छिद्दा पहलवान वाली गली / शैलेश मटियानी

Gadya Kosh से
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पिछले कई वर्षों से, लगभग प्रत्येक मंगलवार को, वह हनुमान मन्दिर आता रहा है। अपनी सम्पूर्णता में सिन्दूर-तेल से सनी हुई हनुमानजी को विशाल मूर्ति उसे सदैव एक अवतार-पुरुष की-सी दिव्यता से अभिभूत करतो रही है। मगर जब से छिद्दा पहलवान उसकी गाभन भैंस हाँक ले गया, वह हर समय अपने कच्चे घर की दीवारों पर सूखते हुए उपलों-जेसे फुस- फुसे अवसाद से घिरा रहा हूँ। वह जानता नहीं, सिर्फ अनुभव करता है। भाषाविहीनता में वह अपनी भैंस से मिलता-जुलता है। वह नहीं जानता कि उसकी तरह का आतंकग्रस्त व्यक्ति निरुपाय नहीं, सिर्फ असहायता महसूस करता है, क्योंकि भय और दहशत को सहने की तैयारी अपने-आप में एक उपाय के अलावा और कुछ नहीं है।

वह यह भी नहीं जानता कि हनुमानजी की मूर्ति भी सिर्फ एक उपाय है, जिसके सहारे वह अपनी असहायता और भयग्रस्तता को बर्दाश्त करने का संघर्ष तो अब तक लगातार करता रहा, मगर छिद्दा पहलवान के आतंक से मुक्त नहीं हो सका। यह कितनी विचित्र विडम्बना है कि आदमी अपनी चरम असहायता में अपने भीतर राख के भीतर बचे रह गये अंगारे-जैसी किसी चीज को या कि अपनी कायरता की बर्दाश्त कर सकने की ताकत को और ज्यादा तेजी से खोदने लगता है। न जाने कितने दिनों की बेचैनी और दयनीय मरभुसपने के बाद कब्र में दफना दिये जाने के बावजूद जिन्दा रह गये इन्सान की तरह, अपने ऊपर की मिट्टी हटाता हुआ बाहर निकल आया है। वह, यानी रामभरोसे कल रात-भर अपने-आपको चूहे की तरह खोदता रहा है। सबेरे उठते ही उसने बोतल में बाकी छुटी हुई देशी को गले में अर्ध्य की तरह उतारा है। इसके बाद उसे मंगलवार के होने की याद आयी है। सिन्दूर की पुड़िया और तेल की कुप्पी को उसने अपनी मुट्टियों में भींचा हूं। भैंस के खाली खूंटे के पास बैठी हुई उदास और दुखी पत्नी उसे विधवाओं की-सी मुद्रा में लटकी हुई दिखायी दी है। औरतों की जैसी मुद्रायें मर्द की हिम्मत पर लानत बिखेरती हुई-सी उसके आस-पास मंडराने लगती हैं। उसने गौर से, आँखें गड़ाकर अपनी घरवाली को देखने की कोशिश की, तो वह उठकर खड़ी हो गई और बगलवाली गली में जाकर बैठ गई। घरवाली के वापस लौट आने पर अब यह उसे बेसाख्ता याद आया कि उसकी छिद्दा पहलवान द्वारा हाँक ली गई गाभन भैंस चारों तरफ मंडराती हुई पानी किया करती थी। एक बार और अपनी घरवाली को धूरने के बाद, वह बाहर निकल आया। जान-पहचान के लोगों में से कोई उसे देख तो नहीं रहा होगा, इस सावधानी में उसने चारों तरफ आँखें घुमाने की कोशिश की तो पाया कि वह हनुमानजी की विशाल मूर्ति के सामने खड़ा हो चुका है और-चाहे यह देशी का खुमार हो या भक्ति की अभिभूतता और या अपने अन्दर की असहायता की जकड़न-सिर्फ हनुमानजी की विशाल मूर्ति को एकटक घूरते रह जाने के अलावा, अब इस वक्त कुछ भी और करने में वह असमर्थ हो चुका है।

