चौथे याम का स्वप्न / श्यामास्वप्न / ठाकुर जगमोहन सिंह

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“थाकी गति अंगन की मति पर गई मंद

सूख झाँझरी सी है कै देह लागी पियरान,

बावरी सी बुद्धि भई हँसी काहू छीन लई

सुख के समाज जित तित लागे दूर जान,

हरीचंद् रावरे विरह जग दुःखमयो

भयो कछू और होनहार लागे दिखरान,

नैन कुम्हिलान लागे बैनहु अथान लागे

आओ प्राननाथ अब प्रान लागे मुरझान।”

चौथा प्रहर रात्रि का लगा, यह धर्म का पहरा था। स्‍वप्‍न की डोर अभी तक नहीं टूटी तौ भी क्‍या का क्‍या हो गया। अब भोर होने लगा। तमचोर बोल उठा, मोर भी रोर करने लगा। मंद मंद वायु चलता था मैं तो घोर निद्रा में मग्‍न था। भैरवी रागिनी सज के आ गई। गैवैयों की छेड़ छाड़ मची। धर्म की बेल फिर भी लहलहानी। चकई की कहानी पूरी भई। प्‍यारे चकवा से पंख फटकार और परो को चोंच से निरुवार चली मिलने। संयोगियों को काल सी प्राची दिशा दिखानी लगी।

वा चकई को भयो चित चीतो चीतोति चहू दिसि चाव सों नाची,

ह्वै गई छीन कलाधर की कला जामिनि जोति मनों जम जाँची,

बोलत बैरी बिहंगम देव संजोगिन की भई संपति काची,

लोहू पियो जो वियोगिन को सो कियो मुख लाल पिशाचिन प्राची,

खंडिता भी अपने अपने चिर बिछुरे प्रियतमों से मिल प्रसन्न हुईं, लगीं लाल लाल आँखैं दिखा दिखा झिड़कने और छिपे प्रेम से उरहने देने और बात कहने।

यथा सवैया

द्वारिका छाप लगै भुजमूल कह्यौ फल वेद पुरानन तौन है,

कागद ऊपर छाप सुनी जिहि कौ सिगरे जग जाहिर गौन है,

आप लगाई जो कुंकुम की सो सुहाई लगै छबि सों उर भौन है

छाती की छाव कौ प्‍यारे पिया कहियै बलि याकौ महातम कौन है।

कोई उत्‍कंठित होकरयह कहने लगी -

“छपाकर जोति मलीन महा दुति छीन त्‍यौं तारन की दरसात,

न आए गुपाल कहाँ धौ रहे यह कासो कहों हियरा हहरात,

कहै ललिते तिमि लाज और काम पुरी दुऔ बीच बनै न बतात

कछू तिय बैन जुबान पै आप भलैं नट कैसे बटा फिर जात।”

और कोई तो।

“देखि ढुरी पिय की पगिया अलसानि भरीं अखियाँ जब जोई,

त्‍यौं ललिते पग के डग डोलत बोलत औरई भाँति बनोई

कैसी बनी छबि आज की या मन भाई करो बरजै नहिं कोई

खोइए सोय सबै श्रम यौं कहि रूसि कै बल मसूसि कै रोई।”

जैसे सुर लोगों ने सागर को मथि चंद्रमा रत्‍न निकाला था वैसे ही भोर ही अहीर लोग दधि को मथानी से मथि नवनीत के गोले को निकालने लगे।

रात भर दंपतियों का नव निधुवन प्रसंग देखते देखते अनिमिष नैनों से जब दीपक थक गया जब अपने नैनों की जोत मिल मिलाने लगा।

