चोर-पंचर / कमल

Gadya Kosh से
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अपनी दुकान का शटर उठा कर जगजीत सिंह साफ-सफाई कर अगले कोने पर स्थित मुनीर चाय वाले से दुआ-सलाम कर आया था, जब अपने रोज के निर्धारित समय पर तीन सौ तेईस अप टाटा-बाड़बिल सवारी गाड़ी पास वाले जुगसलाई फाटक से हो कर गुजरी । यानी आठ बज कर साढ़े सोलह मिनट । टाटा नगर रेलवे स्टेशन से वहां तक आने में उस ट्रेन को कुल डेढ़ मिनट लगता है। सड़क के दोनों ओर आस-पास का बाजार जिन दुकानों की चहल-पहल से गुलज़ार होता है, उनमें सबसे पहले मुनीर की चाय और जगजीत की सायकिल दुकान ही खुलती हैं। दिन के नौ बजे तक राशन, कपड़े, जूते, फल और दवाखाना आदि की बाकी लगभग सारी दुकानें खुलती चली जाती हैं। फिर वहां की बाजार वाली चहल-पहल रात नौ बजे तक बनी रहती है।

“नहीं चुन्नु, थोड़ा और रगड़ो। कम रगड़ोगे तो सुलेशन सटेगा नहीं और पंचर ठीक से नहीं बनेगा, खुल जाएगा । हमेशा काम ऐसा करना चाहिए कि दुबारा न करना पड़े । इससे ग्राहक तो खुश रहता ही है, अपनी साख भी बनती है ।” जगजीत सिंह ने अपनी सायकिल दुकान में काम सीखने आये, उस नये लड़के को समझाते हुए कहा और उसके हाथ से लेकर छोटे से पाइप के टुकड़े पर सायकिल की ट्यूब के पंचर वाले हिस्से को इस तरह लपेटा कि छेद वाला भाग ऊपर उभर आया ।

उसे अपने बायें हाथ से पकड़ कर, दायें हाथ में रगड़ने वाली फाइल ले, हल्के हाथों से रगड़ने लगा, “सिर्फ ताकत से पंचर नहीं बनता। यह एक कला है और हर कला की तरह, बड़ी मेहनत से सधती है, समझे ! पहले लीवर से टायर खोलो। फिर ट्यूब को पूरे ध्यान से निकालना होता है, कहीं फंस कर और न फट जाए। अगर चक्का आवाज से ब्रस्ट हुआ है, तब तो फटा हिस्सा तुरंत नजर आ जाएगा। लेकिन कोई कांटी वगैरा लगी है, तब ट्यूब में हवा भर कर उसे पानी वाले टब में थोड़ा-थोड़ा कर घुमाते हुए हवा का बुलबुला खोजना पड़ता है । पानी में पंचर वाली जगह से हवा के बुलबुले निकलते हैं । लेकिन यह भी इतना आसान नहीं है। सबसे ज्यादा मुश्किल चोर-पंचर खोजने में होती है। चोर-पंचर वाली जगह से बुलबुले बहुत धीरे-धीरे और बहुत छोटे-छोटे निकलते हैं। उसका बुलबुला खोजने में बहुत ध्यान लगाना पड़ता है। एक बार छेद का पता चल जाये, फिर वहां निशान लगा कर और हवा निकाल कर ट्यूब को अच्छी तरह पोंछना होता है। उसके बाद फाइल से हल्के-हल्के हाथों से रगड़ कर सुलेशन लगाओ और फूंकते हुए सुखाओ। फिर उस पर छेद के आकार के हिसाब वाले पहले से रगड़े, सुलेशन लगे हुए दूसरे टुकड़े को दबा कर, इसी पाइप पर टायर-लीवर से हल्के हाथों, प्यार से ठोक कर चिपका दो। क्या मजाल कि फिर वहां से जोड़ छूटे ! समझे !”

“जी समझ गया।” चुन्नु मांझी ने अपना छोटा-सा सर हिलाया।

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कुछ लोग अपने पैरों के नीचे आने वाले कीड़ों को मसल कर चलने में आनंद लेते हैं। चाहे मसलने के लिए उन्हें अपना पैर, चलने की निर्धरित सीधी राह से कितना ही दांये-बायें क्यों न करना पड़े। उनका सारा ध्यान इस बात पर होता है कि कीड़ा किसी भी हाल में बचना नहीं चाहिए। जबकि कुछ लोग भूल से भी अपने पांव की नीचे कीड़े के आ जाने का आभास होते ही, उचक कर अपने उस पांव का भार दूसरे पांव पर डाल, उस कीड़े की जान बचाना चाहते हैं। चाहे उनके वैसे उचकने में अपना पैर ही मुचक जाने का खतरा क्यों न हो। जगजीत सिंह दूसरी तरह वालों में था।

