चौदह फरवरी / मोनालिसा जेना / दिनेश कुमार माली

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आज मैंने फिर से उस पुरानी गलती को दोहराया। यह गलती मैंने जानबूझकर दोहराई हो, ऐसी बात नहीं है। मेरे मिट्टी रंग के शरीर के अंदर और कोई रहता है। उचित समय आने पर मेरी आँखें बंद कर अपनी कहानी कहने लगता है – मानों वह मेरे जीवन का संरक्षक हो! मेरे रक्त-मांस का, आत्मा –परमात्मा के जीवन का असली कलाकार हो! उसके लिए पानी के बुलबुले की तरह असमय मेरे इस जीवन का रंगीन स्वप्न टूट गया अनिच्छा से। मैं एक बार फिर से एकाकी हो गई। शुरू-शुरू में एकाकीपन मुझे काटने दौड़ता था। मैं एक महीने बिस्तर पर पड़ी रही इस गोपनीय अवसाद में। क्या कहूँगी, किसे कहूँगी? कैसे कह पाऊँगी मेरे प्रेम संबंध की विफलताओं को? ? (मुझे छोड़ गए प्रेमी का मेरे खिलाफ प्रायः एक ही तरह की शिकायत थी – मैं शिथिल, शीतल क्यों हूँ एक लकड़ी के लट्ठे की तरह, मेरे अंदर तिल मात्र उन्माद क्यों नहीं है?) उनकी हताशा भरी दीर्घश्वास का भी मेरे जीवन को सँवारने में विफल होना मेरे लिए दुख के समान है।

ऐसा जानबूझकर नहीं हुआ। मुझे भी उन्नत लोग आकर्षित करते है, जो उच्च सामाजिक मानदंडों में अच्छी तरह से स्वीकार्य हो, इसमें किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं है। मेरी समस्या शारीरिक है। असंयत स्पर्श मुझे कभी स्वीकार नहीं, बिना प्यार के शरीर को सूई जितना छूना भी मेरे लिए घोर नागवार! मगर प्रेम? प्रेम किसी भी बंधन को नहीं मानता है! विवाहित या अविवाहित ... ऐसे मानदंड मेरे लिए पहले भी नहीं थे और न ही भविष्य में होंगे। . अमीर या गरीब, मेरे लिए बहुत तुच्छ सवाल है। सामाजिक प्रतिष्ठा का भी मेरे लिए कोई महत्त्व नहीं है। इन सारी चीजों के बाद मैं मन ही मन जिसे प्यार करती और जिसे मैंने अपना दिल देने का फैसला किया था, वह मेरे लिए क्या मायने रखता होगा, जिसकी आसानी से कल्पना की जा सकती हैं। उसी के लिए तो हम यहाँ आए थे।

पूरी शाम और यहाँ तक कि आधी रात तक अकेले बिता सकती हूँ बिना किसी हस्तक्षेप के। एक तीन सितारा होटल की छत पर झलक रहा था एक सुंदर आवेश। अमावस्या की रात को पूनम बना दे रह थे सौ-सौ नियोन रोशनी की सजावट, हर जगह फूल ही फूल - गुलाबी, सफेद, और लाल वाइन की तरह गाढ़े रंग वाले गुलाब और हवा में उनकी मंद-मंद महक । संगीत का पता नहीं किसने चयन किया था, अत्यंत ही मनभावन लग रहा था। उस संगीत की धीमी लय पर नृत्य कर रहे हर युवती एक राजकुमारी और हर युवा एक राजकुमार की तरह दिख रहा था और उनके साथी राजदूत की तरह। मेरा भावी प्रेमी बहुत ही समृद्ध, कुलीन समाज से था, ऐसी बात नहीं है, ‘वेलेन्टाइन दिवस’ पर किसी गोष्ठी का तीव्र विरोध प्रदर्शन से बचने के लिए सबसे अच्छा यही विकल्प था। किसी भी प्रेमी जोड़े को यहाँ जोर जबर्दस्ती विवाह के कपड़े पहनकर कम से कम उन गुंडे बदमाश लोगों के सामने चरित्र प्रमाण-पत्र देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। प्रेम के खातिर इतना सुंदर मंगलाचरण और हमारे पूर्वी भारत में बसंत ऋतु का आगमन। वास्तव में कितना सुंदर संयोग था! मैं आत्मविभोर हो गई थी। 