चिरैयाँ अपने बसेरे से उठ लगी च्‍यों च्‍यों करने स्‍वप्‍नावस्‍था में ही श्‍यामा का पता न लगा। श्‍यामसुंदर वही कवित्त कहता कहता वहाँ चला जाता था बिचारे को थाह न लगी। न जाने कब तक और कहाँ तक बहैगा। मैं भी तो विमान सिमान सब छोड़ उसी के खोज में तत्‍पर था। उसके राग की तान नदी की तरंगों पर लहरा कर वायु से ठक्‍कर खाती और उसकी प्रत्‍येक आह की आह ब्रह्मांड से समा कर समस्‍त लोक में व्‍याप्त हो स्‍वयं ब्रह्मा के सिंहासन को भी हिला देती थी। ऐसे अवसर पर श्‍यामा न जाने किस पर्वत के कंदराओं में जा बची थी कुछ ज्ञात नहीं। उसको श्‍यामसुंदर का हाल कहनेवाला कोई न था। ऊधो का पता न था सेवक लोग सब सेवकाई में लगे थे, और किसकी गणना थी। भावी प्रबल होती है पर मैंने पीछा न छोड़ा। श्‍यामा का खोज लगाने के लिए आगे बढ़ा। जल के अनेक प्रकार के जंतुओं के फंदे में गिरता पड़ता चला। थाह न लगी एक भी नौका न थी - तीर लगना कठिन था। अभी तो अनेक भ्रम, आवर्त, नाद, हृद, शिला और चट्टानों से ठोकर खानी थी। तीर तो देख भी नहीं पड़ता था। पार करना केवल ईश्‍वर के हाथ रह गया। मुझे सिवाय बहने के और कुछ नहीं सूझता था - बस फिर क्‍या पूछिए बह चला। बह गया बह गया। पता नहीं - ठीक नहीं, तरंगों ने अपने हाथों में उपगूहन कर लिया। मैं तो चाहता था कि या तो पार लगै या बही जाऊँ। एक बार जोर मारा - दस बीस हाथ बहकर उस शिखर की ओर मुड़ा फिर बीस हाथ तैरा - तीस हाथ गया - चालीस हाथ जाकर पचास हाथ पर शिखर हाथ लगा। साँस लेने का स्‍थान तो मिला। शिखर पर चढ़ते ही छींक हुई पर इसकी क्‍या चिंता सन्‍मुख की छींक लाभदायक होती हैं। इस शिखर पर अशोक के वृक्ष तरे सिंहासन मात्र था। मैंने इसे भली भाँति देखा भाला, यहाँ वही श्‍यामा का सिंहासन था। पर दैवयोग से श्‍यामा न थी। अभी तक न तो श्‍यामा और न श्‍यामसुंदर कापता था। नदी के बीचो बीच का शिखर - पहले थल था पर अब जल हो जाने के हेतु कोई जंतु भी नहीं है। भयंकर बन साँय साँय बोलता था। केवल झिल्‍ली की झनकार सुना पड़ती थी। मैं इसी अशोक के नीचे बैठ गया और सोचने लगा कि हाय रे ईश्‍वर! तू मुझ हतभागे को किस विजन वन में लाया। अब क्‍या करूँगा - कहाँ जाऊँगा। भगवान्! तू भी बड़ा विचित्र है, मेरी दशा इस समय तो ऐसी ही गई थी “जैसे काक जहाज को सूझत और न ठौर” यह सब मुझै अपने मित्र श्‍यामसुंदर के काज सहना पड़ा - पर श्‍यामसुंदर अद्यापि कहीं दिखाई नहीं दिया। मैं इधर उधर बहुत दूर तक दृष्टि फेक देखने लगा पर कुछ भी पता न लगा। मैं अब मौन होकर आसन जमा के बैठ गया। अशोक से शोक मिटाने की प्रार्थना की, वह जड़ कब बोलने का था? “जब तक स्‍वासा तब तक शाखा” - यह कहावत प्रसिद्ध है। प्राणयात्रा की कुछ आशा न थी - प्राण बचना दुर्लभ जान पड़ा। थका माँदा अपने करम को ठोक बैठा।

रात ही को मुझै भगवान् दिवाकर ने दर्शन दिये। यह भी आश्‍चर्य की बात है -सूर्य्योदय से मुझै कुछ भी हर्ष न हुआ - क्‍यौंकि फिर तो संध्‍या की चिंता आई - जब संध्‍या होगी तब रात्रि तो अवश्‍य ही होगी। यह बड़ी गाढ़ी चिंता उपस्थित हुई क्‍योंकि इस निर्जन शिखर पर ही बिना अन्‍न पानी बितानी पड़ैंगी। आश्‍चर्य नहीं कोई वन का हिंसक जंतु आ टूटे - तो बस कथा समाप्‍त हो जाय। जो होना था सो तो होईगा अब बहुत सोच विचार से क्‍या हाथ आना है - चलो - “जब ओखली में सिर दिया तो मूसरों की क्‍या गिनती रही” - यही निदान सोच शिव सी अखंड समाधि लगाय आसन मार बैठ रहे। ज्‍यौंही समाधि लगाई अनेक कौतुक देख पडे। शरत्‍काल प्रगट हुआ। आकाश निर्मल शंख सा दिखाने लगा। सारस हंस चकोर सब के सब पूनो को शोभा निरखने लगे। जल विमल हो गया। नदियाँ स्‍वच्‍छ धारा से बहने लगीं। चंद्र का प्रतिबिंब जल के अंतर्गत छबि करने लगा। दुष्‍ट काले मेघ चंद्रमा के प्रकाश को देख बिला गए - ईश्‍वर वैरियों का इसी भाँति पराभव करै। हंसों का रोर सुनते ही मोर भागे और अपने पक्ष गिराने लगे क्‍यौंकि अब उनका पक्षकार कोई भी न रहा।

फूले कास सकल महि छाई। जनु वरषाकृत प्रकट बुढ़ाई॥

उदित अगस्‍त पंथ जल सोखा। जिमि लोभहि सोखै संतोषा॥

सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा॥

रस रस सूखि सरिस सर पानी। ममता त्‍यागि करहिं जिमि ज्ञानी॥

जानि शरद रितु खंजन आए। पाय समय जिमि सुकृत सुहाए॥

पंक न रेणु सोइ अस धरनी। नीति निपुण नृप कै जस करनी॥

जल संकोच विकल मए मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धन हीना॥

बिनु धन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥

कहुँ कहुँ वृष्टि शारदी थोरी। कोई इक पाव भक्ति जिमि मोरी॥

चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि।

जिमि हरि भक्ति पाइ जन तजहिं आश्रमी चारि॥

सुखी मीन जहँ नीर अगाधा। जिमि हरि शरण न एको बाधा॥

फूले कमल सोइ सर कैसे। निरगुन ब्रह्म सगुन भए जैसे॥

गुंजत मधुकर निकर अनूपा। सुंदर खग रप नाना रूपा॥

चक्रवाक मन दुःख निशि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपत्ति देखी॥

चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकर द्रोही॥

शरदातप निशि निशि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई॥

देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहि जिमि हरिजन हरि पाई॥

मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किए कुलनासा॥”

