छायारूप / ओम थानवी

Gadya Kosh से
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अज्ञेय को अज्ञेय नाम पसंद नहीं था। जीवन के अंतिम वर्षों तक वे कहते रहे कि यह 'ओढ़ा हुआ' नाम है। उनके हाथ से जो पांडुलिपि तैयार हुई, हरेक पर 'अज्ञेय' लिखा रहता था। मुझे उनकी कुछ किताबें उन्हीं के हाथों भेंटस्वरूप पाने का पाने का सौभग्य मिला है। उन सब पर 'अज्ञेय' ही लिखा है। उद्धरण-चिह्न में। उन्हें फोन पर पूछा जाता कि अज्ञेय जी हैं, तो जवाब होता: नहीं, मैं वात्स्यायन बोल रहा हूँ! यह उनकी चुहल होती थी। वे अपने रचनाकार रूप का नाम 'अज्ञेय' स्वीकार कर चुके थे, लेकिन व्यक्ति के नाते सच्चिदानंद वात्स्यायन थे! इतना ही नहीं, कविता-कथा यानी रची हुई कृति तो 'अज्ञेय' नाम से छपवाते थे; पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखे लेख, विचार-मंथन या आलोचना आदि सब असल नाम से।

लेकिन यह भी सच है कि उपनाम ने उनके जीते-जी हिन्दी समाज में असल नाम की प्रतिष्ठा पा ली थी। उनके उद्धरण-चिह्न देखते-न-देखते निरर्थक हो गए.

अब यह बात जगजाहिर है कि किस तरह विकट परिस्थिति में यह नाम उनके पल्ले अनचाहे आ पड़ा। दिल्ली जेल (1930-1933) में लिखी 'साढ़े सात कहानियाँ' वात्स्यायन जी ने वहीं से जैनेंद्र कुमार को भिजवाई, आगे जागरण और विशाल भारत के संपादक प्रेमचंद ओर बनारसीदास चतुर्वेदी को पहुँचाने के लिए. प्रेमचंद को दो राजनीतिक कहानियाँ पसंद आई. पर उन पर कोई नाम नहीं था। पहले उन्हें संशय हुआ कि अनाम कहानियाँ कहीं खुद जैनेंद्र जी की न हों। उन्होंने पूछा तो जैनेंद्र जी ने लेखक का नाम 'अज्ञेय' बताया, यानी लेखक ऐसी परिस्थिति में नहीं है कि नाम उजागर किया जा सके. बाद में प्रेमचंद ने ही निर्णय किया कि लेखक की जगह 'अज्ञेय' नाम लिख दिया जाए और 'अमरवल्लरी' कहानी उन्होंने जागरण में इस 'नाम' से प्रकाशित कर दी।

लेकिन कोई तीन दशक पहले, 1981 में, दिल्ली में मुझे अपने घर के 'जंगल' की सैर कराते हुए अज्ञेय जी ने जब बड़े सहज भाव से कहा कि ऐसा 'बेहूदा' नाम वे खुद कभी न रखते, बल्कि किसी तरह का उपनाम ही न रखते तो मैं चौंक गया था।

वह उनका कैवेंटर्स ईस्ट वाला घर था। छह साल बाद वहीं उनका प्रयाण हुआ। कभी इला डालमिया के पिता रामकृष्ण डालमिया का उद्यम रही कैवेंटर्स के आमने-सामने बने दो बँगलों में यह पूर्वी ठिकाना उजड़ी जायदाद की दास्तान आप कहता था। मगर वात्स्यायन जी ने इसमें एक तरतीब ढूँढ़ ली थी। बागवानी में वे सिद्धहस्त थे। यह लगाव उन्हें विरासत में पिता से मिला था। उस घर में आगे उन्होंने एक खूबसूरत बगीचा विकसित किया। पर पीछे का हिस्सा निपट उजाड़ रहने दिया।

'उस तरफ जाने की इजाजत हर किसी को नहीं होती' , कुछ चंचल मुद्रा में मुझ नाकुछ को जैसे विशिष्टता का अनुभव करते हुए उन्होंने कहा। इशारा उठने का था।

उनकी पसंदीदा दार्जिलिंग चाय की महक तब तक मेरे 'सौंदर्य-बोध' का हिस्सा नहीं बनी थी। उसे उसी साँस में सुड़ककर मैं उठ खड़ा हुआ। उनकी नजर पैनी थी। उठाते हुए प्याली को निहारकर बोले, आप चाय पीते हैं या दूध! मुझे सवाल तत्काल समझ में नहीं आया। या, कहना चाहिए, उनके मजाकिया स्वभाव का अभ्यस्त नहीं हुआ था। बाद में समझा कि अच्छी चाय का दूध और चीनी से दुश्मनी का नाता होता है। बहरहाल, हम बगीचे से निकले और घर के बाएँ खड़ी दो कोरों एक फिएट, दूसरी एंबेसडर की बगल से होते हुए पिछवाड़े के जंगल में प्रवेश कर गए.

वह सचमुच छोटा-मोटा जंगल ही था। दिल्ली के बीचोबीच किसी घर की चारदीवारी में ऐसा नजारा मेरे लिए तब भी अजूबा था, आज भी है। अलसाए पेड़, बेतरतीब झाड़-झंखाड़। घर के सामने तराशे हुए बगीचे में तो अजीब-सी चुप्पी थी, पर इस जंगल का सन्नाटा मोहक था और सुनाई पड़ता था। जैसे 'अज्ञेय' के व्यक्तित्व के दो रूपों की छाया हो। दो चेहरों की तरह घर का आगा-पीछा उन्होंने दो नितांत भिन्न ध्रुवों पर रच रख था। जिस तरह अपने रूपों को वे चाव से जी लेते थे, वनस्पतियों की यह दूरी भी चाव से पाटे रखते थे। पर उनका मन शायद पीछे के एकांत में ज़्यादा रमता था!

उस सन्नाटे को अचानक पक्षियों की चहचहाहट वेधती और फिर जैसे उसी सन्नाटे में विलीन हो जाती। प्रकृति पर अज्ञेय की हजार कविताएँ होंगी, पर उनके घर में प्रकृति-प्रेम का वह जीता-जागता रूपकार मेरे दिलोदिमाग पर आज भी ज्यों-का-त्यों छाया है।

उसी वनप्रांतर में उन्होंने अपने नाम को हल्के अंदाज में बेहूदा कहा और मैं चौंका। दरअसल, उनका नाम यानी उपनाम जेहन में इस तरह जम चुका था कि उस पर सोचने की कभी ज़रूरत महसूस नहीं हुई थी। नामों-उपनामों के साथ अक्सर ऐसा ही होता है। उनमें अर्थ कौन ढूँढ़ता है? लेकिन जब उन्होंने 'अज्ञेय' नामकरण की दास्तान जो मुझे तब ज्ञात न थी सुनाई तो उनका तंज भी समझ में आया।

अज्ञेय: जिसे कभी जाना न ज सके. पर अभिव्यक्ति में रत जो लेखक, हमेशा संप्रेषणीयता की वकालत करता आया हो, अपने आप को अज्ञेय कैसे कह सकता है! भले उनके विरोधी उन्हें अहंवादी करार देते रहे हों, अज्ञेय अत्यंत विनम्र और सहज थे। एकांत और निजता की चाह रखने वाला हमेशा अहंकारी नहीं होता। अपने साहित्य में वे 'अहं के विलय' की बात करते थे और तो और वे आत्मकथा-लेखन को भी 'अहंकारी उद्यम' मानते थे। अपने जीवन को कोई इतना अहम क्यों माने कि उसकी दास्तान दूसरों को सुनाने लगे। फिर वे कहते थे आत्मकथाएँ सच को बयान करने के लिए कम, छुपाने के लिए ज़्यादा लिखी जाती हैं।

जाहिर है, ऐसे व्यक्ति के लिए अपने आप को अज्ञेय कहना ज़्यादा अहंवादी ही अनुभव होता, जो कि वे नहीं थे। फिर प्रयोगशीलता की मानसिकता में 'अनपुजी परती तोड़ने वाला' घोर आधुनिक रचनाकार पीछे छूट गई शैली में अपना उपनाम धरता ही क्यों! जो हो, 'अज्ञेय' नाम वात्स्यायन जी को जँचा नहीं। पर हिन्दी और हिंदीतर समाज के लिए वह उनके नाम का अभिन्न हिस्सा बनता चला गया और खुद लेखक के लिए सदा उद्धरण-चिह्न में दुबका एक उपनाम!

लेकिन वात्स्यायन जी के यहाँ उनके नाम-उपनाम या जैनेंद्र-प्रेमचंद वाला प्रसंग छिड़ा कैसे?

उस शाम वत्सल निधि का एक खास आयोजन था। त्रिवेणी सभागार में अज्ञेय के पिता हीरानंद शास्त्री की स्मृति में स्थापित व्याख्यानमाला का पहला कार्यक्रम। गोविंदचंद्र पांडे 'भारतीय संस्कृति के मूल स्वर' पर बोलने वाले थे। जैनेंद्र कुमार को अध्यक्षता करनी थी। मैं इसी कार्यक्रम के लिए जयपुर से आया था। कैवेंटर्स ईस्ट में उमंग का माहौल था। इला जी खुद मंच की सजावट का सामान जुटाने-संवारने में लगी थीं।

वात्स्यायन जी ने मेरा जिम्मा जैनेंद्र जी को उनके दरियागंज के घर से मंडी हाउस लिवाने में लगाया। विनोदी अंदाज में यह कहते हुए कि टैक्सी का खर्च याद से हमें देना होगा, 'इस मामले में जैनेंद्र जी शुरू से अल्पव्ययी हैं!' और इसी के आगे-पीछे जैनेंद्र जी से उनके आधी सदी से ऊपर के सम्बंध की बात निकली। कैसे संभव था कि जैनेंद्र के हाथों 'अज्ञेय' बन जाने की हुड़क उनकी जबान पर न चढ़ आती?

दरियागंज की एक गली में जैनेंद्र जी रहते थे। उसी घर में कभी अज्ञेय और प्रेमचंद की पहली मुलाकात हुई थी। सामने ही कहीं कुछ समय के लिए वात्स्यायन जी ने भी यहीं पर घर लिया था। जैनेंद्र जी को लेकर गद्गद भाव से हम त्रिवेणी की ओर रवाना हुए तो पाया कि वे चुप के लिए मशहूर अज्ञेय से कहीं ज़्यादा चुप्पे हैं। उनकी मुख-मुद्रा बेहद गंभीर थी, पर चेहरे पर उम्र की सलवटों के बीच अपनापे की रेखाएँ नुमायाँ थीं। एक और सज्जन साथ थे, जिनका नाम याद नहीं आ रहा। उन्हीं से बातचीत होती रही। पर मन में सुबह की बात घुमड़ रही थी। किसी मोड़ पर जैनेंद्र जी ने आयोजन के बारे में कुछ पूछा।

मौका देखकर मैंने कहा 'अज्ञेय' नाम तो आपका ही दिया हुआ है? उन्होंने सहज भाव से कहा हाँ, मैंने 'ये और वे' में इस प्रसंग का उल्लेख किया है। वे चुप लगा गए. उनकी चुप्पी को मैंने यों समझा कि बाकी वहाँ पढ़ो!

कहना मुश्किल है, जैनेंद्र जी को यह मालूम था या नहीं कि 'अज्ञेय' की अपूर्व लोकप्रियता के बावजूद 'अज्ञेय जी' की 'अज्ञेय' के बारे में कमोबेश वही राय है, जो पचास साल पहले उन्होंने जैनेंद्र जी को 'वितृष्णा' के साथ व्यक्त की थी!

अज्ञेय को पहले-पहल मैंने सितंबर 1972 में बीकानेर प्रौढ़ शिक्षण समिति की एक संगोष्ठी में देखा। नामवर सिंह और महावीर दाधीच से अविचलित उलझते हुए. समिति ने समकालीन हिन्दी कविता पर एक परिसंवाद आयोजित किया था। उसकी रूपरेखा नंदकिशोर आचार्य ने बनाई थी। आचार्य जी ने लड़कपन के दिनों में अज्ञेय की काव्य-तितीर्षा पुस्तक लिखी। आलोचना के नीरस और अक्सर दुराग्रही पाठ के बरक्स वह कवि-मन से कविता को समझने की ईमानदार कोशिश साबित हुई. उस एक कृति ने अज्ञेय को राजस्थान से आत्मीय रिश्ते में जोड़ दिया। हमेशा के लिए.

