छद्म / रणविजय

Gadya Kosh से
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विजयराजन इंटरव्यू बोर्ड के चेयरपरसन थे। रंजीत दत्त का इंटरव्यू अभी ख़त्म हुआ है। बोर्ड के सदस्य संतुष्ट थे और चयन हेतु वे अनुशंसा देना चाहते थे। विजयराजन कुछ विचार में थे जैसे कहीं कुछ छूट गया हो। बोर्ड के अन्य दोनों सदस्य उनका उत्सुकतावश मुँह देख रहे थे। ऐसा नहीं था कि ये एस.बी.आई. में पी.ओ. पोस्ट का पहला इंटरव्यू हो। कई दिनों से यह सिलसिला चल ही रहा था। इस गर्भवत मौन का कोई कारण समझ में नहीं आ रहा था। छत की तरफ़ से निगाहें हटाते हुए वे एक-एक कर दोनों सदस्यों की तरफ़ घूमे जो उनकी दोनों तरफ़ बैठे हुए थे और एक विचार की तरह उछाल दिया- “कंडीडेट पैदा कोलकाता में हुआ। माँ-बाप बंगाली हैं, आरम्भ में कोलकाता से पढ़ा, 10वीं, 12वीं उत्तर प्रदेश में हुई, फ़िर ग्रेजुएशन कोलकाता में। अँग्रेजी बोलने का लहजा बंगाली बिलकुल नहीं है। बोलचाल बंगाली नहीं है। माँ-बाप व्यवसायी हैं। 12वीं के बाद 4-5 साल का गैप है। फ़िर ग्रेजुएशन किया। एक्सीडेंट की वजह से समय से ग्रेजुएशन नहीं कर सका। साधारण ग्रेजुएट और एस.बी.आई.पी.ओ. परीक्षा में असाधारण अंक। पता नहीं क्यों थोड़ा संशय पैदा होता है।” बोर्ड के दोनों सदस्यों ने एक-दूसरे का मुँह विस्मय से देखा। फ़िर हेमंत देशपांडे जी ने प्रतिरोध स्वरूप कुछ बोला- “सर, आपकी बात ठीक लगती है परंतु हमारा काम क्या है? मार्कशीट, आइडेंटिटी, सर्टिफिकेट पहले ही सत्यापित किया जा चुका है। हमारा कार्य इंटरव्यू लेना था। कंडीडेट ने इंटरव्यू में अच्छा परफॉर्म किया, हमारा काम अनुशंसा देना है बाक़ी कार्य एच.आर. डिपार्टमेंट को करने दीजिए।” दूसरे सदस्य ने बीच-बीच में सिर हिलाते हुए ऐसे ही हामी भरी। विजयराजन बंगाल क्षेत्र में नौकरी कर आये थे। उन्हें पता नहीं क्यूँ , कुछ खटक रहा था। इंटरव्यू बोर्ड के चेयरपरसन वही थे सो निर्णय उन्हें ही लिखना था। दोनों सदस्यों की आपत्ति के बावजूद उन्होंने उस पर निर्णय तत्काल नहीं लिखा। कहीं-न-कहीं उनके अंतर्मन में कुछ उलझा हुआ था। वे संस्था के बहुत ज़िम्मेदार और क़ाबिल अधिकारी थे। वे केवल ड्यूटी की खानापूर्ति में यक़ीन नहीं रखते थे, बल्कि संस्था के हितों का पूरा ध्यान रखकर काम करते थे, चाहे वह प्रत्यक्ष रूप से दिखे अथवा नहीं।

