाशन तिथि : 15 जनवरी 2013

मकर संक्रांति के दिन से सूर्य उत्तरायण हो जाते हैं और भीष्म पितामह ने अनेक दिन तीरों की शैय्या पर अधमरे लेटे रहने का दु:ख पाया, क्योंकि वे सूर्य के उत्तरायण होने की पावन बेला में अपना नश्वर तन त्याग करना चाहते थे। इस वर्ष इसी दिन महाकुंभ का प्रारंभ है, जो महाशिवरात्रि तक चलेगा। उत्तर की पहाडिय़ों के बीच बसे एक कस्बे में इस दिन आसपास के तमाम गांव वाले एकत्रित होकर जी-खोलकर अपशब्द बोलते हैं, क्योंकि उनकी मान्यता है कि इस तरह गालियां देने से आसपास की बुरी आत्माएं भाग जाती हैं और पूरा वर्ष शुभ हो जाता है। यह अजब-गजब भारत ही है, जहां अशुभ बोलकर शुभ का पथ प्रशस्त करने की प्रथा है। कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे नेता भी वर्षभर विरोधी के लिए अशुभ बोलते हैं, ताकि उनकी सत्ता की कुर्सी के आसपास कोई बुरी आत्मा नहीं मंडराए।

बहरहाल तमाम राजनीतिक दल अगले वर्ष होने वाले चुनाव के महाकुंभ की तैयारियों में जुटे हैं। उन्होंने अपने-अपने अखाड़ों और नागा मंडलियों को सचेत कर दिया है। भांति-भांति की भस्म लगाए छुटभैये नेता भी चुनावी कुंभ के लिए तैयार हो रहे हैं। अगले वर्ष या उससे भी कुछ पहले का चुनावी महाकुंभ भारत के भाग्य का निर्धारक हो सकता है, ऐसी आशा अनेक नागरिकों के मन में है, परंतु तथ्य तो यह है कि चुनावी कुंभ से देश का भविष्य तय नहीं हो सकता। वह तो नागरिकों के सोच के बदलने से ही संभव है। हजारों वर्ष से जमा जालों को साफ करके विज्ञानसम्मत विचार-शैली ही भाग्य बदल सकती है। दिल्ली में एक मासूम कन्या के साथ घटी त्रासदी और उससे उत्पन्न आक्रोश के प्रदर्शन के बाद भी सामूहिक दुष्कर्म की घटनाएं प्रकाश में आ रही हैं। हमारी आम जनता की भयावह मानसिकता में परिवर्तन ही एकमात्र उपाय है। इस कॉलम में कभी-कभी अन्ना हजारे व अरविंद केजरीवाल के प्रति कुछ निर्ममता इसीलिए आई है कि कोई सख्त कानून देश के सोच को नहीं बदलता और नागरिकों की मानसिकता में परिवर्तन लाने का भगीरथ प्रयास कोई नहीं करता। तमाम आंदोलनों और आक्रोश की लहरें जिन निर्मम किनारों से टकराकर लौट आती हैं, उन किनारों की चट्टानों को हटाना होगा।

बहरहाल अगले चुनावी समुद्र-मंथन में अमृत से अधिक विष के बाहर आने की संभावना प्रबल है, अत: अवाम को ही नीलकंठ बनना होगा कि उस गरल को गले में धारण करे। अमृत के निकलने की संभावना इसलिए कम है कि विगत सारे चुनावों में हमने जहर ही तो रोपित किया है। जॉर्ज हीगल ने फरमाया है कि अवाम प्राय: अपनी सतही भावना से प्रेरित होता है और तर्क या कोई राजनीतिक विचारधारा उसे शासित नहीं करती। आज भारत में जो कुछ घटित हो रहा है, उसका कुछ दोष तो भावनाशासित अवाम का ही है और उस अवाम को संबोधित करने वाला कोई नेता इस देश में नहीं है और सच तो यह है कि हमें अश्वमेध करने वाले चक्रवर्ती की अवधारणा से ही मुक्त होकर हर नागरिक को महासंग्राम के नायक की तरह बनाना होगा। अगर नागरिकों में यह चेतना नहीं जगी तो परिणाम भयावह हो सकता है।

यह गौरतलब बात जाने कैसे अनदेखी रह जाती है कि हम अभी तक सदियों पुरानी कुरीतियों और अंधविश्वास से मुक्त नहीं हुए और हमारे आचरण ने भौतिकवाद और उपभोगवाद के नए अंधविश्वास गढ़ लिए हैं। समुद्र-मंथन और महाकुंभ 12 वर्षीय नहीं रहे, अब तो जीवन का हर सामान्य दिन महाकुंभ है, समुद्र-मंथन है। हर पल एक असामान्य पल है। मकर संक्रांति के इस अवसर पर मुझे बिमल रॉय की याद आ रही है। वह अपने अंतिम दिनों में कैंसर की पीड़ा झेलते हुए अपनी फिल्म 'महाकुंभ' की पटकथा पर काम कर रहे थे। काश! जीवन उन्हें इस आखिरी फिल्म बनाने की मोहलत देता। इसीलिए हर पल महत्वपूर्ण है। जीवन सहज में समय प्रदान करने वाला दयावान नहीं है। हर पल बेहतर इंसान बनने में लगाना होता है। भौतिक वस्तुओं के उपभोग में आकंठ लीन हम पल की सार्थकता से विमुख हो गए हैं।

भीष्म पितामह जब तीरों की शैय्या पर लेटे थे, तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा था कि युद्ध के पश्चात उनके पास जाकर उनके संचित ज्ञान का लाभ उठाने का प्रयास करो। क्या मकर संक्रांति की पूर्वसंध्या की बेला में शिखंडी ने जाकर भीष्म से मुलाकात की होगी? अंबा ही कन्या के रूप में जन्मी थी और पुत्र जन्म की तीव्र कामना रखने वाले पति से ये राज मां ने छुपाया और उसे हमेशा बालकों की तरह पाला था। बहरहाल, पूरी अंबा दास्तां को छोड़कर हम शिखंडी की आखिरी मुलाकात पर ध्यान दें। क्या उसने भीष्म से प्रार्थना की कि इस जन्म में तो वे कुंआरे रहने की शपथ से बंधे थे, परंतु अगले जन्म में तो उसे वरेंगे कि वह जन्म-जन्मांतर कुंआरी रहेगी? अगर भीष्म ने इस प्रस्ताव पर जामंदी का संकेत भी दिया, जो क्या वह अंतिम क्षण में अपनी शपथ को तोड़ रहे हैं? भीष्म की प्रतिज्ञा हस्तिनापुर के सिंहासन की रक्षा करने की थी, परंतु आज के सारे नेताओं का अभीष्ट केवल सत्ता है और देश उनके लिए अदृश्य है। इस अदृश्य को अपने ठोस निश्चित रूप में लाने का दायित्व हर नागरिक का है।