यों अज्ञेय पहली बार 1965 में बीकानेर आए. संभवतः राजस्थान में किसी साहित्यिक आयोजन में वह उनकी पहली यात्रा रही हो। राजस्थान साहित्य अकादमी का कोई सम्मेलन था। बताते हैं उनके साथ विद्यानिवास मिश्र, रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना भी थे। पहली ही यात्रा में देसी ठाठ के शिक्षाविद् डॉ. छगन मोहता से उनकी गहरी दोस्ती हो गई. डॉ. मोहता के आग्रह पर उन्होंने 'असाध्य वीणा' का पाठ भी किया। 1971 में वे फिर बीकानेर आए. नागरी भंडार संस्थान में उन्होंने आधुनिक भारतीय कविता पर व्याख्यान दिया। अगले साल दो यात्राएँ और। वह उस साल की दूसरी यात्रा थी, जिसमें मैंने उन्हें देखा और सुना।

फरवरी 1978 में वात्स्यायन जी नवांकुर लेखक सम्मेलन के उद्घाटन के लिए फिर बीकानेर आए. इस बार निर्मल वर्मा साथ थे। तब तक मैं छिटपुट लेखन शुरू कर चुका था और सम्मेलन के 'नवांकुर' लेखकों में शरीक था। कुछ अतिरिक्त उत्साह में जैसी-तैसी कविताएँ भी वहाँ सुना डालीं। जब चाय का वक्त हुआ तो धर्मशाला के हॉल के बाहर चौकी पर अज्ञेय बोले, आपको लिखते रहना चाहिए. उन्हें हैरानी हुई जब पता चला कि मैं वाणिज्य का विद्यार्थी हूँ। हालाँकि हैरानी की खास गुंजाइश नहीं थी, क्योंकि कॉलेज के भीतर और बाहर मैं पाठ्य सामग्री को छोड़कर सब चीजें पढ़ता था। वाणिज्य न ठीक से पढ़ा, न सीखा। हिन्दी पढ़ाने वाले संजीदा शिक्षक डॉ. आदर्श सक्सेना के कहने पर कॉलेज की पत्रिका का संपादन ज़रूर किया। अज्ञेय की कविताएँ मुझे कंठस्थ थीं। एक छोटी कविता स्कूल के जमाने से बहुत पसंद थी, जिसे उस रोज खुद उनको मैंने अपने स्वर में सुनाया: 'चुप-चाप, चुप-चाप / झरने का स्वर / हममें भर जाय ...!' तब नहीं सोचा था कि यह एक कभी न खत्म होने वाले रिश्ते की शुरुआत है।

इसके बाद उनसे दिल्ली में मिला। नंदकिशोर जी के बाबा पिता के बड़े भाई, जिन्हें राजस्थान में बड़े पिता कहते हैं। बहुत बीमार थे। एक दवा दुर्लभ थी। आचार्य जी के कहने पर दिल्ली की गाड़ी पकड़ी। वे अपेक्षया खुशनुमा दिन थे। आपातकाल उठ चुका था। अज्ञेय नवभारत टाइम्स का संपादन कर रहे थे, पूरी आजादी के साथ और अपने अंदाज में (हजारीप्रसाद द्विवेदी का निधन हुआ तो अखबार के पहले पेज पर और कोई दूसरी खबर न थी!)

मैं उनके दफ्तर पहुँचा। पहचानने में उन्हें देर नहीं लगी। कुछ लिख रहे हैं न, उन्होंने पूछा। फिर अपने निजी चिकित्सक को फोन मिलाया। उनकी गाड़ी से मैं चिकित्सक के घर पहुँचा। उन्होंने एक दुकान पर जाने को कहा। दुकानदार ने दवा की जगह वितरक का पता दिया। वितरक ने सहानुभूति से मेरी बात सुनी और एक छोटे दुकानदार को फोन कर कहा कि संकट का मामला है। जो माल भेजा है उसमें से एक डिब्बा इन्हें दे दो, कल भरपाई कर देंगे, ये सीधे आपके पास आ रहे हैं। उस दुकानदार से आखिरकार दवा मिल गई.

मुझे जैसे संजीवनी हासिल हुई. गाड़ी वापस करने अज्ञेय जी के दफ्तर पहुँचा। चश्मा उतारकर उन्होंने उस दवा के डिब्बे की इबारत पढ़ी। कोई दिक्कत तो नहीं हुई, मुझसे पूछा। उनकी कार दिन भर से मेरे पास थी, इस अपराध-बोध को थोड़ा हल्का करने की गरज से मैंने एक साँस में सारी रामकहानी सुना डाली। वे थोड़ा-सा मुस्कराए और कहा चक्कर न कटवाए तो दिल्ली क्या हुई! चलिए, काम तो हो गया। उनके चेहरे पर राहत का भाव था। जैसे दवा की ज़रूरत उन्हें रही हो! हाथ जोड़ते हुए बिदा दी। उनके इस मानवीय पहलू ने मुझे उनका और मुरीद बना दिया।

पढ़ाई पूरी कर आठवें दशक के लगते-न-लगते मैं पत्रिका समूह के साप्ताहिक इतवारी पत्रिका में काम करने जयपुर आ गया। छह महीने के भीतर समूह के भीतर समूह के संस्थापक कर्पूरचंद कुलिश ने मुझे साप्ताहिक के संपादन का जिम्मा सौंप दिया। हालाँकि संपादक के रूप में नाम नहीं छपता था, पर काम की मुझे पूरी छूट थी। मैं तब तेईस वर्ष का था। इतवारी के राजनीतिक स्वरूप में थोड़ा घालमेल करते हुए संस्कृति यानी साहित्य, कला, रंगमंच, संगीत-नृत्य, दर्शन, शिक्षा आदि की सामग्री मैंने बढ़ा दी। साप्ताहिक की बीस-बाईस हजार प्रतियाँ बिकती थीं। ज्यादातर राजस्थान में ही। लेकिन लिखने वालों में अनेक बाहर के थे। जैसे राजकिशोर, रमेशचंद्र शाह, बनवारी, पंकज आदि। रघुवीर सहाय, प्रयाग शुक्ल और वागीश कुमार सिंह स्तंभ लिखते थे, जो लंबे अरसे चले। कला-परख पर प्रयाग जी की अनूठी किताब देखना उस वक्त छपे लेखों का संकलन है।

जयपुर ने मेरे लिए दिल्ली की दूरी घटा दी। अब अज्ञेय जी से उनके घर में मिलना शुरू हुआ। सरदार पटेल मार्ग पर कैवेंटर लेन में पूरब का बँगला कैवेंटर्स ईस्ट!

दिल्ली में इतवारी पत्रिका के बहुत-से पाठक थे। पर मुझे यह जानकर ज़्यादा खुशी हुई कि अज्ञेय इतवारी बराबर पढ़ते हैं। इला डालमिया भी पढ़ती थीं। इला जी ने बाद में स्त्री-समाज की समस्याओं पर हमारे लिए एक पाक्षिक स्तंभ लिखा।

पता नहीं क्यों, 'गीर्वाणी दास' नाम से। वात्स्यायन जी ने उस स्तंभ को नाम दिया 'समांतर संसार'। मैं 'समानांतर' शब्द से ज़्यादा परिचित था, सो वही सुना। उन्होंने फौरन साफ किया कि जब समांतर हिने से काम चल सकता है तो एक अक्षर फिजूल क्यों खर्च करें! लेखन में शब्दों-अक्षरों की और कला में रंग-रेखाओं की फिजूलखर्ची उन्हें गवारा न थी।

उसी वक्त यह भी समझ आया कि महिला और स्त्री, नारी या औरत शब्द एक अर्थ के नहीं हैं। संभ्रांत स्त्री को महिला कहा जा सकता है, लेकिन पत्थर तोड़ने वाली मेहनतकश औरत को तो नहीं। सब महिलाएँ स्त्रियाँ होंगी, लेकिन सब स्त्रियों को महिला करार देना उनके साथ अन्याय होगा। शब्दों की परतों में इस तरह की आमदरफ्त वात्स्यायन जी का स्वभाव था। यह राग मेरे पिताजी में भी था। अब भी है जो 'तबीयत' के बीच तब तक उलझे रहते, जब तक पुख्ता प्रमाण न जुटा लाते कि 'तबीयत' ही सही है (हिंदी में, अरबी / उर्दू में 'तबीअत' रहता है) ।

शब्दों को लेकर अपनी मगजपच्ची का एक दिलचस्प वाकया अज्ञेय ने खुद बयान किया है। अस्पताल में भरती थे। मार्फिया का इंजेक्शन लगा था। नीम-बेहोशी में डॉक्टर की आवाज कान में पड़ी कि दर्द कैसा है? जवाब दिया-बहुत है। डॉक्टर ने फिर पूछा इंटालरेबल (असह्य) है? अज्ञेय: सीवियर (तीखा) है। डॉक्टर: क्या सहन नहीं होता? अज्ञेय: 'कहा तो, डॉक्टर कि सीवियर है। इंटालरेबल का मतलब है कि या तो चीखूँ-चिल्लाऊँ, या फिर बेहोश हो जाऊँ। आप देख रहे हैं कि होश में हूँ और सह रहा हूँ।' डॉक्टर को कोफ्त हुई. बाहर जाकर बोले कि अजीब मरीज है, दिल के दौरे में और मार्फिया के नशे में लफ्जों पर बहस करता है। किस्सा बयान कर अज्ञेय की टीप: 'क्यों न करूँ? इंटालरेबल, यानी जो सहा न जाय। सह तो रहा हूँ। भाषा के साथ आपका अन्याय भी तो सह ही रहा हूँ!'

ऐसा ही एक प्रसंग आचार्य जी बताते हैं। नवभारत टाइम्स के दिनों में, जब अज्ञेय गोल्फ लिंक्स में रहते थे, शहर में कहीं रेतीला चक्रवात आया। एक जगह तो मोटरसाइकिल उड़कर पेड़ पर जा टँगी। हक्का-बक्का हर शख्स कहता, साहब क्या तूफान था। अज्ञेय का सुधार: तूफान नहीं, घूर्णावात (वर्लविंड) रहा होगा। (राजस्थानी में इस किस्म के बवंडर के लिए 'भूतोलिया' शब्द है।)

शब्द पर उनका सोच-विचार चलता रहता था। कोई शाम नमस्कार कर विदा हुआ तो पूछते, आपको पता है प्राचीन भारत में सुबह-शाम के अभिवादन क्या थे? फिर बताते 'प्रातः स्वस्ति' और 'सायं स्वस्ति' ! शब्दों के रूढ़ प्रयोगों में भी वे संशोधन खोजते थे, मसलन मितव्ययिता की जगह सीधे मितव्यय, पूर्वाग्रह के बदले पूर्वग्रह, अपेक्षाकृत की जगह अपेक्षया। कभी-कभार जानबूझकर प्रयोगों में बाँकपन ले आते, जैसे प्रत्यक्ष या रू-ब-रू की जगह कहते अपरोक्ष!

हिंदी में अनेक शब्दों को अज्ञेय चलन में लाए. मसलन यायावर, जिजीविषा, पूर्वग्रह, लोकार्पण। लोकार्पण के लिए विमोचन कहना उन्हें निरर्थक लगता था। एक दिन बोले, पुस्तक के विमोचन (मुक्ति) की क्रिया तो छापेखाने में ही संपन्न हो जाती है! शायद 'विमोचन' के विकल्प की खोज शुरू हो चुकी थी। कुछ रोज 'संतरण' पर अटके, फिर शब्द दिया 'लोकार्पण' । आज हिन्दी में हर पुस्तक का 'लोकार्पण' होता है। भोपाल में भारत भवन के एक आयोजन समवाय-1 में अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित पूर्वग्रह के विशेषांक का 'लोकार्पण' नामवर सिंह ने किया था। अंक की प्रति पहले-पहल अज्ञेय को सौंपते हुए नामवर जी ने कहा था, यह अंक उनके हाथों में देता हूँ, जिन्होंने हमें 'पूर्वग्रह' और 'लोकार्पण' दोनों शब्द दिए हैं।

ऐसे अज्ञेय के करीब पहुँचकर लगा कि ज्ञान की एक नई खिड़की खुल गई है। बीकानेर में पिताजी से, डॉ. छगन मोहता और आचार्य जी से बहुत सीखने को मिला। जयपुर में विद्वान बहुत थे, पर किसी से इतनी घनिष्ठता कायम नहीं हुई. फिर उमंगों भरी उम्र में संपादक बन जाने से लगी गाँठ हरेक के आगे कहाँ खुलती है। यों वात्स्यायन जी खुद हरेक से नहीं खुलते थे। लेकिन जिससे खुल गए, सारी दीवारें-खाइयाँ ढहा देते थे। उनकी और मेरी उम्र में लगभग आधी सदी का फासला था। वे संपादकी में भी ऊँचाइयाँ कायम कर चुके थे। लेकिन इस दूरी का अहसास उन्होंने मुझे कभी होने नहीं दिया।

