छत्रछाया / राजा सिंह

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वह अपनी पत्नी के साथ दरबार हाल आया हुआ है। साहब बहादुर श्री ठाकुर बलदेव राज सिंह को नजराना भेंट करने। उसे ठेका मिला था, दो पुलियों के निर्माण कार्य का। ठाकुर साहब की जै-जैकार चल रही थी। उसके सपत्नीक पहुॅचने पर थोड़े समय के लिए जयकार थमी और सम्पूर्ण निगाहें उन दोनों पर केन्द्रित हो गई.

'आओ! बाह्मण देवता पधारों।' ठाकुर साहब का सम्बोधन व्यंग्यात्मक था या सम्मानसूचक वह निर्णय नहीं कर पा रहा था। परन्तु इस सम्बोधन से वह अचकचा ज़रूर गया था।

'कैसे आना हुआ?' उनमें आश्वस्ति का भाव था उसके आने के विषय में।

'बस आपके दर्शन करने चला आया।' वह और उसकी पत्नी सपना ने आगे बढकर ठाकुर साहब के चरणों में झुक कर प्रणाम् किया और मिठाई का डिब्बा और एक हजार एक रुपया नकद भेंट अर्पित की और उनकी छत्रछाया की कामना की। ठाकुर साहब अपने सिंहासन में बैठे-बैठे मंद-मंद मुस्करायें प्रभु की तरह।

'दस प्रतिशत तो न्यूनतम शुल्क है, पंडित।' मनोज पांडे इस क्षेत्र में नया था, इस कारण ठाकुर साहब को बताना पड़ा।

'ठाकुर साहब! ये तो ज़्यादा है। वह गिड़गिड़ाया।'

'पन्द्रह प्रतिशत।' राजा की उद्घोषणा।

'मर जाऊॅंगा, राजा साहब! मुझे और भी सरकारी अधिकारियों तथा अन्यों की व्यवस्था करनी है।'

'बीस प्रतिशत,।' राजा साहब ने प्रतिवाद को दंडित किया। मनोज पांडे फिर रोने-गिड़गिड़ाने की ओर उद्धृत हुआ और प्रारम्भिक दर पर सहमत व्यक्त करने की इच्छा जाहिर करने को लौटने लगा कि उसकी पत्नी ने मामला सम्हाल लिया और उसकी हथेलियों को कसकर दबाकर उसे चुप रहने का ईशारा किया। वह रूंआसा होकर चुप लगा गया। अब वह भी समझ गया था कि किसी भी प्रकार का प्रतिवाद रेट बढ़ने की गारन्टी है। रेट बीस प्रतिशत पर जाकर बंद हो गया। ठाकुर साहब और अन्य दरबारियों ने छत्रछाया में नवीन प्रवेशार्थियों का स्वागत किया और बधाई दी। रंजीत सिंह ने हिदायत दी की कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व ही तय राशि जमा कर दी जायं।

उसे बलदेव राज से ऐसी उम्मीद नहीं थी। उसे यकीन था कि बल्देव जो कभी उसका सहपाठी था उसका लिहाज करेगां और उसे छत्रछाया शुल्क नहीं देना पड़ेगा। मनोज और बल्देव एक ही स्कूल में कक्षा आठ तक साथ पढ़े थें। स्कूल बल्देव के पिता राजा सूर्यभान सिंह का था। हांलाकि मनोज कभी भी कुवरं बल्देव के गैंग में शामिल नहीं था, परन्तु दोनोें एक दूसरे को अच्छी तरह से जानते थे और दोनों का कभी किसी बात में आमना-सामना नहीं हुआ था। आठवीं के बाद बल्देव बाहर पढ़ने चला गया था और स्नातक करने के उपरान्त ही लालगंज वापस आया था। मनोज के पिता पुरोहित थे। कई बार वह पिता जी के साथ बल्देव की कोठी में गया था। कोठी क्या थी, महल थी। परन्तु उसे कोठी में महल जैसा आकार नजर नहीं आता था जैसा कि उसने किताबों आदि में देखा था। फिर भी उसमें प्रवेश करते डर तो लगता ही था। उसकी शानों-शौकत में कोई कमी नहीं नजर आती थीं, वैसे ही चौकीदार, दरबार कारिंदें और रक्षक आदि का बाहुल्य। उनकी वेशभूषा भी आधुनिक थी, परन्तु कई जांच प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही ठाकुर बल्देव राज सिंह से मुलाकात हो पाती थी और इसके लिए पूर्वानुमति आवश्यक थी उस समय और आज के समय में कोई फर्क नहीं हुआ था। वही प्रवेश करते हुये खौफ, डर और दहशत का माहौल और अपने को दीन-हीन महसूसनें की घुटन आदि।

