चौंसठवीं कला के जानकार / जयप्रकाश चौकसे

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चौंसठवीं कला के जानकार
प्रकाशन तिथि : 19 मार्च 2019


नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया के पास भारतीय फिल्म धरोहर रखी जाती है। कैग ने रिपोर्ट दी है कि 2015 से 2017 तक के खातों की जांच से ज्ञात हुआ कि इस दरमियान 31 हजार रीलें चोरी चली गई हैं। संस्था से पुरानी फिल्मों की प्रचार सामग्री भी चोरी गई है। ज्ञातव्य है कि फिल्म की प्रचार सामग्री प्रसिद्ध चित्रकारों द्वारा बनाई जाती थी। 'मदर इंडिया', 'मुगल-ए-आजम' और 'सत्यम शिवम सुंदरम' की बुकलेट्स पेंट की गई सामग्री थी और संग्रह करने योग्य थी। उस दौर में सिनेमाघर के बाहर गीतों वाली बुकलेट्स बेची जाती थीं। ज्ञातव्य है कि गीत के मुखड़े दर्शक को याद रहते हैं परंतु अंतरों के लिए ये बुकलेट्स महत्वपूर्ण होती थीं। अंतरों में भावना और वैचारिक गहराई का आकलन करने के लिए बानगी प्रस्तुत है। 'सीमा' का गीत 'तू प्यार का सागर है, तेरी एक बूंद के प्यासे हम' का अंतरा है- घायल मन का, पागल पंछी उड़ने को बेक़रार/ पंख हैं कोमल, आंख है धुंधली, जाना है सागर पार/ जाना है सागर पार/ अब तू ही इसे समझा, राह भूले थे कहां से हम'। यहां देश के राह भटक जाने की बात की जा रही है। 'बम्बई का बाबू' नामक फिल्म में 'चल री सजनी' का अंतरा है- 'ममता का आंगन, गुड़ियों का कंगना/छोटी बड़ी सखियां, घर गली अंगना/ छूट गया, छूट गया, छूट गया रे/दुल्हन बनके गोरी खड़ी है/कोई नहीं अपना, कैसी घड़ी है'। इसी तरह देव आनंद अभिनीत 'काला बाजार' में एक भजन का अंतरा इस तरह है- मन मोहे, लोभ ललचाए कैसे कैसे नाग लहराए/ मेरे दिल ने ही जाल फैलाए/ अब किधर जाऊं तेरे चरणों की धूल मिल जाए के मैं तर जाऊं'। इसी तरह फिल्म 'अनुराधा' में पंडित रविशंकर ने संगीत रचा था। इसे फिल्म के एक गीत का अंतरा देखिए- 'हाय रे वो दिन क्यों न आए/ सूनी मेरी बिना संगीत बिना सपनों की माला मुरझाए।' नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया से चोरी गई फिल्म धरोहर को बहुत महत्व नहीं दिया जा सकता, क्योंकि हमारे यहां तो आंख से काजल तक चुराया जाता है। हम अपने इतिहास में वर्णित अनगिनत किलों और महलों को भी सुरक्षित नहीं रख पाए। शहर बुरहानपुर में स्थित किले से एक सुरंग असीरगढ़ तक जाती थी। उसके एक सिरे पर सरकार ने डामर का स्टॉक रखना शुरू कर दिया था। अब कुछ भी नहीं बचा है। बुरहानपुर के नंद किशोर देवड़ा की 'बुरहानपुर का इतिहास' पठनीय पुस्तक है। कुछ वर्ष पूर्व ही पुणे स्थित एक ऐतिहासिक महत्व वाली लायब्रेरी को हुड़दंगियों ने जलाकर खाक कर दिया।

इंदौर स्थित रेसीडेंसी क्लब अंग्रेजों ने स्थापित किया था और आज़ादी के बाद वह अफसरों का क्लब बन गया था परंतु डॉ. दशरथ सिंह के प्रयास से उस क्लब में आम आदमियों को भी सदस्यता दी गई। उस क्लब के एक कक्ष में सैकड़ों पुस्तकें करीने से रखी गई थीं। आज एक किताब भी वहां नहीं मिल सकती। बुरहानपुर नगर पालिका के वाचनालय में पुस्तकों का भंडार था। उसी वाचनालय से खाकसार ने सर रिचर्ड बर्टन की लिखी किताब 'बॉडी एंड सोल' पढ़ी थी। संभवत: वह वाचनालय कब का बंद हो चुका है। इसी तरह छोटे शहरों में पुस्तकालय चुस्त-दुरुस्त रखे जाते थे।

हमारी व्यवस्था में हत्या तक की एफआईआर बमुश्किल दर्ज हो पाती है तो पुस्तक चोरी को कैसे कोई गंभीरता से ले सकता है? सांस्कृतिक धरोहर के प्रति हमारी उदासीनता जगजाहिर है। न जाने कितनी मूर्तियां चोरी हो गईं और विदेशों में महंगे दामों में बेच दी गईं।

हमारे प्राचीन ग्रंथों के जर्मन भाषा में किए गए अनुवाद मैक्समुलर संस्थान ने संजो कर रखे हैं। दारा शिकोह द्वारा 'महाभारत' और 'रामायण' के फारसी भाषा में दिए गए अनुवाद जर्मनी में हैं। अकबर के द्वारा कराए गए रामायण के अनुवाद की एक प्रति जयपुर राजघराने के पास है। शिवेन्द्र सिंह डूंगरपुर ने फिल्म विरासत को संजोकर रखा है। अपने संग्रहालय में रखी वस्तुओं की साफ-सफाई का कार्य वे स्वयं अपने हाथों से करते हैं। संभवत: वे एक मात्र भूतपूर्व राजा हैं, जो एक आम कर्मचारी की तरह फिल्म धरोहर की देख-रेख करते हैं!

दुख की बात यह है कि फिल्म उद्योग की कोई संस्था और कोई सितारा शिवेन्द्र सिंह डूंगरपुर की सहायता नहीं करता। सरकार की उदासीनता समझी जा सकती है परंतु फिल्म उद्योग की लापरवाही को क्या कहें? करोड़ों का मेहनताना पाने वाला कोई सितारा शिवेन्द्रसिंह डूंगरपुर की सहायता नहीं करता।

ज्ञातव्य है कि आरके स्टूडियो का सौदा हो चुका है। शिवेन्द्रसिंह डूंगरपुर ने स्टूडियो में रखी पृथ्वीराज कपूर की एक मूर्ति इस इकरारनामे के बाद अपने संग्रहालय में संजोए रखी है कि कपूर परिवार जब भी इसे वापस मांगेगा, उसे लौटा दी जाएगी। पुरातन दौर में राजकुमार को चौंसठ कलाओं का ज्ञान प्राप्त करना होता था और चौंसठवीं कला चोरी थी। अगर राजकुमार इस विषय का ज्ञान प्राप्त करते तो राजा बनने पर वह चोरों को पकड़ सकता है। इस विषय पर बंगाल के लेखक मनोज बसु का उपन्यास 'रात के मेहमान' लगभग सात सौ पृष्ठ की रोचक रचना है। यह विचारणीय है क्या बेरोजगारी के कारण लोग चोरी करते हैं या फिल्म 'बोनी एंड क्लायड' के अमीर पात्रों की तरह उत्तेजना की खातिर चोरी करते हैं?