चोर (क्यों) मचाये शोर / प्रमोद यादव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बचपन में एक फिल्म देखी थी- ‘चोर मचाये शोर‘ (1974 वाली), बार-बार याददाश्त पर जोर देने के बाद भी इस फिल्म की कहानी याद नहीं आ रही, केवल फिल्म का मुखडा ( शीर्षक) ‘चोर मचाये शोर ‘ही दिमाग में उमड़-घुमड़ रहा है। समझ नहीं आता, कैसा अजीब शीर्षक है- चोर भला क्यों मचायेगा शोर? चोर का तो सारा काम चोरी-चोरी, चुपके-चुपके वाला होता है। शोर से भला उसका क्या नाता? सारी दुनिया मचा ले शोर पर चोर तो कम से कम नहीं मचायेगा शोर । फ़िलहाल चोर को छोड़ देते हैं और ‘शोर ‘को पकड़ते हैं।

शोर-शराबे का वैज्ञानिक नाम है- ‘ध्वनि-प्रदूषण ‘जिससे आज कोई भी मुक्त नहीं। सारी दुनिया त्रस्त है ‘ध्वनि-प्रदूषण ‘से। शहर से बेहतर तो जंगल लगते हैं क्योंकि वहाँ शोर बहुत ही कम होता है। मशीनी और इंसानी शोर से मुक्त होता है जंगल। केवल चिडिओं के कलरव और पशुओं की चीख ही शोर के पर्याय होते हैं। जो गूंजते रहते हैं- रुक-रुक कर । रुक-रुक कर। इंसानी दुनिया की तरह धारावाहिक बिलकुल नहीं।

उपरवाले का लाख-लाख शुक्र है कि बोलने- बतियाने (शोर मचाने) की क्षमता केवल इंसानों को दी। अगर दुनिया के सारे जीव-जंतु भी हमारी तरह आपस में बोलते-बतियाते तो सोचिये दुनिया में कितना शोर होता। । कितना प्रदूषण होता। एक और स्थिति की कल्पना करें- अगर दुर्भाग्य या सौभाग्य से हम सारे प्राणियों की भाषा को आसानी से समझने की समझ रखते तब क्या होता? इसी कल्पना के कुछ श्रवण-दृश्य देखें और सुनें।

दो बैलों की जोड़ी खेतों में हल चलाकर, पसीने से तर-बतर वापस लौट रहें है। एक कह रहा है-”क्या जिंदगी है यार। । सुबह केवल पेज-पसिया देकर पूरे आठ घंटे खेत जुतवाता है। शिक्षाकर्मी समझ लिया है हमें। वापस लौटो तो फिर वही बेस्वाद खाना। मेनू तो कभी बदलता ही नहीं। ऐसा भी नहीं कि संडे को एक दिन ‘आफ ‘रखे। पिकनिक, सिर-सपाटे तो अपनी जिंदगी से कोसों दूर है। कब हम इस गुलामी से मुक्त होंगे? कब आजाद होंगे? “दूसरा बैल बोला- “इंकलाबी बातें बंद कर। सामने देख मालिक आ रहा है। तेरी बातें सुन लिया तो आज तुझे बेस्वाद-बासी खाना भी नहीं देगा और कोड़े लगायेगा सो अलग। चल, चुपचाप चल। ”