हमारे साप्ताहिक के लिए उन्होंने कई सुझाव दिए. उसमें सुधार हुआ सो हुआ, मैंने बहुत सीखा भी। उनके कई सुझाव याद आते हैं। जैसे यह कि एक ही विचार के लोग आपके यहाँ क्यों लिखते हैं, अखबार कोई मुखपत्र तो नहीं होता। यह गलती रघुवीर सहाय ने की। इससे सीखिए. अंतर्राष्ट्रीय मामलों पर आपके यहाँ कुछ नहीं होता। अपने पाठकों को कुछ दुनिया की खबर भी दीजिए. कविताओं की आपको समझ है (उन्हें खुशफहमी रही होगी!) , सो कविताओं के चुनाव का जिम्मा सिर्फ़ अपने पास रखिए, वरना कविताओं की जगह लंगड़ा गद्य छपने लगेगा। अब तो छपाई के साधन बेहतर हैं, तस्वीरें बढ़ा सकते हैं। इत्यादि।

उनके इस लगाव और सरोकार से अभिभूत में तरह-तरह की सलाह माँगकर ले लेता। जैसे एक दफा मैंने समस्या बताई कि हमारा चिट्ठियों का स्तंभ बेजान है। आम अभिव्यक्ति के पत्र आते हैं कि अमुक लेख अच्छा या बुरा गला। बस। अज्ञेय ने सुझाया, कुछ समय के लिए 'मॉडल' (फर्जी) पत्र अपने सहयोगियों से लिखवाइए. छद्म नामों से छापिए. उन्हें पढ़कर बाद में पाठक वैसे पत्र भेजने लगेंगे। यह प्रयोग हमने दिनमान में 'मत और सम्मत' के लिए किया था। लंबे और बेहतर आने लगे।

लेखकों के चुनाव को लेकर उनकी दृष्टि बड़ी उदार थी। वे मानते थे कि हर लेखक छापा जाना चाहिए, 'जो छपने लायक हो'। विचारधारा या मत विशेष के आधार पर संपादक की पसंद-नापसंद को वे 'जातिवादी' पूर्वग्रह की संज्ञा देते थे। पत्रकारिता ही नहीं, साहित्य में भी नाम देखकर यानी पहले की विचारधारा भाँप कर उसे अच्छा या बुरा लेखक मान लेने की वृत्ति को भी वे एक किस्म का जातिवाद ही मानते थे। कलकत्ता में जब विशाल भारत के संपादक हुए तो कार्यभार सौंपते हुए श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने लेखकों की दो सफे की लंबी सूची उन्हें थमा दी थी, यह कहते हुए कि इन्हें कभी मत छापना क्योंकि उनके साथ हमारे सम्बंध अच्छे नहीं हैं। वात्स्यायन जी ने उसी वक्त चतुर्वेदी जी को कहा कि संपादक के नाते आपका अनुभव विशद है और मैं उसका अनुकरण करूँगा, लेकिन आपकी बात मुझे नहीं जमती। रचना को पढ़े बगैर और उस पर विचार किए बगैर उसे प्रकाशित न करने का निर्णय संपादक करे यह उचित नहीं लगता, चाहे लेखक से सम्बंध खराब ही क्यों न हों।

वक्त कभी-कभी बहुत धीमी गति से चलता है। 'विशाल भारत' का जमाना गुजरे अस्सी बरस हो रहे हैं। पर नाम देखकर टीका लगाने या मिटाने की मनोवृत्ति अब भी देखने में आ जाती है। कुछ ही समय पहले दिल्ली के एक प्रतिष्ठान में समूह संपादक ने लिखित आदेश जारी किया कि समूह के पत्र या पत्रिकाओं में सोलह लेखकों का लिखा कुछ भी नहीं छपेगा। लेखकों की सूची में विष्णु खरे, अरुंधति राय, कात्यायनी, प्रभाष जोशी, राजकिशोर, रामशरण जोशी जैसे जाने-माने नाम भी थे। यह मामला जनसत्ता में उठा जिसकी बुद्धिजीवी वर्ग से लेकर संसद तक में व्यापक प्रतिक्रिया हुई. अंततः समूह संपादक को पद से हटना पड़ा।

वात्स्यायन जी के कद और रुतबे को भूलकर एक दफा मैंने कहा, आप इतवारी के लिए क्यों नहीं लिखते? वे बोले, शब्दों की सीमा बताइए. मैंने कहा, आपके लिए क्या सीमा! जितना लिख देंगे, हम पर अनुग्रह होगा और उन्होंने सचमुच लिखा। कभी चिंतनपरक, कभी ललित।

एक अप्रकाशित उपन्यास का अंश हमें दिया। उसका शीर्षक था 'हेम और केतकी'। निधन के बाद वह (अधूरा) उपन्यास 'बीनू भगत' के नाम से छपा। नोबेल पुरस्कार पाने वाले स्वीडी कथाकार पेर लागरक्विस्त की उपन्यास-त्रयी के नायाब अनुवाद (अब महायात्रा नाम से एक साथ उपलब्ध) के अंश भी उन्होंने दिए, जो हमने चार किस्तों में प्रकाशित किए. जब साम्यबादी युगोस्लाविया में 'गोल्डन रीथ' सम्मान लेने गए तो उस यात्रा का लंबा संस्मरण इतवारी के लिए खास तौर पर लिखा। एक दफा मैंने उनसे जिक्र किया कि स्त्री-समाज की समस्याओं पर अच्छी सामग्री नहीं मिल पाती। मेरा खयाल है, इसी हवाले से शायद उन्होंने बाद में इला डालमिया को हमारे लिए नियमित स्तंभ लिखने को प्रेरित किया होगा।

ऐसे लेखक भी थे जिन्हें मैं पत्र पर पत्र लिखता, पर उनसे जवाब तक नहीं मिलता था। अनेक लेखकों से बहुत सहयोग मिला भी। पर अज्ञेय का स्नेह अपूर्व और अपरिमेय था।

आप सोचते हों कि अज्ञेय जैसा दिग्गज साहित्यकार और सिद्ध संपादक एक कम इल्म युवक से इतना कैसे खुल सकता है। असल में अज्ञेय के व्यक्तित्व की यह खूबी वे लोग अच्छी तरह जानते हैं, जिन्होंने उन्हें करीब से देखा। वे ऐसे ही थे। सारिका में कमलेश्वर के वक्त छपी शृंखला लेखक: अपनी निगाह में के तहत उन्होंने खुद लिखा कि एक सीमा है जिसके आगे वे अस्पृश्य रहना पसंद करते हैं, जैसे एक सीमा के आगे वह दूसरों के जीवन में प्रवेश या हस्तक्षेप नहीं करते। 'इस तरह का अधिकार (अज्ञेय) बहुत थोड़े लोगों से चाहता है और बहुत थोड़े लोगों को देता है। जिन्हें देता है उन्हें अबाध रूप से देता है, जिनसे चाहता है उनसे निर्बाध भाव से चाहता है।'

उनके व्यक्तित्व के जैसे दो रूप थे, वैसे ही दो सिरे भी थे। वे घोर आधुनिक थे और पुराणों की बात करते हुए जय-जानकी या भागवत-भूमि यात्रा पर भी निकल पड़ते थे। वे अपने में सिमटे लगते थे, पर बहुत खुल भी जाते थे। चुप रहते थे और अपनों में होते तो खूब बतिया लेते थे। मितव्ययी थे और फिजूलखर्च भी। हँसते नहीं थे और हँसते तो इतना हँसाते हुए कि हँसोड़ भी रश्क करें।

अज्ञेय ने कमोबेश हर विधा में लिखा और ऐसा कि अलग-अलग कोण से हमेशा चर्चा में बने रहे। कवि, कथाकार, यात्रा-लेखक, नाटककार, डायरी-लेखक, आलोचक, निबंधकार, व्यंग्यकार, स्तंभकार, संपादक, अनुवादक! फिर देश-विदेश में प्रोफेसरी की। इसके अलावा जब उन्होंने अपनी रुचियों में चित्रकारी, मूर्तिकारी, छायाकारी के साथ चर्म-कर्म, बढ़ईगीरी, सिलाई और बागवानी आदि 'बहुत-सी दस्तकारियों में थोड़ी-बहुत कुशलता' का जिक्र भी कर डाला तो, बकौल मनोहर श्याम जोशी, हिन्दी में एक फिकरा मुकम्मल हो गया कि एक कुरुक्षेत्र चूक गए, वरना अज्ञेय किस क्षेत्र में नहीं कूदे।

मगर एक क्षेत्र शायद छूट रहा था! आयोजन का। थोड़ा-बहुत आयोजन तो काव्य-सप्तकों, दिनमान आदि के संपादन और छिटपुट गतिविधियों में भी रहा होगा। लेकिन जीवन के आखिरी दशक में उन्होंने बाकायदा एक संस्था बनाई. वत्सल निधि। हालाँकि संस्था में कोई स्टाफ नहीं था, न ज़रूरत के दूसरे साधन। दो पहियों पर निधि की गाड़ी खड़ी हुई: एक अज्ञेय खुद थे, दूसरी संगिनी इला डालमिया, जो अज्ञेय को घर में वत्सल कहकर पुकारती थीं।

आपको खयाल होगा, ज्ञानपीठ पुरस्कार में मिली बड़ी धनराशि को अज्ञेय ने 'अनुपार्जित' धन मानते हुए एक संकल्प के साथ स्वीकार किया था कि उतनी ही राशि अपनी जेब से मिलाएँगे और लेखकीय आयोजनों के लिए एक न्यास बना देंगे। हालाँकि उनकी जेब उतनी भारी न थी, जितनी लोग कार-बँगले या दूर देशों की यात्राओं को देखकर कयास लगाते थे।

वत्सल निधि की स्थापना 1980 में हुई. शुरू में तीन मोटे कार्यक्रम तय किए गए. लेखक शिविरों, व्याख्यानमालाओं और यात्राओं का आयोजन। वत्सल निधि के लेखक शिविरों का स्वरूप यह होता था कि नवतर लेखकों को एक साथ रहने, खाने, बोलने, घूमने का मौका दिया जाए. ऐसा पहला शिविर मार्च 1981 में लखनऊ में आयोजित हुआ, साक्षरता निकेतन में। शिविर के निदेशक अज्ञेय खुद थे। छह रोज मुझे भी लखनऊ में अनेक बड़े लेखकों की छाया में रहने का मौका मिला।

सच्चाई तो यह है कि उस तादाद में नए लेखकों के साथ पाए के लोग किसी शिविर में एक साथ मैंने न पहले देखे, न बाद में। कुछ नाम बरबस याद आते हैं: अमृतलाल नागर, डॉ. देवराज, श्रीनारायण चतुर्वेदी, कुँवर नारायण, निर्मल वर्मा, रघुवीर सहाय, श्रीलाल शुक्ल, विजयदेव नारायण साही, विद्यानिवास मिश्र, विपिन कुमार अग्रवाल, शिवानी, रमेशचंद्र शाह, गिरिराज किशोर, नंदकिशोर आचार्य, लीलाधर जगूड़ी, शीन काफ निजाम, भूदेव मिश्र।

आयोजन कर्म भी अपने आप में मामूली कौशल नहीं है। उसमें समय और उद्यम का पूरा अनुशासन चाहिए और भी, जब पीछे शासन या किसी प्रतिष्ठान का जोर न हो। आयोजनों के निमंत्रण वात्स्यायन जी और इला डालमिया मिलकर तैयार करते थे। लिफाफों पर पते इला जी हाथ से लिखती थीं। एक कॉपी में आयोजन के खर्च का हिसाब अज्ञेय दर्ज करते थे। लखनऊ के बाद हुए एक शिविर में स्टेशन रवानगी से पहले मैं कैवेंटर्स ईस्ट में था। मैंने देखा कि अज्ञेय नौकर के साथ बैठकर रुपहली पन्नी के छोटे-छोटे चौकोर ढाँचों में अल्पाहार की चीजें खुद सजा रहे हैं, चीजें जो रेल में लेखकों को प्रस्तुत की जानी थीं। आजकल ऐसे पैकेट चलती रेल में ही मिल जाते हैं। लखनऊ शिविर के लिए सब लेखक गोमती एक्सप्रेस से रवाना हुए. निर्मल जी और रघुवीर सहाय आदि से लेकर नयों में (स्मृतिशेष) संजीव मिश्र और मुझ नाचीज जैसे पचास से ऊपर संभागी। लंदन से आए ओंकारनाथ श्रीवास्तव भी, जिन्होंने बीबीसी के लिए अज्ञेय से रेल-पटरियों की खटखट के बीच गुफ्तगू रेकार्ड की। विद्यानिवास मिश्र रास्ते में कानपुर स्टेशन से सवार हुए. खादी का कुरता-पाजामा और बंडी तब तक अज्ञेय की पसंदीदा वेश-भूषा बन चुके थे। टाई-सूट में कम से कम मैंने उन्हें नहीं देखा। लेकिन उस रोज गोमती एक्सप्रेस के कुर्सीयान में वे कादरे की जीन्स-मार्का पतलून पर फौजी जैकेट पहने थे। सिर पर एक तरफ झुकी हुई गोल टोपी थी। यानी पूरी तरह सफरी और खुली रंगत। जब थोड़े सफर, थोड़े नाश्ते और कुछ गंभीर बातों से लोग सुस्त-से दीखने लगे, वात्स्यायन जी ने ताली बजाकर सबका ध्यान खींचा। फिर सबसे आगे पहुँच गए.