वह ठाकुर साहब को इम्प्रेस करने के इरादें से सपना को ले गया था। उसकी पत्नी काफी सुन्दर, आकर्षक और आधुनिक थी। सपना कान्वेंट एजुकेटेड थी। ईलाहाबाद यूनीवर्सिटी में अध्ययन के दौरान काफी चर्चित स्टूडेंट थी, जिसके कई अफेयर्स और ब्रेक अपस् पढ़ाई के दौरान हो चुके थे। उसके पिता की सहन शक्ति जब जबाब दे गई तो उन्होंने पुरोहित के बेटे मनोज से उसकी शादी तय कर दी। क्योंकि उसकी बदमानी और दुशमनी अपने उच्चतम स्तर पर थी और एक यहीं रास्ता बचा था उसे डूबने या मरने से बचानें का। सपना ने भी वस्तुस्थिति स्वीकारी और पलायन करना उचित समझा। मनोज देखने-सुनने में अच्छा था, पढ़ा लिखा था और उसके पिता के पास काफी सम्पŸिा थी, खेत खलिहान, घरद्वार दुकान और गाड़ी आदि और उनका अकेला वारिश मनोज। सपना ने शहर की भीड़-भाड़, ईर्ष्या-द्वेष, झूठफरेब की दुनियाँ को छोड़कर गॉंव कस्बे की शान्त, एकान्त प्यार-मोहब्बत्, त्याग-बलिदान और भाई-चारें की दुनियाँ में प्रवेश करने का निर्णय किया था और तदनुरूप अपने आप को परिवर्तित करने का आत्मिक साहस प्रगट किया था।

मनोज का मन पढ़ने-लिखने में कम लगता था, परन्तु किसी तरह गिरते-पड़ते वह ग्रेजुएट हो गया था। वह अपने को काफी पढ़ा-लिखा मानता था और इसको प्रदर्शित करने के लिए वह अपनी बोल-चाल की भाषा में हर वाक्य में अंग्रेज़ी के एक-आध शब्द ज़रूर प्रयोग करता था। जैसा कि वह जानता था कि अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे और बोलने वाले ही पढ़े-लिखे माने जाते हैं, बाकी तो सब ऐसे ही हैं। उसका मन किसी काम-धन्धे में भी नहीं लगता था, पुरोहिताई करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता, खेती-बाड़ी शुरू से बटाईदारों द्वारा की जाती है और उसे देखने की भी दिलचस्पी नहीं थी। दुकान में पिताजी विराजमान रहते थें, उधर कभी रूख किया नहीं, चाहे पिताजी कितना भी बुलाते रहें हों।