उन्हें लग रहा था कि मैं कोई अत्याधुनिक पोशाक पहन कर आऊँगी, अगर वह खुद औपचारिक कोट-टाई पहन सामने वाले जेब में गुलाब की कली लटकाकर संभ्रांत दिखेंगे। उन्होंने दो-तीन अंगुलियों में रंगीन पत्थर की अंगूठियाँ पहन रखी थी अलग-अलग ग्रहों की शांति के लिए। उनकी भी उम्र हो गई थी, मगर वे मुझे क्यों युवती के रूप में देखना चाह रहे थे, समझ नहीं पा रही थी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे मेरी मां और चाची की तुलना में ज्यादा खुले विचारों वाले थे। मैं दर्पण के सामने खड़ी न होकर भी जानती थी कि किसी पुरुष की नजर स्त्री के लिए दर्पण का काम करती है। लाल गुलाब के फूलों की तरह मेरी सिल्क साड़ी का रंग भी गहरा लाल था। गले में मेरे चमक रहा था एक छोटा लॉकेट। उसके ऊपर मेरे खुले बाल और उन पर लगा हुआ फ्रांसीसी इत्र। उस दिन मैंने स्टीलेटों जूते भी पहन रखे थे अपने प्रेमी का मन रखने के लिए। मैं केवल प्रेम अभिनय करने में फिसड्डी थी। उन्होंने मेरी तारीफ करते हुए कहा: " आज बहुत सुंदर लग रही हो। इस ब्रह्मांड की सबसे आकर्षक महिला। तब हर समय ऐसे ही क्यों रहती हो? "

उत्तर में ऐसा कुछ कहने की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी थोड़ी मुस्कराकर चुप हो गई। हमारे टेबल से थोड़ी दूरी पर एक और जोड़ा बैठा हुआ था, उनके साथ थी छह और आठ साल के दो छोटे बच्चे। कांटे की चम्मच और चाकू के टकराने के शब्दों के साथ उनका आपस में लड़ना,रूठना। बार-बार उनकी तरफ देखकर वह मेरी तरफ देख नजर घूमा ले रहे थे, शायद वह अपने पहले के वैवाहिक जीवन की यादों से विचलित हो रहे थे। उस समय मेरा कुछ भी कहना ठीक नहीं था। यह समय मेरा था, केवल मेरा, मेरे प्रेम का सबसे बड़ा मनमोहक पल। रोमांस के साथ शुरू होता है प्रेम, और उससे बढ़ती है आदर, सम्मान की भावना। एक कोमल अपरिपक्व रिश्ता ठोस मजबूत बनता है। उसके बिना जीवन कितना नीरस और थकाऊ लग रहा था!

मैंने अपने सुंदर हैदराबादी पर्स से बाहर निकालकर उसे विदेशी कालेरंग की चॉकलेट पकड़ा दी। पहले से इसे मैंने खास उनके लिए दिल्ली से मंगवाईं थी और उसका लेस बंधा गुलाबी आवरण खोले बिना मैंने उसे डीप फ्रिज में रख दिया था.। किसी ने मुझसे कहा था कि आज के दिन जापानी महिलाएं अपने पुरुष मित्र को उपहार में चॉकलेट देती हैं। जिस पुरुष को जितने ज्यादा उपहार मिलते हैं, उतना ही ज्यादा वह 'लोकप्रिय माना जाता है। और ठीक एक महीने बाद, अर्थात 14 मार्च को उपहार वापिस करने का दिन। चॉकलेट को सावधानी से खोलकर थोड़ा –सा चखते हुए वे कहने लगे

"स्वादिष्ट! जानबूझकर मेरे लिए यह कड़वी चॉकलेट लाई हो, है ना? मुझे लग रहा है जैसे मेरी जवानी के दिन लौट आ रहे हैं तुम्हारे लिए। बाहर से तुम कितनी गंभीर और अपहुंच दिखाई देती हो, और भीतर से इतनी नरम! "

शरमाने की वास्तव में यह उम्र नहीं थी, लेकिन लोगों की इतनी भीड़ में हाथ पकड़ कर केवल उंगलियों को नृत्य की मुद्रा में जोड़कर रखने के अलावा हमारे पास प्यार का इजहार करने के लिए कोई दूसरा रास्ता नहीं था। वह कहने लगे,”इसलिए कह रहा था, थोड़ी प्राइवेसी वाली जगह ठीक रहती। कम से कम तुम्हारे अंतरंग साहचर्य का मैं ही एकमात्र हकदार हो पाता। अगर कोई हमें यहाँ देख लेगा तो जानती हो क्या होगा? मैं अपने लिए नहीं, तुम्हारी मान-मर्यादा के लिए ज्यादा चिंतित हूँ।“ ब्रियान एडम का गाना ‘एवरीथिंग आई डू, डू इट फॉर यू ....’ मुझे तन्मय किए जा रहा था।