मुड़े तो एक बाजीगर की-सी चंचलता और फुर्ती उनके चेहरे पर चढ़ चुकी थी। बोले, हमारे दौर के अनेक कवियों को सुनने का मौका शायद आपको न पड़ा होगा। हम उनकी कुछ झलक दिखलाए देते हैं और वे दरवाजे के साथ दीवार से निकले मेज-नुमा फट्टे पर चढ़ गए. ये खुलाऊ मेजें कुर्सीयान में सबसे आगे की पंक्ति के मुसाफिरों की सुविधा के लिए बनी होती हैं। वहीं पलथी मार उन्होंने एक-एक कर कुछ कवियों के पाठ की 'सस्वर' नकल उतारी।

सबसे मजेदार, सही शब्दों में हँसा-हँसा कर लोटपोट कर देने वाली नकल भगवतीचरण वर्मा के गीत की थी। उसे पेश करने से पहले उन्होंने अपने दाँत दिखाएँ, फिर ऊपर-नीचे के होंठ जाने किस मशक्कत से मसूढ़ों की तरफ उमेठे। शायद कवि की गोल मुख-मुद्रा का रूप धारण करते हुए. फिर ये पंक्तियाँ चेहरे की लचक और शरीर की मटक के साथ कुछ ऊँचे स्वर में गुनगुनाने लगे:

हम दीवानों की क्या हस्ती

हैं आज यहाँ, कल वहाँ चले

मस्ती का आलम साथ चला

हम धूल उड़ाते जिधर चले...

गुरु गंभीर से लेकर घुन्ने-मनहूस जैसे दर्जनों दुर्विशेषणों से 'शोभित' अज्ञेय की हस्ती को इतनी सहज, प्रांजल और ललित मुद्रा में देखना मेरे लिए एक जीवन-भर का अनुभव साबित हुआ। उसके बाद उनके साथ और यात्राएँ भी की। लेकिन वह मस्ती हू-ब-हू दुबारा देखने को नहीं मिली। हमेशा वैसा माहौल, दोनों तरफ से, एक साथ कायम नहीं होता। पर उनकी इस प्रतिभा की झलक जब-जब मिल जाती थी।

रेल के उस सफर में लेखक बतियाते, सोते जागते रहे। आचार्य जी ने गाड़ी के मामूली हिचकोलों की परवाह न कर इतवारी के लिए अपना उस हफ्ते का स्तंभ लिख डाला। मैं वात्स्यायन जी की गतिविधियों, भंगिमाओं पर गौर करता था। या खिड़की के बाहर सुंदर-असुंदर दृश्यावली निहारने लगता। ऐसे ही किसी घड़ी पास की सीट पर वात्स्यायन जी आ बैठे। मुझे इसका भान तब हुआ जब कान में उनकी धीमी, लय-बद्ध आवाज पड़ी, 'अपने से छूटते हुए से दृश्यों को देखने का अपना ही सुख है!'

अपनी सन्निकट उपस्थिति से मुझसे उनके कथन का मर्म फिसल गया। मेरा असमंजस ताड़ उन्होंने साफ किया कि आम तौर पर कुर्सीयान की सारी कुर्सियाँ इंजिन की दिशा में, यानी सीधी, होती हैं। यही डिब्बा उलटा लगा है। सीधा होता तो हम आते दृश्यों को पकड़ रहे होते। उलटी दिशा में दृश्य हमसे भागते हैं। उनका कोई रूप बने उससे पहले वे रपटकर दूर हो जाते हैं! पर उन्हें इस तरह आते और जाते देखने का अपना अनुभव है। नहीं?

क्यों नहीं। आप समझ सकते हैं, अज्ञेय ने कुर्सीयान की दोनों दशाओं की गति में लुफ्त का सबब ढूँढ़ लिया था!

बाद में कभी जैनेंद्र कुमार का एक संस्मरण प्रेमचंद के बारे में पढ़ा। 1929 का, जब लखनऊ में जैनेंद्र प्रेमचंद से पहली बार मिले। घर से दफ्तर के लिए प्रेमचंद ताँगे की जगह इक्का ही किराए पर करते थे। वजह? जैनेंद्र जी को उन्होंने बताया था। ताँगे में सीट उलटी होती है। यानी हम आने वाली दुनिया और खुद ताँगे वाले की तरफ पीठ करके बैठते हैं। जबकी इक्के में दुनिया दृश्य दर दृश्य सामने रहते है!

लखनऊ शिविर के दौरान ही वात्स्यायन जी ने सत्तर वर्ष पूरे किए. सबने बधाई दी। मुझे उन्होंने उन्हीं दिनों छपी पुस्तक अपरोक्ष हस्ताक्षर कर स्नेहस्वरूप दी। पुस्तक डॉ. छगन मोहता को समर्पित थी। उसी शाम अपने काव्य-नाटक उत्तर प्रियदर्शी का पूरा पाठ स्वर में किय। पाठ के दौरान मैंने लक्ष्य किया कि उनकी सदा तनी रहने वाली गर्दन थकान के बाद कुछ छोटी हो जाती है, झुक जाती है। गर्दन और हाथ पर नसों का उभार भी शायद बढ़ने लगा था। नाटक का लंबा पाठ पूरा होने के बाद, पहले नहीं, उन्हें कुछ लेखकों ने सलाह ही कि दिन भर के काम के बाद अब कुछ आराम के बारे में सोचना चाहिए. बहरहाल, उत्तर प्रियदर्शी के सर्जक का अपना वाचन मैंने उस दिन रेकार्ड कर लिया था।

जिन्होंने नदी के द्वीप पढ़ा है, उन्हें खूब याद होगा कि लखनऊ के कॉफी हाउस की उपस्थिति उपन्यास में एक पात्र की-सी ही है। सो शिविर में शरीक सहृदय पाठक-लेखकों की फरमाइश पर सदय अज्ञेय समूह को हजरतगंज कॉफी पिलाने ले गए. कॉफी हाउस का नक्शा उस जमाने में भी वही रहा होगा, ऊँची छत, बड़े दरवाजे, कुछ कोटर। लेकिन बाहर की चिल्ल-पों नई सभ्यता के साथ ही दाखिल हुई होगी। प्रवेश द्वार के दाई तरफ एक अखबार विक्रेता की दुकान थी। वात्स्यायन जी बोले, यह तब से है। बाकी ज्यादातर कारोबार तो बदल ही गया है।

कॉफी हाउस में एक दिलचस्प बात हुई. उम्रदराज बेयरे से वात्स्यायन जी ने कुशलक्षेम पूछा। अदब से जवाब देकर वह जाने लगा तो आचार्य जी ने उससे पूछ लिया, आप भी पहचानते हैं ये (अज्ञेय) कौन हैं! बेयरे ने विनय से कहा, अच्छी तरह हुजूर। पहले डॉक्टर साहब (राममनोहर लोहिया) के साथ इसी टेबल पर तो बैठा करते थे। बाद में अज्ञेय बोले, इसको ठीक याद है। आपने तो परीक्षा ले ली। लखनऊ प्रसंग में एक वाक्या और। शिविर के किसी सत्र में एक पहाड़ी युवा कवि आए. तब उत्तर प्रदेश का विभाजन नहीं हुआ था और वे वहीं एक अहम महकमे में नियुक्त थे। गोस्वामी तुलसीदास पर चल रही चर्चा के दौरान उन्होंने दखल करते कहा, लेकिन तुलसीदास के मन में जो बात थी, उसे लेकर आप। वात्स्यायन जी ने झिड़कते हुए सिर्फ़ एक वाक्य कहा और युवा कवि ने बात वहीं समेट दी। अज्ञेय ने कहा था, मैं आपको बधाई देना चाहता हूँ कि आपको मालूम है तुलसीदास के मन में क्या था! 'मन में' शब्द वे जोर देकर बोले थे।

इस तरह के नियोजित-अनियोजित हस्तक्षेप उनके कार्यक्रमों में होते रहते थे। दरअसल अज्ञेय और उनके समानधर्मा लेखकों का हिन्दी समाज में असर व्यापक था। तत्कालीन सोवियत राजनीति की प्रेरणा और साधनों से गोलबंद हुए लेखक संगठनों के एजेंडे में मानो एक अहम लक्ष्य अज्ञेय की छवि को ध्वस्त करना भी जुड़ गया था। इतनी अफवाहें और आक्षेप और किसी लेखक को शायद ही झेलने पड़े हों, जितने अज्ञेय को। उन ओछे आरोपों की सूची बनाई जाए तो उसके आधार पर छोटा-मोटा शोध-प्रबंध तैयार किया जा सकता है: अभिजात और व्यक्तिवादी थे, पूँजीवादी और दक्षिणपंथी थे, प्रतिगामी और प्रतिक्रियावादी थे, सीआईए के एजेंट थे, फोर्ड फाउंडेशन और कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम से अमेरिकी धन ऐंठते थे, अंग्रेजों के पिट्ठू थे, दूसरों की चीजें अपने नाम से छपवाते थे, प्रगतिहीन और समाज-विरोधी साहित्य के प्रणेता थे... आदि-इत्यादि। कुछ परस्पर विरोधी आक्षेप भी: कभी कहा गया कि आधुनिकता से ग्रस्त हैं, तो कभी परंपरावादी और पुराणपंथी बताए गए. कभी नपुंसक ठहराए गए, कभी नाजायज संतान के पिता! इस तरह के नियोजित दुष्प्रचार से अज्ञेय का कितना नुकसान हुआ, कहना मुश्किल है। व्यथा को वे झेल गए और इतना कुछ सार्थक काम कर गए कि चरित्र-हनन की पहुँच से ऊपर उठ गए. लेकिन उस अभियान से उन पाठकों का नुकसान ज़रूर हुआ होगा जो प्रचारकों के बहकावे में आ गए. एक पीढ़ी अँधेरे में धकेल दी गई. कइयों ने अज्ञेय का साहित्य पढ़ा तक नहीं और दूसरों की राय ओढ़ ली, कुछ ने पढ़ा तो अपने पूर्वग्रहों का चश्मा लगाकर।

1977 की बात है। कलकत्ता में वे अपनी लेखन प्रक्रिया पर बोल रहे थे। कल्याणमल लोढ़ा सभा के अध्यक्ष थे। एक युवा लेखक ने उनके वक्तव्य के बीच शोर मचाना शुरू कर दिया। आपकी तरह रईसी में जीने वाला लेखक रचनाधर्मी कैसे हो सकता है? वात्स्यायन जी ने कहा कि अपनी पूरी बात कह लूँ उसके बाद सवाल रखें तो अच्छा होगा। थोड़ी देर बाद युवा लेखक फिर शुरू हो गए, इस बार कुछ ज़्यादा उग्र अंदाज में। बोले, सुविधाजीवी लेखकों ने हिन्दी का बहुत नुकसान किया है। आपने सबसे ज्यादा। आपके हाथों में मुक्तिबोध का खून लगा है। आप चाहते तो मुक्तिबोध की असमय मृत्यु न होती!

अज्ञेय ने जीवन में तरह-तरह के आरोप सुने और झेले होंगे, पर यह बेहद घिनौना आरोप था। आम तौर पर इस तरह की बातें वे चुप रह कर दरगुजर कर देते थे, लेकिन उस रोज अपनी प्रतिक्रिया जाहिर की। भले ही दो पंक्तियों में। उन्होंने कहा कि यह विचार ही अपने आप में क्रूर और बेमानी है। मुक्तिबोध का मैं सम्मान करता था और उनके लिए जो कर सकता था किया, उसका व्योरा देने की ज़रूरत नहीं है। बहरहाल उस शोर-शराबे में वह कार्यक्रम चौपट हो गया। शोर मचाने वाले युवक को और क्या चाहिए था!