इस साल गर्मी कुछ ज्यादा पड़ रही थी। अभी दस ही बजे थे, लेकिन गर्मी अपना रौद्र रूप दिखा रही थी। जगजीत ने थोड़ी देर पहले ही एक सायकिल रिम का टाल ठीक किया था। किसी-किसी चक्के का टाल आसानी से ठीक हो जाता है लेकिन कोई चक्का ज्यादा टेढ़ा हुआ तो उसका टाल ठीक करने में घंटों लग जाते हैं। उस चक्के का रिम भी ज्यादा टेढ़ा था। एक-एक स्पोक को बड़े ध्यान से जाँच कर, कहीं उसने चूड़ी सीधी कसी तो कहीं उलटी। कहीं आधी तो कहीं पौनी या डेढ़। तब कहीं जा कर वह चक्का रास्ते पर आया था। टाल ठीक करने के बाद चक्का लगा कर वह पंखे के पास बैठा सुस्ता रहा था, जब उसका फोन बजा। उसने जेब से फोन निकाला और बतियाने लगा।

“परणाम सर जी!” उधर से आवाज उभरी।

अपने लिए संबोधन पर वह चौंक सकता था, लेकिन ‘सर जी’ उसे ‘सरदार जी’ ही लगा। इसलिए उसने संबोधन पर ज्यादा ध्यान न दिया। हालाँकि जगजीत को वह आवाज अपरिचित लगी, लेकिन अपने सहज स्वभाविक उत्साह से उसने उत्तर दिया, “प्रणाम, प्रणाम।”

“सर, आप कल रात को टाइम से घर पहुंच गये थे न।” उधर से उसी आवाज ने पूछा।

उसकी बात पर वह चौंका । उधर वाले व्यक्ति को उसके टाईम पर घर पहुंचने की चिन्ता क्यों है? जगजीत ने अपनी याददाश्त पर ज़ोर दिया कि उस आवाज़ को पहचान ले, मगर असफल रहा। उधर वाला इतने प्यार और आत्मीयता से पूछ रहा था कि उलट कर यह पूछते भी नहीं बन पड़ा,”आप कौन बोल रहे हैं ?”

उसने पिछली रात का समय याद किया। कल भी उसने रोज वाले समय पर ही दुकान बढ़ाई थी और रोज वाले ही समय पर अपने घर पहुंचा था। उसके हिसाब में कहीं कोई गड़बड़ नहीं हुई थी, “हां, हां कल मैं समय से घर पहुंच गया था।” उसने उलझन भरी आवाज में जवाब दिया।

शायद उधर वाले को उसकी आवाज में उलझन की भनक लग गयी थी, “वो ...वो सर जी, कल यहीं से आपको निकलने में देर हो गयी थी। तो हम सोचें कि आपको कहीं घर पहुंचने में देर तो नहीं हो गयी।” उधर वाले का स्वर थोड़ा झेंपा हुआ-सा लगा ।

इस बार उसने गौर किया कि उधर वाला ‘सरदार जी’ नहीं ‘सर जी’ बोला था। अब तो जगजीत सिंह से न रहा गया। उसने पूछ ही लिया, “मैंने आपको पहचाना नहीं । आप कौन बोल रहे हैं ?”

“जी ...सर जी, हम धरधरो से बोल रहे हैं... हम गुमन उग्रसांडी बोल रहे हैं।” उधर वाली आवाज में अपनी पहचान बताने की उतावली थी।

जगजीत ने पहचान की तलाश में फिर अपनी याद् दाश्त पर जोर डाला, मगर असफल रहा। तभी उसने मोहन राव को अपनी ओर आते देखा, शायद वह अपनी सायकिल लेने आ रहा था। ‘धरधरो कहाँ’ और ‘कौन गुमन उग्रसांडी’ कहता-कहता जगजीत रुक गया और उसी उलझन में बोला, “अच्छा, अभी हम ज़रा बिजी हैं, आपसे बाद में बात करेंगे।”

“जी..जी सर, ठीक है। परणाम सर !” उधर से फोन रख दिया गया।

“क्या सरदार जी, मेरी सायकिल बन गयी ?” मोहन राव ने पास आकर पूछा।

“हां अभी बना कर उठा हूँ। उसका पिछला रिम तो पूरा टाल था। कहां पटके थे, सायकिल ? रात में पारटी चला था क्या ?” जगजीत ने हंसी करते हुए पूछा। मोहन राव उसकी दुकान के पुराने और परमेंन्ट ग्राहक थे, इस नाते वे दोनों आपस में काफी खुले हुए थे।