इधर उसकी पत्नी तक कह चुकी हूँ कि वह गूँगा हो गया है। अब आज, इस वक्त, उसे पहली. बार महसूस हो रहा है कि अपने अन्दर-ही अन्दर बोलते चले जाने के एहसास से घिरे हुए आदमी में दूसरे लोगों से बातें करने की इच्छा सूखने लगती है। डरा वह पहले भी हूँ। लोगों से। अपनी परिस्थितियों से। अपनी पत्नी के मायकेवालों से और अपनी आदतों से। मगर कायरता की ऐसी विचित्र ग्लानि से लथेड देने वाला डर उसने जिन्दगी में पहली बार महसूस किया है। छिद्दा पहलवान द्वारा हाँक ली गयी गाभन भैंस को वापस हाँक लाने की अदम्य इच्छा ने उसकी असमर्थता को और उघाड़ दिया है। अपनी गाभन भैंस की याद आते ही वह बुरी तरह विचलित हो जाता है। सिन्दूर-तेल को हनुमानजी के चरणों में चढा देने की जगह उसने अपनी हथेलियों में रपट-रपटकर सान लिया। अचानक तीव्रता से यह इच्छा उसमें जागी कि अपने ही मुँह पर मल ले। और इस इच्छा को अनुभव करते ही उसे एक क्षण को लगा, जैसे वह हनुमानजी की दिव्यता या विकरालता के काफी करीब पहुँच गया है। वि क रा ल ता. ..बस सिर्फ यही चीज है, जो उसे मुक्ति दे सकती है।

जिस तेजी से वह हनुमानजी के चरणों की ओर लपका, अपने अन्दर बादल और बिजलियों की प्रचक्त गड़गड़ाहट को सुनने की-सी अनुभूति उसे हुई। इतने दिनों की लगातार-लगातार विचलितता और बेचैनियों के बाद, अपने अन्दर प्रचंड शोर और बिजलियों की-सी कौंध की अनुभूति करते हुए उसे लगा, जैसे वह वाणी उसे अब मिल गयी है, जिसके द्वारा वह ऐन छिद्दा पहलवान के मुँह पर कह सकता है-'तेरी माँ की....' उसकी, लगभग बिजली की कौंध की ही तरह फिर अपनी गाभन भैंस की याद आयी और उसने अपनी आँखों को मूँद लिया। इस वक्त वह घुटनों के बल बैठा हुआ था। घुटनों पर काफी जोर पड़ रहा था। एक अजीब-सी सनसनी उन पर कौंध रही थी। जब भी, जितनी देर भी वह छिद्दा पहलवान और अपनी गाभंन भैंस के बारे में सोचता है, अपने अन्दर उसे ठीक ऐसी ही सनसनी महसूस होती है। बिजली की-सी कौंध की तरह सोचती और बोलती हुई सनसनी। कभी-कभी अपने अन्दर की भाषा को आदमी अपने समूचे शरीर में अनुभव करने लगता है। पत्थर की मूर्तियों में जो भाषा उसे दिखायी देती है, यही भाषा है। रामभरोसे को यह भाषा इस वक्त अपने धुटनों पर महसूस हो रही है।

'तेरी मां की....' वह जिस जोश-खरोश के साथ उठा, उसे 'तूफान की-सी तेजी के साथ'-जैसे लम्बे मुहावरे में फैला देने की जगह, सिर्फ एक शब्द कह देना ज्यादा सटीक हो सकता है-वि क रा ल ता। असहायता की चरम यंत्रणा और कारुणिकता में से आदमी किस तरह अपने-आपको एक जमीन में गड़ी हुई अजनबी मूर्ति की तरह खोद निकालता है! उसे लगा, उसके सामने जो हनुमानजी की विकराल मूर्ति ढै, उसे अभी--भी खोदकर खड़ा किया गया है। उसने बड़े गौर से हनुमानजी के विशाल भुजदण्डों और उन पर टिके हुए द्रोण पर्वत को देखा। और यह धारणा बनाते हुए उसे एक आत्मतुष्टि का एहसास हुआ कि हनुमानजी की मूर्ति की कल्पना किसी डरे हुए आदमी ने ही को होगी। रामभरोसे को अब, एक मुद्दत के बाद, एकाएक याद आया कि बचपन में जब वह अंटी खेलता था, तो एक बार अपने छोटे भाई को सिर्फ इतनी बात पर न-जाने कितनी बार जमीन पर पटका था कि अंटी उसने बित्ता आगे बढाकर मारी थी।

