छुटकारा पाना संभव नहीं / गोवर्धन यादव

Gadya Kosh से
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घड़ी की टिक-टिक के साथ ही वह भी जाग रहा था। रात्रि के ग्यारह बज चुके थे और मार्ग्रेटा अब तक नहीं लौटी थी। नींद से आँखें बोझिल होने लगी थीं, सिर भारी होने लगा था, बावजूद इसके वह जाग रहा था। जाते समय वह उसकी गाड़ी लेती गई थी और कह गयी थी कि जल्दी ही लौट आएगी। लेकिन वह अब तक नहीं लौटी थी। उसे लेकर मन के आंगन में शंका और कुशंका के जहरीले नाग फ़न उठाये विचरने लगे थे। एक विचार आता। मन कहता, नहीं...ऎसा नहीं हो सकता। तत्काल दूसरा विचार आ धमकता। उसे भी उसका मन स्वीकर नहीं कर पाता। फिर एक विचार कौंधा...हो सकता है कि नशे की हालत में कहीं उसकी गाड़ी ठुक तो नहीं गई? मन में ऎसा विचार आते ही वह असहज हो उठा था।

नये विचारों के साथ, नई दुनियाँ में उड़ान भरने वाली मार्ग्रेटा ने अपनी एक अनोखी दुनिया बसा ली है। उसके एक नहीं बल्कि कई-कई दोस्त हैं। उसी तरह उसने कई क्लब भी ज्वाईन कर रखे हैं उसने। उसे कई बार समझाने की कोशिश की कि कहीं उसके साथ कोई हादसा न हो जाये, या फिर कोई उसकी इज्ज्त न लूट ले, उसे ऎसी जगह नहीं जाना चाहिए. वह एक कान से सुनती और दूसरे से बाहर निकाल देती। इसके उलट वह उसके उपदेशों को सुनकर उसे एक जाहिल गवांर या मिसफ़िट होने का लेबल लगाते हुए कहती...दुनियाँ कहाँ से कहाँ निकल गई है मिस्टर और तुम हो कि अब तक पुरानी जड़ों को पकड़े बैठे हो। रही इज़्ज़त लूटने की तो किसी में इतनी हिम्मत नहीं है कि वह मेरी ओर आँख उठाकर भी देख सके. जिम में जाते हुए मैंने अपने बचाव के सारे हुनर सीख रखें है। इसलिए मुझे डर नहीं लगता। एक फ़्रीलांस रिपोर्टर को तो हिम्मतवर होना बहुत ज़रूरी होता है...फ़िर हम इस रंगीन दुनिया में आए है तो हमें उसी तरह रंगीनियत में जीना चाहिए, उसका आनन्द उठाना चाहिए. यहीं नहीं और भी तरह-तरह के तर्क लगा कर वह उसे चुप रहने पर मजबूर कर देती।

मन में एक बार उठ खड़ी हुई विचारों की आंधी थमने का नाम नहीं ले रही थी। उसने निर्णय किया कि उसे अब सो जाना चाहिए. जो भी होगा सामने आएगा, तब देखा जाएगा। लाईट बुझा कर उसने चादर को खींचकर अपने पैरों पर डाला ही था कि गाड़ी की आवाज़ सुनाई दी। उसे यक़ीन हो गया कि वह लौट आयी है। दरवाज़ा हल्के से बंद था। उसने धक्का देकर खोला और लड़खड़ाते कदमों से चलते हुए अपने कमरे में समा गई. उसने जानबूझ कर चुप्पी साध ली थी कि व्यर्थ की बकवास में क्यों पड़ा जाए क्योंकि नशे में धुत्त व्यक्ति कुछ ज़्यादा ही विद्वान हो जाता है। ऎसे समय में बात करना उचित नहीं होता।