ऐसी शरत् ऋतु आई इसकी शोभा नि‍हार रहा था कि शिखर पर और भी कौतुक देख पड़े। क्‍या देखता हूँ कि एक बड़ी भारी विचित्र सभा लगी है। ऐसी सभा मैंने कभी नहीं देखी थी। भगवान् रामचंद्र, सीता और लक्ष्‍मण के सहित एक चंद्रकांत के सिंहासन पर जो शिखर के ऊपर धरा था विराजमान हैं। उनके सामने हनुमान जी हाथ जोड़े खड़े हैं, गरुड़ भी सेवा में तत्‍पर अड़े हैं।

बाईं ओर एक बजूबली भोग लगाने वाला पार्श्‍वद ब्राह्मण खड़ा है। महावीर की पूछ पकड़े एक बड़ी सुपेत डाढ़ी वाले वृद्ध महामुनि थे। इनके पीछे हाथ जोड़े बड़े गुरियों की माला लिए दोगा पहरे लाल बनात का कनटोप दिए - त्रिपुंड्र के ऊपर रामफटाका फटकाए उपनहे पावन - एक आँख से हँसता और दूसरी से रोता - लंबा साठिया - बूढ़ा - गाढ़ा और मुनिजी के सुख में सुखी और उनके दुःख में बना उन्‍हीं के पीछे खड़ा था। इसके ललार की खाल सिकुड़ गई थी। दाँत और ओंठ दोनों बदरंग पड़ गए थे। आश्‍चर्य नहीं कि तांबूल और चूर्ण दोनों अपना काम दसनों पर आरंभ कर चुके थे। मुख विवर ऐसा जनाता था मानो किसी पर्वत की गुफा हो। दाँत की पाँति ऐसी थी मानो कंदरा के मुख पर चट्टाने लगी हो - बुढ़ापा झलक आया था आधे से अधिक यौवन का कुठार बन चुका था। इसके बगल में एक भैरववाहन पाहन से भी दुष्‍ट लुलखरी करता बैठा था। भैरववाहन का रंग गोहुआँ माथे पर रामानंदी तिलक - बाहु और हृदय पर राम नाम छापे - पूछ हिलाते, उदर और दिखाते - कभी कभी भोंकता हुआ देख पड़ा। आगे के दाँतों में गीता की पोथी दबाए पर भीतर हड्डी चबाते बैठा था। इसके दहिनी ओर इसका प्राणोपम मित्र और अनुचर साक्षात् वाराह भगवान् अपने दंष्‍ट्रकराल पर लवेद की पुस्‍तक धरे मानो अभी महासागर से उसे उद्धार कर लाया हो बैठा था। इसके गलमुच्‍छे और कान तक लंबे बाल शोभा देते थे। माथे पर रोरी था चंदन की रेख इसके मत को पुष्‍ट करती चमकती थी। इसी के पार्श्‍व में महाशय शीतलावाहन भी डटे थे। ए वाराह भगवान् के भाई थे इनको शीतलाअष्‍टक गप्‍पाष्‍टक से भी बढ़ के कंठ था और यद्यपि ए अपने खर शब्‍दों के हेतु कल कंठ न थे तथापि भगवती दुर्गा को लपेट सपेट के दो तीन घंटों में सायंकाल को दुर्गा पाठ करके संतुष्‍ट ही कर लेते थे। इन दोनों के मध्‍य में एक जंबुक अपने पैरों से भूमि खोदता - इधर उधर देखता - सभों के कानों में फुसफसाता - धान की रोटी दाँतों में दबाए रामायन बाँचते बैठा था, इसके पीठ पर एक महाधर्मी निष्‍कपट बक 'प्राणिनाम्‍बधशंकया' - एक चरण उठाए भटकता था, यह वही जुंबुक था जिसने कर्पूरतिलक को राज का लालच दे बड़े भारी पंक में फँसाकर उसी का मांस नोच खा लिया पर दुनिया वेष को पूजती है। अंत में सभी अपने किए को पाते हैं। एक ओर सुषेण वैद्य - चित्रगुप्‍त - काकभुसुंडि - धृतराष्‍ट्र - शिवशंकर - बिलाई माता - तालूफोड़ - खिलात के खाँ - तुंबुरगंधर्व - और स्‍वयंप्रभा बैठी थी।