वैसे यह किसी हद तक निराशाजनक स्थिति भी हो सकती है कि अपनी आज तक की जिन्दगी में लड़ी हुई लड़ाइयों में से स्मरणीयता के स्तर की लड़ाई सिर्फ एक वही रह गई! छोटे भाई को अंटी के लिए पटकने के अलावा स्मृति में कुछ बचा ही नहीं। मगर, इस वक्त, उसे डर और पीड़ा से त्रस्त पिल्ले की तरह कूँकते हुए अपने छोटे भाई की स्मृति बहुत ज्यादा छोटी चीज नहीं लगी और वह उसके खून तथा धूल से सने उस चेहरे को याद करने की कोशिश करने लगा, जो बाद में चेचक की बीमारी में गुम हो गया था। उसका चेचक के फोड़ों से भरा हुआ चेहरा भी बहुत विकराल लगता था। अगर वह जिन्दा होता, तो अट्ठाईस के करीब होता। छिद्दा पहलवान से लड़ने के इरादे में उसका भी शामिल होना एक सहारा देता। भाई आखिर भाई होता है। 'लेकिन अब अकेला ही काफी हूँ !' सोचते हुए उसे फिर अपनी सम्पूर्ण विकरालता में दहाड़ने की जैसी अनुभूति हुई और वह काफी दूर- दूर तक लगभग उछलता हुआ-सा चला गया। हालांकि यह एक विचित्र- सी स्थिति है कि अपनी स्मृतियों को अपने चारों ओर फैलाने पर लगातार यही लगता रहता है कि कहीं कोई ऐसी चीज जरूर है, जो याद करने, अपनी स्मरण-शक्ति पर जोर डालने के लिए न-जाने कब से रामभरोसे को बेचैन किए हुए है, मगर फिर डूब-सी जाती है। रास्ते से गुजरते हुए, सबसे पहली मुलाकात उसकी फूलवाले पंडित से ही हुई, जो उसे लगभग हिदायत देने की-सी मुद्रा में समझा गये थे कि- 'बेटे, छिद्दा पहलवान के मुंह लगना ठीक नहीं !'

कल यों ही उसने कह दिया था कि अगर सीधे से नहीं लौटायी गयी, तो जबरदस्ती अपनी भैंस खोल लायेगा। उसे हैरत हुई थी कि डरे हुओं की और डराने वालों की भाषा में इतनी एकरूपता कैसे हो सकती है? ठीक यही वाक्य उसकी जरूरत से ज्यादा ही डरी हुई घरवाली ने भी कहा था कि-'छिद्दा पहलवान के मुँह न लगना !' ओफ्फोह, अब इस वक्त उसे याद आ रहा है कि जिस समय उसकी घरवाली ने यह वाक्य कहा था, उसे लगा था, अगर शादी के समय दो में से एक को चुनने का सवाल होता, तो उसकी पत्नी निश्चित रूप से छिद्दा पहलवान की बगल में जा खड़ी होती! भय की लगातारता और धृणा को अंत.हीनता को कोई आदमी अगर अपने अंदर से उलीचना भी चाहे, तो उसकी सार्थकता आईने में थूकने से ज्यादा हो नहीं सकती। लगातार सोचते-सोचते रामभरोसे को लग रहा था, जैसे वह थूकने के लिए जगह ढूंढता फिर रहा है। 'थू... ' थूकने के लिए उसने ऐसे मुंह खोला, जैसे अद्धे के मुंह पर से कार्क उखाड़ रहा हो। उसे इस बात के एहसास से अत्यन्त संतोष हुआ कि फूलवाले पंडित की ओर उछले हुए उसके थूक के साथ-साथ, उसका छिद्दा पहलवान वाली गली में चुगने का निर्णय भी फूलवाले पंडित के गुल- दार चेहरे पर चिपक गया होगा। अपनी इस गलती को सुधारने की उसने कोई जरूरत नहीं समझी कि कुल गुलदार का नहीं, गुलदावर का होता है ।