नींद के बोझ से पलकें भारी होने लगी थी लेकिन घड़ी की टिक-टिक के साथ ही विचारों की टिक-टिक भी शुरु हो गई थी, जो थमने का नाम नहीं ले रहीं थीं। बिस्तर पर असहाय पड़ा वह अपने आपको कोस रहा था और कोस रहा था उस मनहूस घड़ी को जब उसके जीवन में मार्ग्रेटा का प्रवेश हुआ था। बीते हुए कल के पन्ने फ़ड़फ़ड़ाने लगे थे और वह उसमें समाने लगा था।

कम्पनी ने उसे एक पाश कालोनी में तीसरे माले पर एक फ़्लैट दे रखा था जो एक आयताकार ज़मीन पर निर्मित किया गया था। आयत के चारों ओर बिल्डिंगे खड़ी की गई थीं और आयत के भीतर एक खेल परिसर का निर्माण किया गया था जिसमें बच्चे खेल-खेल सकें। पिछवाड़े की ओर खुलने वाली खिड़की के ठीक सामने वाली खिड़की जिस पर मोटा पर्दा डला रहता, इसी में वह रहा करती थी।

एक शाम। जब वह आफ़िस से घर लौटा तो उसने सहज रूप से अपनी खिड़की को खोला और अपनी दोनों कुहनियों को टिकाते हुए बच्चों को खेलता देखता रहा था। तभी सामने वाली खिड़की जो शायद ही कभी खुली हो, खुलती है और उसमें एक युवती प्रकट होती है। वह अपने हाथ हिला-हिलाकर अभिवादन करती नज़र आयी। कुछ देर बाद उसने अपनी हथेली को फ़ैलाया और फ़ूंक लगाते हुए एक लंबा फ़्लाईंग-किस हवा में उछाल दिया था। शायद वह अपने किसी ब्वायफ़्रेंड के लिए ऎसा कर रही होगी। वह यह समझ नहीं पाया कि ये सब उसके लिए ही किया रहा है। प्रतिदिन यह क्रम दोहराया जाता रहा और वह एक मूकदर्शक की तरह देखता रहा।

एक दिन। शाम को आफ़िस से लौटते हुए जैसे ही अपना दरवाज़ा खोला, एक लिफ़ाफ़ा पड़ा दिखा। उस पर पाने वाले का नाम नहीं था। उत्सुकतावश उसने लिफ़ाफ़ा खोला। तह किए गए काग़ज़ को सीधा किया। उसमें लिखा था-" हेलो जानेमन... बड़े बेरुखे हैं आप! । हम प्रायः रोज़ ही हाथ हिला-हिलाकर आपका इस्तकबाल करते रहे हैं, फ़्लाईंग-किस देते रहे हैं लेकिन आपने कोई प्रतुत्तर नहीं दिया। क्या इतना भी नहीं समझते कि एक लड़की अगर इतना कुछ कर रही है तो क्यों कर रही है? यह सब आपके लिए ही किया जा रहा था। मैं भी एक नामी-गिरामी प्रेस में काम करती हूँ। घर आकर कोई काम तो रहता नहीं, सो बोर होते रहती हूँ। अकेली हूँ न! । समय काटे नहीं कटता। चाहती थी कि आपसे दोस्ती जोड़ी जाए तो समय आराम से काटा जा सकता है। आपकी ओर से कोई पहल न होते हुए देखकर मैंने ख़ुद चलकर यह लिफ़ाफ़ा आपके दरवाजे से अन्दर सरका दिया था। नीचे मेरा कांटेक्ट नम्बर नोट है, आप इस पर मुझसे संपर्क कर सकते हैं। मुझे आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी... मार्ग्रेटा...