मेरी आँख झट इस मनोहर और विचित्र झाँकी की ओर फिर गई। मैं खड़ा हो गया। बड़ी देर तक विचारता रहा। मन में आया कि निकट बढ़ के देखैं, आगे पाँव बढ़ाया, बस चल दिया। भगवान् रामचंद्र के सन्‍मुख हाथ जोड़ खड़ा हो गया और मन ही मन नमस्‍कार दंड-प्रणाम कर वंदना की। चाहा कि कुछ कहैं पर इस्‍से भी एक विचित्र दृश्‍य ने मेरा मन अपनी ओर आकर्षण कर लिया। क्षणभर में आँख उठाते ही इसी सभा को एक विस्‍तृत मंदिर में बैठे देखा। यह मंदिर माया के बल से विश्‍वकर्मा ने बात की बात से बना दिया था। वही सभा बाहर लगी देखी - अर्थात् मंदिर के जगमोहन में। कान बंद करके सुना तो ढोल और सहनाई के शब्‍द सुने। आँख बंद करते ही यही विकराल वदना चंडी पूर्वोक्‍त साज से मंदिर के भीतर से निकल पड़ी। मैं एक बार चिहुँक पड़ा, पर इसे भली भाँति चीन्‍हता था। (इसका वर्णन प्रथम जाम के स्‍वप्‍न में हो चुका है) मैंने प्रणाम किया, चंडी हँसी। उसके दुर्दर्श उज्‍ज्‍वल दशनों से मंदिर का अंधकार फट गया। यह उसी रूप में निकली जिस रूप में मैंने इसे पहले देखा था - अर्थात् दो बालिकाओं को काँख में दबाए - इत्‍यादि रूप में फिर भी दर्शन दिये। सिंह पर सवार हाथ में मद्यभाजन और नरकपाल लिए पहुँची। मैं इन्‍हें देख प्रार्थना करने लगा। मैं तो श्‍यामसुंदर के खोज में चला था और वह बिचारा श्यामा के। मैंने सोचा इससे कुछ अपना काम निकलैगा - क्‍यौंकि पहले इसी ने हमैं मंत्र बताया और झोली दी थी। मुझै गन अगन का कुछ ज्ञान न रहा। जी जलता था, मित्र का दु:ख असह्य था। चित्त की उमंग में कह डारा अब चाहै फलो वा मत फलो। मित्र की सहायता क्‍यौं न करता? जब जिसकी बाँह पकड़ी तब फिर उसके निमित्त क्‍या न करना - देखो रामचंद्र ने सुग्रीव के हेतु बाली को मार ही डाला।

सोरठा

ध्‍यान तोर निसि द्यौस चरन जलज सेवत सदा।

जिमि वासो मिलि हौस बीतै रैन सुचैन सो॥10

याहि वांचि रिपुनास होहु जाहिं सुमिरौं जियहिं

पुरवहु सब मम आस दुर्गा दुर्गति नाशिनी॥11

द्वादश बंध सुछंद अधिक जेठ सुदि नैन तिथि।

वासर रोहिनि मंद विरचि विनय बल बाँचिए॥12

भगवती कपालिनी प्रसन्‍न हुई, बोली - “मैं तुम्‍हारी वंदना से प्रसन्‍न भई, वर माँग - “

मैं कहा - “यदि तू सचमुच प्रसन्‍न है तो मेरी वंदना की विनय पूरी कर -श्‍यामसुंदर का पता बता दे और अंत में श्‍यामसुंदर को श्‍यामा से मिला दे बस यह माँगता हूँ। देख मैं भी उन्‍हीं को खोजता खोजता इस विजन वन में आया हूँ।” इसको सुन चंडी ने अपनी झोली से जादू की काली छड़ी निकाली, निकालकर अपने सिर के चारों ओर घुमाया - फिर सामने लाकर फूँक दिया। फूँक कर ज्‍यौं‍ही उसने भगवान् चिंतामणि के ओर वह छड़ी दिखाई राम, लक्ष्‍मण और सीता सब शिलामयी मूर्ति मात्र हो गए - दूसरे बार जो उसने फूँक कर वही छड़ी दहिनी और बायीं ओर घुमाई तो सभा की सभा सब पाषाण की हो गई। जितने पशु पक्षी जीवधारी थे सबके सब केवल पाषाण के आकार मात्र रह गए। चंडिका कहने लगी, “तुमने अभी इसका संपूर्ण ब्‍यौरा नहीं सुना और न देखा - क्‍यौं व्‍यर्थ भ्रम में पड़े हो - “

मैंने कहा - “देवि! यदि कुछ न कहती तो अज्ञान ही रहना भला होता पर अब इतने कहने पर अधिक शंका हो गई तो दया करके कही डारो और मेरे मनोरथ पूरे करो।”