मनोज को तो नेतागीरी आकर्षित करती थी, बिना पूंजी लगाये लाभ ही लाभ। परन्तु वह पिछलग्गू नहीं बनना चाहता था, इसलिए किसी पार्टी का कार्यकर्Ÿाा नहीं बना था। वह अपनी भूमि तैयार करने में जुटा था। वह अपने आप को पोज करता था कि साधारण जन का काम आसानी से कर सकता है और कई काम उसने करवायें है, ऐसे दो-चार किस्से वह ज़रूर सुनाया करता था। उसका अड्डा था लालगंज चौराहे पर पान की दुकान जहॉं वह अपने द्वारा सम्पादित कामों की सूची वक्त-बेवक्त वर्णन किया करता था और दूसरों से ज़्यादा अपने को प्रभावित करता था। सुबह-सुबह नहा धो कर नास्ता-पानी करके उसने खद्दर का कुर्ता-पजामा पहना, चप्पल लटकाई और मोटरसाइकिल उठाई और कंधों पर दोनाली सजाई और निकल पड़ता था गपियांनें और डींग हांकनें। एक-दो बजे लौटकर आना, खा-पीकर सो जाना और दूसरा राउन्ड चार-पॉच बजे शुरू होकर रात आठ, नौ बजे खतम होता था। यह दिनचर्या उसकी शादी के बाद भी परिवर्तित नहीं हुई थी। कभी-कभी वह अपने प्रभाव का उपयोग करके वह किसी का काम ब्लाक तहसील आदि में करवां भी दिया तो उससे उसकी आमदनी हो जाती थी और कुछ रूतवां भी बढ़ जाता था और उसके प्रचार अभियान का महत्त्वपूर्ण दस्तावेंज भी बन जाता था ऐसा उदाहरण।

मगर इलाहाबाद की बुलबुल, लालगंज के गॉंव में आकर कैद हो गई थी। बहुत फड़फड़ा कर उड़ी भी तो लालगंज तक ही डोर थी और वापस लौटकर गॉंव का घर। यहॉं शान्ति थी एकान्त था परन्तु कुछ करने को नहीं था। बहुत बेचैन थी परन्तु शिकायत हीन थी। बहुत तड़फती तो मनोज उसे इलाहाबाद घुमाने-फिरानें ले जाता था। ससुराल की तमाम आपत्तियों के बाद भी वह अक्सर अपने घर रूक जाती थी और कई दिनों बाद वापस गॉंव आती थी। कोई उसे कुछ कहता नहीं था और मनोज तो उसका मुरीद था, वह उसकी नाराजगी नहीं झेल सकता था, एक दिन भी।

अचानक, एक दिन पुरोहित जी का असमय निधन हो गया और उनकी दिनचर्या पर विराम लगने का खतरा उत्पन्न हो गया। यों तो पुरोहित जी सारी जिम्मेदारी पूरी कर गये थे, मनोज की बहनों की शादी मनोज से पहले ही हो गयी थी। अच्छी खासी दुकान चलती छोड़ गये थे। दुकान से नियमित आमदनी होती थी और खंेती से धनधान्य भरपूर मिलता था। परन्तु क्या मनोज अपना शौक छोड़कर पिता का कारोबार सम्हालेगा? ये प्रश्नचिंह मॉं और पत्नी को सशंकित किये थे।

मनोज पर दबाब हट चुका था और उसने वहीं किया जो उसकी अब तक की शाही दिनचर्या को जारी रख सके और उसे चर्चित और प्रचारित बनायें रखें। दुकान बंद हो गई और उसका सामान औने-पौने दामों में बंेच दिया गया और दुकान को उसने अपना बैठने का अड्डा यानी आफिस बना लिया, सार्वजनिक कार्य करने हेतु। मुख्य लालगंज चौराहे पर दुकान थी, वह और उसके संगी साथियों के जमांवड़े का अड्डा, नेतागीरी करने का ठिकाना, बन गई.

सपना ने अब कांेचना शुरू कर दिया था, कुछ करने का, आमदनी बढ़ाने का। दुकान बन्द करने का उसने पुरअसर तरीकें से विरोध किया था। परन्तु उसकी एक न सुनी गई. मॉं ने तो पूरी तरह से हथियार डालकर समर्पण की मुद्रा अख्तियार कर ली थी। कहती थी 'अब तो यही हमारे लरिका है और यही हमारे खसम'। इन्हें नाराज करके जी नहीं सकती। '