“अरे नहीं भाई, कोई पारटी-वारटी नहीं था। कल तो बुधवार था। बीच हफ्ता में भी कहीं पारटी चलता है ? उसके लिए तो शनिवार ठीक है। शनिवार रात को जितनी भी देर हो जाए, फिकर नहीं अगले दिन छुट्टी होती है। हफ्ता का बाकी दिन पारटी होने पर अगले दिन सुबह उठने में दिक्कत होती है।” मोहन राव ने हंसते हुए जवाब दिया, “वो तो कल शाम को बेटा सायकिल चलाना सीख रहा था। वह चलाया कम और पटका ज्यादा । नाली में घुसा दिया था।”

“अच्छा-अच्छा।” बोल कर जगजीत उसकी सायकिल निकालने लगा।

मुन्ना को देख कर मोहन राव ने पूछा, “दुकान में काम पर फिर नया लड़का रख लिया ? और लड़कों की तरह यह भी आपसे फ्री में पूरा काम सीख कर अपनी दुकान खोलने चल देगा। टिकेगा नहीं । क्या फायदा ऐसे लड़कों को काम सिखाने का ?”

जगजीत अपने उसी मस्त अंदाज में बोला, “अब सिखाने में क्या फायदा है, यह तो बाद में देखा जाएगा। पहले यह मन लगा कर काम तो सीख ले। काम सीख कर चला जाएगा, तो क्या हुआ, मेरी किस्मत तो नहीं ले जाएगा। इसकी मां मेरी पत्नी वाले स्कूल में दायी का काम करती है। वह आयी थी, इसे ले कर। यह पढ़ता-लिखता कुछ नहीं, बस सारा दिन आवारा लड़कों के साथ इधर-उधर समय बिताता है। अब इसकी मां को क्या सिर्फ इसलिए मना कर देता, कि यह मेरे पास काम सीख कर कहीं और न चला जाए? मोहन राव बाबू, मैं तो बस हाथ का हुनर सिखाता हूं। बाकी कमाना-खाना तो सब अपनी-अपनी किस्मत की बात हैं।”

“आज के जमाने में इतनी शराफत अच्छी बात नहीं है।” मोहन राव हंसते हुए बोला, “काम सिखाने का चार्ज लिया कीजिए, आपकी कमाई बढ़ जाएगी।”

“अरे नहीं राव बाबू, सिखाने का चार्ज लेने से कहीं ज्यादा कमाई तो ऐसे ही बढ़ने वाली है।”

“भला वह कैसे ?” जगजीत की बात सुन कर मोहन राव चौंका।

“अरे भई, सीधी-सी बात है। दिन पर दिन पेट्रोल-डीजल के बढ़ते दामों के कारण लोग बहुत जल्द ही वापस सायकिलों की ओर आने वाले हैं। जितने ज्यादा सायकिल उतना ज्यादा काम। अब काम बढ़ेगा तो कमाई नहीं बढ़ेगी क्या?” जगजीत ने मुस्कराते हुए कहा, “भविष्य मोटर सायकिलों का नहीं, सायकिलों का होगा ।”

“हां, ठीक कहते हो।” उसकी मुस्कान में साथ देते हुए मोहन राव ने कहा और पैसे दे चला गया। उसके जाने के बाद ‘मॉडर्न साइकिल रिपेयरिंग’ में बचे वह दोनों, जगजीत सिंह और चुन्नु मांझी, पूर्ववत् अपने-अपने कामों में लग गये।

थोड़ी देर बाद जगजीत का फोन एक बार फिर बज उठा।

“हलो।”

“सरदार जी, ज़रा किसी को भेज कर मेरे घर से बच्चे की सायकिल मंगवा लीजिए। उसका हैंडल जाम हो गया है।” उधर शर्मा जी थे।

“जी ठीक है शर्मा जी, मैं चुन्नु को को भेज देता हूं। आप घर में इसका नाम बोल दीजिएगा, नया लड़का है।” कह कर उसने फोन रखा, “जा चुन्नु, पिछली खरोड़े वाली गली में सात नंबर वाले शर्मा जी के घर से सायकिल ले आ।”

“जी अच्छा।” कह कर पंचर बनाते चुन्नु मांझी ने अपने माथे पर उभर आयीं पसीने की बूंदों को आस्तीन से पोंछा और उठ कर शर्मा जी की गली को ओर चल दिया।

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जुगसलाई वाले रेल्वे फाटक से जरा अंदर जाने पर दायीं तरफ फूटने वाली सड़क पर बीसेक कदम चलने के बाद बांये हाथ जगजीत सिंह की ‘मॉडर्न साइकिल रिपेयरिंग’ दुकान पिछले पच्चीस वर्षों से उसी तरह चल रही है। न बहुत ज्यादा तेज, न ही बहुत ज्यादा धीमी। जो ‘सादा जीवन उच्च विचार’ और ‘थोड़े में संतोष करो’ वाली उसकी थ्योरी से पूरा मेल खाती है। जबकि उसके बाद खुलने वाली कई छोटी-छोटी सायकिल दुकानें, अपने मालिकों द्वारा मरम्मत के उल्टे-सीधे हथकंडे अपनाने के कारण, काफी बड़ी और मोटी हो गयी हैं। लेकिन जगजीत सिंह ने कभी भी गलत तरीके से पैसा नहीं कमाया। जितनी मेहनत की हमेशा उसका ही दाम लिया, न कम न ज्यादा।