चंडी बोली - “वत्‍स! देखो मैं तुमको अपना प्रभाव दिखाती हूँ। देखो,” इतना कह उस वृद्धा ने कुछ पढ़कर पूरब ओर उरदा फेके। फेकते ही मंदिर का द्वार बंद हो गया। सभा मात्र पाषाण की जगमोहन में बैठी रही, ठाकुर की झाँकी लोप हो गई - पर उसी द्वार के पास ही एक सुरूपवान् पुरुष - गौरांग - लाल किनारे की धोती पहने - दुपाहिया अद्धी की टोपी लगाए - सुकेशधारी - अलफी पहने लँगड़ाता हुवा चिल्‍लाने लगा मुझै आश्‍चर्य लगा कि यह क्‍या हुवा। सुषेण वैद्य जो जादू से प्रस्‍तर हो गया था उसकी चिल्‍लाहट सुन उछल पड़ा, ऐसी फलांग मारी जैसी ऊँट। कूद ही तो पड़ा हात में एक छुरा लिए - “जाने न पावै - जाने न पावै” यह कहता उस उक्‍त पुरुष की जाँघ ही काटने को उद्यत हुआ। उधर से वज्रांग और‍ चित्रगुप्‍त भी पहुँचे - उसी सुरूपवान् को सबल जकड़ लिया और वैद्य जी ने छुरा जाँघ पर रेतना आरंभ किया, वह कितना चिल्‍लाया तड़का और फड़फड़ाया पर सुषेण जी कब मानते हैं अब तो यह पुरुष खंज होकर निःसंज्ञ वहीं पड़ गया। चंडिका ने अपने हाथ बढ़ाए और वज्रांग, सुषेण, चित्रगुप्‍त और उस दुःखी पुरुष को अपने पेट में धर लिया, मैं दाँत तरे उँगली दबा के रह गया - स्‍तब्‍ध हो गया - यह तो साक्षात् नरबिल था। मैंने पहले कभी नहीं देखा था, भोजनानंतर ज्‍यौंही चंडी ने ऊपर दृष्टि की एक अंडा मंदिर के छत से गिरा, गिरते ही फूट गया। उस अंडे में से दो गौर बदन वाले पुरुष जिनके नाम फणीश और लुप्‍तलोचन थे त्‍यूरी चढ़ाए पहुँच गए - इन दोनों का आकर बंदर सा था, पर पूछहीन रहने के हेतु मनुष्‍य जान पड़े। वे दोनों अपना-अपना नाम लेते आए। किस देश के थे कौन कह सक्‍ता था। पर इन दोनों ने श्‍यामसुंदर को जकड़ कर बाँधा था, विचारा हिल चल नहीं सकता था। मैं सजीव हुआ, आसरा हुआ कि मित्र के दर्शन तो हुए अब न जाने दूँगा। पर मुझे क्‍या ज्ञान था कि वह बिचारा किस यमयातना में पड़ा है, तौ भी साहस कर - 'भाई-भाई' कह कर दौड़ा कि कंठ से तो एक बार मिल लो, पर ज्‍यौंही निकट गया उन दोनों विकट पुरुषों ने रोष (रुष्‍ट हो ऐसी हुँकारी मारी कि) मैं रुक गया। ज्‍यौंही मेरे नेत्र मुँदे वे लोग लोप हो गए - श्‍यामसुंदर को एक बार और खो दिया - बस - कर्मगति बड़ी कुटिल होती है - और तिस पर मेरी मेरी तो सदा की खोटी थी - मैं श्‍यामसुंदर की दुर्दशा सोचने लगा। चंडी भवानी ने बड़ी दया करके कहा - “इतने ही में तेरी मति चकरा गई - अभी तो देख क्‍या देखता है - लै - आज तू दिन भरे का भूखा होगा - दूसरे विरहकातर - ले थोड़ी सी सुरा पी ले - बल होगा, इंद्रियों को सहारा मिलैगा और मेरे कौतुक देखने में सामर्थ्‍य होगी। तू वैष्‍णव है तो मैं भी तो वैष्‍णवी हूँ - मेरा रूप देख।

तथैव वैष्‍णवी शक्तिर्गरुड़ोपरि संस्थिता।

शड्.खच्रगदाशार्गंखंगहस्ताभ्‍युपाययौ॥

मैंने कहा - “देवि तेरी अनंत माया है - तेरा रूप कौन देख सकता है - मैं तेरा आज्ञाकारी हूँ - जो कृपा कर देगी अवश्‍य ग्रहण करूँगा।”

इतना सुन देवी ने अपना सोने का कंकन मेरे सामने फेंक दिया। ज्‍यौं‍ही उस कंकन को उठाया वह सुंदर मनोहर चषक हो गया। इस माया को भी देख मैं चकित हुआ। देवी ने कहा, “बाएँ हाथ में चषक को धर दक्षिण हाथ से उसे ढाको।” मैंने वैसा ही किया और यह सुंदर सुगंधित चंपक पुष्‍प के रंग सी मद्य कल्‍पवृक्ष की निकली उस चषक में भर गई - “मधुवाता ऋतायते” - यही मंत्र देवी पढ़ती रही - मैं श्‍यामसुंदर और उसकी प्रानप्‍यारी श्‍यामा को अपूर्ण कर चढ़ा गया। पीते के साथ ही मुझै अपूर्व हर्ष हुआ। मन और बदन प्रफुल्लित हो गए। नेत्र चमकने लगे। स्‍वाद उसका खटमधुर था। हृदयाब्‍जकोश को आसव से स्‍नान कराया। शरीर कुछ और हो गया - गई बुद्धि फिर हाथ आ गई - वेद वेदांग सब आँखों के सामने नाचने लगे। श्‍यामापुर की शोभा दिखाने लगी - श्‍यामा की खोरों में अब केवल श्‍यामा के नाम की झांईं सुनाने लगी। एक बेर दृष्टि उठा कर देखा तो श्‍यामापुर में आग लग गई - पहले तो काबुल में लगी। उसके अनंतर ब्राह्मणों के घर जले। मेरा घर तो पहले ही जल चुका था - अपने वंश में आँख उगरिया मैं ही बचा था। पुरुष लो सब भस्‍मसात् हो गए थे। बंदर कूदने लगे - सब के सब मुंछदर लाल मुखी थे। बंदरियों को संग में लिए बगल में दबाए इस घर से उस घर कूदते फाँदते फिरते थे। एक तो लोगों के घर आप ही आग लगी थी, दूसरे ये सभों की चूल्‍हा चक्‍की ले चले। सब हाय हाय करते रह गए। कौन सुनता है - बंदर की जात कब मानती है। शाखामृग तो ठहरे - पेट भरने से काम - चाहै कोई बसै चाहै उजरै - ए बंदर सब कृष्‍णचंद्र के भक्‍त थे - इसी से तो मथुरा में अभी तक असंख्‍य बंदर घूमते रहते हैं - अपने ईश्‍वर की पुरी को नहीं छोड़ते - इन सभों में बड़ी चतुर सुग्रीव की स्‍त्री रुमा भी दिखानी - वह आग लगने पर प्रसन्‍न सी जान पड़ी क्‍यौंकि उसने अपनी सेना की इस दैवी उपद्रव के ऊपर उपद्रव करने से नहीं रोका। फणीस और लुप्‍तलोचन सेनापति थे - बालि के मरने पर सुग्रीव ने पुराने सेनापतियों को निकाल इन्‍हीं श्रेष्‍ठों को उस उच्‍च पद का अधिकारी किया था - सुग्रीव को कार्य्यभार से नेत्रों से कम सूझने लगा - विभीषण के पास जलवायु सेवन के लिए लंका चले गए थे - हाँ, आग लगी - तो लगने दो - बुझावो -लोग बुझाने लगे - आग न बुझी - नारदजी अपना बीना ही बजाते रहे - उधर मकरंद गोमती चक्र पूजते पूजते लील गया। वशिष्‍ठ शांतिकारक वैदिक मंत्र पढ़ते रहे - अग्नि देवता न प्रसन्‍न हुई तो - कोई क्‍या करै - पुरवासी विकल इधर उधर पानी पानी पुकारते दिखाई पड़ते हैं - भैरववाहन पर कपटनाग के शिष्‍य बैठे और शीतलावाहन पर स्‍वयं शीतला जी सवार होकर ग्राम की रक्षा करने लगीं - नाकों नाकों पर पहरे बैठ गए - किसकी सामर्थ जो निकलै। मनुष्‍यों का ठट्ठ इकट्ठा हो गया, अग्नि की ज्‍वाला प्रज्‍वलित हुई - बढ़ के आकाश की राह ली - लड़केवाले चिल्‍लाने लगे -