मैं एक जिद्दी पहाड़ी नदी किस तरह उसको यह बात समझा पाती! प्रेम की सभी पंखुड़ियों खोलकर समेटना बहुत कष्टप्रद है। उनकी रुचि अत्याधुनिक थी। बेगम अख्तर के गाने सुनने के लिए वह कहाँ कहाँ नहीं गए। देश के कई जाने माने बुद्धिजीवियों के साथ उनकी व्यक्तिगत दोस्ती थी। संगीत, नृत्य, चित्रकला और कई अन्य कलात्मक गतिविधियों में वह पारंगत थे। वे मेरे लिए प्रथा के हिसाब से गुलाब के फूल नहीं लाए थे, यह बात मुझे पता थी। और विदेशी इत्र भी नहीं लाए थे। हमारे बीच पनप रहे प्रेम प्रसंग का अंतिम भविष्य विवाह नहीं था, इसलिए वह मेरे लिए झूठे हीरे की अंगूठी भी नहीं लाए। लेकिन हमने आपस में वेलेन्टाइन डे पर बहुत सारे उद्धरण प्रस्तुत किए। प्रेम और विश्वास एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और प्रेम ही सुरक्षा का कवच है। वास्तव में यही एकमात्र आसान अवसर था शांत मन से कुछ समय एक साथ बिताने का। कई दिनों के बाद इस तरह आसक्ति भरे प्रेम की अतिशयोक्ति के माहौल में रहने का समय मिला था। मैं एक नारी से अर्द्धनारी में बदल गई थी, जिसके हामी भरने पर निर्भर करता था पुरुष का आलिंगन और उसके बाद फैले हुए जंगल की तरह की तरह मादक इशारे ....।

रात गहराती जा रही थी, मोमबत्ती की रोशनी में खाना खाने के बाद उन्होंने अपने कोट का बटन खोलकर शर्ट की जेब से एक लंबी पतली वस्तु बाहर निकाली, उस पर गिफ्ट पेपर लिपटा हुआ नहीं था, इसलिए मैं तुरंत देख पाई कि वह एक बांसुरी थी। किसी सुदूर जंगल के कोमल बांस का एक हिस्सा। जिसे नदी तट के पत्थरों के बीच में भिगोकर रखा जाता है और उसके बाद कलाकार अपने हाथ से गढ़कर आत्मा फूंकता है और अंत में जीवन-साँस देकर,प्रेम देकर, आँसू से सींचकर उसे एक परिपूर्ण बांसुरी में बदलता है, जैसे हरियाली पककर मीठी और गहरी होती जाती है। मानो मैं बेहोश होती जा रही थी। क्या वास्तव में यह संभव है? मेरा होने वाला प्रेमी बाहर से इतना शिष्टाचारी, अच्छी तरह से सजा-धजा उम्रदराज भीतर से भी इतना आकर्षक व दिव्य हो सकता है? मुझे लग रहा था कि कोई अलौकिक वलय उनको उद्भासित कर रहा था। मेरी आँखें कृतज्ञता भरे आंसुओं से धुंधला गई।

फिर भी मैं सुन पा रही थी उनके गरम बेचैन स्वर। " क्या आपको पता है, मैं तुम्हारे रुची-बोध के डर से मैं सोच रहा था कि कहीं तुम मेरा उपहास नहीं उड़ाओगी। तुमने सही कहा था, किसी भी अन्य तरीके से तुम्हें खरीदा नहीं जा सकता। एक अच्छा जौहरी ही तुम्हें परख सकता है। .....”

