छत्तीसगढ़ के तीन महान कलाकारों की स्मृति / जयप्रकाश चौकसे

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छत्तीसगढ़ के तीन महान कलाकारों की स्मृति
प्रकाशन तिथि :19 जनवरी 2015


छत्तीसगढ़ से फिल्म जगत में आने वाले किशोर साहू लगभग 45 वर्षों तक फिल्म उद्योग से निर्माता, निर्देशक, लेखक एवं अभिनेता के तौर पर जुड़े रहे। सामाजिक प्रतिबद्धता वाली अनेक फिल्में बनाई तथा कई नए कलाकारों को अवसर दिया। उनकी सिंदूर (1947), कालीघटा (1951), वीर कुणाल (1945), मयूरपंख (1954), हैमलेट (1954), पुष्पांजली (1970), दिल अपना प्रीत पराई (1960) आैर हरे कांच की चूड़ियां (1967) महत्वपूर्ण फिल्में हैं। छत्तीसगढ़ से आए प्रथम फिल्मकार की इन कहानियों को देख वहां के वर्तमान फिल्ममेकर बहुत कुछ सीख सकते हैं आैर कहानियों के अकाल के इस दौर में सार्थक फिल्में रच सकते हैं। प्रांत की फिल्मों को 50 वर्ष हो गए हैं। कुछ महत्वपूर्ण फिल्में रची गई हैं परंतु मुंबइया फिल्मों से प्रेरणा लेने से बेहतर है घर की संपदा का प्रयोग करें। परम्परा से प्रेरणा लेकर अपनी प्रतिभा से सशक्त करने का सिलसिला संस्कृति को समृद्ध करता है। अभिनेता के रूप में उनकी विजय आनंद निर्देशित गाइड, काला बाजार, हरे राम हरे कृष्ण यादगार फिल्में हैं।

सत्यदेव दुबे 19 मार्च 1936 को बिलासपुर में जन्मे आैर रंगमंच की दुनिया में उनका स्थान द्रोणाचार्य की तरह है। आज भी नसीरुद्दीन शाह आैर आेमपुरी उनके गुणगान करते हैं। दुबे को श्याम बेनेगल की भूमिका की पटकथा के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला आैर जुनून के संवाद के लिए भी वे पुरस्कृत हुए तथा पद्मभूषण से नवाजे गए। उन्होंने अनेक नाटक निर्देशित किए जिनमें ययाति, हयवदन, आैर तोता बोले, खामोश, अदालत जारी है का प्रदर्शन भारत के अनेक शहरों में हुआ। अमरीश पुरी आैर अमोल पालेकर को उनके हयवदन ने ही पहचान दिलाई आैर उन्होंने लंबी पारियां खेली। धर्मवीर भारती ने अंधा युग रेडियो-नाटक के रूप में लिखा था जिसे मंच पर जीवंत करने का श्रेय दुबे को जाता है। उनकी बनाई लघु फिल्म अपरिचय के विंध्याचल उस विधा का मील का पत्थर है। उन्होंने मराठी फिल्म शांतता कोर्ट चालू आहे का निर्देशन भी किया। मुंबई के जुहू स्थित पृथ्वी थियेटर्स के आंगन में एक बड़ा वृक्ष है जिसके नीचे बैठकर दुबे युवा अभिनेताआें को प्रशिक्षित करते थे। इस मायने में वही स्थान रंगमंच का मुंबई में शांति निकेतन दशकों तक रहा। आज भी उस वृक्ष के पंछियों को दुबे जी की आेजस्वी वाणी याद आती है आैर उनकी स्मृति में चंद पत्ते नीचे गिराते हैं। क्या कुछ पंछी बिलासपुर से आते हैं? हर व्यक्ति अपने जन्म स्थान को अपने हृदय में सदैव अक्षुण्ण रखता है आैर इस तरह स्थिर समझे जाने वाले शहर सारे विश्व की यात्राएं करते हैं।

हबीब तनवीर रायपुर में एक सितंबर 1923 को जन्मे, रायपुर के लॉरी म्यूनिसिपल स्कूल में पढ़ाई की। तनवीर ने छत्तीसगढ़ की जनजातियों के युवा कलाकारों के साथ 'नया थियेटर' नामक संस्था को संवारा आैर पूरे देश में इन कलाकारों के नाटकों के साथ यात्रा की। छत्तीसगढ़ के लिए गौरव की बात है कि तनवीर ने गणतंत्र की परिभाषा कि यह आम लोगों द्वारा आमलोगों की, आम लोगों के लिए सरकार है को रंगमंच की दुनिया में भी स्थापित किया। वे 'अवाम के थियेटर' नामक महान विचार के जन्मदाता हैं। पहले उन्होंने जनजातियों के कलाकारों से हिंदी संवाद वाली चरणदास चोर, गांव का नाम ससुराल मोरा नाम दामाद, कामदेव का बसंत ऋतु का अपना सपना का अखिल भारतीय प्रदर्शन किया तदुपरांत इन्हीं नाटकों के छत्तीसगढ़ की भाषा में संवाद के साथ भी अनेक महानगरों में नाटकों का प्रदर्शन किया। छत्तीसगढ़ की भाषा अनेक शहरों के आधुनिक दर्शकों ने भली-भांति समझी आैर सराही। तनवीर छत्तीसगढ़ के अघोषित सांस्कृतिक राजदूत थे। उन्होंने सिद्ध किया कि सभी भारतीय भाषाएं सभी जगह आसानी से समझी जाती हैं आैर भाषाआें के बीच कोई युद्ध नहीं है। इतना ही नहीं उन्होंने हिंदी, उर्दू का बहनापा भी सिद्ध किया। तनवीर को मिले सम्मान की सूची लिखने के लिए अखबार का आधा पेज लग सकता है। वे एकमात्र रंगकर्मी हैं जिन्होंने थियेटर ऑफ रूट्स को स्थापित किया।

किशोर साहू का जन्म रायगढ़ में 22 नवंबर 1915 को हुआ अर्थात यह वर्ष उनका जन्म शताब्दी वर्ष है। इसी माह की ग्यारह तारीख को मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह से भेंट करके मैंने निवेदन किया कि सेंट्रल सर्किट सिने एसोसिएशन को भूखंड आवंटित करे जिसपर हम किशोर साहू फिल्म भवन का निर्माण करेंगे जिसमें सत्यदेव दुबे आैर हबीब तनवीर के कक्ष भी होंगे जिनमें नाटक मंचित किए जा सके। सेंट्रल सर्किट में छत्तीसगढ़, मध्यप्रेश, राजस्थान, महाराष्ट्र के वितरक-प्रदर्शक सदस्य हैं आैर यह अपनी तरह की विगत 65 वर्षों से एकमात्र संस्था है तथा छत्तीसगढ़ छोड़कर अन्य तीनों प्रांतों में इसका भवन है। इसी तरह यह निवेदन भी किया कि नए एकल छविगृहों से अनुमति के समय भी एक शो छत्तीसगढ़ फिल्मों के आरक्षण का लिखित वादा लिया जाए। अगर भूखंड शीघ्र आवंटित किया जाए तो किशोर साहू के जन्म शताब्दी वर्ष में ही भवन बन सकता है।