तात मात का करिय पुकारा। एहि अवसर को हमहिं उबारा॥

खोजत पंथ मिलै नहीं धूरी। भए भरम सब रहिन अधूरी ॥

वशिष्‍ट के घर से वह देखो एक छछुंदर निकली पड़ी। पर बोध न हुआ कि किधर गई - सब पहरे चौकी लगे ही रहे - यह छछुंदर बड़ी पुंश्‍चली थी - चक्रधर का चक्र फिरा धर्म का पहरा आया। रमा ने जोवन दान किये - वज्रमणि का आत्‍मज सुरलोक को सिधारा। अब फाल्‍गुन ऋषि का बुलौवा हुआ है, वे भी परम धाम सिधारे, आज्ञा कैसे टारते। म्‍याद थोड़ी है। शाक्‍य मुनि को गद्दी होगी - बौधमत फैलेगा। पुरवाई चली। फणीस की बहिन लटोरे डोरिया ने ब्‍याही, लुप्‍तलोचन की स्‍त्री ने द्वितीय विवाह किया। पर देखते हैं तो आगी नहीं बुझी - मैंने सोचा कि अब बिना मेरे दया के कुछ शांति नहीं होगी - व्‍यर्थ लोग जले जाते हैं उठकर हाथ में नदी और समुद्र का जल ले मंत्र पढ़ने लगा -

“ऊँ ठं ठं ठं बाराह के दाँत की तेलिन - वशिष्‍ठ की बेटी, नारद की भतीजी -तीजी - भीजी - भांजी - कड़ी - कठोर - बिनालोम - संकीर्ण - रोती धोती - कनफटा देव का प्रताप - भैरव की सराप - गंगा की लहर - लक्ष्‍मी का पहर - भागीरथी की नहर - बुझ - बुझ - सुझ - फुः फाः फीः बाबा की चेली - बाई की अधेली - फुलाने की बहू आराम आराम ऊँ फट् स्‍वाहा। फुरोमंत्र ईश्‍वरो वाचा - दुहाई देवी बड़े दाँत वाली की बुझजा - बुझजा - नहीं तो गाड़ दैंगे” -

पानी फेंक दिया - आग बुझ गई - कौव्‍वे उड़ने लगे - तुम्‍हारी भी पारी आती है - नशा खूब चढ़ा खूब जोर किया।