कहना न होगा, ऐसे पूर्वग्रह ज्यादातर वामपंथी लेखकों में देखे गए. लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना भूल होगा कि सभी वामपंथी खयालतन अज्ञेय-विरोधी रहे हैं। मुझे अज्ञेय और कुछ वामपंथी रचनाकारों का पत्राचार देखने का मौका मिला है। उनमें शमशेर और मुक्तिबोध के पत्र भी शामिल हैं। अज्ञेय के प्रति दोनों कवियों का आदर और भरोसा कई लेखकों को हैरान करेगा। तीसरा उदाहरण है त्रिलोचन का। उस घटना का मैं गवाह हूँ। आठ के दशक में जयपुर के रवींद्र मंच पर प्रगतिशील लेखक संघ का अधिवेशन चल रहा था। युवा लेखकों में बेबात अज्ञेय-निंदा का जुनून सवार था। त्रिलोचन आयोजन के मुख्य अतिथि थे। उनसे रहा नहीं गया। अपने सम्बोधन में बेहद दुखी स्वर में बोले भाई (अज्ञेय) के बारे में ऐसे शब्द सुनकर मन व्यथित हो गया है। या तो आप लोगों ने उन्हें पढ़ा नहीं हैं, या आप उन्हें जानते नहीं। मेरे मन में उनके प्रति बहुत आदर है और मैं उनके बारे में हल्की बात नहीं सुन सकता। उम्मीद करता हूँ कि (सम्मेलन में) आगे ऐसी बात नहीं होगी।

दूसरे कई लेखकों-आलोचकों के उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनके विचार अज्ञेय से नहीं मिलते थे, पर उनके साहित्य की वे बड़ी कद्र करते आए हैं। केदारनाथ सिंह इनमें अव्वल हैं। राजेंद्र यादव और विजय मोहन सिंह दोनों का कहना है कि रवींद्रनाथ ठाकुर के बाद भारतीय साहित्य में अज्ञेय से बड़ा व्यक्तित्व नहीं हुआ। विष्णु खरे ने अज्ञेय की मृत्यु पर नवभारत टाइम्स में जो संपादकीय लिखा, वह आज भी याद किया जाता है। राजेश जोशी की हाल में प्रकाशित कृति समकालीनता और साहित्य की भूमिका कविता पर अज्ञेय के एक उद्धरण से शुरू होती है। एक वरिष्ठ वामपंथी आलोचक के कथन से क्षुब्ध होकर-कि हिन्दी में भारत-पाक विभाजन पर गद्य तो लिखा गया, काव्य नहीं-जोशी ने पूर्वग्रह में अज्ञेय की शरणार्थी काव्य-श्रृंखला पर लेख लिखा। उन्होंने कहा, ये कविताएँ 'अज्ञेय के सेक्युलर दृष्टिकोण का साक्ष्य हैं।' बाद में दिल्ली में अज्ञेय जन्मशती संगोष्ठी में मैनेजर पांडेय ने शरणार्थी शृंखला के हवाले से अज्ञेय की तारीफ की और कहा कि इस बात (शरणार्थी श्रृंखला) की ओर से सबसे पहले ध्यान उन्हीं ने दिलाया था।

अज्ञेय के काव्य की धुरंधर आलोचना करनेवाले नामवर सिंह ने कुछ ही समय पहले आकार में अज्ञेय की खूब तारीफ की और शेखर: एक जीवनी की हिन्दी के पाँच महान उपन्यासों में एक बताया। दिल्ली में अपना एक व्याख्यान अज्ञेय की कविता 'नाच' से शुरू कर श्रोताओं को चौंकाया। फिर पटना में दिए एक व्याख्यान में उन्होंने कहा कि अज्ञेय नागार्जुन से बड़े कवि हैं। लौटकर दिल्ली के हिंदू कॉलेज में बोले कि अज्ञेय काव्य वैभव में मुक्तिबोध से आगे है। यह भी कहा कि अज्ञेय प्रयोगवादी नहीं हैं, उन्हें जन-विरोधी समझ लेना अधूरी समझ होगी। फिर उन्होंने नेशनल बुक ट्रस्ट के लिए जन्मशती के मौके पर अज्ञेय: संकलित कविताएँ का संपादन किया। उसकी भूमिका में अज्ञेय को 'अमृत पुत्र' कहते हुए उन्होंने लिखा कि अज्ञेय की 'अप्रतिहत सृजन-यात्रा प्रयोग के पड़ाव से आगे... और सभी वादों से ऊपर है और टिकाऊ भी'। साहित्य अकादमी में हुई अज्ञेय जन्मशती संगोष्ठी में उदय प्रकाश ने अपने वक्तव्य में यह रेखांकित करने की कोशिश की कि अज्ञेय वामपंथी थे, दक्षिणपंथी नहीं। इस बात पर कट्टर वामपंथी बहुत बिदके.

हाल के कई कार्यक्रमों में मैंने लक्ष्य किया कि नई पीढ़ी अज्ञेय को बासी आग्रह-दुराग्रहों से हटकर पढ़ने-समझने को उद्यत दिखाई देती है। क्या जन्मशती वर्ष में हिन्दी समाज में अज्ञेय के सहृदय पाठ की यह कोई नई आहट है?

एक बार रघुवीर सहाय ने अज्ञेय से पूछा था कि जीवन में आप क्रांतिकारी रहे, आपका सारा कृतित्व मूलतः क्रांति या परिवर्तन लाने वाला है। लेकिन आज जो लोग अपने को क्रांतिकारी मानते हैं, उनके लिए आप लगभग असह्य क्यों हो गए हैं? वात्स्यायन जी ने स्पष्ट जवाब दिया था: अब आप मुझे केवल व्यवस्था-विरोधी या नॉन-कन्फर्मिस्ट कह सकते हैं। आज के क्रांतिकारी के पास तो दूसरी व्यवस्था का बँधा-बँधाया ढाँचा होता है। सफल हो गए तो दूसरे ढाँचे में पहुँच या लोगों को पहुँचाकर फिर यथार्थवादी हो जाते हैं।

जाहिर है, ऐसी 'क्रांति' से उनका विश्वास उठ चुका था। वे साफ कहते थे कि देश में जो दल अपने को क्रांतिकारी या प्रगतिवादी मानते हैं, वे अपने ढाँचे के अलावा किसी दूसरी प्रगति को प्रगति मानने को भी तैयार नहीं होते, 'जो कि सामाजिक अत्याचार का एक रास्ता है।'

विचारधारा की लीक पर चलने-लिखने वाले अज्ञेय से छड़क खाते थे। लेकिन अज्ञेय की अपनी विचारधारा वास्तव में क्या थी?

दरअसल, अज्ञेय किसी एक विचारधारा के पिछलग्गू होने के खिलाफ थे। व्यावहारिक राजनीति को लेकर उनके विचारों में बदलाव आता रहा, लेकिन स्वतंत्रता और समता में उनकी मूल्यगत आस्था हमेशा कायम रही। एक दफा उन्होंने कुछ ऐसा कहा था कि विचार में मैं अगर अपना ही खंडन करता हूँ तो समझिए जड़ होकर एक जगह रुका नहीं हूँ, विकासमान हूँ, मेरे बाद के कहे (या किए!) को प्रमाण मानिए.

बहरहाल, अज्ञेय के विचार या विश्वास की गति देखिए. उन्होंने सशस्त्र क्रांति यानी हिंसा से राजनीतिक विचार शुरू किया और गांधी जी के अहिंसा के विश्वास पर जाकर ठहरे।

भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद वाले क्रांतिकारी दस्ते के वे सदस्य थे। लाहौर में आजाद के कहने पर भगत सिंह और अन्य साथियों को जेल से भगा लाने के लिए तीन रोज में ट्रक चलाना सीखा। बाद में वह योजना विफल हो गई और धीरे-धीरे उनका संगठन भी बिखर गया। दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ने पर जब देश पर संकट मँडराया और पूर्वी सीमा पर जापानी सेना की घुसपैठ का खतरा महसूस किया गया तो फौज में भरती हो मोर्चे पर चले गए. असम, बंगाल और बर्मा की सीमा पर हमले का प्रतिरोध करने वाले नागरिकों का भूमिगत संगठन तैयार करने का जिम्मा लेकर। एक क्रांतिकारी देशभक्त कैसे ब्रितानी-या युद्ध की भाषा में मित्र राष्ट्रों की-फौज में शामिल हो गया, यह बात कई लोगो को आज भी हैरान करती है। हालाँकि इस बारे में सवाल चालीस के दशक में उठा दिए गए थे, जिनका जवाब अज्ञेय ने दिया। उनका कहना यह था कि युद्ध समर्थक न था, न हूँ-लेकिन यह तर्क मुझे ग्राह्य नहीं लगता था कि भारत क्योंकि पराधीन है, इसलिए शत्रु (जापानी सेना) से देश की रक्षा का काम हमारा नहीं है। दरअसल, युद्ध की राजनीति को सामान्य स्थितियों से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। अज्ञेय तब दिल्ली में भी फासिस्ट-विरोधी आंदोलन में शरीक होते थे, प्रगतिशील लेखक संघ को समर्थन देते थे। नहीं भूलना चाहिए कि दूसरे विश्वयुद्ध में जर्मनी, जापान और इटली के फासिस्ट गुट के आक्रमण के खिलाफ लोकतांत्रिक देश तो एक थे ही, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी भी ब्रितानी सेना का समर्थन कर रही थी।

फिर अज्ञेय मानवेंद्रनाथ राय के नव-मानवतावाद से प्रभावित हुए. राय उनके दोस्त भी थे। कुछ समय वे जवाहरलाल नेहरू के करीब रहे। कविता की उनकी एक किताब (प्रिजन डेज एंड अदर पोएम्ज) की नेहरू ने भूमिका लिखी। बाद में वे नेहरू अभिनंदन ग्रंथ के संपादक मंडल में भी शरीक हुए. लेकिन, दरअसल एम एन राय के बाद नेहरू के बजाय वे राममनोहर लोहिया से ही प्रभावित दिखाई देते हैं। वे नेहरू के आजादी से पहले के संघर्ष और 'खतरनाक जीवन' के खयाल से ज़रूर प्रभावित थे। लेकिन आजादी के बाद नेहरू के आर्थिक विचारों, खासकर विशाल पैमाने के उत्पादन और केंद्रीकरण के विरोधी हो गए.

लोहिया के हवाले वे अक्सर देते थे। एक बार जोधपुर में मैंने उनसे इतवारी पत्रिका के लिए भाषा पर बातचीत की। उन्होंने जोर देकर लोहिया के इस नजरिए को समुचित बताया कि 'चाहे पवित्र जीवन हो चाहे छिनाली, भाषा ऐसी हो जो सबके काम पूरी तरह आए.'

1983 में जबलपुर के पास बरगी नगर में हुए वत्सल निधि शिविर के उद्घाटन के वक्त उन्होंने नेहरू के विचारों की कटु आलोचना की। बरागी में नर्मदा पर बाँध का निर्माण जोर-शोर से चल रहा था। परियोजना के कर्मचारी ही हमारे मेजवान थे। अज्ञेय आधुनिकता की नेमतों पर बोलते हुए नेहरू के बाँध सम्बंधी विचारों पर आ गए. बोले, इन बाँधों को 'आधुनिक भारत के मंदिर' बताया गया है। यह आने वाला वक्त बताएगा कि ये सचमुच 'मंदिर' साबित होते हैं या 'शैतान का घर'। ठीक यही शब्द थे। उनका कहना था कि आधुनिक विकास की अवधारणा यांत्रिक विकास की अवधारणा है जो बुनियादी तौर पर लोक का हित नहीं अहित साधती है।

बरगी परियोजना पूरी हुई, तब तक अज्ञेय चल बसे। लेकिन तारीख गवाह है कि बरगी बाँध पूरा खड़े होते ही बयासी गावों का जीवन लील गया, एक सौ साठ गाँव बाँध की डूब ने से आहत हुए.

जयप्रकाश नारायण से उनकी बड़ी निकटता रही। संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दौर में, आपातकाल से पहले, गांधी शांति प्रतिष्ठान से निकलने वाले जयप्रकाश जी के पत्र एवरीमेन्स वीकली का उन्होंने संपादन किया। जेपी के विचारों में वे एमएन राय की छाया देखते थे। राय को भले उन्होंने कोई पुस्तक समर्पित नहीं की, लेकिन उनकी छोटी मगर महत्त्वपूर्ण किताब स्रोत और सेतु जेपी के नाम है-'निरंतर सेतु बनाते रहकर जो स्रोत को कभी नहीं भूले, उन लोकनायक जयप्रकाश को सादर निवेदित'। उनके इस वक्तव्य में भी उनकी लोकतांत्रिक विचारधारा का अक्स साफ दिखाई देता है। 'सैद्धांतिक रूप से मैं लोकतंत्र को कम्युनिज्म से अच्छा समझता हूँ और लोकतंत्र को बुनियादी (रैडिकल) अथवा प्राथमिक (प्राइमरी) रूप दिया जा सके, ऐसी चेष्टा का अनुमोदन करता हूँ। एम एन राय के विचारों की यही दशा थी, विनोबा के विचारों की भी यही है, जयप्रकाश नारायण की भी।'

इंदिरा गांधी की नीतियों के अज्ञेय ज़्यादा मुखर आलोचक होकर सामने आए, खासकर आपातकाल में। उन्होंने उस दौर में 'आतंक' और 'बौद्धिक बुलाए गए' जैसी अनेक कविताएँ लिखीं, जबकि बहुत सारे बौद्धिक, साहित्यकार-पत्रकार मौन थे या घुटने टेक चुके थे।

आपातकाल के दौरान ही, नवंबर 1976 में, अज्ञेय बीकानेर आए. रामपुरिया कॉलेज में 'सभ्यता का संकट' विषय पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता परम मूल्य है और दमघोंटू माहौल में उसकी महत्ता सबसे ज़्यादा अनुभव होती है। उन्होंने यह भी कहा, 'देश आतंक के साये में जी रहा है और बौद्धिक समुदाय मौन है।' असल में अनेक बौद्धिक उस वक्त मौन ही नहीं थे, आपातकाल के हक में दस्तखत कर और करवा रहे थे।

प्रो. आनंद कृष्ण ने भी एक लेख में लिखा हैकि आपातकाल में अज्ञेय 'बहुत क्षुब्ध थे और अपने स्वभाव के अनुसार आक्रोश व्यक्त करते थे।' एक बार आनंद जी को वात्स्यायन जी ने (संभवतः हल्के अंदाज में) कहा कि वे पशुपालन पर एक शास्त्रीय पुस्तक लिखना चाहते हैं, जिसमें आपातकाल पर टीका होगी कि किस तरह मनुष्य पशुवत बना दिया जा सकता है! आनंद कृष्ण के अनुसार, 'अक्सर वे अपने यहाँ आने-जाने वालों को (भी) इस तरह का साहित्य लिखने कि लिए उत्साहित करते रहते थे।'

मेरे पास बरगी नगर शिविर के वक्त की एक रेकार्डिंग है। एक दोपहर अज्ञेय हमें सैर पर भेड़ाघाट ले गए. संभागियों के आग्रह पर संगमरमरी चट्टानों पर बैठे-बैठे धुआँधार प्रपात के नाद के बीच उन्होंने अपनी चुनिंदा कविताओं का पाठ किया। एक कविता 'संभावनाएँ' सुनाने से पहले उन्होंने कहा, 'यह कविता इमरजेंसी में लिखी थी, हालाँकि इस उल्लेख की कोई उपयोगिता नहीं है, या शायद हो भी...!' कविता यों है:

अब आप ही सोचिए

कितनी संभावनाएँ हैं।

कि मैं आप पर हँसूँ।

और आप मुझे पागल करार दे दें;

या कि आप मुझ पर हँसें

और आप ही मुझे पागल करार दे दें;

या आपको कोई बताए कि मुझे पागल करार दिया गया

और आप केवल हँस दें...