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बचपन में वह पढ़ने में कभी भी अच्छा नहीं रहा था। बहुत अच्छा कहने की तो बात ही क्या की जाए। उसने जी.जी.एम.एस यानि कि ‘घीच घाच के मैट्रिक पास’ की। जैसे-तैसे मिले गाँधी डिवीजन यानि कि तीसरी श्रेणी प्राप्त करने के साथ ही उसने घर में घोषणा कर दी कि आगे नहीं पढ़ेगा। घर वालों को अच्छा तो नहीं लगा, लेकिन तब तक वह तय कर चुका था कि विद्यार्थी के रूप में उसका बस उतना ही दाना-पानी लिखा था।

फिर बहुत सोच-विचार के बाद उसके बाऊजी सरदार बेला सिंह ने वह दुकान खोलवा दी, “अगर आगे नहीं पढ़ना तो मन लगा कर काम करो। अपने पैरों पर खड़े होओ।” और उस दिन से उसने जो काम में मन लगाने से शुरुआत की तो आज तक कभी भी, नहीं ऊबा। उसकी मेहनत और हुनर की सब तारीफ करते थे। कैसी भी सायकिल हो, कितनी भी बिगड़ी हो। उसके हाथों का स्पर्श उस सायकिल का कायाकल्प कर देता। चूं-चां करती और मुश्किल से घिसटती सायकिल भी उसके द्वारा ओवर-आयलिंग और मरम्मत आदि के बाद हवा से बातें करने लगती। सायकिल रिपेयरिंग के काम में वह पूरा उस्ताद साबित हुआ था।

अब तो उस बात को बीते काफी बरस हो गये हैं। बाऊजी और बीजी दोनों उसकी शादी करवा, पहले चाँद-सी बहु और बाद में बारी-बारी से दो पोतों का मुँह देख, ऊपर चले गये। टीचिंग-कोर्स के डिप्लोमा वाली उसकी पत्नी केवल दिखने में ही चाँद-सी सुंदर नहीं थी, बल्कि उसने उसके घर-परिवार को भी बड़ी कुशलता से संभाला था। जिसके परिणामस्वरूप उसके दोनों बेटे जगजीत से उलट, पढ़ने में तेज निकले और शहर के अच्छे स्कूल में पढ़ रहे हैं। जिसका पूरा श्रेय उसकी पत्नी हरबंस कौर को जाता है, जो एक अन्य स्कूल में शिक्षिका है।

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उस दिन दोपहर से पहले आये गुमन उग्रसांडी के फोन में याद रखने जैसा कुछ नहीं था। इसलिए जगजीत उसे भूल चुका था। वह भूला ही रहता, यदि उसका फोन दुबारा न आता। उस दिन मंगलवार था। बा़जार की साप्ताहिक बंदी का दिन। दोपहर को चिकेन-दो प्याजा के साथ गर्मा-गर्म छः पंजाबी रोटियों का भरपेट भोजन। कूलर की ठंढी हवा और अपना प्यारा बिस्तर। उसके बाद जगजीत सिंह को और कुछ नहीं चाहिए। मंगलवार की दोपहर वह अपनी सप्ताह भर की पूरी थकान उतारता है। उस पर नींद की खुमारी चढ़ रही थी। अभी मीठी नींद का पहला झोंका उसकी पलकों में उतरा ही था, जब उसका फोन बज उठा। पहले तो उसने स्वयं को कोसा कि सोने से पहले उसने फोन ऑफ क्यों नहीं किया था। फिर सोचा कि रहने दो बजता, उठ कर ‘मिस कॉल’ में देख कर ‘रिंग-बैक’ कर बात करेगा। लेकिन बजती घंटी और अपने स्वभाव से मजबूर उसने फोन उठा लिया “हलो।”

“परणाम सर।”

जगजीत ने थकी-सी आवाज में पूछा, “कौन साहब बोल रहे हैं ?”

“सर मै धरधरो से ...गुमन बोल रहा हूं, गुमन उग्रसांडी । याद आया ? आपसे मिला था, आपको फोन भी किया था ।” उधर वाला जगजीत द्वारा पहचान लिए जाने की जल्दी में था।

तब तक मिलने तो नहीं, हां फोन करने की बात से वह उसे याद आ चुका था, “...ओ, हां । ...बोलिए, कैसे हैं ?”