वह देखो अटारी पर मोर ने बाँग दी। मुरगा पी पी करने लगा - मैना काँव काँव करने लगी। विष्‍णु की स्‍त्री चमगिदड़ी हो गई - मालती चाँदनी सी छिटक गई जो चाहे सो आवागमन करैं। फीस दो टके रात। कच्‍चे गऊ का मांस लटकने लगा -इसी के बंदनवारे बँध गए - श्‍यामापुर यवनपुर हो गया - पर अंग्रेजी राज में यह अनर्थ कैसा - ईशान कोन पर सूर्य्योदय हुआ दक्षिण से चंद्रमा का रथ चला - लगे तारे टूटने हाथी बोल उठे - कछुए की पीठ गरम हो गई - शुक्र और मंगल भी टूटे -गाज गिरी - अर्राटा बीता आकाश फट पड़ा - सब कलई खुल गई - बादल छा गए -ऐसे काले जैसे अफीम - बीच में चंद्रमा निकल आए - क्‍या विचित्र लीला थी! नदी में एक भारी मछली तैरती थी - तैरते तैरते तट पर आई। ज्‍यौंही बूँद लेने को मुँह खोला एक बाला जो घाट पर नहा रही थी फिसल पड़ी और उसका पाँव उसके मुख में समा गया। मछली उसे लील गई, मुँह बंद हो गया - फिर नदी में बुड़की लगा गई। संध्‍या हुई घर के लोग बाग टोला परोस में पूछ पाछ करने लगे। पता कहीं नहीं लगा, लगै कैसे उसे तो एक मच्‍छ महाराज भच्‍छ गए थे - कच्‍छ राज अपने परों पैरों की छाया करते थे - जिस्में कोई वंशी डालके कहीं मच्‍छ समेत न बझा ले। मैंने देखा कि मच्‍छ बड़ी दहार में उसे ले गया। न जाने वहाँ क्‍या करेगा। मैंने जाना कि कहीं काली दह में शेषनाग न कच्‍चा चबा जाए - फिर मच्‍छ कच्‍छ कुछ भी न कर सकैंगे - गरुड़ महाराज को हुक्‍म दिया कि तुम जाव उसका पता लगावो - देखना कालीनाग न खा जाय - वह तो केवल गरुड़ से डरते थे - गरुड़ उन्‍हैं भी सर्व स्‍वाहा कर डालते - उनके सन्‍मुख वे भी चें पों नहीं कर सकते। पूछ दबा के छू हो जाते हैं। गरुड़ जी उड़े। मच्‍छ का पीछा किया पर कच्‍छ तो अब थल में रेंगता था - और बाला भी बिचारी अधमरी सी उसी के पीछे घिसलती जाती थी। दुष्‍ट ने तनिक भी दया न देखी। दइमारा पाव पियादे ले गया। इधर उधर सहाय के लिए देखती जाती थी - जैसे कसाई के हाथ की गिरवाँ से गसी गैय्या कातर नैनों से पीछे देखती जाती हो। बहुत दूर तक ऐसे ही ले गए किसी ने जाना भी नहीं - चूँ भी किसी ने न किया - चलते चलते आँखैं मिल मिलाने लगीं - मच्‍छ तो अपने काम में तत्‍पर था। झट एक की डोली में घुस गया - नील सागर के पार जाकर एक नवीन नगर देखा - वहाँ पहुँच कर तीर में डोली धरी गई। मच्‍छ कूद पड़ा और बाला को उगल दिया। फिर तो गुफा में सब लोग समा गए। मच्‍छ लोप हो गया - लीला समाप्‍त हो गई - दूर से गाना सुन पड़ा - कोई न कोई तो गा ही रहा होगा -

“काले परे कोस चलि चलि थक गए पाँय

सुख के कसाले परे ताले पर नसके।

रोय रोय नैनन में हाले परे जाले परे

मदन के पाले परे प्रान पर बस के।

हरीचंद अंगहु हवाले परे रोगन के

सोगन के भाले परे तन बल खसके।

पगन में छाले परे नांघिबे को नाले परे

तऊ लाल लाले परे रावरे दरस के।” -

मेरा ध्‍यान उचट गया। मैंने आकाश की ओर देखा, चारों ओर देखा पर कोई भी न दिखा। सिर में पीड़ा हो आई, बदन सनसनाने लगा। आँखैं सिकुड़ गईं। बुद्धि आनंद सागर में मग्‍न हो गई। जिस वस्‍तु का ध्‍यान करता अनंत कल्‍पना की तरंगें उठतीं। श्‍यामा की मूरति दीप की टेम में दिखाने लगी। नसैं सिकुड़ने लगीं। शरीर स्थिर और साहसी हो गया। देवी के लिए चषक ने क्‍या तमाशे दिखाए। श्‍यामा का नाम जपने लगा। मैंने उसे बैठे देखा - नहाते देखा - गृह कृत्‍य करते देखा - सोये देखा - पर श्‍यामसुंदर का दर्शन न हुआ। मन तो वहीं था - जहाँ जीव तहाँ तन, जहाँ जन तहाँ प्राण। दृष्टि विभ्रम होने लगा। लेवनी लहराती थी। स्थिर है तो स्थिर, चली तो चली फिर क्‍या पूछना है, घुड़दौड़ होने लगी, तीर्थ का ऐसा पुण्‍य प्रताप होता है। भृकुटी चढ़ी है। प्रेम की आसव में छके हैं। होश नहीं - जिधर पैर धरा उधर ही चल निकले। सुर्रक तो उठरी इस्‍में कुछ पूछना तो नहीं है। आग में जलने लगा। आँखों ने पानी बरसाना आरंभ किया, पर वह आग न बुझी। यदि सहाय की तो केवल मकरंद और वज्रांग ने - देवी ने आसव दे अद्भुत रंग छा दिया। क्‍या जाने क्‍या बक चले क्‍या बक गए - वाक्‍यों का अभी तक अंत न हुआ। पर संत भी तो पूरे बसंत ही थे। डब्‍बे ही थे। डब्‍बे के आदमी की भाँति कुटी में रहा करते थे। जहाँ एक बंदर ने छेड़ा तो इनकी नानी ही मर जाती थी। यह देखो आकाश में पैर लगने लगे - एक नया ग्राम ही बस गया - भगवान् विराट ने समस्‍त पृथ्‍वी दिखाई - मैं तो अर्जुन था न। मुखारविंद - नहीं-नही मुख गह्वर खोलते ही विचि‍त्र झाँकी रस में छाकी दिखाई देने लगी - गलियों में गैया चलतीं थीं।

मुझै भी नहीं मालूम कि मैं क्‍या क्‍या कह गया पर मेरे सब वाक्‍य चंडी ने ध्‍यान धर के सुने और हँस के बोली - “ठीक है बेटा - ठीक है तेरा कहा सब आगे आता है और धीरे धीरे आगे आवैगा। मैं तेरी भक्ति पर प्रसन्‍न हुई - बर माँग” -

