चेन्नई में संकट और हमारा अलमस्त देश / जयप्रकाश चौकसे

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चेन्नई में संकट और हमारा अलमस्त देश
प्रकाशन तिथि :03 दिसम्बर 2015


चेन्नई में निरंतर भारी बारिश के कारण शहर के निचले भागों में पानी भर गया है तथा रेल, हवाई इत्यादि आवागमन के साधन काम नहीं कर रहे हैं। इस समय समुद्र के किनारे बसा चेन्नई द्वीप की तरह हो गया है। देश के अन्य भागों से संपर्क टूट-सा गया है। प्राकृतिक आपदा के समय देश के अन्य भागों में चेन्नई के दुख के समय कहीं कोई गंभीर संजीदगी नज़र नहीं आती। पहले तो ऐसी हृदयहीनता नहीं थी। देश के शिखर नेता चुनाव के समय कहीं हजारों करोड़ भेजने की बात करते हैं परंतु दक्षिण के इस संकट में उनकी सुविधाजनक व्यस्तता समझ में आना कठिन नहीं है। कुछ समय पूर्व कश्मीर में बाढ़ के समय भी बड़ी मदद देने की घोषणा की गई थी। दरअसल, केवल 'तथास्तु' बोलकर उनका दायित्व खत्म हो जाता है, 'भक्तजन' का कष्ट दूर हुआ या 'आशीर्वाद' उन तक पहुंचा या नहीं इसे देखने का समय किसके पास है। बकौल साहिर 'आसमां पर है खुदा और जमीं पर हम, इस तरफ आजकल वह देखता है कम।' यह कैसी व्यवस्था हमने रची है कि नेताअों को आसमान पर बैठा दिया और उन्होंने धरती से आंखें फेर ली जैसे मतलबी अाशिक लैला से आंखें फेर लेता है परंतु जीवन कोई मुशायरा नहीं है। यह कड़वी हकीकत है।

कुछ दशकों पूर्व किसी भी क्षेत्र के बाढ़ पीड़ित होने या सूखाग्रस्त होने पर अन्य क्षेत्रों में लोग चंदा जमा करते थे और फिल्म सितारे भी खुले ट्रकों में सवार होकर पूरे मुंबई की सड़कों पर धन इकट्‌ठा करते थे। चीनी विश्वासघात के बाद भारत की गृहणियों ने अपने जेवर उतारकर दे दिए थे। अत्यंत दुखद बात है कि शीना मर्डर केस और संसद में धर्मनिरपेक्षता व सहिष्णुता की हानि पर घंटों बहस होती है और मीडिया की सुर्खियों में छा जाती है परंतु किसी भी दल ने चेन्नई संकट पर बात तक नहीं की। अगर झूठी संवेदना भी अभिव्यक्त कर देते तो भी मेहरबानी थी। सच तो यह है कि विगत दशकों में आम जनता की संवेदना का लोप हो गया है और ऐसी निर्ममता हृदय में भर गई है कि हर व्यक्ति केवल अपने परिवार की सुरक्षा के प्रति संवेदनशील हो गया है अर्थात हर व्यक्ति ऐसा द्वीप हो गया है, जिसे कोई लहर छूती नहीं। यह अलगाव की भावना का जन्म केवल राजनीतिक दलों के मोतियाबिंद के कारण नहीं है वरन् समाज ही स्वार्थ से घिर गया है। अब लोग दूरबीन के दूसरे सिरे से अपनी संकीर्ण दुनिया को देख पा रहे हैं। अपनी संकीर्ण खिड़की से आसमां की सीमा को कम आंक रहे हैं। यह भयावह मानवीय त्रासदी है। बच्चे का पहला स्कूल परिवार ही कुछ नहीं सिखाता और घर से दूर घर हो जाने वाली पाठशालाएं तो ज्ञान नहीं देकर केवल ज्ञान की नौटंकी चला रही है, क्योंकि शिक्षा सबसे अधिक लाभ देने वाला व्यवसाय हो गई और जो इस महकमे के शिखर पर विराजमान हैं, वे स्वयं अपनी शिक्षा के अलग-अलग प्रमाण-पत्र देते हैं।

अनेक वर्ष पूर्व एक फिल्म समारोह में लेटिन अमेरिका के एक देश में बाढ़ आने की कहानी दिखाई गई थी। श्रीराम ताम्रकार मेरे साथ थे और अगर वे आज होते तो उस फिल्म का नाम पूछते। मेरी लाइब्रेरी केवल मेरी याददाश्त है। बहरहाल, उस फिल्म में बाढ़ में डूबे शहर में लोग किसी तरह नाव में बैठकर बाहर जाते हैं। सरकार अगर एक जगह से पानी के निकास को संभव कर देती तो बाढ़ का एकत्रित जल बाहर चला जाता परंतु लालची सरगना आदेश देता है कि अभी बाढ़ के संकट को विराट होने दो और जो लोग आधे डूबे अपने घर कम दाम में बेच रहे हैं वे खरीद लो, क्योंकि नाव की सुविधा अत्यंत महंगी कर दी गई है। इस फिल्म के अंत में लालची शासक का ऊंचाई पर बसा बंगला भी डूब जाता है।

चेन्नई में उपरोक्त फिल्म की तरह कुछ नहीं हो रहा है। वहां की सरकार पूरी सहायता कर रही है। 'तमाशा' में संवाद है, 'कॉर्पोरेट कंपनियां देश बन गई हैं' और संकेत भी है कि देश एक हृदयहीन कॉर्पोरेट कंपनी की तरह चलाया जा रहा है। गौरतलब है कि जिस चमकीले बाजार में हम अनावश्यक चीजें खरीदते-बेचते रहे, उस बाजार में हमने अपनी संवेदना कौड़ियों के दाम बेच दी।