एक दिन अपने अड्डे पर वह अकेला बैठा था कि उसके बचपन का साथी शिवराम पाल आ गया। वह लखनऊ में मिस्त्री का काम करता था। ठेकेदारों के अन्दर काम करते-करते उसे काफी निर्माण कार्य का अनुभव हो गया था। वह मजदूरी से प्रारम्भ करके मिस्त्री बना था और अब चह छोटे-मोटे काम के ठेके भी ले लेता था, जिससे उसको काफी फायदा हो जाता था। दोनों में इस तरह के काम की सहमति बनी। ठेका लेना मनोज का काम और उसे अंजाम तक पहुॅंचाना शिवराम का कार्य। मनोज को यह धंधा पसंद आया। नेतागीरी का सहायक कार्य और आमदनी ज़्यादा लागत कम।

किसी तरह से मनोज ने जोड़-तोड़ करके लालगंज तहसील से दो पुलियों के निर्माण का ठेका लिया और शिवराम की मदद से आवश्यक निर्माण टूल्स और सामग्री इकठ्ठा करके वह ठाकुर साहब के यहॉ उनकी आवश्यक अनुमति प्राप्त करने गया था। वहॉं पर उपस्थित ठाकुर सेना के अध्यक्ष रंजीत सिंह ने बताया कि राजा साहब की कृपा से ही उसे यह ठेका प्राप्त हुआ है, वरना यह ठेका तो किसी एस. सी. ठेकेदार को आवंटित होने वाला था, जो स्थानीय विधायक प्रकाश मिश्र का समर्थक हैं। 'अब जो वे कह रहे हैं तो ऐसा ही होगा, कौंन जिरह करे और परिणाम् भुगते' , उसने मन ही मन सांेचा।

जिस दिन निर्माण कार्य आरम्भ हुआ, उसी दिन ठाकुर सेना के कार्यकर्ता पहुॅच गये और छत्रछाया शुल्क तलब कीं उसने दस प्रतिशत का भुगतान किया और बाकी कुछेक दिनों बाद का वादा किया, तब कार्य आरम्भ हो सका। बीच-बीच में, निर्माणं कार्य ठेके के अनुरूप हो रहा है उसके लिए सरकारी अमलें का निरीक्षण दौरा भी होता था और उनकी हर विजिट पर आवभगत का खर्चा तथा निरीक्षण रिपोर्ट ठीक रहे उसका शुल्क। हर स्टेज पर बिल संस्तुति हेतु उनकी अनुमति और उनकी निरीक्षण रिपोर्ट सही जाये, इसकी व्यवस्था, तभी बिल का भुगतान हो पाता था। ऐसा ही दोनों पुलियों के निर्माण कार्य में उसे भुगतना पड़ा। निर्माण कार्य समाप्त हो जाने पर अंतिम निर्माण कार्य का बिल सरकारी दफ्तरों से पास कराने में ऐड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ा और तय कमीशन का भुगतान करके ही उसका भुगतान हो पाया। सभी खर्चे निपटाने के बाद मनोज पांडे के हाथ लगा करीब 30 प्रतिशत का घाटा। कहॉ इस कार्य में अच्छी आमदनी का अनुमान लगा रहा था और कहॉं अपनी जेब से भुगतान करना पड़ा। उसने इस कार्य के लिए अपने खेतों का एक टुकड़ा बेचकर लागत कीमत इकटठा की थी। उसे लगा कि कैसे लोग इसे बेहद लाभ का धन्धा कहते है? मेहनत और चक्कर लगाने में व्यस्त वह अपने को ही कोस रहा था।

वह चिन्तित था और अव्यवस्थित था। अनुमान के विपरीत हुआ था। लाभ के विरूद्ध पूंजी हृास हुआ था। वह गॉंव वाले घर में पड़ा हुआ था बेचैन और निराश।