“जी सर हम ठीक हैं। आपका तबियत ठीक नहीं है क्या, आपकी आवाज भारी लग रही है?” नींद में डूबी हुई जगजीत की आवाज गुमन को तबियत खराब होने जैसी लग रही थी।

“ऐं.... हां... हां, तबियत कुछ ढीली है।” उसने पीछा छुड़ाने की गरज से कहा।

“...ठीक है सर, आप आराम कीजिए मै बाद में फोन करूँगा।” कह कर उसने फोन काट दिया।

जगजीत ने चैन की सांस ली, फोन ऑफ किया और गहरी नींद में डूब गया। उस समय तो फोन ऑफ कर वह सो गया, लेकिन शाम को जब उठा, तब भी उसे गुमन उग्रसांडी का फोन याद आ रहा था । न जाने वह कौन है ? उसे कौन-सा ‘सर’ समझ रहा है ? क्यों उसे बार-बार फोन कर रहा है ? जरूर वह रौंग नंबर लगता रहता है। अगर नींद न आ रही होती तो वह आज ही पूछ लेता। अच्छा, आगे उसका फोन आया तो, उससे पूछेगा। साथ ही उसे यह भी बता देगा कि वह अपना नंबर चेक कर ले, उसने जरूर गलत नंबर नोट कर लिया है। जगजीत सिंह कोई सर-वर नहीं है। लेकिन उसकी प्रतीक्षा लंबी चलती रही, काफी दिनों तक गुमन उग्रसांडी का कोई फोन नहीं आया।

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जगजीत सिंह की दुकानदारी अपनी सामान्य गति से चलती जा रही थी। चुन्नु मांझी भी अब पंचर लगाने में माहिर हो गया था। छोकरा तेज निकला। सायकिल मरम्मत के काम जल्द सीख रहा था और जगजीत के ऊपर अक्सर पड़ने वाला काम का दबाव कुछ हल्का होने लगा था। खास कर पंचर बनाने वाला काम अब वह दक्षता से करने लगा था।

दुकान में उस दिन एक और अलसायी हुई दोपहर बीत चुकी थी। अस्त होते सूरज के साथ गर्मी भी कुछ कम हो गयी थी। किसी की तेज गति से चलती सायकिल का अगला पहिया गढ्ढे में जा गिरा और उसका फोर्क टूट गया था। जिसे बदलने के लिए सबसे पहले जगजीत ने उसकी अगली दोनों ब्रेकें ढीली कर सेंटर नट खोल दिया। उसके बाद वह टूटे फोर्क का चूड़ी वाला नट खोल रहा था, जब काफी दिनों के अंतराल की खामोशी को तोड़ता, गुमन उग्रसांडी का अगला फोन आया। उसकी आवाज सम्मान भरी होने के बावजूद खासी उत्तेजित लगी।

“परणाम सर, मैं गुमन बोल रहा हूं। देखिए न, पिछले सोमवार वाला मीटिंग में आप बोले थे कि नरेगा वाला काम हमलोगों से करवाना होगा। लेकिन इंचार्ज रमेश्वर बाबू पूरा मजदूरी नहीं दे रहे हैं। बोल रहे हैं कि आधा मजदूरी में ही काम करना है तो करो, नहीं तो मशीन से काम करवा लेंगे । सर, नरेगा का काम तो मशीन से नहीं करवाया जा सकता न ? वह तो गलत होगा न ?”

...‘नरेगा’ ...‘मशीन से काम’ ...‘इंचार्ज रमेश्वर बाबू’ यह सब तो जगजीत भले ही नहीं समझ पाया हो, लेकिन एक बात उसकी समझ में सहज ही आ गयी और उसके मुंह से स्वतः स्फूर्त ढंग से निकला, “मजदूरी पूरा कैसे नहीं देगा ? रमेश्वर बाबू हो या कोई भी, जब काम पूरा करवायेगा, तो मजदूरी भी पूरा देना पड़ेगा ।”

“जी सर, हम भी तो यही कह रहे हैं।” गुमन उग्रसांडी का उत्साह से भरा स्वर आया, “हम सबसे यहां यही बोले थे। अब आपसे बात करके हमारा मन शांत .....” उसके आगे बात नहीं हो पायी। अचानक ही फोन का टावर कट गया था । जगजीत उसकी, गलत नंबर पर फोन करने वाली, गलती को सुधार ही नहीं सका।

कुछ देर बाद जब उसका टावर वापस चमका तो उसने तुरंत गुमन उग्रसांडी को फोन लगाया, “गुमन उग्रसांडी ! मेरी बात तो सुनो ।”

उधर से आवाज आयी, “कौन गुमन उग्रसांडी ? इस नाम का यहां कोई नहीं है ।”

“अभी थोड़ी देर पहले आप ही हमसे बात किये थे, न ?”

