छठी इन्द्री वाले लोग / सुशील यादव

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मुझे कुछ बातो की जानकारी घटना के कुछ पहले अचानक हो जाती है। पता नही क्यों मेरी छटी-इन्द्रिय, मीडिया के “बाबा-तहलका” के बाद एकाएक कैसे एक्टिव हो गई? अफसोस, मुझे मेरे अन्दर छिपी हुई प्रतिभा के बारे में पता तब चला, जब बाबा-लोग छटी इन्द्री का, खेल- खेलकर करोडो कमा कर निपट लिए।

उनके कमाने का तरीका न्यूटन –आइन्स्टाइन –आर्कमिडीज के जमाने में होता तो इस धरती में हम बिना सेव गिरे का गुरुत्वाकर्षण मान लेते, संसार बिजली के खम्भों पर टिका नहीं होता यथा, कुत्तो को जो शंका –निवारण सुख मिला है वो नसीब नही होता, यूरेका –यूरेका चिल्लाते नंगे नही भागते लोग|

जब सब कुछ बिना मेहनत के मिल रहा हो तो कोई क्यों सर खपाए ?

अनाप-शनाप बोल के कमाने का नायाब तरीका इजाद हो चुका है।

कब नहाए थे, चड्डी लक्स की पहनी थी या डोरा की। अगर लक्स की पहनी थी तो अब डोरा की पहन के देखो... शायद भला हो जाए। हाँ, एक पेकेट अगरबत्ती किसी गरीब के झोपड़े में ज्ररूर जला आया करो, अवश्य कल्याण होगा।

मनोविज्ञान का तुक यहाँ जबरदस्त है| आदमी की पसंद को चोट करो, जो वो कर रहा है वही गलत है। आदमी की झख खुल जाती है|बीबी के ताने को बल मिल जाता है, हमने तो पहले ही कहा था, डोरा की लो। हमारी तो सुनते ही नहीं| फिर भक्ति मार्ग में ले जाकर अगरबत्ती पकड़ा दो। मंदिर जाने को कहने में लोगो को कुछ नया क्या मिलेगा|लोग कुछ नया मिले तो जरुर आजमाते हैं। लोगो को, सरकार की तरह, गरीब की तरफ भेज दो, इससे सामजिक पकड मजबूत होती है। मॉस-मीडया की जबर्दस्त कव्हरेज मिलती है।

सरकार, ‘गरीब’ शब्द के बीच में आ जाने से थोड़े देर तक और सोते रहती है?

काम निकालने में मनोविज्ञान का सहारा, जिसने लिया उसकी नय्या सुनामी प्रूफ हो जाती है।

बड़े –बड़े विज्ञापनो का कमाल है, कि उनका खोटा सिक्का धूम से चलता है।

हम लोगो को पता नही, कौन से स्कूल-कालिज में, क्या पढ़ाया –लिखाया , हम लोग कुछ बन नहीं पाए। ठूस-ठूस कर गिनती-पहाडा, नैतिक ज्ञान, सामाजिक अध्ययन, सामान्य विज्ञानं, अर्थ-शास्त्र, केमिस्ट्री –फिजिक्स सब भर दिए .जिसमे आज के जमाने में दो जून की रोटी मुहाल करना भारी पड़ता है। जिन्होंने स्कूल-कालिज का रुख नहीं किया, वे बड़े मजे में दिखते हैं|

मेरे एक परचित, मजे से किसानी कर रहे थे, पता नही नेताओं को, नेता का क्या अकाल पड़ा, उसे एक दिन उठा ले गए|अपनी पार्टी की टिकिट दे दी। भले-मानुष ने लाख समझाया, कि उसे ठीक से बोलना नही आता, और तो और वो कभी स्कूल पढने भी नही गया। पार्टी वालो ने कहा इसी खूबी के चलते तो उसे पार्टी का टिकिट दिया गया है, वरना टिकिट मागने वालो में डाक्टर –इंजीनियर की तो लाइन लगी थी। वो मासूम-सूरत, और पार्टी की प्रयोग-धर्मिता के नाम पर जीत गया। जीता क्या, उसकी काया ही पलट गई।