सपना ने उसकी चिन्ता शेयर करनें की कोशिश की। वह उसे मना न कर सका। भीतर ही भीतर वह उसे होशियार समझता था। उसने सम्पूर्ण लेखा-जोखा उसके सामने प्रस्तुत कर दिया। सपना ने हानि का विश्लेषण करने हेतु चर्चा में शिवराम और तहसील के बाबू जटाशंकर को शामिल किया। जटाशंकर निर्माण कार्य से सम्बन्धित फाइलें डील करता था। उसी से ज्ञात हुआ कि चूंंिक मनोज पांडे का टेंडर सबसे कम मूल्य का था या कि औरों के मुकाबले आधे दाम का था, इसलिए पांडे जी को ठेका आवंटित हो गया। इसमें ठाकुर साहब की कोई कृपा नहीं थी। सपना ने ध्यान दिलाया कि ठाकुर साहब का शुल्क भी दस से बीस प्रतिशत होना भी हानि का एक कारण रहा है। हर तरह से विचार-विमर्श में यह निष्कर्ष निकल कर आ रहा था कि ठेके के कार्य से तौबा करना ही उचित रहेगा। परन्तु मनोज इस धन्धें को छोडने को तैय्यार नहीं था। उसने अपनी ऑंखों से इस ठेकेदारी के ध्ंाधे में लोगों को रंक से राजा बनते देखा था। वह किसी भी तरह बनियागीरी का ध्ंाधा करने को तैय्यार नहीं था। खेती बाड़ी में जब तक खुद न जुटो तब तक खाने-पीने के अतिरिक्त कुछ ज़्यादा नहीं मिलना है। मीटिंग बिना किसी निर्णय के समाप्त हो गई थी।

मनोज के अड्डे पर निराशा का माहौल था शिवराम, बलराम और मनोज बिना बोले बतियाँ रहे थे। अचानक रामदेव ने आकर सबको चौका दिया। रामदेव भी मनोज का साथी था। शुरू से ही आपराधिक प्रवृति का था। कई कतल आदि कर चुका था। गवाही न मिलने के कारण छूट जाता था। उसका एक पैर जेल में ही रहता था अभी नैनी जेल से छूट कर आया था। चौराहे पर बस से उतरते ही उसे मनोज दिखार्इ्र पड़ गया और वह खिंचा चला आयाँ। उन चारों की पुरानी मंडली थी। उसको देखकर तीनों अतिरिक्त ताकत और उत्साह से भर गयें उन्हें लगा उनकी समस्या का समाधान आ गया हैं उसके स्वागत् में मनोज ने मांस-मदिरा की महफिल सजाईं। रामदेव के जुड़ने से हमारी भी कुछ हस्ती है, इस भाव का संचार हो रहा था। देर रात तक एक नयी निर्माण कम्पनी गठन हो गया था। पंूजी मनोज की यानी कि मालिक मनोज, कार्यपालक शिवराम, संचालक बलराम, जासूस जटाशंकर और रक्षक रामदेव।

सपना की नियुक्ति मनोज ने अपने सलाहकार के रूप में मन ही मन में कर ली। सपना ने ठाकुर बलदेव राज सिंह को बाई-पास करने को मना किया और उनकी छत्रछाया राशि देते रहने का आग्रह किया जिसे मनोज ने बुरी तरह अस्वीकार कर दिया कि रामदेव के होते इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। उसने रामदेव को अपनी दुनाली बंदूक दे दी और अपने लिए एक रिवाल्वर खरीद लिया। एक नयी जीप भी खरीदी गई आने-जाने के लिए.

मनोज पांडे अब अकड़ गया था। वह अपने आप को लालगंज की एक हस्ती मानने लगा था। रामदेव ने उसके बाडी गार्ड का दायित्व सम्भाल लिया था जो सदैव उसके साथ चिपका रहता था, दुकान से लेकर घर तक और जहॉं-जहॉं मनोज को जाना होता उसके साथ था वह। उसकी तरकीब ने जोर मारा और लालगंज से गॉव घूसरपुर तक सड़क निर्माण का ठेका उसके हाथ लग गया। इस कार्य के लिए मनोज ने फिर अपने खेत का एक टुकड़ा बेचा और पूंजी जुटाई. अब की बार वह दरबार हाल में अनुमति एवं छत्रछाया के लिए ठाकुर बल्देव राज की चौखट पर माथा टेकने नहीं गया और उसने निर्माण कार्य तय समय से प्रारम्भ करवां दिया। रंजींत सिंह ने आकर मनोज को लताड़ा और राजा साहब से मिल लेने की हितायद दी, जिसकी उसने उपेक्षा कर दी।