पत्र पढ़कर पूरा हुआ ही थी तभी कालबेल घनघना उठी। उसने वहीं से बैठे-बैठे कहा-"प्लीज कम-इन...दरवाजा खुला हुआ है।" वह तब तक नहीं जान पाया कि आने वाला कौन है? शायद वह इस भ्रम में भी था कि कोई मित्र मिलने आया होगा। सहसा दरवाज़ा खुला। अपनी सैंडिले खटखटाते हुए उसने कमरे में प्रवेश किया। उसके प्रवेश के साथ ही खुशबूदार लैवेण्डर / परफ़्यूम की मादक गंध से पूरा कमरा गमगमा उठा। नज़दीक आते ही उसने हाथ मिलाने के लिए अपनी हथेली को आगे बढ़ाते हुए कहा-"हाय हैण्डसम...आई एम मार्ग्रेटा...आपकी पड़ौसी... चौंक गए न मुझे देखकर...मैंने सोचा...जब दोस्ती करनी ही है तो इस बात का इंतज़ार ही क्यों किया जाये कि पहल कौन करेगा? । इधर से गुजर रही थी, सो सोचा कि चलकर मिल ही लिया जाये। अचानक...इस तरह आकर मैंने आपको डिस्टर्ब तो नहीं किया?"

अचकचा गया था देवेन्द्र कि उसके सामने एक हुस्न की परी अचानक आकर खड़ी हो गई है। झीने कपड़ों में से झांकता उसका गदराया यौवन और शरीर सौष्ठव को देखकर कहा जा सकता है कि विधाता ने उसे किसी ख़ास सांचे में ढालकर बनाया होगा। उसकी पलकें झपकना भूल गईं थीं और वह फ़टी आँखों से उसके माधुर्य का रसास्वादन करने में खो-सा गया था। वह प्रत्युत्तर में बहुत कुछ बोलना चाह रहा था लेकिन शब्द जैसे गले में आकर अटककर रह गए थे।

इस तरह एक कातिल हसीना ने उसके जीवन में प्रवेश किया था। रोज़ फ़ोन लगते। गुदगुदी बातें होतीं। मदहोश कर देने वाली खुमारी उस पर तारी होने लगती। कभी वह चुप्पी साध लेती। जानबूझ कर फ़ोन का स्विच आफ़ कर देती... वह बार-बार फ़ोन लगाता लेकिन आउट आफ़ कव्हरेज की ट्युनिंग सुनकर उसकी बेचैनी बढ़ जाती। कभी आ धमकती फिर एक लंबा अन्तराल बना लेती। वह यह सब जानते बूझते कर रही थी। जानती थी वह कि उसने अपने यौवन के मद में डूबो कर जिस तीर का संधान किया है, वह ठीक निशाने पर पड़ा है। वह यह भी जानती थी कि जितनी ज़्यादा बेचैनी बढ़ेगी, उतना ही वह पास आता जायेगा और फिर वह इस क़दर अपने आपको उलझा लेगा कि सिवाय मेरे, उसे कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा।

बढ़ती बेचैनी अब व्यग्रता के रूप में ढलने लगी थी। उसकी स्थिति कुछ ऎसी होने लगी थी उसकी जैसे जल बिन मछली की होती है। न खाने-पीने से मन जुड़ पा रहा था उसका और न ही आफ़िस के काम को वह उतनी तल्लीनता से ही कर पा रहा था।

एक शाम। उसका रुठा हुआ वसंत लौट आया था। वियोग की तपिश से मुर्झाया चेहरा खिल उठा था। कामनाएँ मचलने लगीं थीं। आकाश पटल पर काले कजरारे मेघों को देखकर जिस तरह मयूरा नाच उठता है, ठीक उसी तरह उसका मन आनन्दित होकर थिरकने लगा था "कहाँ गायब हो गईं थी मिस मार्ग्रेटा तुम...तुम्हें देखने को आँखें तरस गईं...कितनी बार मैंने फ़ोन लगाया, लेकिन कनेक्ट नहीं हो पाया...कहाँ चली गईं थीं तुम" । बिस्तर से उठते हुए उसने कहा।

" अभी जैसे-तैसे शाम हुई है और आप हैं कि बिस्तर से चिपके पड़े हैं...क्या बात है...तबीयत तो ठीक है न! । उसने नज़ाकत के साथ कहा।

"नहीं...कुछ ऎसे ही...थोड़ा सिरदर्द हो रहा था..."