गली के चार मरियल कुत्तों की मुलाकात होती है- हवेली के एक हृष्टपुष्ट बुलडाग से । उसे ‘फ्रेश’ कराने एक टिप-टॉप मालिकनुमा नौकर शहर से दूर सूने इलाके में उसे छोड़, अपने एक दोस्त से गप्पें हांक रहा है। कुत्ता नंबर-१ पूछता है-”भाई, आपकी सेहत का राज? “बुलडाग भौंकता है- “रोज सुबह-शाम दो किलो फ्रेश मटन, दोपहर दो पंजाबी गिलास दूध और रोज रात आठ बजे आठ देसी मुर्गी के अंडे। ये है मेरी सेहत का राज “दूसरा मरियल कराहता है- “बड़े नसीब वाले हो भाई। हमें तो कोई बासी रोटी तक नहीं डालता। नेताओं की तरह छीनकर ही खाना पड़ता है। ” तीसरा मरियल पूछता है- भाई, सुना है। आपको रोज सुगन्धित साबुन से नहलाया जाता है। रोज-रोज नहाते बोर नहीं होते? हमें तो कोई एक दिन भी नहला दे तो महीनों तक खुजली होती है “चौथे मरियल ने तारीफ की- “बड़े भाग्यवान हो भाई। रोजाना कार की सवारी करते हो । मैंने आपके पंजे देखे अब तो यही कहूँगा- इन्हें जमीं पर न उतारें, मैले हो जायेंगे। ” चारों मरियल कुत्तों की बातें सुन बुलडाग का सीना चौड़ा हो गया, बोला- “पिछले जनम के कर्मों का फल है जो आज ऐश की जिंदगी जी रहा हूँ। मुझसे ज्यादा भाग्यवान कुत्ता इस पूरे शहर में कोई हो ही नहीं सकता “नंबर-१ गुर्राया- “गलत कहते हो भाई। माना कि आप अच्छा खाते-पीते हो, खूब घुमते हो, ऐश करते हो पर कुछ मामलों में हम तुम्हारे बाप लगते हैं। बारिश का मजा तो हम गली के कुत्ते ही लेते हैं। सुनकर बुलडाग का “सेर “वाला चेहरा “छटाक “भर का हो गया।

एक घर में एक सिंगल तोता पिंजरे में बैठा सामने आते नट्टू को देख मन ही मन बुदबुदा रहा है-”फिर आ गया साला नट्टू। एक हरी मिर्च में दस बार राम-राम रटने को कहेगा। आज तो उसकी ओर देखूंगा भी नहीं। अजीब बात है- जो आता है वही लाल-हरी मिर्च चोंच में घुसेडता है। खुद तो साले एक मिर्च भी खा नहीं पाते और मुझसे दस की उम्मीद रखते हैं। भगवान जाने मेरा मेनू कब बदलेगा ?

शहर के बाहर वीराने में दो घने विशाल वृक्ष के नीचे दो विशाल हाथी बतिया रहें हैं। पास ही उनके नंग-धडंग मालिक ईंट का चूल्हा बना कुछ पका-खा रहे हैं। एक हाथी दूसरे से कह रहा है-”किस बेवकूफ ने यह मुहावरा बनाया है कि हाथी पालना हर किसी के बस की बात नहीं, ये तो राजे-महाराजाओं के शौक हैं। यहाँ देखो ये दो भुक्कड़ जिनके बदन में सिवाय लंगोट के कुछ नहीं। हमें पाले जा रहें हैं। खुद तो पूरे बदन में राख चुपड सिर पर बैठ भीख मांगते हैं, हमारे शरीर में भी राख चुपड हमें भिखारी बना देते हैं। कभी-कभी तो हमारे पेट में पेंटिंग-सेंटिंग कर नारे और सूक्ति भी लिख देते हैं, जैसे पेट, पेट न हुआ ब्लेक-बोर्ड हो गया। ”दूसरा हाथी बोला-”यार, अभी भी आदिमयुग में हैं ये लोग। ब्लेक-बोर्ड में अटके हैं।’ लेपटाप ‘तक पहुँचने में बरसो लगेंगे इन्हें“

उपरोक्त चंद दृश्यों-वार्तालापों का इंसानों पर क्या असर होता, इसकी कल्पना करें- तब शायद हमारे कान चौबीसों घंटे इन्ही की ओर तने रहते कि कहीं घर का पालतू कुत्ता भौक-भौक कर हमें ‘कुत्ता-कमीना ‘तो नहीं कह रहा । कि कहीं गली में रेंकता कोई गधा हमें गधा तो नहीं कह रहा । कि कहीं सड़क पर पसरा सांड हमें पटखने का कोई प्लान तो नहीं बना रहा । इनके चक्कर में आदमी आपसी बोल-चाल भी भूल जाता । इससे और कुछ होता न होता, कुछ हद तक शोर तो कम हो ही जाता । माफ़ करें- विषयांतर होने की मुझे गंभीर बीमारी है । पुनः पुराने ढर्रे( पहले वाक्य) पर लौट रहा हूँ, ‘चोर मचाये शोर ‘वाला प्राब्लम साल्व कर लिया है । चोर तो शोर किसी भी हालत में मचायेगा नहीं, ऐसा दिल कहता है । अलबत्ता निष्कर्ष यह निकला है- फिल्म का शीर्षक गलती से गलत छ्प गया होगा, सही शीर्षक यूँ होना था- “चोर क्यों मचाये शोर“