सड़क निमार्ण का कार्य प्रारम्भ ही हुआ था कि हादसा घटित हो गया। शाम का धुंधलका था। जीप पर रामसिंह अपनी दुनाली के साथ सवार था। मनोज अपना आफिस बन्द करके जीप की तरफ आ रहा था कि एक बम फेंका गया। जीप और रामसिंह के परखच्चे उड़ गये और मनोज घायल हो गया था। एक मांेटरसाइकिल सर्र से निकल गई. यह इतनी तेजी से और अचानक हुआ कि कोई उन्हें पहचान नहीं पाया कि कौन लोग थे। हड़कम्प मच गया था। जल्दी से घायल मनोज को लालगंज अस्पताल पहंुचाया गया। चन्द कदमों से दूर पुलिस थाना था। आनन-फानन में पुलिस पहुंच गई और अपनी कार्यवाही में जुट गई. गॉंव-घर खबर पहुंची। सपना सास को लेकर अस्पताल पहुंची और प्राथमिक उपचार के बाद उसने मनोज को इलाहाबाद मेडिकल कालेज हास्पिटल शिफ्ट करवाया, तब जाकर उसने सॉंस ली।

पुलिस की पूॅछ-तॉंछ में मनोज ने ठाकुर साहब का नाम लिया, परन्तु उसे सिरे से खारिज कर दिया गया। ठाकुर साहब से औपचारिक पूॅंछ-तॉंछ भी नहीं की गई. अखबारों में छपी खबरों, बयानों आदि के बावजूद ठाकुर साहब अछूते रहे थे और किसी भी कार्यवाही से बचे रहे। पुलिस अज्ञात हमलावरों की खोज में जुट गई, ऐेसी विज्ञप्ति जारी की गई.

मेडिकल कालेज हास्पिटल के प्राइवेट वार्ड में मनोज घॉवों से लड़ रहा था और सपना उन हालातों पर सिलसिलेवार विचार कर रही थी जिसके कारण यह हादसा घटित हुआ। घूम-फिर कर उसकी सोच छत्रछाया राशि पर आकर टिक जा रही थी। साइट पर काम बन्द हो चुका था। शिवराम लखनऊ भाग गया था और बलराम दुबक कर कहॉं बिला गया था, कोई अता-पता नहीं था। जटाशंकर की शक्ल ही नहीं दिखाई पड़ी। वह तो मातमपुर्सी के लिए भी नहीं आया। अकथ्नीय नुकसान हो गया था, जिसकी भरपायी मुश्किल थी। मनोज शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप से पूर्णरूपेण टूट चुका था और साथ में सपना भी हतप्रभ थी। सर्वप्रथम उसकी प्राथमिकता मनोज को दुरस्त करने की थी। हांलांिक वह खतरे से बाहर था परन्तु सपना सोच रही थी कि कब तक वे सुरक्षित रह पायंगें? क्या ठाकुर साहेब से दया की भीख मॉगे, अपने को समपर्ण कर दें? यह तो निश्चित था ठाकुर की ताकत को चैलेन्ज नहीं किया जा सकता।