दिन ख़त्म होने के बाद, उन्होंने अपने दोनों सदस्यों से इस कंडीडेट जिसका नाम रंजीत दत्त था, उसके बारे में पुनः चर्चा की। आज के सारे इंटरव्यू ख़त्म हो चुके थे। अब परिणाम शीट जमा करनी थी। विजयराजन ने अपनी संस्तुति दर्ज की ‘रिकमेंडेड, बट बायो डाटा एँड रिकॉर्ड टू बी वेरिफाइड वंस मोर, डिलिजेंटली’। फ़िर मुस्कराते हुए फाइल डोजियर उनकी तरफ़ बढ़ा दिया- “आप दोनों लोगों की बात मैंने मान ली है और थोड़ा अपने मन की भी कर ली है”। सदस्यों ने पढ़ा और एक फीकी-अकारण-सी हँसी में सहमति व्यक्त किया, “ठीक है सर।”

राम कृष्ण मिशन हाईस्कूल की प्रधानाध्यापिका के कक्ष में शोर-शराबा बढ़ता जा रहा था। अचानक जैसे पूरा स्कूल उधर ही भागा चला आ रहा था। अध्यापक लोग सभी बच्चों को भगा रहे थे। बहुत सारे पुलिसवाले स्कूल में जीप में भरकर आये थे। उनमें से कुछ लोग मध्य प्रदेश पुलिस के थे। बाक़ी लोग लोकल थाने से आये थे। उनको वहाँ के गणित अध्यापक रंजीत दत्त की गिरफ्तारी करनी थी। रंजीत दत्त ने भागने का कोई प्रयास नहीं किया। भागने की गुंजाइश नहीं थी, इसलिए प्रयास बेकार था। उसका चेहरा निर्विकार था। वह संज्ञाशून्य था। पुलिस इंस्पेक्टर ने प्रधानाध्यपिका मिस बैनर्जी से जो भी कहा उस पर उनको दूर-दूर तक विश्वास नहीं हुआ।

उन्होंने इंस्पेक्टर से विरोध दर्ज किया। वहाँ के अन्य स्टाफ ने भी एक सुर में प्रतिवाद किया। पुलिस पर वैसे भी जनता का भरोसा कम रहता है। मिस बैनर्जी ने बताया कि रंजीत दत्त पिछले 4 वर्षों से यहाँ बच्चों को पढ़ा रहे हैं। आज तक उन्होंने किसी से भी असभ्यता से बात नहीं की। स्कूल छात्रों के बीच वह बहुत प्रसिद्ध अध्यापक हैं। वे बिना नागा प्रतिदिन स्कूल आते हैं, देर तक स्कूल में रहते हैं। स्कूल की सभी गतिविधियों में सक्रिय भाग लेते हैं। पुलिस बिना तसदीक किये उन पर इल्ज़ाम लगा रही है। पुलिस इंस्पेक्टर ने मिस बैनर्जी को भरोसा दिया कि उसको ऊपर से ऑर्डर है कि रंजीत दत्त को गिरफ्तार कर मध्य प्रदेश पुलिस के हवाले कर दिया जाये। यदि कोई ग़लतफहमी है तो शीघ्र ही रंजीत जी वापस आ जायेंगे। मिस बैनर्जी ने फ़ोन से सहजानंद को इस बारे में सूचित किया, क्योंकि मठ के स्वामी सहजानंद जी ने ही रंजीत को इस स्कूल में गणित के अध्यापक पद पर लगवाया था।

रंजीत ने जानना चाहा कि उस पर अभियोग क्या है? उसे बेहद संक्षिप्त में बताया गया कि 420 का केस है, सरकारी दफ़्तर में फ़र्ज़ी दस्तावेज जमा करने का। वहाँ मौजूद व्यक्तियों को मध्य प्रदेश पुलिस कनेक्शन समझ में नहीं आया। रंजीत को पुलिस जीप में लेकर चली गयी। स्कूल में हलचल बनी रही।