“जी नहीं, यह तो फोन-बूथ है। अब थोड़ी देर पहले आपको कौन फोन किया था, हम कैसे बताएं?” उसने उत्तर दिया।

“फोन बूथ ? कहां ? धरधरो का फोन बूथ ?” जगजीत ने जानना चाहा।

“जी नहीं, यह बूथ सरायकेला बाजार में है। धरधरो तो यहां से बीस किलोमीटर दूर है।” उधर का जवाब सुन कर वह खामोश रह गया।

♦♦ • ♦♦

जगजीत और गुमन के बीच की उस आँख-मिचैली का अंत होता नहीं दिख रहा था। उस दिन सुबह से ही बहुत तेज और धूल, भरे गर्म अंधड़ चलते रहे थे। काफी दिनों बाद उस दिन फिर फोन फिर आया। इस बार उसका उत्साहित स्वर आत्मविश्वास से भरा हुआ था, “सर, सूचना का अधिकार के बारे में जैसे आप बताये थे, वैसे ही हम सूचना की मांग कर दिये हैं। इंचार्ज रमेश्वर बाबू को भी पता चल गया है। इसीलिए बोल रहा था, हमको वैसा सूचना नहीं मांगना चाहिए था। लेकिन अब उसका आवाज उतना टाईट नहीं था। बहुत धीरे बोल रहा था। अब हम लोग को भी लग रहा है, सब ठीक हो जाएगा। ठीक हो जाएगा न सर ?”

काफी दिनों से जगजीत उसका फोन आने का इंतजार जरूर करता रहा था, लेकिन वैसी किसी बात के लिए वह बिल्कुल भी तैयार नहीं था। वह बुरी तरह चौंका, “अरे यार, हम तुम्हारे कोई साहब नहीं हैं। और हम तुमको सूचना के अधिकार के बारे में कुछ नहीं बताये हैं। तुम बार-बार हमको रौंग नंबर लगा रहे हो, समझे।”

“सर, ऐसा क्यों बोल रहे है ! हम तो बराबर आपसे इसी नंबर पर बात करते रहे हैं। आपकी आवाज भी पहचान रहे हैं। आज आप ऐसी बात क्यों कह रहे हैं ?” गुमन उग्रसांडी की आवाज वाला पहाड़ी झरने-सा उत्साह अचानक ही गहरे समंदर की उदासी में डूब गया। उसकी आवाज कांपने लगी, “सर जी, आप तो पहले वाले साहबों से बहुत अलग हैं। हमेशा हमलोगों का साहस बढ़ाते हैं। अगर आप ही ऐसा बोलिएगा, तो हम लोगों का क्या होगा ?”

“ओफ्फो ...अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ ? तुम समझते क्यों नहीं। अपना नंबर चेक करो। यह मेरा नंबर है, तुम्हारे किसी साहब का नहीं।”

“सर नंबर कैसे गलत होगा ? जब हम धरधरो में मिले थे, यह नंबर तो आपने ही मुझे दिया था।

“अरे यार, अब तुम्हें कैसे समझाऊँ ?” जगजीत की आवाज में विवशता थी, “हम आज तक कभी नहीं मिले। तुम जिससे मिलते रहे हो, वह मैं नहीं कोई और है।”

“ऐसा मत बोलिए सर। अगर हम लोगों से कोई गलती हो गई है, तो माफ कर दीजिए। मगर ऐसा मत बोलिए। अच्छा सर, अभी हम फोन रखते हैं। लगता है, आप किसी बात पर हम लोगों से नाराज हैं। हम बाद में बात करेंगे। परणाम !” कह कर उसने फोन रख दिया।

इधर से जगजीत चीखता ही रह गया, “हलो ! सुनो तो ! फोन मत रखना । पहले मेरी बात तो सुन लो। सुन रहे हो...” मगर उधर से फोन काटा जा चुका था।

“क्या बात है, सरदार जी। किस पर नाराज हो रहे हैं ?” पीटर लकड़ा ने अपनी सायकिल से उतरते हुए पूछा । कचहरी में उसकी कागज, कार्बन, फार्म आदि की छोटी-सी दुकान है ।

“अरे नहीं पीटर बाबू, किसी पर नाराज नहीं हो रहा।” जगजीत ने सहज होते हुए कहा, “आइये, आइये, चाय पीजिए ।”

तभी चुन्नु ने पास आते हुए याद दिलाया, “सुबह जो आदमी पंचर बनवा कर गया था। अभी तक पैसा देने नहीं आया।”

“छोड़ो उसे। उसका इंतजार मत करो। मुझे मालुम था, वह नहीं आएगा।” जगजीत ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया।