आदमी जब अपने भाषा को सुधारने की आवश्यकता अनुभव नहीं करता, तब उसका डरा हुआ चरित्र एक ऐसी बिल्ली की शक्ल में उसके सामने होता है जिसे गर्दन के ऊपर की खाल पकड़कर उठा लीजिये तो एक लिजलिजी-सी निष्क्रियता अपने अंदर की सारी बौखलाहट को सुन्न कर देती है । रामभरोसे सिर्फ महसूस करता है, जानता नहीं । वड़ी दैर तक घुटनों के बल बैठे-बैठे उसे लगा, वह अपने सम्पूर्ण चरित्र पर वैठा हुआ है । साधु-सन्यासी, पंडित-पुजारी या सजायाफ्ता अपराधियों से आँखें मिलाते हुए, उसे अपने चरित्र को टटोलने की-सी हड़बड़ाहट होती है । मगर फूलवाले पंडित के माथे पर पुते हुए चंदन की जगह, इस वक्त, क्रोध और दुस्साहस की विकरालता से पसीजते हुए अपने माथे का पसीना उसे ज्यादा दिव्य लगा । उसने तड़ाक से पसीना पोंछा और फूलवाले पंडित की तरफ उछाल दिया ।

जिसका आतंक अपने-आपको दबोचे हुए हो, उससे द्वंद्व-युद्ध करना या आतंकित करने वाले को शक्ति का ढिंढोरा पीटने वाले से लड़ना-दोनों ही स्थितियाँ समान रूप से उत्तेजित और अहंकार को तृप्त करने वाली होती हैं । रामभरोसे को फूलवाले पंडित पर उफनते हुए छिद्दा पहलवान से ही लड़ने की-सी उत्तेजना हुई थी । वह, शायद अपनी कल्पना में फूलवाले एंडित को जमीन पर पटक चुका होता कि सहसा सुनायी दे गये इस वाक्य नै उसे स्थिर कर दिया- 'क्यों, बेटे रामभरोसे! किधर जा रहा है ?' अब वह अपनी सम्पूर्ण कुटिलता के साथ मुसकरा उठा । उसे लगा, इस वक्त फूलवाले पंडित को जमीन पर पटकना या सिर्फ यह वाक्य कह देना कि-'पालागी पंडित! जरा छिद्दा पहलवान वाली गली में जा रहा हूँ !'

-दोनों बराबर सार्थक होंगे । छिद्दा पहलवान वाली गली !-अपने अदम्य आक्रोश की भयंकरता

में जिस रास्ते पर वह चला आ रहा था, उसको लगा, उसके लिए 'छिद्दा पहलवान वाली गली' से ज्यादा सटीक नाम कुछ और नहीं हो सकता । इस ससुरे फूलवाले पंडित की आँखों में यह गलीज मुहावरा कोयले से लिखा हुआ-सा दिखाई देता है-'जिसकी लाठी, उसकी भैंस !' इसको जमीन पर पटकने से ज्यादा सार्थक मुहावरे से पटकना होगा । उसने इरादा किया कि तड़ाक से उठे, जिससे घुटनों की नसें चटक जाएँ और पंडित को लगे कि अपनी गाभन भैंस के लिए वह छिद्दा पहलवान से भी भिड़ जायेगा । कल-बल्कि आज सुबह तक वह कहने और राय देने वालों की बातों को चुपचाप सुन ले रहा था । बोलकर अपने-आपको सही या शक्तिशाली सिद्ध कर सकने का सामर्थ्य उसके अन्दर से जैसे बालु के कच्चे घड़े में भरे .हुए जल की तरह छीज चुका था । मगर अब-इस वक्त-उसकी वाणी को पत्ते-जैसे कूट रहे हैं । छिद्दा पहलवान वाली गली!