काया-पलट का खेल लोगो को बहुत अजूबा लगा। लोगों ने, किस्से –कहानियों में उसे फिट कर दिया। हर निकम्मे –अलाल लोगों को, उसका उदाहरण देकर मार्ग –प्रशस्त करने का काम पूरे राजकीय सम्मान के साथ किया जाने लगा। निकम्मे-अलाल लोग मुगेरी के सपनो में खो गए।

उनका प्रसंग आते ही, “जैसे उनके दिन फिरे “....वाली बात, आम सी हो गई|

वैसे अंगूठा-छाप से शिक्षा –मंत्री बनना, इस धरती पर कुदरत के कुछ चमत्कारों में से एक है।

चुनाव जीत्तने से मंत्री बनाने तक का उनका सफर मानो रोलर-कोस्टर में बैठने की तरह से था।

मंत्री जी धकधकाए से फकत भगवान को याद करते रहे। उनकी छटी-इन्द्रीय का जागरण तभी से हुआ। रोलर –कोस्टर जैसे सफर को कैसे पार लगना है सो मिन्नतो का, कसमो का, ठोस निर्णय का, कुछ त्यागने और कुछ तहे दिल से अपनाने का उन्होंने उसी दिन से मानो तय कर लिया। अभी तक जो हुआ सो हुआ, की तर्ज पर उन्होंने अपनी गाडी सन्मार्ग के रास्ते में डाल दी। वो हरदम व्यस्त नजर आने लगे। आदमी अगर व्यस्त रहे तो अपने आप बहुत कुछ सीख लेता है या बन जाता है| उनकी व्यस्तता आजकल गजब की है कभी अपनों के लिए समय नहीं निकाल पाते।

मंत्री जी ने लोगों से बचने का नया फार्मूला ये निकाला है कि वक्त –बेवक्त, लेपटाप ले कर बैठ जाते हैं| इससे ये सन्देश जाता है कि जनाब जरुरी काम में व्यस्त हैं। कोई इनको छेड़ता नही|

मैंने एकाएक उनको लेपटाप लिए देखा तो अजीब सा लगा, कारण की मैं उनको भैस लगाते, सानी –चारा देते, या खलिहान में झाड –बुहार करते ही देखा करता था। बहुत दिनों बाद, अचानक एक दिन यूँ ही पहुचा था मैं। मुझे देख कर वे थोड़ा असहज से हुए, फिर नेतानुमा बेशर्मी भी तत्काल हवा में घुल-मिल गई। हम दोनों अपनी-अपनी जगह ठीक हो गए। मैंने पुराने संदर्भो में जो उनको देखा था, सो पूछ बैठा, ये लेपटाप भी, ,,,,?

वो एक गहराए कुए से बाहर निकल कर बोले, हाँ चलाना अब आ गया है, अरे ये सब तो बहुत आसान है। थोड़ी सी अंगरेजी का ट्यूशन ले लिया था। ये सब तो खेत में हल जोतने और दीगर किसानी कामो का एक चौथाई भी नहीं है। अव्यक्त में माने वे कह रहे थे,अब तक कहाँ झक मारते रहे बेकार।

आगे उन्होंने कहा अब बड़े-बड़े लोगो के साथ रहना पड़ता है न, नहीं तो ये मिनिस्टर को बेच खाये। मैंने उनके कथन पर हामी भरते हुए, एक नजर उनके स्टेटस पर डाली, वो बिना विज्ञापन, बिना ज्ञान, बिना शिष्टाचार निभाए बहुत हैसियत वाले हो गए थे।

वो लेपटाप से ध्यान हटा भी नहीं पा रहे थे, मेरी बातो का नेता-नुमा हल्का-फुल्का जवाब तब भी मिल रहा था।

-मेरी इच्छा हुई, छीन कर उसका लेपटाप देखू?

-ऐसे लोग आखिर देखते क्या हैं? ढूंढते क्या हैं? शायद मेरी छटी इन्द्रीय में कही से सन्देश आ जाए।

-मैं अपनी छटी –इन्द्रीय को उस दिन से, हर ऐसे काम की तरफ लगाने की कोशिश में रहता हूँ, जहां ‘बिना टैक्स का इनकम ’ बेहिसाब हो।