बच्चे इधर-उधर घूम रहे हैं। किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा है। अध्यापक एवं अध्यापिकाएँ प्रिंसिपल के कक्ष में सदमे में बैठे हुए हैं। कोई प्रतिक्रिया नहीं दे पा रहा है। यह त्रासद था। रंजीत मठ में किराए पर अकेला रहता था। उसके घरवालों के बारे में किसी को पता नहीं था। कार्यालय में उसका पता मठ का ही दर्ज था। उसके अनुसार, उसके माँ-बाप की दुर्घटना में मृत्यु हो चुकी थी। उसका इलाज रामकृष्ण मिशन मठ के अस्पताल में ही हुआ और उसे नया जीवनदान मिला। इस कारण उस जीवन में वह मठ की सेवा करके ऋणमुक्त होना चाहता था।

कोलकाता पुलिस ने मध्य प्रदेश पुलिस को रंजीत को हैंडओवर कर दिया। कुछ दिनों पश्चात् रात लगभग 9 बजे देशपांडे ने विजयराजन को फ़ोन पर सूचित किया- “जिस कंडीडेट पर आप इंटरव्यू में डाउट कर रहे थे, बिलकुल सही निकला। आप बड़े पारखी हैं सर!”

“अरे... कौन-सा ... देशपांडे?” विजयराजन उत्सुकता रोक न पाये।

“सर, टी.वी. न्यूज पर देखिये, आजतक चैनल पर। वह तो बहुत ख़तरनाक निकला।” इतना सुनते-सुनते विजयराजन अपने बेडरूम में पहुँच गये और न्यूज लगाने लगे। आजतक पर रंजीत से सम्बन्धित पुलिस द्वारा ख़ुलासा कवर किया गया था। पूरी घटना का विवरण उसमें लगातार फ्लैश हो रहा था।

रंजीत दत्त का असली नाम अभिषेक जोशी है। उसके पिता का नाम राजेंद्र प्रताप जोशी है, वे उत्तर प्रदेश के आई.ए.एस. सेवा के अधिकारी थे और 2015 में प्रमुख सचिव गृह के पद से रिटायर हुए। बहुत समय तक वे गृह मंत्रालय विभाग में रहे, पहले सचिव, बाद में प्रमुख सचिव। अभिषेक जोशी एक इंजीनियर है, जो बेपरवाह तरीके से ज़िन्दगी जीने का आदी था। उसने अपने पिता के प्रभाव से इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की और बाद में टी.सी.एस. लखनऊ में जॉब करने लगा। टी.सी.एस. ऑफिस के द्वारा भी उसे काफ़ी छूट दी हुई थी, वह अपने मनमर्जी मुताबिक काम करता था। माँ-बाप का वह इकलौता बेटा था, इसलिए दुलारा था। उसका सामाजिक सर्किल पूरे उत्तर प्रदेश तथा दिल्ली में फैला हुआ था। वह यारों का यार माना जाता था। शानदार पार्टियाँ करना, शराब, शबाब पर पैसे लुटाना, इक्जोटिक जगहों पर घूमना उसका शौक था। उसकी लम्बी महफिलों में भारतीय तथा विदेशी दोनों शामिल होते थे। क्योंकि उसके पिता आई.ए.एस. संवर्ग के अधिकारी थे इसलिए सरकारी कार्यालयों में उसका रसूख था और विदेशी लोग भी शीघ्र ही उस पर विश्वास कर लेते थे।

13 मई, 2008 को अभिषेक जोशी एक यू.के. सिटिजन नैंसी के साथ पंचमढ़ी घूमने गया। पंचमढ़ी मध्य प्रदेश का एक छोटा-मोटा हिल स्टेशन है, बेहद शांत जगह। वहाँ वे एक शानदार होटल में अगल-बगल के दो कमरों में रुके। उनका वक़्त वहाँ के झरनों के किनारे दिन-भर आराम करने, शराब पीने और खाने-पीने में गुजर रहा था। 14 मई की रात उन्होंने रोज़ की तरह फ़िर पिया और डिस्को में देर तक नाचते रहे। उसके बाद दोनों नैंसी के रूम पर आ गये। नैंसी काफ़ी दिनों से अभिषेक के साथ घूम रही थी। वे पहले दिल्ली घूमे, पर गर्मी अधिक होने के कारण पंचमढ़ी आ गये थे। अभिषेक ने रात 10 बजे लगभग ड्रिंक्स और खाना रूम सर्विस पर ऑर्डर किया।

