चौथा दृश्य / अंक-2 / संग्राम / प्रेमचंद

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स्थान : हलधर का घर, राजेश्वरी और सलोनी आंगन में लेटी हुई हैं।

समय : आधी रात।

राजेश्वरी : (मन में) आज उन्हें गए दस दिन हो गए। मंगल-मंगल आठ, बुध नौ, वृहस्पत दस। कुछ खबर नहीं मिली, न कोई चिट्ठी न पत्तर। मेरा मन बारम्बार यही कहता है कि यह सब सबलसिंह की करतूत है। ऐसे दानी-धर्मात्मा पुरूष कम होंगे, लेकिन मुझ नसीबों जली के कारन उनका दान-धर्म सब मिट्टी में मिला जाता है। न जाने किस मनहूस घड़ी में मेरा जनम हुआ ! मुझमें ऐसा कौन-सा गुन है ? न मैं ऐसी सुंदरी हूँ, न इतने बनाव-सिंगार से रहती हूँ, माना इस गांव में मुझसे सुंदर और कोई स्त्री नहीं है। लेकिन शहर में तो एक-से-एक पड़ी हुई हैं। यह सब मेरे अभाग का फल है। मैं अभागिनी हूँ। हिरन कस्तूरी के लिए मारा जाता है। मैना अपनी बोली के लिए पकड़ी जाती है। फूलअपनी सुगंध के लिए तोड़ा जाता है। मैं भी अपने रूप-रंग के हाथों मारी जा रही हूँ।

सलोनी : क्या नींद नहीं आती बेटी ?

राजेश्वरी : नहीं काकी, मन बड़ी चिंता में पड़ा हुआ है। भला क्यों काकी, अब कोई मेरे सिर पर तो रहा नहीं, अगर कोई पुरूष मेरा धर्म बिगाड़ना चाहे तो क्या करूं ?

सलोनी : बेटी, गांव के लोग उसे पीसकर पी जाएंगी।

राजेश्वरी : गांव वालों पर बात खुल गई तब तो मेरे माथे पर कलंक लग ही जाएगी।

सलोनी : उसे दंड देना होगी। उससे कपट-प्रेम करके उसे विष पिला देना होगी। विष भी ऐसा कि फिर वह आंखें न खोले। भगवान को, चंद्रमा को, इन्द्र को जिस अपराध का दंड मिला था। क्या, हम उसका बदला न लेंगी। यही हमारा धरम है। मुंह से मीठी-मीठी बातें करो पर मन में कटार छिपाए रखो।

राजेश्वरी : (मन में) हां, अब यही मेरा धरम है। अब छल और कपट से ही मेरी रक्षा होगी। वह धर्मात्मा सही, दानी सही, विद्वान सही, यह भी जानती हूँ कि उन्हें मुझसे प्रेम है, सच्चा प्रेम है। वह मुझे पाकर मुग्ध हो जाएंगे, मेरे इशारों पर नाचेंगे, मुझ पर अपने प्राण न्यौछावर करेंगी। क्या मैं इस प्रेम के बदले कपट कर सयंगी ? जो मुझ पर जान देगा, मैं उसके साथ कैसे दगा करूंगी ? यह बात मरदों में ही है कि जब वह किसी दूसरी स्त्री पर मोहित हो जाते हैं तो पहली स्त्री के प्राण लेने से भी नहीं हिचकते। भगवान्, यह मुझसे कैसे होगा? (प्रकट) क्यों काकी, तुम अपनी जवानी में तो बड़ी सुंदर रही होगी ?

सलोनी : यह तो नहीं जानती बेटी, पर इतना जानती हूँ कि तुम्हारे काका की आंखों में मेरे सिवा और कोई स्त्री जंचती ही न थी। जब तक चार-पांच लड़कों की मां न हो गई, पनघट पर न जाने दिया ।

राजेश्वरी : बुरा न मानना काकी, यों ही पूछती हूँ, उन दिनों कोई दूसरा आदमी तुम पर मोहित हो जाता और काका को जेहल भिजवा देता तो तुम क्या करतीं ?