या कि

हँसी की बात जाने दीजिए

मैं गाली दूँ और आप

लेकिन बात दोहराने से लाभ?

अज्ञेय कविता का पाठ बहुत जानदार करते थे। पर गाते बेसुरा थे। पर गा लेते थे, यह अहम बात है। जैसा कि किसी ने कहा है, जो गा सकता है वह निर्मल है! काव्य-पाठ के वक्त कभी अपने रचे गीत का पन्ना खुलता तो उनका स्वर भी खुल जाता था। पाठ के लिए कॉपी में उन्होंने अपनी सुघड़ साथ में उतनी ही स्वच्छंद हस्तलिपि में चुनिंदा कविताओं के बीच कुछ गीत करीने से लिख रखे थे। आचार्य जी के आग्रह पर उन्होंने जब अपनी कुछ कविताएँ रेकार्ड करवाईं, 'अरे ऋतुराज आ गया' गीत गाया। जम्मू गए तो यहाँ वहाँ खड़ी कविताओं के बीच 'पूर्णिमा की चाँदनी सोने नहीं देती' गा आए.

वात्स्यायन जी को मैंने दो-तीन बार मंद स्वरों में अकेले गुनगुनाते भी देखा। जैसे कुछ खुद को सुना रहे हों।

बहरहाल, लोहिया-जयप्रकाश के असर और तानाशाही के दौर के बाद अज्ञेय अपने को गांधी-विचार के ज़्यादा करीब पाते थे। ऐसा मैंने पहले-पहल उनके घर एक चहलकदमी के दौरान अनुभव किया। मैंने उनसे पूछा था कि क्या आप कभी गांधी जी से मिले? उन्होंने मेरी तरफ देखे बगैर हँसते हुए कहा, 'अरे! हमारे जैसे कार्यकलाप थे, तब हम गांधी जी के सामने होते तो हमें देखते ही मारने को दौड़ते!' बाद में उन्होंने साफ कहा कि 'तब हमें अपना (हिंसा) रास्ता सही लगता था। अब लगता है गांधी जी का रास्ता ही सही था।' वे गांधी जी के 'नैतिक बल' को ज़्यादा बड़ा समझते थे और इस दृष्टि से उनके व्यक्तित्व को 'महान' मानते थे।

उस रोज मुझे लगा कि एक नायाब जानकारी हाथ लग गई है। जबकि बाद में पढ़ा 1977 में राजेंद्र प्रसाद स्मारक व्याख्यान देते हुए वे कह चुके थे: 'गांधी जी लगातार राजनीति को एक वृहत्तर संदर्भ देने का प्रयत्न करते रहे और उसमें सफल भी हुए: सफल हुए अपनी निष्ठा, प्रतिभा और त्रिकालदर्शिता के कारण... आजादी हमें मिली; लेकिन यह हमारा दुर्भाग्य था कि आजादी पाने के साथ-साथ हमने गांधी जी को खो दिया।'

उसी व्याख्यान में उन्होंने अफसोस की मुद्रा में कहा कि 'गांधी जी का कोई उत्तराधिकारी नहीं हुआ।' फिर गांधीवादियों और जनसंघियों दोनों पर टीका: 'कुछ थे जिन्होंने' सर्व-सेवा'और सर्वोदय के नाम पर आध्यात्म की भूमि पर बल दिया, लेकिन उनका अध्यात्म भी इतना थोथा और संकीर्ण था कि उससे किसी दूसरे को प्रेरणा मिलना तो दूर, गांधी जी की संचित आत्मबल की पूँजी धीरे-धीरे चुका कर वे स्वयं बौने हो गए. ...कुछ दूसरे थे जिन्होंने संस्कृति की बात की; लेकिन उनकी राष्ट्र की कल्पना भी वैसी ही संकीर्ण और थोथी थी। बल्कि उनकी धर्म की और संस्कृति की नैतिक आधार-भित्ति की अवधारणा भी संकीर्ण और थोथी रही।'

1984 में आकाशवाणी अभिलेख के लिए हुई बातचीत में भी वात्स्यायन जी ने स्वीकार किया कि वे गांधी जी के जीते-जी तो विरोधी थे, लेकिन अब 'गांधी जी के विचारों के समर्थक' हैं। अब फिर कुछ आपबीती। यह जिक्र पीछे कर आया कि अज्ञेय के व्यक्तित्व में जिस बात ने मुझे अपनी ओर ज़्यादा खींचा, वह थी मानवीय सम्बंधों में उनकी उत्कट आस्था। यह एक निराला अनुभव था जो उनके चुप्पे-घुन्ने-एकांतिक होने के प्रचलित धारणाओं के सर्वथा विपरीत था।

लखनऊ लेखक शिविर के बाद दिल्ली लौटे तो अपने घर ले गए. यहाँ तक ठीक था। मुझे जयपुर की राह पकड़नी थी। दिल्ली ज़रूरी पड़ाव था। नहा-सँवरकर झोला उठाकर मैंने इजाजत माँगी तो बोले ड्राइवर आपको बीकानेर हाउस के बस अड्डे छोड़ आएगा। आइंदा आप जब दिल्ली आएँ, यहीं ठहरिए. मालूम हुआ कि कहीं और ठहरे हैं तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा। मैंने कहा, जी ज़रूर। हमेशा की तरह, बाद में अहसास हुआ कि उन्होंने क्या कहा। आज तक सोचता हूँ। दिल्ली में रहते ऐसे लोगों से दिल्लगी हुई कि उनके घर का हुलिया देखने को तरसता हूँ! और एक कालजयी साहित्यकार दिल से किसी कस्बाई युवक को मेहमानी का स्थायी न्योता देता था!

धीरे-धीरे में उनसे खुल गया। मेरी झिझक जाती रही। वे हँसी-मजाक करने लगे। मेरी भाषा की अशुद्धियों पर भी इशारे से ध्यान दिलाते थे। मसलन, राजस्थानी के असर में मैं पता चला को 'पत्ता पड़ा' बोलता था। वे मौका देखकर अशुद्ध उच्चारण ठीक मेरे अंदाज में दुहराते और मुझे, देर-सबेर, भूल समझ आ जाती।

दिल्ली में मेरी वजह से उन्हें परेशानी भी ज़रूर हुई होगी। रेस्तराँ में खाना खाने जा रहे हैं। मैं मेहमान बन कर पहुँच गया हूँ। 'हम कहीं जा रहे हैं, देर से लौटेंगे, आप यहीं रहिए' जैसा शहरी छल वे नहीं कर सकते थे। वे मुझे साथ ले जाते और मैं उनकी शाम में भांजी मारता। एक शाम वे किसी के घर खाने पर जाने वाले थे कि मैं बगैर इत्तला दिल्ली आ पहुँचा। उन्होंने चाय पिलाई और अपनी मेजबान-इतिहासकार डॉ. देवहूति-को फोन किया कि हमारे एक मेहमान भी साथ आएँगे। मुझमें ना कहने की सलाहियत कहाँ थी। साथ हो लिया। चाणक्यपुरी के शांति पथ पर फियट को वात्स्यायन जी ने फर्राटे की गति दी। इला जी तो चुपचाप सड़क की ओर देखती रहीं, पर मैं चकित और पूरी तरह रोमांचित। खाने से पहले डॉ. देवहूति ने हमें घर की कलाकृतियों से परिचित कराया। एक कृति में कोई चेहरा भी था। मैंने औचक पूछ डाला-कैरिकेचर (विद्रूप) है? इला जी प्रगट तौर पर सन्न रह गई और थोड़ा मुझे घूरा, शायद इसलिए कि और नादानी न कर बैठूँ। वात्स्यायन जी सहज थे, सहज भाव में ही बोले-नहीं, फिगरेटिव (रूपकार) है।

उनसे संपर्क बढ़ता गया। राजस्थान पत्रिका में मेरे एक सहयोगी श्री महेश शर्मा ने कैलास-मानसरोवर की यात्रा की। उनके संस्मरण प्रौढ़ शिक्षण समिति ने पुस्तक रूप में प्रकाशित किए. यात्रा संस्मरण के लोकार्पण के लिए यायावर अज्ञेय से ऊँचा नाम नहीं सूझा। सुधेंदु पटेल के साथ जो तब समिति से जुड़े थे दिल्ली आकर हमने वात्स्यायन जी से गुजारिश की। उन्होंने हमें कालाजाम खिलाए और मान गए.

कार्यक्रम से एक रोज पहले फोन कर मैंने उनसे पूछा कि किस उड़ान से जयपुर पहुँचेंगे? बोले प्रौढ़ शिक्षा का काम करने वाली संस्था पर विमान का बोझ क्यों? बस का भाड़ा मैं वहन कर सकता हूँ और कल सुबह राजस्थान रोडवेज की दस बजे की बस से आऊँगा। ठहरने का बंदोबस्त करने की ज़रूरत भी नहीं है, दयाकृष्ण जी ने कमरा करा दिया है। यानी हमारे जिम्मे कोई काम नहीं छूटा था, सिवाय आयोजन के कार्ड बाँटने के. कार्यक्रम हुआ। इतना सफल कि किसी लोकार्पण में इतनी भीड़ मैंने उसके पहले या बाद में जयपुर में नहीं देखी।

जयपुर वे कई बार आए. जैसे बीकानेर, उदयपुर, जोधपुर और जैसलमेर भी। एक दफा इला जी साथ थीं। वे रघुवीर सहाय के बेटे वसंत को भी साथ लाए. इला जी ने कहा, ये आपके साथ जयपुर घूमेंगे। मेरे पास तब मोटरसाइकिल होती थी। हम उसी पर घूम आए.

लेकिन अगली दफा मुश्किल पेश आई. वात्स्यायन जी ने कहा, सुबह बड़े तड़के की उड़ान है। आप छोड़ आएँगे? तपाक से बोला क्यों नहीं! बाद में सोचता रहा, निकट के किसी मित्र के पास कार नहीं है! वात्स्यायन जी के पास सामान भी है! हिम्मत कर दफ्तर में बात की। गाड़ी का बंदोबस्त हो गया। सुबह चार बजे देखता हूँ, अखबारों के बंडलों से भरी एक जीप-नुमा 'ट्रेकर' गाड़ी सामने खड़ी है। बस, आगे ड्राइवर के बगल वाली सीट खाली थी। कोई चारा न देख वात्स्यायन जी को आगे बिठाया, पीछे अखबारों और सामान के बीच खुद लदकर किसी तरह हवाई अड्डे पहुँचा आया!