अपनी असहायता, आत्मग्लानि, भयग्रस्तता और कायरता के आत्म- दंश से लिथड़ी हुई धृणा-छिद्दा पहलवान के आतंक के जहर को पचा सकने मै असमर्थ होकर, वह जितनी भी मानसिकताओं से गुजरा है-वे .सब छिद्दा पहलवान वाली गलियाँ हैं । मगर हो सकता है, आज के बाद, लोगों को कई नये मुहावरे मिल जाएँ । जैसे 'छिद्दा पहलवान वाली गली में घुसना' या कि 'यह तो छिद्दा पहलवान वाली गली से गुजरा हुआ है' और या कि 'हनुमान को रावण की लंका क्या' के वजन पर 'रामभरोसे को छिद्दा पहलवान वाली गली क्या'.... उसके ये मुहावरे, हो सकता है, लोगों की स्मृति में से 'लाठी और भैंस' वाले मुहावरे को हमेशा-हमेशा के लिए मिटा दें! उसने अपने हाथों को पर्वत उठाने की-सी मुद्रा में ऊपर उठाया और फूलवाले पंडित पर अपना मुहावरा फेंक दिया-'पालागी, पडत जी! जरा छिद्दा पहलवान वाली गली में जा रहा हूँ !' एक प्रचण्ड आत्मदर्प से वह पिघलने-पिघलने को हो आया। हालांकि. धूप अभी काफी तेज नहीं चढी है। हलकी-हलकी हवा भी चल रही है। मोहल्ले के लोग शायद अभी दातौन-शौच आदि नित्य-कर्मों से खाली नहीं हुए हैं। ढोर-डंगरों की गोबर उठाई जा रही है। यानी रोज की तरह सिलसिलेवार काम निबट रहे हैं। मगर सिर्फ एक अगले क्षण में, जब वह छिद्दा पहलवान वलिा गली में घुस चुका होगा, पूरे मोहल्ले का खाका एकाएक बदल जायेगा। ओह! यह याद करना कितना-कितना वजनदार और रोमांचक है कि जिस समय रामभरोसे को लाठी की मार से छिद्दा पहलवान खून से लथपथ गली में नीचे गिरा पड़ा होगा और उसकी बीवी विधवाओं की तरह चीख-चीखकर विलाप कर रही होगी.... तो क्या, सबेरे उठते-उठते ही जो उसे अपनी पत्नी भैंस के खाली खूँटे के पास विधवाओं की-सी असहनीय मुद्रा में लटकी हुई दिखायी दी, सिर्फ इसी दहशत के कारण तो नहीं कि अगर छिद्दा पहलवान ने उसे जान से मार डाला, तो करमदेई रांड हो जायेगी?

'तेरी माँ....' अजीब बात है कि छिद्दा पहलवान को माँ की गालियाँ देते समय रामभरोसे को अपनी गाभन भैंस की याद और ज्यादा तेजी से आती है। 'ज्जै बजरंग बली की !' अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ वह आगे को उछल पड़ा। इस वक्त, निश्चित रूप से, अपनी शक्ति की सम्पूर्णता उसकी अपनी मुट्टियों में बन्द थी। वह जानता था कि छिद्दा पहलवान से अपनी भैंस को लड़कर छीन लाने के निर्णय ने उसे अन्तहीन साहस से मंडित कर दिया है। 'हट ज्ज्ज्जावव! साले हरामज्जादे !' रामभरोसे ने कल्पना करने की कोशिश की कि जितनी भयंकर आवाज में वह चिल्लाया है छोटे-छोटे बच्चे त्रस्त होकर, अपनी-अपनी माँ से चिपक गये होंगे! हो सकता है, ज्यादा महीनों वाली गर्भवतियों को भी कुछ नुकसान पहुँचे....।