सलोनी : करती क्या, एक कटारी अंचल के नीचे छिपा लेती। जब वह मेरे उसपर प्रेम के फूलों की वर्षा करने लगता, मेरे सुख-विलास के लिए संसार के अच्छे-अच्छे पदार्थ जमा कर देता, मेरे एक कटाक्ष पर, एक मुस्कान पर, एक भाव पर फूला न समाता, तो मैं उससे प्रेम की बातें करने लगती। जब उस पर नशा छा जाता, वह मतवाला हो जाता तो कटार निकालकर उसकी छाती में भोंक देती।

राजेश्वरी : तुम्हें उस पर तनिक भी दया न आती ?

सलोनी : बेटी, दया दीनों पर की जाती है कि अत्याचारियों पर? धर्म प्रेम के उसपर है, उसी भांति जैसे सूरज चंद्रमा के उसपर है। चंद्रमा की ज्योति देखने में अच्छी लगती है, लेकिन सूरज की ज्योति से संसार का पालन होता है।

राजेश्वरी : (मन में) भगवान्, मुझसे यह कपट-व्यवहार कैसे निभेगा ! अगर कोई दुष्ट, दुराचारी आदमी होता तो मेरा काम सहज था।उसकी दुष्टता मेरे क्रोध को भड़का देती है। भय तो इस पुरूष की सज्जनता से है। इससे बड़ा भय उसके निष्कपट प्रेम से है। कहीं प्रेम की तरंगों में बह तो न जाऊँगी, कहीं विलास में तो मतवाली न हो जाऊँगी। कहीं ऐसा तो न होगा कि महलों को देखकर मन में इस झोंपड़े का निरादर होने लगे, तकियों पर सोकर यह टूटी खाट गड़ने लगे, अच्छे-अच्छे भोजन के सामने इस रूखे-सूखे भोजन से मन फिर जाए,लौंडियों के हाथों पान की तरह गेरे जाने से यह मेहनत?मजूरी अखरने लगे। सोचने लगूं ऐसा सुख पाकर क्यों उस पर लात मारूं ? चार दिन की जिंदगानी है उसे छल-कपट, मरने-मारने में क्यों गंवाऊँ? भगवान की जो इच्छा थी वह हुआ और हो रहा है। (प्रकट) काकी, कटार भोंकते हुए तुम्हें डर न लगता ?

सलोनी : डर किस बात का ? क्या मैं पछी से भी गई-बीती हूँ। चिड़िया को सोने के पिंजरे में रखो, मेवे और मिठाई खिलाओ, लेकिन वह पिंजरे का द्वार खुला पाकर तुरंत उड़ जाती है। अब बेटी, सोओ, आधी रात से उसपर हो गई। मैं तुम्हें गीत सुनाती हूँ।

गाती है।

मुझे लगन लगी प्रभु पावन की।

राजेश्वरी : (मन में) इन्हें गाने की पड़ी है। कंगाल होकर जैसे आदमी को चोर का भय नहीं रहता, न आगम की कोई चिंता, उसी भांति जब कोई आगे-पीछे नहीं रहता तो आदमी निश्ंचित हो जाता है। (प्रकट) काकी, मुझे भी अपनी भांति प्रसन्न-चित्त रहना सिखा दो।

सलोनी : ऐ, नौज बेटी ! चिंता धन और जन से होती है। जिसे चिंता न हो वह भी कोई आदमी है। वह अभागा है, उसका मुंह देखना पाप है। चिंता बड़े भागों से होती है। तुम समझती होगी, बुढ़िया हरदम प्रसन्न रहती है तभी तो गाया करती है। सच्ची बात यह है कि मैं गाती नहीं, रोती हूँ। आदमी को बड़ा आनंद मिलता है तो रोने लगता है। उसी भांति जब दुख अथाह हो जाता है, तो गाने लगता है। इसे हंसी मत समझो, यह पागलपन है। मैं पगली हूँ। पचास आदमियों का परिवार आंखों के सामने से उठ गया। देखें भगवान इस मिट्टी की कौन गत करते हैं।

गाती है।

मुझे लगन लगी प्रभु पावन की।

ए जी पावन की, घर लावन की।

छोड़ काज अरू लाज जगत की।

निश दिन ध्यान लगावन की।। मुझे

सुरत उजाली खुल गई ताली।

गगन महल में जावन की।। मुझे

झिलमिल कारी जो निहारी।

जैसे बिजली सावन की।

मुझे लगन लगी प्रभु पावन की।।

बेटी, तुम हलधर का सपना तो नहीं देखती हो ?