15 मई को सुबह लगभग 10 बजे बहुत जोर-जोर से चीखने की आवाजें सुनाई देने लगीं। नैंसी, अभिषेक को मार रही थी और गाली बक रही थी। होटल का सारा स्टाफ इकट्ठा हो गया। अभिषेक थोड़ी देर सहता रहा, फ़िर अपना तमाशा बनते देख वह भी उसको मारने लगा। पहले तो दोनों अँग्रेजी में गालियाँ दे रहे थे, परंतु धीर-धीरे अभिषेक हिन्दी की भद्दी-भद्दी गालियाँ देने लगा। गाली-गलौज अभियोग-प्रत्याभियोग का तात्पर्य कुछ इस तरह निकल रहा था कि वह उसके साथ कई दिनों से घूम रही है। दोनों साथ-साथ रहते हैं, खाते-पीते हैं एक-दूसरे को बाँहों में लेकर चूमते हैं। इस सारी घुमाई का ख़र्चा अभिषेक दे रहा है। अब ज़रा सेक्स हो गया तो इतना हंगामा क्यों? इसमें ऐसी कौन-सी नई बात हो गयी या अपराध कैसे हो गया। होटल मैनेजर ने अपना स्टाफ लगाकर दोनों को अलग कराया। इस मारपीट में काफ़ी तोड़-फोड़ हुआ और फर्नीचर, क्रॉकरी का नुक़सान हुआ। इसके अतिरिक्त होटल में ठहरे हुए अन्य मेहमानों को असुविधा हुई। उसने पुलिस को सूचित कर दिया था। पंचमढ़ी का सबसे बढ़िया होटल होने के नाते पुलिस में भी प्रभाव था। फ़ौरन ही पुलिस आ गयी और उन दोनों को लाकर अलग-अलग नीचे बैठा लिया। नैंसी ने अपने एम्बैसी में फ़ोन किया। अभिषेक ने अपने पिता को फ़ोन किया। उनके पुलिस स्टेशन तक पहुँचते-पहुँचते दोनों तरफ़ से तरह-तरह के प्रेशर, सिफारिशें शुरू हो गयीं। रिपोर्ट कोई दर्ज नहीं हुई। थोड़ी ही देर में जिले के एस.पी. को थाने पर आना पड़ा। मामला क्योंकि एक विदेशी नागरिक से जुड़ा था, वह भी यू.के. जैसे देश का, इसलिए देश का विदेश मंत्रालय विभाग हरकत में आ चुका था। नैंसी को तथा अभिषेक को मेडिकल चेकअप के लिए भेजा गया। रिपोर्ट्स आने के पश्चात् अभिषेक पर विदेशी नागरिक को नशा देकर बलात्कार का मुकदमा दर्ज किया गया और उसे गिरफ्तार कर लिया गया।

अभिषेक कई दिनों तक गिरफ्तार रहा। उसके पिता की पैरवी से जेल के अंदर उसको खाना-पीना अच्छा मिलता रहा। काफ़ी प्रयास करने के बाद उसको मार्च 2009 में राजेंद्र प्रताप जोशी, 15 दिनों के लिए पैरोल पर छुड़ा के ले आये। इन्हीं 15 दिनों के अंदर गोमती पुल पर सुबह के 5.30 बजे, एक रोड एक्सीडेंट हुआ, जिसको कई लोगों ने देखा। उसमें राजेंद्र प्रताप जोशी की निजी कार, चालक सहित नदी में गिर गयी और कई दिनों तक पुलिस की तलाश चलती रही। कार तुरन्त बरामद हो गयी, बाद में सड़ी-गली अवस्था में लाश भी बरामद हो गयी, गोमती नदी से 50 किलोमीटर आगे। गोमती नगर लखनऊ थाने ने रिपोर्ट दर्ज कर केस क्लोज किया। अभिषेक जोशी पुत्र राजेंद्र प्रताप जोशी, रैश ड्राइविंग में मृत पाये गये।