उसे यूनीवर्सिटी के वे दिन स्मरण हो आये जब वह अकेली इनसे मिलती जुलती परिस्थितियों का सामना कर रही थी। वह अपने ही भूतपूर्व प्रेमी स्टूडेन्ट यूनियन के प्रेसीडेन्ट के विस्द्ध चुनाव लड़ रही थी। वह उसके यूज एण्ड थ्रो वाले अंटिट्यूड (रूख) पर विद्रोह कर उठी थी और उसने उसकी विश्वविद्यालय में स्थापित सत्ता को चुनौती पेश कर दी थी। उस पर कैसे-कैसे इल्जाम लगाये गये थे, कैसी-कैसी धमकियों का सामना करना पड़ा था। अपहरण, बलात्कार और मौत की सम्भावनाओं को धता बताते हुये अविचल, अडिग खड़ी रही थी। हालांकि वह थोड़े से अन्तर से चुनाव हरा दी गई थी। मतों की पुनः गणनाकर के उसकी चार मतों की जीत को 14 मतों की हार में बदल दिया था। विश्वविद्यालय प्रशासन स्थानीय मंत्री के दबाव में झुक गया था। इस लड़ाई की भनक उसने अपने घर नहीं पहुॅंचने दिया था। एकदम निपट अकेले उसने अपने दम पर सत्ता को चुनौती दी थी और वह हार कर भी वह जीत गई थी। आज इस संकट की घड़ी में उसके मम्मी-पापा उसके साथ है। ज़रूर वह इस अस्तित्व की लड़ाई को जीत लेगी ऐसा उसे पूर्ण विश्वास था। मगर ना समपर्ण ना प्रतिरक्षण सिर्फ़ प्रतिरोध करना है।

मनोज की हास्पिटल से छुट्टी मिलने पर उसने उसे स्वास्थ्य लाभ के लिए मम्मी-पापा के पास इलाहाबाद ही रखने का निर्णय किया था। वह काफी भयभीत और सहमा हुआ था। उसे अपनी मृत्यु आसन्न दिख रही थी। उसने उसमें विश्वास पैदा करने की कोशिश की और खुद अग्रिम मोर्च में आने का निर्णय किया मनोज मना करता ही रह गया और उसने एकतरफा निर्णय लिया और लालगंज आ गई.

उसने मनोज की टीम को एकत्रित किया। लखनऊ से शिवराम पाल को बुलवाया और बलराम को दड़बे से खोज निकाला और उसे दुनाली थमा दी। खुद रिवाल्वर लेकर ड्यूटी पर तैनात हो गयी। वह आश्वस्त थी जल्दी ही दूसरा आक्रमण नहीं होगा। सड़क निर्माण का रूका काम फिर से प्रारम्भ करवाया। मनोज के साथी और गॉंव घर वाले उसके साहस को देखकर अभिभूत थे। उसने ठाकुर साहेब के खौफ से खुद टक्कर लेने का निर्णय किया। एक दिन ठाकुर सेना का प्रधान उससे आकर मिला और ठाकुर साहेब द्वारा उसे तलब किये जाने की सूचना दी। सपना ने ठाकुर की काल को अनसुना किया और एस.पी. साहब को सूचित कर दिया। स्थानीय थानें पर एस.पी. साहेब के स्पष्ट निर्देश आये उसकी सुरक्षा हेतु। परन्तु कोई हलचल नहीं हुयी बल्कि संदेश प्राप्त हुआ कि सुलह कर ली जाये।

उस दिन का कार्य समाप्त हो चुका था। सभी वापस हो रहे थे। मजदूर आदि वहीं साइट के पास झोपड़ियाँ बना कर रह रहे थे और वहीं पर खाना बना खा कर सो जाते थे। इस तरह से सामान आदि की देख-भाल भी हो जाती थी और समय पर मजदूर मुस्तैद मिलते थे। अन्धेरा धीर-धीरे उतर रहा था। सपना भी गॉंव घर जाने के तैय्यारी में थी उसने मोटरसाइकिल स्टार्ट ही की थी कि एक जीप से तेजी से आकर रूकी और चार आदमी कूदे और उसे धर दबोचा और उसे लादकर जीप की तरफ बढ़े। वह चिल्लाई मजदूरों ने हो-हल्ला कर दिया और उसकी तरफ दौड़े इसी बीच उसे छूटने का मौका मिल गया और उसने अन्धा धुन्ध दो-चार फायर कर दिये। गोली लगी किसी को भी नहीं परन्तु उनमें भगदड़ मच गयी और हमलावर अपनी जान बचाकर भागे। उसके अपहरण का प्रयास विफल हो गया।