वह कहते जा रहे थे, “ पिछले महीने मैं किसी निरीक्षण के काम से झारखंड के दौरे पर गया था। वहाँ रात को कोई बंसी बजा रहा था। इतनी मधुर बांसुरी मैंने पहले कभी नहीं सुनी थी, इससे पहले जितने भी बांसुरीवादक मैंने सुने, सभी की आवाज कोयल के फटे हुए गले की आवाज जैसी थी। और उसी पल मेरे मन में इच्छा हुई कि तुम्हें दुनिया की इस दुर्लभ वस्तु को उपहार स्वरूप प्रदान करूँ। मैं जानता था, तुम्हें ऐसा उपहार किसी ने भी नहीं दिया होगा और किसी के लिए देना संभव भी नहीं है। दूसरे दिन मैंने एक आदमी भेजकर उस बांसुरीवादक को घर बुलाया। यद्यपि वह एक जवान आदमी था, मगर गरीबी की वजह से वह अपनी उम्र से दुगुना लग रहा था। वह एक टूटी-फूटी फूस की झोपड़ी में रहता था और एक के बाद एक उसके परिवार के सारे लोग स्वर्गवासी हो गए। सारा परिवार खत्म हो जाने के बाद वह पूरी तरह से कंगाल हो गया था और उसके जिंदा रहने का कोई विशेष कारण नहीं था। वास्तव में एक वक्त की रोटी जुगाड़ करना भी उसके लिए मुश्किल था। उसके तुरंत बाद मैंने उसे दो सौ रुपए दिए और कहा, " कुछ चावल खरीदकर अच्छी तरह से भोजन करना। मगर शराब कभी मत पीना। " और कुछ अधिकारियों को मैंने उस पर नजर रखने के लिए कहा। क्योंकि आदिवासियों के हाथ में पैसे आते ही वे सीधे शराब की दुकान पर चले जाते हैं, शराब की लत के शिकार हो जाते हैं और गरीब के गरीब रह जाते हैं। बस उसी समय मेरी नजर उसकी कमर में लटकी चिकनी बांसुरी की ओर गई। मैंने उससे पूछा, " क्या मुझे यह बांसुरी बेचोगे? " उसने तुरंत उसे छिपाने की कोशिश की और अनिच्छा से अपना मुंह लटका दिया।

मैंने कहा, " मैं उसके लिए और दो सौ रुपये दूंगा। " वह मेरी इस बात से सहमत हो गया। अंत में मैंने उसे हजार रुपए दे दिए। जिसका दाम बाजार में पचास रुपए भी नहीं होगा, उसके लिए हजार रुपए का लोभ छोड़ना मुश्किल होगा। उसे कहाँ समझ में आएगा बांसुरी के मधुर गीतों का मूल्य, तुम्हारी तरह ही अनमोल। तुम्हारे लिए इससे बढ़कर और क्या उपहार हो सकता है, बताओ तो? "

और मैं कुछ भी सुन नहीं सकी। मेरा पूरा ब्रह्मांड मानो एक चरम उदासी से भर गया हो। मेरे भीतर बज रही थी उस बांसुरी के वियोग की उदास धुन। हर बार की तरह इस बार भी मेरी आत्मा जाग गई थी। प्रेम से संबंधित मेरी सारी सांसारिक इच्छाओं पर पानी फिर गया था। उस बांसुरी वादक को प्रेम के दर्द और उसकी कीमत पता नहीं थी? और क्या आपको पता हैं? आपके पास पैसा है, इसका मतलब आप सब कुछ खरीद सकते हैं?

तुरन्त मेरा मन मंजरी से लदे आम पेड़ों की खुशबू, छोटी-सी पहाड़ी नदी का कलरव और हरियाली के उस सरहद तक खींचा चला गया, जहां से क्षितिज दिखाई नहीं दे रहा था। मेरी चेतना में एक भयंकर बाढ़ उमड़ आई थी? विरोध में कांप उठा था मेरा सम्पूर्ण शरीर। मैंने कुछ भी नहीं कहा, मगर रात्रि-भोजन समाप्त कर शीघ्र घर वापस जाने का प्रस्ताव रखा। उसी समय मेरा बुद्धिमान प्रेमी समझ गया कि ऐसा कुछ घटित हो गया, जिसे नहीं घटना चाहिए था। अगर हमें बहुत पहले से ही सम्बन्धों के अंत के बारे में पता चल जाता, अधिकांश संबंध तो शुरू से ही नहीं बन पाते। मगर प्रेम में यह सावधानी धुएं की तरह घुल जा रही थी।

(मैं कितनी बेवकूफ थी ? जिस अर्द्धनारी प्रेमिका की अंतर्निहित पीड़ा हमेशा बाएँ मुंह रास्ता रोके खड़ी रहती है, और यह जानकार भी मैं अपने लिए सुख खोज नहीं पाई! इस तरह की निष्पक्षता और शुचिता का पालन करने से सब कुछ पारदर्शी और अर्थहीन हो जाता था। जहां कुछ भी अचानक नहीं घटता है, तब मैं कौन थी? उसकी परित्यक्ता प्रेमिका या वह मेरे? मुझे पता नहीं ....)