राजेश्वरी : बहुत बुरे-बुरे सपने देखती हूँ। इसी डर के मारे तो मैं और नहीं सोती। आंख झपकी और सपने दिखाई देने लगे।

सलोनी : कल से तुलसी माता को दिया चढ़ा दिया करो। एतवार-मंगल को पीपल में पानी दे दिया करो। महावीर सामी को लड्डू की मनौती कर दो। कौन जाने देवताओं के प्रताप से लौट आए। अच्छा, अब महावीर जी का नाम लेकर सो जाव। रात बहुत हो गई है, दो घड़ी में भोर हो जाएगी।

सलोनी करवट बदलकर सोती है और खर्राटे भरने लगती है।

राजेश्वरी : (आप-ही-आप) बुढ़िया सो रही है, अब मैं चलने की तैयारी करूं। छत्री लोग रन पर जाते थे तो खूब सजकर जाते थे।मैं भी कपड़े-लत्ते से लैस हो जाऊँ। वह पांचों हथियार लगाते थे।मेरे हथियार मेरे गहने हैं। वही पहन लेती हूँ। वह केसर का तिलक लगाते थे, मैं सिंदूर का टीका लगा लेती हूँ। वह मलिच्छों का संहार करने जाते थे, मुझे देवता का संहार करना है। भगवती तुम मेरी सहाय होलेकिन छत्री लोग तो हंसते हुए घर से विदा होते थे।मेरी आंखों में आंसू भरे आते हैं। आज यह घर छूटता

है ! इसे सातवें दिन लीपती थी, त्योहारों पर पोतनी मिट्टी से पोतती थी। कितनी उमंग से आंगन में फुलवारी लगाती थी। अब कौन इनकी इतनी सेवा करेगी। दो ही चार दिनों में यहां भूतों का डेरा हो जाएगी। हो जाए ! जब घर का प्राणी ही नहीं रहा तो घर लेकर क्या करूं ? आह, पैर बाहर नहीं निकलते, जैसे दीवारें खींच रही हों। इनसे गले मिल लूं। गाय-भैंस कितने साध से ली थीं।अब इनसे भी नाता टूटता है। दोनों गाभिन हैं। इनके बच्चों को भी न खेलाने पाई। बेचारी हुड़क-हुड़ककर मर जाएंगी। कौन इन्हें मुंह अंधेरे भूसा-खली देगा, कौन इन्हें तला। में नहलाएगी। दोनों मुझे देखते ही खड़ी हो गई।मेरी ओर मुंह बढ़ा रही है, पूछ रही हैं कि आज कहां की तैयारी है ?

हाय ! कैसे प्रेम से मेरे हाथों को चाट रही हैं ! इनकी आंखों में कितना प्यार है ! आओ, आज चलते-चलतेतुम्हें अपने हाथों से दाना खिला दूं ! हा भगवान् ! दाना नहीं खातीं, मेरी ओर मुंह करके ताकती हैं। समझ रही हैं कि यह इस तरह बहला कर हमें छोड़े जाती है। इनके पास से कैसे जाऊँ ? रस्सी तुड़ा रही हैं, हुंकार मार रही हैं। वह देखो, बैल भी उठ बैठे। वह गए, इन बेचारों की सेवा न हो सकी। वह इन्हें घंटों सहलाया करते थे।लोग कहते हैं तुम्हें आने वाली बातें मालूम हो जाती हैं। कुछ तुम ही बताओ, वह कहां हैं, कैसे हैं, कब आएंगे ? क्या अब कभी उनकी सूरत देखनी न नसीब होगी ? ऐसा जान पड़ता है, इनकी आंखों में आंसू भरे हैं। जाओ, अब तुम सभी को भगवान के भरोसे छोड़ती हूँ। गांव वालों को दया आएगी तो तुम्हारी सुधि लेंगे, नहीं तो यहीं भूखे रहोगी। फत्तू मियां तुम्हारी सेवा करेंगी। उनके रहते तुम्हें कोई कष्ट न होगी। वह दो आंखें भी न करेंगे कि अपने बैलों को दाना और खली दें, तुम्हारे सामने सूखा भूसा डाल देंब लो, अब विदा होती हूँ। भोर हो रहा है, तारे मद्विम पड़ने लगे। चलो मन, इस रोने-बिसूरने से काम न चलेगा ! अब तो मैं हूँ और प्रेम-कौशल का रनछेत्र है। भगवती का और उनसे भी अधिक अपनी दृढ़ता का भरोसा है।