छीनकर ले गई ये सदी मेरा जंगल / जयप्रकाश चौकसे

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छीनकर ले गई ये सदी मेरा जंगल
प्रकाशन तिथि : 15 फरवरी 2022

गौरतलब है कि असम में माजुली नामक प्रसिद्ध जगह है। यहां के लोगों ने कई वर्ष मेहनत करके एक जंगल का निर्माण किया है। ज्ञातव्य है कि इनकी मेहनत और लगन व प्रकृति प्रेम को देखकर इन्हें मैक्सिको से भी निमंत्रण आया है कि वे वहां जाकर जंगल का निर्माण करें। गोया की सदियों पहले सब जगह जंगल ही थे। लेकिन इंसान, शहर और कस्बे बनाने के लिए जंगल काटता गया। दरअसल मनुष्य के लोभ और लालच ने उससे अति करवा दी। मनुष्य ने पेड़ काटना शुरू किया तो उसने रुकने का नाम ही नहीं लिया।

आज ‘टार्ज़न’ पात्र के रचने वाले की याद आती है कि उसने कितने पहले उस महान किताब की रचना की। एक मानव बालक जंगल में छूट जाता है और वहां पल-बढ़कर जानवरों की भाषा सीख जाता है। जानवर भी उसे समझने लगे और प्यार करने लगे। वर्षों बाद वहां शोध के लिए एक दल पहुंचा। दल की महिला सदस्य की मुलाकात टार्ज़न से हुई और उनके बीच प्रेम हुआ और मात्र दो शब्दों में प्रेम अभिव्यक्त हुआ ‘मी टार्ज़न यू जेन।’ शहर और जंगल विकास में हमने प्राकृतिक संतुलन खो दिया।

बिमल रॉय की जन्म-जन्मांतर की प्रेमकथा ‘मधुमति’ में नायिका के पिता का संवाद है कि ‘हम इन जंगलों की देखभाल करते थे और आदिवासी हमें जंगल का राजा मानते थे।’

गोया की जंगल की लकड़ी काटने के ठेके दिए गए। ठेकेदार ने पहले वे पेड़ काटे जिस क्षेत्र का ठेका उसके पास नहीं था। बाद में अपने क्षेत्र के पेड़ काटे। अफसरों से कहा गया कि इस काम के लिए समय कम पड़ रहा है इसलिए कुछ अतिरिक्त समय दिया जाए। भ्रष्ट अफसरों की सांठ-गांठ से पेड़ कटते गए।

मनुष्य अपने पैरों पर कुल्हाड़ी खुद मारता है। विदेशों में भी जंगल सुरक्षा पर फिल्में बनी हैं। किताबें भी लिखी गई हैं। जेम्स कैमरून की फिल्म ‘अ‌वतार’ में मानव दल अपना संचार स्टेशन बनाने के लिए वृक्ष काट रहा है। एक महिला सदस्य कहती है कि किसी भी स्थान पर पेड़ काटो, तो दर्द संसार के सारे वृक्षों को होता है।

मनुष्य ने संवेदना खो दी है। एक दौर में अपने गांव में घर का पता बताने के लिए कहा जाता था कि ‘फलां नीम के वृक्ष के नीचे मेरी मां रहती है।’ अत: वृक्ष पहचान पत्र था, आधार कार्ड था।

आज महानगरों में भी बालकनी पर छोटे पौधे लगाए जा सकते हैं। घरों को वृक्षों के रंगों से रंगा जा सकता है। रंग भी जलवायु में परिवर्तन लाते हैं। असल बात तो यह है कि हृदय में संवेदना का वृक्ष पनपता रहे। वैज्ञानिक अनुसंधान के बाद सामने आया तथ्य है कि वृक्ष के सामने संगीत बजाने पर वे जल्दी पनपते हैं। संगीत से रोगों के इलाज भी होते हैं।

एक बार जावेद अख्तर ने कहा था कि चलती हुई रेलगाड़ी से देखने पर लगता है कि दरख्त भाग रहे हैं। जबकि असल में तो हमारी ट्रेन भाग रही होती है। ठीक इसी तरह समय तो अपनी जगह खड़ा है और मनुष्य ही भाग रहा है। भारतीय वैज्ञानिक ने सबसे पहले कहा था कि ‘मनुष्य चलता-फिरता वृक्ष है और वृक्ष ठहरा हुआ मनुष्य है।’ वृक्ष से जड़ी-बूटियां मिलती हैं, जिनसे प्राण बचते हैं। जानवर वह पत्तियां नहीं खाता जो उसके लिए हानिकारक हैं। पशु-पक्षी और जानवर प्रकृति को मनुष्य से बेहतर समझते हैं। उनके बीच संवाद भी कायम रहता है। हमने तो संवाद करने की इच्छा ही खो दी है। बहरहाल, हर घर में बहुमंजिला की बालकनी में भी पौधा अंकुरित किया जा सकता है। शादी-ब्याह और जन्मदिन पर एक-दूसरे को पौधे भेंट किए जा सकते हैं। आज भी प्रकृति संरक्षण किया जा सकता है। शोध कहते हैं कि शोर करने से पत्तियां सहम जाती हैं। इसलिए संवाद, धीमे स्वर में भी किया जा सकता है। खामोशी भी बहुत कुछ अभिव्यक्त करती है। यह भी सच है कि नकारात्मकता और वैचारिक संकीर्णता भी प्रकृति को कष्ट दे रही है।