छंद विधान एवं सृजन / कविता भट्ट

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छंद विधान एवं सृजन( रचनात्मक लेखन):रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, अयन प्रकाशन, जे-19/30,राजापुरी, उत्तम नगर नई दिल्ली-110059, प्रथम संस्करण :2022 , पृष्ठ 96, मूल्य 220/-

रचनात्मक लेखन के अंतर्गत रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ कृत ‘छंद विधान एवं सृजन’ पढ़ने का सुअवसर प्राप्त हुआ। पुस्तक के शीर्षक से ही इसकी विषयवस्तु की ओर ध्यान आकृष्ट हो जाता है। आधुनिक परिदृश्य में छंद पर केन्द्रित पुस्तकों की महती आवश्यकता है। ध्यातव्य है कि काव्य विधा में रत रचनाकार आधुनिक प्रतिस्पर्धा में इतने अधिक दौड़ना चाहते हैं कि छंद पर ध्यान देने या इसे जानने में समय नहीं दे पाते। इसका एक कारण यह भी है कि जो पुस्तकें छंदों को स्पष्ट करती हैं, उनका आकार वृहद् और अध्ययन- क्लिष्ट होने से यथोचित सामग्री और समय के अभाव में रचनाकार उतना अध्ययन नहीं कर पाते। अस्तु छंदों पर केन्द्रित ऐसी पुस्तक की आवश्यकता थी, जो सहज व बोधगम्य हो। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की उपर्युक्त पुस्तक ऐसा ही एक सफल प्रयास है।

उपर्युक्त पुस्तक में दो अनुभाग हैं- छंद-विधान (प्रवेश) और छंद-विधान (विस्तार) । पहले अनुभाग में छंद की आवश्यकता, आधार, मात्रिक छंद, वर्णिक छंद का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए छंद अभ्यास की आवश्यकता को भी स्पष्ट किया गया है। द्वितीय अनुभाग में कविता को मूलत: छंद रूप बताते हुए शब्द और पद, बलाघात, यति, अंतर्यति, पद-विन्यास, अर्थ-विन्यास, विशिष्ट शब्द प्रयोग, तुकांतता में सावधानी, उच्चारण और मात्रा, मात्राओं की गणना पर विचार, छंद- संरचना और छंद- अभ्यास इत्यादि को विवेचित करते हुए लेखक ने क्षणिका, प्रमुख जापानी काव्य-विधाओं यथा- हाइकु, ताँका, सेदोका और चोका को उदाहरण सहित समझाकर सभी के लिए सुग्राह्य बना दिया। सबसे अच्छी बात यह है कि पुस्तक के अंत में इन जापानी काव्य-विधाओं का अभ्यास-कार्य तथा सन्दर्भ-संकेत इत्यादि को भी प्रस्तुत किया है।

उल्लेखनीय है कि मात्रिक छंद के अन्तर्गत चौपाई, जयकरी, वीर, लावनी, विधाता, ताटंक, दिग्पाल, गीतिका, हरिगीतिका, सरसी, ललित, आँसू, दोधक, तोटक, शृंगारिणी, माधव मालती, दुतविलम्बित, रोला, कुण्डलिया, उल्लाला, छप्पय तथा बरवै छन्दों को सोदाहरण विवेचित किया गया है। वर्णिक छन्द के अन्तर्गत दुर्मिल सवैया, मदिरा सवैया, मत्तगयन्द सवैया, कवित्त, मनहरण, रूप घनाक्षरी, मनोहरण तथा देव घनाक्षरी छन्दों के साथ माहिया, जनक छन्द और त्रिवेणी को भी विवेचित किया गया है।

पुस्तक सारगर्भित, सहज, सरल और बोधगम्य है। यह नये-पुराने साहित्यकारों के साथ ही साहित्यानुरागियों हेतु भी संग्रहणीय तथा पठनीय है। लेखक के मतानुसार- काव्य के लिए सबसे बड़ी ग़लतफ़हमी है तुकबन्दी। छन्द की संरचना का ज्ञान प्राप्त करने के बाद यह पहला पड़ाव है। इसे ही रचनाकारों ने छन्दोबद्ध काव्य समझ लिया है। बड़े-बड़े छन्दशास्त्री अन्तर्जाल पर सरसों को न पेरकर खली में से तेल निकालने में लगे हैं। यद्यपि संस्कृत के प्राचीन छन्दवेत्ता से लेकर आधुनिक काल में नारायण दास (जनन्नाथ दास रत्नाकर के पौत्र) तक इसे स्थापित करने के लिए कटिबद्ध रहे हैं।

पुस्तक की भाषा सरल है। सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी इस पुस्तक को पढ़कर छन्दों का अर्थ, परिभाषा, अभिप्राय और अनुप्रयोग इत्यादि समझ सकता है। नये-पुराने रचनाकार इस पुस्तक को पढ़कर छन्दों की रचना कर सकते हैं। साथ ही अन्य को भी सिखा सकते हैं। छन्दों के लिए अनेक वृहद् पुस्तकें ग्रन्थालयों में पड़ी रहती हैं, किन्तु वे सर्वसुलभ और सर्वग्राह्य नहीं हैं। उन पुस्तकों से सीखना कठिन है। इस दृष्टिकोण से यह पुस्तक अत्यंत उपयोगी और समकालीन परिदृश्य में प्रासंगिक है। प्रत्येक के लिए संग्रहणीय और उपयोगी है। इस प्रकार यह पुस्तक पुस्तकालयों तक भी पहुँचनी अपेक्षित है। साथ ही इस पुस्तक का अन्तर्जालीय संस्करण भी कुछ समय बाद प्रकाशित किया जाना उपयोगी सिद्ध होगा। ऐसी उपयोगी पुस्तक के लिए लेखक बधाई तथा साधुवाद के पात्र हैं।

[नेशनल एक्सप्रेस , दिल्ली, 24 जनवरी 2022]