मेरे परिवार के साथ उनकी आत्मीयता जयपुर में ही पनपी. बच्चों के साथ खेलते, उनके हाथ से मिठाई खाते, धूप सेंकते दर्जनों तस्वीरें-जो मित्र रमेश मेहता की मेहरबानी से इंटरनेट पर चली गई हैं-जयपुर की ही हैं। जयपुर में वे राजस्थान विश्वविद्यालय के अतिथि-गृह में ठहरते थे, जो डॉ. दयाकृष्ण के घर के सामने था।

जयपुर एक बार वे रायकृष्ण दास व्याख्यानमाला के आयोजन के लिए भी आए. जुलाई 1985 में। व्याख्यान नरेश मेहता, आनंद कृष्ण और भूमित्र देव ने दिए. उन सत्रों की अध्यक्षता प्रदेश के विद्वानों, दार्शनिक डॉ. दयाकृष्ण, चित्रकार कृपालसिंह शेखावत और कवि नंद चतुर्वेदी ने की। जयपुर के प्रसिद्ध चित्रकार रामगोपाल विजयवर्गीय से उन्होंने आयोजन के उद्घाटन का आग्रह किया। उनसे उनका पुराना परिचय था। फिर भी चाहते थे निमंत्रण घर जाकर दें। मैं उनके साथ गया।

दोनों जाने कितने बरसों बाद मिले होंगे। वात्स्यायन जी ने मिलते ही कहा-आपने पहचाना? विजयवर्गीय जी ने बड़े छायावादी अंदाज में जवाब दिया-कोई सूरज की रोशनी न देख सके तो उसी का दोष होगा। सारी दुनिया आपको जानती है। मैं जानते हुए न पहचानूँ क्या यह संभव है? वहाँ आधुनिक कविता पर बात चल पड़ी। एक मोड़ पर अज्ञेय ने कहा, आज की कविता में कविता कम है, वह प्रकारांतर से 'लँगड़ा गद्य' ही है।

व्याख्यानों से पहले राजस्थान के साहित्य-प्रेम की उन्होंने बड़ी तारीफ की। उन्होंने कहा, 'जिस समाज में हम रह रहे हैं उसमें यह लग सकता है कि साहित्य का कोई प्रयोजन नहीं रहा। मेरी मानना है, ऐसा है नहीं। मेरी इस मान्यता को जब मैं राजस्थान के जनजीवन को देखता हूँ तो और भी बल मिलता है। अगर कहूँ कि यहाँ के जनजीवन से मुझे लगता है कि साहित्य का सचमुच प्रयोजन है तो ग़लत न होगा।'

1987 में वात्स्यायन जी की मृत्यु हुई तब इतवारी का एक विशेष अंक मैंने उनकी स्मृति को समर्पित किया। रघुवीर सहाय, गिरिराज किशोर, बनवारी पंकज आदि कई लेखकों के साथ रामगोपाल विजयवर्गीय ने भी उसमें एक मार्मिक संस्मरण लिखा। बाद में एक प्रसंग उन्होंने 'अज्ञेय' के प्रसिद्ध 'मौन' पर व्यक्तिशः सुनाया। कहीं कोई कला प्रदर्शनी साथ-साथ देखते हुए अज्ञेय और रायकृष्ण दास में घंटों कोई बात नहीं हुई. बेचैन होकर विजयवर्गीय जी ने इसका सबब पूछ लिया था। अज्ञेय तब भी चुप रहे, पर रायकृष्ण दास ने जवाब दिया-हमारी बातचीत तो लगातार होती रही थी, आप ही नहीं सुन पाए होंगे! यानी, आपसी समझ रखने वालों को शब्दों की फिजूलखर्ची की ज़रूरत नहीं पड़ती!

अज्ञेय के साथ मैंने जो यात्राएँ कीं, उनमें माउंट आबू और उदयपुर-नाथद्वारा की याद ताजा है। फरवरी 1982 की बात है। माउंट आबू में वत्सल निधि का शिविर प्रौढ़ शिक्षण समिति के संदर्भ केंद्र के जरिए आयोजित हुआ। दुर्गा भागवत से लेकर विजयदेव नारायण साही, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रामस्वरूप चतुर्वेदी, विपिन कुमार अग्रवाल आदि अनेक लेखक-आलोचक वात्स्यायन जी के बुलावे पर राजस्थान आए. गोष्ठियों की कार्यवाही तो सब जगह एक-सी चलती है। जो अलग से याद है, वह उनका बोलना नहीं, दत्तचित्त होकर सुनना!

वे ढलान पर बनी कुटिया में ठहरे। आलोचक मोहनकृष्ण बोहरा ने उनसे दिल्ली में मिलने का समय माँगा था। वात्स्यायन जी को राजस्थान का भूगोल बेहतर मालूम था। उन्होंने पत्र लिखा कि मैं माउंट आबू आ रहा हूँ, जो आपके सिरोही जिले में ही पड़ता है। आप वहाँ आ जाएँ तो यात्रा का कष्ट बचेगा। बोहरा जी आए और एक शाम एलियट पर अपनी किताब का वह हिस्सा वात्स्यायन जी को सुनाने लगे। शब्द-दर-शब्द। शालीन और विद्वान बोहरा जी से तब तक मेरा परिचय नहीं था। वात्स्यायन जी होंठों पर दोनों हाथ की तर्जनी रखे गौर से सुन रहे थे। न घड़ी की तरफ देखा, न मेरी तरफ। इला जी उस वक्त कहीं हवाई चप्पल खरीदने गई थीं। वहाँ होतीं तो शायद कुछ बोलतीं। दशा देखकर मुझे कोफ्त हुई. पूरा अध्याय सुनकर बोहरा जी ने वात्स्यायन जी की ओर देखा। अज्ञेय पर एलियट के प्रभाव और सम-भाव की उन्होंने लंबी और बारीक व्याख्या की थी। अध्याय पूरा हुआ तो वात्स्यायन जी ने मुस्करा कर गर्दन एक तरफ लचकाते हुए सिर्फ़ इतना कहा 'देयर इज नथिंग अनफेयर इन इट!' और आदर के साथ उन्हें विदा दी। बोहरा जी के जाने के बाद मैंने छेड़ की, आपकी हालत उन्होंने पस्त कर दी! पर वे सहज थे (उनका) बरसों का परिश्रम है। सुनाना चाहते थे; सो सुना!

इस दर्जे का धैर्यवान और सहृदय श्रोता मैंने दूसरा नहीं देखा।

माउंट आबू की एक और याद। सर्किट हाउस में कवि प्रकाश आतुर ठहरे हुए थे। उनकी कविता का तो पता नहीं, पर आदमी उम्दा थे। कांग्रेसी झुकाव के चलते राजस्थान साहित्य अकादमी के अध्यक्ष थे। मुझसे प्रेम रखते थे। उस रोज उनका जन्मदिन था। बोले, अज्ञेय जी यहाँ हैं। तुम कहो तो शाम को यहीं आ जाएँगे। तुम्हारी बात टाल नहीं सकते।

मैं बहकावे में आ गया। हवाई गुरूर का बोध हुआ। मैंने कहा, ज़रूर आएँगे और जाकर वात्स्यायन जी को बुलावा सुपुर्द किया। वे कुछ सोचने लगे। तब तक मैं भी जमीन पर आ चुका था। अपराध-बोध से ग्रस्त-सा-बोला चलेंगे? उन्होंने कहा आपने आतुर जी को क्या यह कहा कि मैं आऊँगा? मैंने कहा जी! बोले इनकार कर दूँ तो इसमें आपकी हेठी होगी। शाम को साढ़े सात बजे आइए, चलेंगे। मुझे थोड़ी राहत तो मिली, पर मन खिन्न रहा।

अज्ञेय, दरअसल, साहित्य के क्षेत्र में सरकारी संरक्षण के खिलाफ थे। मानते थे कि कुछ कलाओं में सरकारी संरक्षण की ज़रूरत हो सकती है, पर साहित्य का उससे अहित होता है क्योंकि वह लेखक को परमुखापेक्षी बनाता है। सरकारी सहायता के साथ राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप चला आता है। राजस्थान साहित्य के मामले में यह बात सौ फीसदी सही थी, भाजपा सरकार आई तो प्रकाश आतुर की जगह दक्षिणमार्गी दयाकृष्ण विजय ने ले ली! आगे उसी दिशा में लेखकों के जुड़ाव-सम्मान का सिलसिला चल पड़ता था।

फिर वात्स्यायन जी को लेखक समाज की शाम की बैठकों की हकीकत भी मालूम रही होगी। बहरहाल, शाम को जब हम पहुँचे तो आतुर जी के कमरे में डॉ. मनोहर प्रभाकर और सावित्री परमार भी आमंत्रित थे। बीच में टेबल पर शराब की बोतल रखी थी। मेरे होश उड़ गए. मांस-मदिरा को छूना मैं बुरा समझता था। गद्गद आतुर जी ने मदिरा पैमाने में ढाल दी। मैंने वात्स्यायन ही की सेवा में पानी उँड़ेलने का उद्यम किया। वात्स्यायन जी ने बहुत आहिस्ता हथेली हिलाते कहा कुछ इसका जायका भी रहने दीजिए! वे बोले तो मेरी जान में जान आई.

उनसे बड़ा रसिक मैंने नहीं देखा। पीने के तो खास नहीं, पर अच्छे खाने के वात्स्यायन जी बहुत शौकीन थे। जयपुर आते तो मिर्जा इस्माइल रोड वाले 'नीरोज' रेस्तराँ ज़रूर जाते। वहाँ का कीमा उन्हें पसंद था, उन्हें पता था कि मांस-मछली मैं नहीं छूता, तो कभी पूछते नहीं थे। रेस्तराँ में रोटी की तश्तरी बाईं तरफ रखने को वे मिथ्याचार का नमूना मानते थे। एक दफा बोले कि दरअसल पश्चिम में लोग छुरी दाएँ हाथ में रखते हैं और खाना बाएँ हाथ के काँटे से खाते हैं। पर हम भारतीय तो सीधे हाथ से खाना खाते हैं। तब उलटे हाथ की तरफ रोटी रखकर उसे सीधे हाथ से उठाने में क्या तुक है! सीधे उठाना है तो तश्तरी भी सीधे हाथ को रखो!

अज्ञेय व्यवस्थित यायावर थे। मगर कभी-कभी तयशुदा यात्रा के साथ कुछ फौरी भटकन भी यात्रा में आ जुड़ती थी। जैसलमेर की यात्रा में सम-लुद्रवा या बीकानेर में देशनोक-गजनेर जा पहुँचना तो सहज है। लेकिन जून 1985 में राजस्थान साहित्य अकादमी सम्मेलन के उद्घाटन के लिए माउंट आबू आए तो एक दोपहर अचानक बोले, नाथद्वारा चलेंगे? और हम उदयपुर रवाना हो गए. वहाँ रजिया तहसीन के घर स्थानीय लेखकों के साथ एक अनौपचारिक बैठक हुई. फिर अगले रोज नाथद्वारा। खाने-पकाने के शैकीन अरुण कुमार (अब पानीबाबा) तब राजस्थान पत्रिका के उदयपुर संस्करण के संपादक थे। वे भी साथ हुए. नाथद्वारा मंदिर में पहले हमने दर्शन किए. वात्स्यायन जी घड़ी भर के लिए खुलने वाले मंदिर के पट के सामने निश्चल खड़े रहे न आस्तिक की तरह, न नास्तिक की बेरुखी में। उसके बाद हमने विराट रसोईघर के आँगन में पालथी मारकर 'प्रसाद' यानी पत्तल को ग्रहण किया।

नाथद्वारा परिसर में शुद्ध घी के 'कुएँ' हैं। 'ठाकुर जी' के लिए छप्पन भोग बनाने में इतना घी लगता है कि उसे कुओं में ही जमा किया जा सकता है। पानी की तरह घी बाल्टी से उलीचा जाता है। मैं मंदिरमार्गी तो नहीं, पर नाथद्वारा के उन व्यंजनों का स्वाद यकीनन दिव्य होता है। तीनों ने पत्तल के सारे व्यंजन चट कर डाले। हमने मुँह साफ भी कर लिया, पर अरुण कुमार जी खाली पत्तल में अभी भी कुछ खोज रहे थे। देखा, वे सूखे पत्तों में फँसी एक-एक सींक निकालकर उसमें सने खाद्य का भाग कर रहे हैं। इससे पहले कि मैं अपनी हैरानी प्रकट करूँ, वात्स्यायन जी ने शायद उसे भाँप कर मेरे कान में कहा वैष्णव संप्रदाय के आस्थावान लोग प्रसाद को गहरी भावना से लेते हैं, इसलिए सींक का प्रसाद जाया नहीं होने देते। मुझे अपने अल्पज्ञान पर खीझ अनुभव हुई.

जैसे उनसे निखालिस पेय का सलीका पाया, दक्षिण भारत जहाँ वे किशोरावस्था में रहे, के व्यंजनों की समझ भी अर्जित की। अपनी ऐंबेसेडर कार तेजी से हाँकते हुए खान मार्केट के पास स्थित एंबेसेडर होटल पहुँचते और भीतर चलने वाले दक्षिणी भोजन के रेस्तराँ 'दासप्रकाश' (अब बंद) में ले जाते। शायद मेरे शाकाहार की कद्र में! डोसा-वडा को छोड़कर वहाँ कुछ भी आजमाने की सूझ देते। वहाँ हम तीन बार गए. इला जी वे भी शाकाहारी थीं हर बार साथ थीं। दक्षिणी रसोई कितनी विविध है, मैंने तभी जाना। या बाद में कभी दक्षिण जाने पर। एक बार मोटापे की चिंता में मैंने खाने में कमी की पर वजन घटता न था। यों वात्स्यायन जी भी अच्छी-खासी कद-काठी के थे। वजन घटाने के मेरे प्रयासों में उन्होंने एक उपाय का इजाफा किया। उन्होंने सुझाया, खाने से पहले खूब मट्ठा पीया करो। उसके बाद खाने की मात्रा अपने आप कम होगी!