अब फिर एकाएक उसे याद आया कि कल रात वह लगातार इस चिंता से ग्रस्त रहा था कि अगर कहीं छिद्दा पहलवान ने गुस्से में उसकी गाभन भैंस के पेट को लाठी से कोच दिया, तो भैंस मर भी सकती हे।.... रामभरोसे को, अब इस समय, यह भी याद आया कि जिस गाभन भैंस को छिद्दा पहलवान हाँक ले गया, उसका पहली बार का कटडा, दूध न पिलाने से जल्दी ही मर गया था मगर उसकी खाल में भुस भरकर तब तक रखे रहना पड़ा, जब तक भैंस ने दूध देना बन्द नहीं कर दिया। भैंस खरीदने के लिए पठानी सूद पर लिया हुआ कर्ज अगर आज तक नहीं चुकाया जा सका है, तो उसकी वजह सिर्फ एक ही भैंस के भरोसे गृहस्थी टँगी रहने के साथ-साथ, उसकी शराब पीने की आदत भी है। अपनी इस कमजोरी को वह निष्क्रिय बिल्ली की तरह अपने अन्दर टाँगे हुए फिरता रहा है। जितनी शराब वह पी गया, उतना दूध पीता होता, तो आज शरीर ज्यादा शक्तिशाली होता और शायद छिद्दा पहलवान से लड़ने का निर्णय लेते हुए इतना डर नहीं महसूस होता।

नहीं, इस तरह से सोचना गलत होगा। डरा हुआ आदमी अपनी नैतिकता को बार-बार सिर्फ इसलिए टटोलता है कि अपनी कायरता का औचित्य सिद्ध कर सके। रामभरोसे को अच्छी तरह याद है कि जहाँ वह आधी ही बोतल में थक जाता है, छिद्दा पहलवान पूरी बोतल गरारे करता हुआ-सा डकार जाता है। जिस वक्त छिद्दा पहलवान भैंस हाँक से गया, उस वक्त भ।' वह नशे में चूर मालूम पड़ता था।....मगर रामभरोस को तो यही लगा था, जैसे उसका नशा छोड़, खुन भी उतरता जा रहा है और उसे अपने सम्पूर्ण शरीर में सक बदबू-सी फैलती महसूस होती रही थी-लेकिन इस तरह की बातें उसे नहीं सोचनी चाहिये। अपनी कायरता और असहायता को लगातार-लगातार जुगाली करते जानवरों की तरह स्मरण करते रहना, सिर्फ धृणा उत्पन्न करता है, शक्ति या साहस नहीं। रामभरोसे अपने-आपको बटोरता हुआ-सा फिर आगे बढ़ गया और इस बार काफी तेजी से। जैसा कि उसने अनुमान लगाया था, छिद्दा पहलवान इस वक्त चबूतरे पर बैठा दातौन ही कर रहा था। रामभरोसे को देखते ही, छिद्दा पहलवान ठीक उतने ही रोब और अहंकार के साथ खड़ा हो गया, जितने की उसने कल्पना की थी। जिस शत्रु को पराजित कर सकने का आत्मविश्वास अपने अंदर हो, उसको अहंकार और क्रोध में बौखलाते हुए देखना कितनी तृप्ति दे सकता है।