इस अपहरण काण्ड की बड़ी भर्त्थसना हुयी। काफी प्रचार मिला न्यूज पेपर और टी वी पर काफी कवरेज मिली और मनोज पांडे पर हुये हमले से जोड़कर देखा गया। उसने एस.पी. साहेब को रिपोर्ट किया। उनके आदेश पर सपना की शिकायत विस्तृत रूप से ठाकुर साहेब के विरूद्ध दर्ज की गई. सपना ने महिला संगठनों से भी अपनी गुहार लगाई और उनका प्रतिनिधि मंडल भी मिलने को आया। उसने ठाकुर बलदेव सिंह पर एक्शन लेने की मॉंग की। इस काण्ड की गुंज विधानसभा में भी हुयी और अपने हित को देखते हुये विधायक प्रकाश मिश्रा ने जॉंच की मॉंग की। आखिर में स्थानीय थाने के पदाधिकारियों को तबादला किया गया और उसकी सुरक्षा के लिये दो आर्मस पुलिस कान्सटेबल तैनात किये गये। रामसिंह के हत्यारे और अपहरणकर्Ÿााओं की गिरफ्तारी के प्रयास तेज हो गये। दोनों काण्डों की वजह से ठाकुर बलदेव राजसिंह की काफी बदनामी हो रही थी और सारे फसाद की जड़ ठाकुर साहेब को माना जा रहा थां। उन पर संदेह गहराता जा रहा था और पूॅंछ-तॉंछ का सिलसिला ठाकुर साहेब तक पहुंच गया।

अपहरण की खबर सुन कर मनोज इलाहाबाद से आ गया और उसने सपना को ज्वाइन कर लिया। परन्तु कमान सपना के हाथ में ही थी। दोनों ने गॉंव का घर छोड़ कर लालगंज ही रहने का निर्णय किया, आफिस क्या एक छोटा मकान ही था, जिसमें रहने योग्य सारी सुविधायें थी। उन्होनें मॉं को भी साथ रखा और गॉंव का मकान बन्द कर दिया फिलहाल के लिये। मनोज के आ जाने से सपना को काफी बल मिला। मनोज डरते-डरते भयमुक्त हो चुका था। निमार्ण कार्य पुनः गति पकड़ चुका था।

उधर ठाकुर साहेब अपहरण की असफलता से निराश थे और उनका मनोबल गिर चुका था। उनकी बदनामी चरम पर थी। नये पुलिस अधिकारी कई बार उनसे पूॅंछ-तॉंछ कर चुके परन्तु कोई सूत्र गिरफ्तारी का हाथ नहीं लग रहा था। महिला संगठनों का धरना प्रदर्शन उन्हें गिरफ्तार करने के लिऐ जारी था। सपना को दो पुलिस गार्ड मिल जाने के कारण उसकी टीम के हौसले बुलन्द थे। ठाकुर साहेब पूरी तरह से संदेह के जाल में घिर चुके थे। इस कारण वे किसी नये आक्रमण से परहेज कर रहे थे। वे विवश और मायूस थे। पुलिस द्वारा किसी को गिरफ्तार न कर पाने की असफलता से प्रशासन परेशान था और उसका दबाब पुलिस अधिकारियों पर बढ़ता जा रहा था।

जीप के इन्सूरेन्श के पैसे मिलने से नई जीप आ गयी थी। काम दुगनी गति से चलने लगा था और समय से पूर्व सामप्त हो जाने की उम्मीद हो गई थी। सरकारी अधिकारी जो भी, जितना भी मिल जाता था उसी से संतुष्ट थे और निर्माण कार्य के बिल आसानी से पास हो रहे थे और भुगतान हो रहे थे। इस कारण भी कार्य में पैसे की भी कमी नहीं आ पा रही थी। इस प्रोजेक्ट से लाभ मिलने की उम्मीद की जा रही थी। परन्तु क्या वे ऐसा ही काम दोबारा कर पायेगें? ये प्रश्नचिन्ह उन दोनों के चेहरे पर अटका था। दोनों नई सम्भावनाओं की तलाश में भी थे।