अभिजात कहे जाने का खतरा है, फिर भी बता दूँ कि ब्राउन-ब्रेड नामक रोटी के दर्शन सबसे पहले वात्स्यायन जी के घर खाने की मेज पर किए. बीकानेर में तो मैदे की सफेद डबलरोटी भी खास चलन में न थी, आटे (या आटों) की भूरी-मटमैली ब्राउन-ब्रेड कहाँ से आती। वात्स्यायन जी मशीन में उस ब्रेड का कतला खुद सरकाते। सेंक कर, अदा से उस पर मक्खन पसारकर मेहमानों को पेश करते। श्रेष्ठ ब्राउन-ब्रेड का ठिकाना बताना भी नहीं भूलते थे कि वह अशोका बेकरी की होती है। अब इन चीजों की थोड़ी जानकारी मुझे भी हो गई है।

कहना यह कि चिंतन और सर्जन में ही नहीं, खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने, चलने-फिरने, सुनने-बोलने और यहाँ तक कि न बोलने में भी मैंने अज्ञेय में एक अनूठी सुरुचि देखी।

ऐसी सुरुचि का धनी व्यक्ति कभी रूखा या बेजौक नहीं हो सकता। कहने वाले कहें।

उनमें छायाकारी की भी खूब गति थी। यात्राओं में तो कैमरा साथ रहता ही था, घर के अहाते में भी किसी पंछी की मोहक अदा देख भीतर से कैमरा उठा लाते। जैसे शिकारी की बंदूक हर वक्त तैयार रहती है, उनके कैमरों पर लंबे लेंस तने रहते थे। 'सुनहले शैवाल' में कविताओं के बीच उनके खींचे कई चित्र हैं। बेवजह दुष्प्रचार का शिकार हुई मित्र लेखकों की सांस्कृतिक यायावरी जय जानकी जीवन यात्रा और भागवत भूमि यात्रा के दौरान उन्होंने सैकड़ों तस्वीरें खींचीं। इनमें कुछेक सामूहिक वृत्तांत के साथ प्रकाशित हुई हैं।

एक बार उन्होंने मुझे अपनी खींची बहुत-सी तस्वीरें देखने का मौका दिया जिनकी एकाधिक प्रतियाँ थीं, उनकी एक प्रति इतवारी के लिए ले लेने की छूट थी। मैंने उन तस्वीरों को बार-बार देखा। कुछ मेरे दिलोदिमाग पर आज तक अंकित हैं। जैसे मृत्यु-शैया पर अशक्त लेटे प्रेमचंद, शून्य निगाहों से कैमरे को ताकते हुए. युवावस्था में हजारीप्रसाद द्विवेदी, काली दाढ़ी और गांधी-चश्मे में। या, कार की खिड़की के पार होंठों में पाइप दबाए विजयदेव नारायण शाही। कोई एक तस्वीर साधारण चप्पलों में दो भारी-भरकम पाँवों की थी। 'ये साही जी के ही चरण हैं' वात्स्यायन जी बोले।

मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद, निराला, सियारामशरण गुप्त, पंत, महादेवी, जैनेंद्र, फणीश्वरनाथ रेणु, राहुल सांकृत्यायन, अमृतलाल नागर, राय कृष्णदास सब अलग-अलग मुद्राओं में उनके कैमरे में कैद थे। एक बड़े डिब्बे में वात्स्यायन जी के अपने 'पोर्ट्रेट' थे। उनके ये चित्र मशहूर छायाकार ओ.पी. शर्मा ने एक विशेष बैठक आयोजित कर खींचे थे। बाद में शर्मा लंबी यात्रा में अज्ञेय के साथ भी गए और बहुत सुंदर तस्वीरें उतारीं। इनमें कई चित्र वात्स्यायन जी के निधन के बाद पत्र-पत्रिकाओं और किताबों पर छपते रहे। शायद इला जी से मिले हों। लेकिन ओ.पी. शर्मा को उनके सर्जन का श्रेय शायद ही दिया गया। जन्मशती समारोह के वक्त किसी तरह मैंने ओ.पी. शर्मा का ठिकाना ढूँढ़ा। अशोक वाजपेयी जी के साथ उनसे त्रिवेणी के तहखाने में भेंट की। वक्त बेहद कम था, पर हमारे आग्रह पर उन्होंने अज्ञेय की चुनिंदा तस्वीरों के बड़े प्रिंट बनवा कर एक प्रदर्शनी साहित्य अकादेमी परिसर में लगवा दी। इस प्रदर्शनी का खर्च रजा फाउंडेशन ने वहन किया। इतना ही नहीं, नब्बे वर्ष में पहुँच चुके सैय्यद हैदर रजा अकादेमी में खुद मौजूद रहे।

अज्ञेय पढ़ते खूब थे। अक्सर लेटे-लेटे, आराम और इत्मीनान की मुद्रा में। यों यह सिलसिला उनकी हर मेज पर देखा जा सकता था। एक बार बैठक की गोल मेज पर रखी किताबों को मैं उलट-पलट कर देख रहा था। एक किताब सूसन के. लेंगर की फीलिंग एंड फार्म: एक थियरी ऑफ आर्ट थी, दूसरी चेखव की प्रेमिका लिडिया एविलोवा के संस्मरणों का अनुवाद चेखव इन माइ लाइफ। बाद में पता चला कि दोनों किताबें माँगी हुई हैं, जबकि घर में किताबें रखने को ठौर न थी! पहली किताब निर्मल वर्मा के यहाँ से आई थी, दूसरी पर राजेंद्र यादव नाम लिखा था। बाद में अज्ञेय बोले हिन्दी में ये दोनों 'सबसे वेल-रेड' लेखक हैं!

राजेंद्र जी से बरसों बाद मैंने यह जिक्र किया। उन्होंने बताया कि अज्ञेय जी से वे ज़्यादा मिले तो नहीं, लेकिन वह किताब उनसे शायद रघुवीर सहाय या सर्वेश्वर दयाल ले गए थे।

एक किताब वात्स्यायन जी को देने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ। वह थी उनकी अपनी पहली काव्यकृति भग्नदूत। हनुमान चालीसा की तरह गुटके के आकार में लाहौर से छपी किताब मुझे बीकानेर के लेखक-अनुवादक रामनरेश सोनी ने दी थी। मैंने वात्स्यायन जी से अपने उस कीमती स्वामित्व का जिक्र किया। एक दिन इला जी ने कहा ओम, वह किताब तुम वत्सल (अज्ञेय) को दे दो! उनके पास नहीं है। मैंने एक रोज खुशी-खुशी दे दी। उन्हीं की थी!

वात्स्यायन जी नए लेखकों को भी बहुत पढ़ते थे तभी अधिकार से कह सकते थे कि 'आज की कविता बहुत बोलती है, जबकि कविता का काम बोलना नहीं।' युवा लेखकों की चिट्ठियाँ भी उन्हें बहुत आती थीं। कुछ युवकों से सिलसिलेवार पत्राचार चलता था। पता नहीं कैसे, पर कमोबेश हर चिट्ठी के जवाब के लिए वक्त निकाल लेते थे। रोज नहीं। फुरसत का कोई एक रोज। जवाब देकर मूल पत्र पर दर्ज करते 'उत्तरित' और साथ में तारीख! उनके घर से निजी कागजात-पांडुलिपियों आदि के जो बीसेक बक्से मिले हैं, उनमें ज्यादातर पत्र-व्यवहार है। एक पत्राचार छप्पन साल पुराना देखिए: विजय मोहन सिंह (अब प्रतिष्ठित आलोचक) ने इलाहाबाद के इरविंग क्रिश्चियन कॉलेज के छात्रावास से उन्हें लिखा:

'शेखर' पढ़कर मैं आपको अपने काफी निकट महसूस कर रहा हूँ... मेरे प्रिय लेखक शरतचंद्र रहे हैं, पर मेरी सबसे प्रिय पुस्तक 'शेखर' है... 'शेखर' की आलोचनाओं को भी पढ़ता हूँ। मुझे दुख होता है कि आपने इनका मुँहतोड़ उत्तर क्यों नहीं दिया। यदि आप आज्ञा दें तो मैं अपनी अल्पमति से इनका उत्तर देने की चेष्टा करूँगा। यदि आप मेरी इसमें सहायता करें... विजय मोहन सिंह (10.11.54)

उस जमाने में साधारण डाक भी आज के कूरियर से पहले पहुँचती होगी। दस नवंबर के पत्र का जवाब अज्ञेय ने तेरह नवंबर को 'उत्तरित' कर दिया: ' रचना किसी को प्रिय लगे, इससे हर लेखक प्रसन्न होता है... आलोचना की हिन्दी में बहुत गिरी हुई अवस्था है। प्रशंसा और निंदा दोनों ही निराधार या बहुत कम आधार लेकर होती है... लेकिन साहित्य का मूल्यांकन अंततोगत्वा पेशेवर आलोचक नहीं, विवेकशील पाठक करते हैं। ...कृतिकार का श्रेष्ठ साधन (और कह लीजिए अस्त्र) उसकी कृति ही है: अगर वह कोई काम नहीं कर सकती तो उसकी पैरवी से वह काम कैसे होगा?

वात्स्यायन जी को कला की गहरी समझ थी। लेखक की जगह उन्होंने पहले चित्रकार और बाद में मूर्तिकार बनने के सपने देखे थे। सतीश गुजराल की पहली चित्र प्रदर्शनी के लिए दिल्ली में जब कोई दीर्घ नहीं मिल रही थी, उनके बड़े भाई इंद्रकुमार गुजराल ने अज्ञेय के घर पहुँचकर मदद की गुजारिश की। वात्स्यायन जी ने युवक सतीश की कलाकृतियाँ मँगवाईं और बाद में जनपथ पर प्रदर्शनी की व्यवस्था कराई. इस प्रसंग का जिक्र सतीश गुजराल ने अपनी जीवनी में और इंद्रकुमार गुजराल ने अज्ञेय की मृत्यु पर लिखे लेख में किया है, जो नवभारत टाइम्स में छपा था।

वात्स्यायन जी का घर अनेकानेक कलाकृतियों से सुसज्जित था। बैठक में ठीक सामने की दीवार पर एक कृति चित्रकार-कथाकार रामकुमार की थी। उसके बारे में एक बार उन्होंने बताया कि अपने जन्मदिन पर वे कहीं बाहर थे। इला जी भी घर नहीं थीं। पीछे रामकुमार अचानक आए और यह कलाकृति रखकर लौट गए. रामकुमार ने वात्स्यायन जी के कहने पर उनकी कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद नीलांबरा के लिए अनेक रेखांकन भी बनाए थे। मरुथल शृंखला की एक हस्तलिखित पुस्तिका में भी रामकुमार के रेखांकन हैं।

अज्ञेय के पचहत्तरवें जन्मदिन पर कुमार गंधर्व ने स्वेच्छा से कैवेंटर ईस्ट की बगिया में गाने की इच्छा जाहिर की। शाम को खाना और फिर घरेलू महफिल जमाना तय हो गया। अभी इला जी बैठने के बंदोबस्त को सलीका दे रही थीं कि कुमार जी संगीतकारों के साथ शाम ढलने से पहले आ पहुँचे। व्यवस्था के निरीक्षण में उन्होंने हाथ बँटाया और फिर अनवरत तीन घंटे निर्गुण संगीत की धूनी रमाई.

अंत में फिर थोड़ी घर की बात। पिछले दिनों बेटे का जयपुर में विवाह हुआ। वहीं पर चिकित्सक है। विवाह की घड़ी में तीन दिवंगतों की याद ने बहुत सताया। अपनी दादी की, जो पोते को गोद खिलाने की आस लगाए उसके जन्म से कुछ पहले चल बसी थीं। प्रभाष जोशी जी की, जो उसे एमबीबीएस पूरा करते ही संभावनाओं और ठिकानों की राह सुझाते थे और वात्स्यायन जी की, जिन्होंने बेटे का नाम रखा था 'मिहिर' ।

मृत्यु से कुछ रोज पहले इला जी ने हम सब को घर बुलाया था। पत्नी को उन्होंने एक आभूषण नेपाली मंगलसूत्र दिया। बेटी को धन। बेटे के सिर पर हाथ फेरा और फिर उसे एक नीले रंग का जैकेट देते हुए बोलीं: यह वत्सल का है। बड़े हो गए हो, तुम्हें अब यह पूरा आएगा।

वह वस्त्र हम सबको पूरा आया है। हमारे लिए घर में अज्ञेय की वह शाश्वत मौजूदगी है। उसकी गरमाई घर में हमें हरदम महसूस होगी।