शत्रु का सारा अहंकार, सारी बौखलाहट सिर्फ दयनीयता और करुणा उत्पन्न करने लगती है, यदि यह पता हो कि 'साले को मिट्टी में मिला देना है !' उसने छिद्दा पहलवान के क्रुद्ध चेहरे को उपेक्षित करते हुए, उसके घर के अंदर झाँककर देखने की कोशिश की कि आखिर उसकी घरवाली कहाँ है? छिद्दा पहलवान को मार-मारकर, पटक-पटककर खून से लथपथ कर देने की अपनी शक्ति पर वह इस समय राई-भर भी संशय अनुभव नहीं कर रहा था। हालाँकि शारीरिक वृष्टि से वह छिद्दा पहलवान से काफी कमजोर ही नहीं, बल्कि रोगी भी हूँ। उसने लाठी को कसकर पकड़ लिया। उसे लगा, बहुत ज्यादा देर तक छिद्दा पहलवान की तुलना में अपनी शारीरिक दुर्बलता को ढाँका नहीं जा सकेगा। उसने एक क्षण में यह तय कर लिया कि अब छिद्दा पहलवान से अपनी लड़ाई को ज्यादा देर तक .स्थगित नहीं रखना चाहिए। हो सकता हूँ, बाद में हिम्मत पस्त हो जाए! उसने, बिना चारों ओर देखे ही, यह अनुभव कर लिया कि सारे मोहल्ले की भीड़ वहाँ एकत्र हो चुकी है। सभी की आँखों में अपार दया- सी झाँक रही है कि 'बेचारा रामभरोसे छिद्दा पहलवान के हाथों बुरी तरह पीटा जायेगा....शायद खून उगलता-उगलता मर ही जाए.... !' नहीं, मोहल्ले वाले सुसरों की इस तरह की दया धृणा से भी ज्यादा खतरनाक होती है। छिद्दा पहलवान की ओर से पहल किये जाने की प्रतीक्षा में खड़ा रहना अब उसे बिलकुल-बिलकुल व्यर्थ लगा और गुलदार फी-सी तेजी से उछल- कर उसने छिद्दा पहलवान की गर्दन दबोच ली! आश्चर्य से विमूढ़ छिद्दा पहलवान जब तक सँभले, रामभरोसे ने दाएं हाथ का घूंसा वज्रप्रहार की तरह उसके जबड़े पर जड़ दिया।

रामभरोसे के एक ही घूंसे में छिद्दा पहलवान के कई दाँत जबड़ा फाड़कर ऊपर निकल आये और खून का फव्वारा-सा फूट पड़ा। अपनी विकरालता में भी आदमी कितना दयनीय और कारुणिक लग सकता है, यह इस वक्त खून से लथपथ छिद्दा पहलवान को देखकर ही जाना जा सकता है। जब तक छिद्दा पहलवान जबड़े पर पड़े भयंकर आघात को संभाले, रामभरोसे ने बिजली की-मी तेजी से अपनी लाठी धुमाई और ऐन छिद्दा पहलवान के माथे पर....

हनुमानजी की विशाल मूर्ति के आगे घुटनों के बल झुके रहने और देर तक अपनी सम्पूर्ण कल्पनाशक्ति का उपयोग करने पर भी, उसने कहीं अत्यन्त गहरे से यह अनुभव कर लिया, कि अब और आगे सोचना निरर्थक है। इस तरह को कल्पनाएँ ज्यादा देर तक करते रहना बाद में बड़ी देर तक थकान और व्यर्थता के एहसास से पस्त किये रहता है। हनुमानजी की मूर्ति के सामने से उठते हुए उसे अपने दोनों घुटने थकान से काँपते हुए-से लगे। ठीक से खड़ा हो सकने को कोशिश करते हुए उसे लगा, किसी मुर्दे को खड़ा कर रहा हं। उसे लगा, अपनी कायरता के एहसास को वह अब पहली बार सम्पूर्ण आत्मस्वीकृति दे पा रहा हूं कि नहीं, छिद्दा पहलवान से अपनी गाभन भैंस वापस ला सकने को ताकत उसमें नहीं है।

इतने दिनों के अन्तर्द्वन्द्व और अनिश्चितता के बाद, अब इस समय पहली बार इस दोटूक निर्णय पर पहुँचा कि छिद्दा.पहलवान वाली गली में जाने के लिए तो सिर्फ एक ही रास्ता रह गया है-जैसे भी हो, रुपयों का बंदोबस्त करे और ब्याज समेत चुकाकर, भैंस वापस ले आए!

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