मैंने फिर वही कहा, “यदि तू प्रसन्‍न है तो मेरी वंदना की विनय पूरी कर -श्‍यामसुंदर का पता बता दे और श्‍यामसुंदर को श्‍यामा से मिला दे।” चंडी हँसी और बोली, “आँख बंद कर मैं तुझै क्षण भरे के लिए श्‍यामसुंदर को दिखा दूँगी, पर चिंता न कर, श्‍यामसुंदर कुशलपूर्वक द्वीपांतर में है। श्‍यामा के पीछे उसने कोटि क्‍लेश सहे और आश्‍चर्य नहीं कि कुछ और सहै पर यह तू विश्‍वास कर कि -

“सुख अंत दुःख दुःख अंत सुख दिन एक दिन से कबहुँ न रहैं

गति जगत जनके भाग की रथ चक्र सी एहि हित कहैं।”

एक दिन श्‍यामसुंदर के दिन फिरैंगे, वह श्‍यामा को अवश्‍य पावैगा, क्‍योंकि तुलसीदास से सिद्ध पुरुषों के वाक्‍य क्‍या निष्‍फल हो जाएँगे?

“जा पर जाको सत्‍य सनेहू। सो तेहि मिलै न कछु संदेहू॥”

मैंने कहा - “ठीक है पर

श्‍यामा के कपट छल छिद्रम छछंद मंद

निर्दय निरास कुल कानि की निदानिया।

सुंदर सनेह सब बिधि सो सकोच भरो

साँची सी पिरीति श्‍यामसुंदर लुभानिया॥

एक की हँसी फाँसी मौत एक दूसरे ही की

कहत कहत जीभ थकित थकानिया॥

अंत एक सबको बिचारि जगमोहन जू

श्‍यामा श्‍यामसुंदर की चलैगी कहानिया॥”

चंडी बोली, “देखो श्‍यामसुंदर के कष्‍ट दूर हुए। एक दिन न एक दिन श्‍यामा भी मिलेगी इसको गाँठ से बाँधे रहना। पर अब आँख बंद कर श्‍यामसुंदर को देखना चाहता है तो देख ले।”

मैंने अपने नैन ज्‍यौंही बंद किए वही शिखर वही सभा सब नृत्‍य हर्ष में लगी है। फिर भी एक बार भगवान् के दर्शन हुए। अहोभाग्‍य! क्‍या अपूर्व झाँकी थी। रामचंद्र के सामने श्‍यामसुंदर दीन मलीन बना खाकी कुरती पहने सिर खोले बकुल माला की सेल्‍ही डाले बाघबंर ओढ़े हाथ जोड़े बिरही बना भगवान् की स्‍तुति जन्‍माष्‍टमी के उत्‍सव में कर रहा था। वह दीन की स्‍तुति यह थी।

दोहा

कृष्‍ण जनम आठैं करी विनती सुंदर श्‍याम -

हरहु पीर तन हीर की मन की जानत राम॥8॥

इसी स्‍तुति को सुन चाहा कि श्‍यामसुंदर को पकड़ लेंय और दो बातैं तो कर लेंय पर ज्‍यौंही हाथ बढ़ाया आँख खुल गई, सब बिला गया, सबेरा हो गया - देखता हूँ तो कोई कहीं नहीं - बस वहीं घर और वही खाट - वही दीवट।

“वितान तने जहँ फूलन के द्युति चाँदनी शारद जोति अमंद।

मिली सपने में तिया कविदेव मिटे सबही जियके दुःख दंद॥

सुगंध सुमंजु सनेह सनी सुतौलौ कोई कूकि उठ्यौ मति मंद।

खुलै अँखियाँ तो न चंदमुखी न चंदोबा न चाँदनी चंद न चंद॥”

चकित हो आँखैं मीजता ही रह गया। वाह रे विचित्र स्‍वप्‍न! क्‍या क्‍या देखा क्‍या क्‍या तमाशे दिखे - बस देखते ही बन आता है। श्‍यामा और श्‍यामसुंदर की प्रीति कैसी विचित्र हुई। इसका अंत कैसा हुआ। कहाँ से स्‍वप्‍न में श्‍यामा अपना सब हाल कहती थी - अब वह कहाँ बिलाय गई क्‍या क्‍या कहा - वाह रे समय! वाह रे काल! तू क्‍या क्‍या नहीं दिखाता? कहाँ वह घोर यमपुर के तुल्‍य भुइंहरे का कारागार - कहाँ वह डाइन, राजदूत, जेलर! कहाँ का वैर और कहाँ का वह न्‍यायाधीश - सबके सब कहाँ लोप हो गए? पर श्रोता सावधान हो। इसे केवल स्‍वप्‍न ही मत समझो, इसको सुन इसके सार को ग्रहण करो। इस सागर को मंथन कर इसका सार अमृत ले लो। स्‍त्री-चरित्रों से बचो। बस इसी शंकराचार्य के कहे को स्‍मरण रक्‍खो -

“द्वारं किमेकं नरकस्‍य नारी।”

और महाराज भर्तृहरि के कहे को -

आवर्त्त: संशयानामविनयभवनं पत्तनं साहसानां,

दोषाणां सन्निधानं कपटशतमयं क्षेत्रमप्रत्‍ययानाम्।

स्‍वर्गद्वारस्‍य विघ्‍नो नरकपुरमुखं सर्वमायाकरण्‍डं,

स्‍त्रीरत्‍नं केन सृष्‍टं विषममृतमयं प्राणिनां मोहपाश:॥

इति चौथे प्रहर का स्‍वप्‍न।

समाप्त।