“कौन पंचर का पैसा मार गया ?” पीटर लकड़ा ने अपनी सायकिल खड़ी करते हुए पूछा।

“अरे कोई पैसा नहीं मारा, भई । उसके पास पैसा था ही नहीं । एक लड़का अपनी सायकिल ले कर आया था । मैं तो सुबह उसकी हालत और वेश-भूषा देख कर ही समझ गया था कि वह किसी और की सायकिल ले कर अपना काम करने गया होगा । सायकिल रास्ते में कहीं पंचर हो गयी होगी। अब पंचर सायकिल तो उसी तरह नहीं लौटा सकता था और उसके पास बनवाने को पैसे भी नहीं थे, तो क्या करता ? यही कह कर न जाता कि शाम तक पैसे दे देगा। अब एक पंचर के पैसे नहीं मिले तो क्या हुआ। संतोष तो मिला कि मैं किसी जरूरतमंद के काम आया।” जगजीत के चेहरे पर एक भली-सी मुस्कान थी, “उसे छोड़, तू जा मुनीर की दुकान से तीन चाय पकड़ ला । कहना कड़क चाय दे ।”

पीटर लकड़ा को भी शायद कोई जल्दी नहीं थी। उसने पास रखे बेंच पर बैठते हुए कहा, “आप भी अजीब हैं सरदार जी। मैंने देखा है ऐसे कितने लोगों के सायकिल आप बनाते रहते हैं। आपको मुफ्त के पंचरों और ऐसे कामों से हर माह कितना घाटा होता है?”

“अरे छोडि़ए भी, मेरी ज़रा-सी मेहनत से किसी का बिगड़ा काम बन गया तो घाटा कैसा ? किसी जरुरतमंद के काम आना ही तो सच्चा सौदा है ।” फिर जगजीत ने बात का रुख मोड़ते हुए कहा, “अच्छा पीटर बाबू, एक बात बताइये, यह सूचना का अधिकार क्या कानून है ?”

“आपको किससे सूचना निकलवानी है ?” पीटर ने हंसते हुए कहा, “वैसे आर.टी.आई. माने सूचना का अधिकार वाला यह नया कानून, है बड़ा अच्छा ।”

“पीटर बाबू, कानून तो सभी बड़े अच्छे होते हैं । प्रजातंत्र में भला खराब कानून कैसे बन सकते हैं? बस लागू ही अच्छी तरह नहीं हो पाते। जरूरत उन्हें उसी अच्छे रूप में लागू करने की होती है, जिस रुप में वे पास होते हैं। दरअसल कठिनाई तो इस बात की है कि अच्छे-भले कानूनों को अपने स्वार्थ के लिए तोड़मरोड़ कर लागू किया जाता है और तब वे किसी काम के नहीं रहते ।”

“आप ठीक कहते हैं। लेकिन यह कानून उसी तोड़मरोड़ को पकड़ने के लिए बना है। अब कोई यह कह कर पल्ला नहीं झाड़ सकता कि आपका काम नियम से किया जा रहा है। इस नये कानून के तहत हम यह पूछ सकते हैं कि अब तक आपने क्या-क्या किया बताइये ? उसे बताना पड़ेगा कि उसने क्या-क्या किया है और यहीं पर वह पकड़ा जाएगा कि काम कर रहा है या केवल बहाने बना कर दौड़ा रहा है ।”

“तब तो यह सच में एक मजेदार कानून है। मेरा मतलब है कि अब हमें कोई आराम से बुद्धु नहीं बना सकेगा।” जगजीत सिंह ने हंसते हुए कहा।

तब तक चुन्नु चाय ले आया था । कुछ देर तक इधर-उधर की बातें कर के पीटर लकड़ा चला गया। आर.टी.आई. की उस थोड़ी-सी जानकारी के आधार पर जगजीत, गुमन उग्रसांडी के अगले फोन का बेसब्री से इंतजार करने लगा। बहुत दिनों बीत गये, उसका इंतजार लंबा होता चला गया। मगर गुमन उग्रसांडी का फोन न आना था और न ही आया।

जगजीत सिंह यह सोचता रहता, शायद गुमन उग्रसांडी का काम हो गया होगा। इसीलिए अब उसका फोन नहीं आता। या तो उसका काम हो गया होगा या फिर उसे अपने असल ‘सर’ का सही फोन नंबर मिल गया होगा। वैसे विचार उसे निश्चिंत करने वाले थे। बहुत दिन बीत गये। जगजीत की दुकान में सायकिलों की मरम्मत होती रही, पंचर बनते रहे। बीतते दिनों के साथ चुन्नु मांझी अपने काम में और दक्ष होता रहा। दिन बीतने के साथ ही गुमन उग्रसांडी उसकी स्मृतियों से बाहर जाने लगा। अब चारों तरफ शांति थी ।