राजेंद्र प्रताप जोशी का पुराना और गहरा सम्बन्ध कोलकाता के रामकृष्ण मिशन और बेलूर मठ से रहा। वे उसके सक्रिय सदस्य थे तथा उसकी कार्यकारिणी में गहरी पैठ रखने वाले थे। अभिषेक को मृत दिखाने का यह स्वाँग उन्होंने अपने रसूख की बदौलत हासिल किया। क्योंकि वे पुलिस महकमे में यानी गृह विभाग के ही सचिव थे, इसलिए इन्होंने ये सारी सेटिंग गोमती नगर थाना इंचार्ज से करवायी। अभिषेक को रातों-रात जनरल डिब्बे में बिठाकर कोलकाता रवाना कर दिया गया था और एक एक्सीडेंट प्लान किया गया था।

मठ में पहुँचने पर जोशी के गुरु और मित्र स्वामी सहजानंद ने आश्रम में उसको पनाह दे दी। वहाँ वह हजारों लोगों की भीड़ में सामान्य व्यक्ति बन गया। जहाँ वह साधारण श्रद्धालुओं की भाँति रहने लगा। एक दिन वह एक ऊँची दीवार से उछल गया, जिससे ऐसा प्रतीत हो कि वह गिर गया है। उसकी एक टाँग में फ्रैक्चर हो गया। माथे एवं मुँह पर चोट के निशान आ गये। उसको सहजानंद ने मिशन के ही अस्पताल में भर्ती करवाया तथा अपनी देख-रेख में उसका इलाज करवाया। अस्पताल में उसका नाम रंजीत दत्त पुत्र श्री प्रभास रंजन दत्त लिखवाया गया। उसके दो टाँके लगे तथा पैरों में प्लास्टर लगा। जब वह ठीक होकर लौटा तो उसका हुलिया बदल चुका था। अब वह क्लीन शेव के बजाय मूँछों एवं हल्की दाढ़ी में रहने लगा था। उसके चेहरे पर दो जगह टाँकों के निशान बने हुए थे और फ्रैक्चर की वजह से उसकी चाल में भी बदलाव आ गया था।

सहजानंद के प्रभाव से उसको एक प्रश्रय मिल गया। मठ की तरफ़ से उसको आइडेंटिटी कार्ड जारी हुआ और वह वहाँ की रसोई में सहयोगी की भाँति कार्य करने लगा। कभी-कभी माँ-बाप जब मठ आते तो उनसे मिलना-जुलना हो जाता। धीरे-धीरे उसने अपना वोटर आईडी कार्ड तथा आधार कार्ड भी बनवा लिया। अब उसकी पहचान पक्की हो गयी। 3 वर्षों तक मठ में काम करने के पश्चात् उसने मिशन के महाविद्यालय में बी.ए. में एडमिशन लिया और 2012-2015 के बीच अपनी मेहनत से बी.ए. फर्स्ट डिवीजन में पास किया। उसके पिता ने यू.पी. बोर्ड की उसकी 10वीं, 12वीं की मार्कशीट जाली बनवा दी, जिसमें रोल नम्बर वगैरह इत्यादि सब सही था, बस केवल नाम, बाप का नाम, पता, इत्यादि बदल दिया गया।

बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के पश्चात् उसको एक परमानेंट सेटलमेंट की दरकार थी। पुलिस के चंगुल से अब वह निकल चुका है, इसका लगभग उसको यक़ीन था। उसने इसी दरम्यान एस.बी.आई. की पी.ओ. की भर्ती के लिए फॉर्म भर दिया। उसने लिखित परीक्षा पास कर ली थी। उसका इंटरव्यू कॉल आ गया। इंटरव्यू चेन्नई में होना था। 10वीं और 12वीं के अंकपत्रों तथा प्रमाण-पत्रों का सत्यापन पत्र जब इलाहाबाद यू.पी. बोर्ड कार्यालय में आना था, तभी राजेंद्र जोशी ने वहाँ एक सम्बन्धित कार्यालय अधीक्षक को बुलाकर अपने एक परिचित का बताकर उसको प्रमाणित कर देने को कहा था। राजेंद्र जोशी इलाहाबाद में भी ज़िला मजिस्ट्रेट के पद पर रह चुके थे, इसलिए वहाँ व्यवस्था में उनके कई चेले थे, जो इस तरह का रूटीन कार्य चुटकियों में कर देते थे। प्रमाण-पत्रों का सत्यापन वास्तव में एक रूटीन कार्य है। सरकारी तथा अर्द्ध-सरकारी नौकरियों की प्रतिस्पर्धा में भाग लेने वाले कंडीडेट कभी भी ग़लत अथवा जाली अंक-पत्र या प्रमाण-पत्र नहीं जमा करते, क्योंकि सरकारी नौकरी तो बाद में भी फ़र्ज़ी दस्तावेज पाये जाने पर जा सकती है।

जब विजयराजन की संस्तुति पर रंजीत दत्त का अंकपत्र एवं प्रमाण-पत्र विशेष रूप से जाँच के लिए इलाहाबाद आया तो यह रूटीन कार्य नहीं था। इस बार केस की जाँच गहनता से हुई। जाँच में दस्तावेज जाली निकले। रोल नम्बर के वास्तविक अंक-पत्र एवं प्रमाण-पत्र अभिषेक जोशी के थे। उसकी जाँच रिपोर्ट भेज दी गयी। यह सूचना एस.बी.आई. के भर्ती अनुभाग के लिए एक बड़ा झटका था। जाली दस्तावेज जमा करने के संदर्भ में चेन्नई में लोकल थाने में एस.बी.आई. द्वारा सूचना दी गयी। अर्द्ध-सरकारी संस्था से ऐसी सूचना आने पर आई.पी.सी. 420, 468 में थाने ने मुकदमा दर्ज कर लिया। इनवेस्टिगेशन ऑफिसर द्वारा मामले की जाँच शुरू की गयी और इसी सिलसिले में वह लखनऊ आया, जहाँ से उसे अभिषेक जोशी के पास्ट के बारे में पता चला। गोमती नगर थाने पर रिकॉर्ड देखने से शक की सूई आगे बढ़ी कि लाश शिनाख्त लायक नहीं थी और परिस्थितियों के अनुसार उसकी शिनाख्त राजेंद्र प्रताप जोशी ने ही की थी। शक की खाई गहराने लगी, परंतु अगली जाँच दुरूह थी। प्रथम तो बिना मुल्जिम को पता लगे, जाँच की जानी थी, द्वितीय कि मिशन के मठ जैसे धार्मिक स्थल पर की जानी थी जो संवेदनशील हो सकता था। इसलिए पुलिस विभाग ने इसकी विस्तृत जाँच के लिए मामले को खुफिया विभाग को सौंप दिया।

तमिलनाडु के खुफिया विभाग ने प। बंगाल के खुफिया विभाग से तालमेल बिठाया और मठ के अंदर अपने सूत्रों को सूचना एकत्रित करने को लगाया। जैसे-जैसे सूचनाएँ आती गयीं वैसे-वैसे एक-एक तार जुड़ते चले गये। जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण सूचना रंजीत उर्फ अभिषेक का मठ में प्रवेश तिथि तथा अस्पताल में इलाज था।

पूरा समाचार देख लेने के पश्चात् विजयराजन का सीना गर्व से फूल गया। आँखों में सफलता की चमक कौंधने लगी। वे पुनः फ़ोन उठाकर देशपांडे को फ़ोन लगाने लगे। असली व्याख्या अब जो होनी थी।