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हर साल की तरह उस पंद्रह अगस्त को भी जगजीत ने अपनी दुकान की छत पर तिरंगा फहराने की तैयारी कर ली थी। फूल वह अपने घर के बगीचे से ही तोड़ लाया था और आते ही चुन्नु मांझी को गर्मा-गर्म जलेबियां लाने भेज चुका था। ‘मॉडर्न साइकिल रिपेयरिंग’ के सामने लंबे बांस पर तिरंगे झंडे को रस्सी में लपेट कर वह तैयार था। चुन्नु आ जाए तो वह झंडा फहरा कर फुर्सत पाये। आज के दिन झंडा फहरा कर वह दुकान बढ़ा देता है। फिर वह अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ गोपाल मैदान जा कर सरकारी समारोह देखता है। चुन्नु की प्रतीक्षा में उसने अखबार खोल कर अपने सामने फैला लिया। अखबार स्वतंत्रता दिवस की खबरों, झंडा फहराने की तैयारियों और विभिन्न नेताओं और लोगों की सरकारी तथा गैर-सरकारी शुभकामनाओं से लबालब भरा हुआ था।

पिछले दिनों गोपाल मैदान में होने वाले सरकारी समारोह में झंडा फहराने की बात पर सरकार के दो मंत्रियों में खींचतान चलती रही थी। दरअसल दो अलग-अलग विधानसभा क्षेत्रों से जीत कर इस बार मंत्री पद पाने वाले दो नेता इसी शहर में रहते थे। उनके बीच झंडा फहराने की बात को मूँछ की लड़ाई बना लेने से, अखबारों को मजेदार मसाला और शहर वालों को कुछ दिनों तक मन बहलाव का साधन मिल गया था। हां, जि़ला प्रशासन के लिए तब तक वह बात जी का जंजाल बनी रही, जब तक राजधानी से सीनियर मंत्री के पक्ष में फैक्स न आ गया। जिसमें यह स्पष्ट किया गया था, अगले गणतंत्रता दिवस पर गोपाल मैदान में दूसरे मंत्री झंडोत्तोलन करेंगे। ऐसे ही बड़े-बड़े समाचारों से भरे पन्ने पलटता जगजीत एक कोने में छपी छोटी-सी खबर पर अटका । ‘ग्रामीण की हत्या’ शीर्षक से वह खबर इतने मामूली ढंग से छपी थी कि जगजीत की नजर का वहां पड़ना किसी आश्चर्य से कम नहीं लग रहा था। लेकिन अब नजर पड़ ही चुकी थी, इसलिए वह पढ़ने भी लग गया-

‘देर से प्राप्त समाचार के अनुसार कुछ दिन पहले हत्या कर फेंके गये शव की पहचान मृतक की पत्नी द्वारा कर ली गयी है। वह धरधरो गांव का गुमन उग्रसांडी था जिसकी हत्या चाकुओं से गोद कर कर दी गयी थी। बताया जाता है कि नरेगा योजनाओं में हो रही गड़बडि़यों के खिलाफ उसने सूचना के अधिकार के तहत आवेदन दे रखा था। हत्यारों का अभी तक पता नहीं चल पाया है लेकिन अनुमान है कि उन्हीं लोगों ने उसकी हत्या की होगी, जिन लोगों ने सरकारी योजनाओं के घपले में करोड़ों का वारा-न्यारा किया है।’

अखबार के कोने में छपी उस छोटी-सी खबर से निकल कर ‘धराधरो’ और ‘गुमन उग्रसांडी’ ये दो नाम उसकी मानसिक तरंगों में काँटों की तरह उलझ गये थे। सुबह से ही स्वतंत्रता दिवस के उत्साह में मचलता-इठलाता जगजीत सिंह अचानक ही बहुत उदास हो गया। उसके मन में गुमन उग्रसांडी के बारे में कई तरह के विचार आ-जा रहे थे और वह गुमसुम था।

“दुकान में बहुत भीड़ थी। इसलिए जलेबियां लाने में देर हो गयी।” चुन्नु मांझी उसके सामने आ खड़ा हुआ, “अब जल्दी से झंडा फहरा दीजिए, बड़े जोर की भूख लगी है।”

जगजीत सिंह ने खोये-खोये स्वर में कहा, “तुम ऐसे ही जलेबी खा लो, आज झंडा नहीं फहरेगा।”

“क्या कहा ?” चुन्नु मांझी ने हैरानी से पूछा, “बिना झंडा फहरे जलेबी खा लूं?”

मगर जगजीत सिंह तो कहीं और खोया हुआ था। जैसे उसने चुन्नु की आवाज नहीं सुनी, वैसे ही चुन्नु मांझी ने भी उसकी बुदबुदाहट नहीं सुनी थी, “पता नहीं इस देश का चोर-पंचर कैसे बनेगा ? आधी रात को आजादी मिली थी, आज तक सुबह नहीं हुई।”