"लो... इतनी से बात है...अभी दर्द भगाये देते हैं" ।

उसने अपना पर्स खोला। एक बोतल निकाली और उठते हुए किचन से दो ग्लास और फ़्रीज से कुछ नमकीन और पानी की बोतल उठा लाई. बोतल का कार्क खोला और ग्लास में उडेंलकर बढ़ाते हुए कहा-"लीजिए... दो घूंट हलक के नीचे उतारिये...दर्द अभी छूमंतर हो जायेगा" ।

"ये क्या...शायद शराब है? ...मैं शराब नहीं पीता"

"कौन कमबख्त कहता है कि ये शराब है...ये जौ के दानों से बनी बियर है... गर्मी के दिनों में इसका इस्तेमाल किया जाता है...जो दिल और दिमाक को ठंडक पहुँचाती है... समझे।"

"वाह कमाल की चीज है...सिर दर्द एकदम से गायब हो गया" । चहका था देवेन्द्र।

"कितनी भीषण गर्मी पड़ रही है...क्या आपको ऎसा नहीं लग रहा...मुझे तो बेहद गर्मी लग रही है" । कहते हुए उसने अपनी कुर्ती निकाल कर एक ओर रख दिया था। अब वह केवल ब्रेसरी में उसके सामने बैठी हुई थी। उसके तराशे हुए संगमरी जिस्म को देखकर देवेन्द्र के जैसे होश ही उड़ गए थे...दिल में खलबली से मचने लगी थी। वासनायें धधकती ज्वाला कि तरह प्रज्जवलित हो उठी थीं। उसने आगे बढ़कर उसे अपनी बाहों के घेरे में ले लिया था। मदहोशी के चलते क्या कुछ हुआ, उसे याद नहीं। लेकिन जब वह सोकर उठा तो बिस्तर खाली था। शायद वह जा चुकी थी।

इसके बाद वह चार-पांच दिन तक दिखाई दी और न ही उसका फ़ोन आया। देवेन्द्र अपनी ओर से उसे बार फ़ोन लगाकर संपर्क करने की कोशिश करता, लेकिन "आउट आफ़ रेंज" की ट्युनिंग सुनकर उसे खीज होने लगती। मन में विचार आया कि ख़ुद चलकर उसके फ़्लैट में जाना चाहिए, लेकिन वह हिम्मत नहीं जुटा पाया था।

एक शाम। फ़ोन की घंटी बजी. उसने यह सोचते हुए लपक कर फ़ोन उठाया कि शायद मार्ग्रेटा का फ़ोन होना चाहिए. अंदाजा सही निकला। उसने एक ही सांस में न जाने कितनी ही बातें कह सुनायी। शिकायतें दर्ज कराते हुए अब वह अन्दर से पूरी तरह खाली हो गया था। उसे अब मार्ग्रेटा के जवाब का इंतज़ार था।

"देवेन्द्र... मुझे नौकरी से टर्मिनेट कर दिया गया है और अल्टिमेटम भी दिया गया है कि मैं एक सप्ताह के भीतर फ़्लैट खाली कर दूं । अब आप ही बतलायें मैं कहाँ जाऊँ...क्या इतने कम समय में शहर में दूसरी जगह तलाशी जा सकती है? ।फ़िर एक अकेली लड़की को कोई भी इतनी आसानी से फ़्लैट नहीं देगा...पहले तो तरह-तरह के सवाल पूछे जाएंगे... कई-कई जानकारियाँ ली जाएंगी, तगड़ी रक़म पगड़ी के रूप में ली जाएगी, तब कहीं जाकर फ़्लैट मिल पाएगा। आप मेरे दोस्त हैं। ऎसी कठिन परिस्थिति में मुझे आपका साथ चाहिए. क्या हम एक छत के नीचे रहते हुए अपनी दोस्ती का निर्वहन नहीं कर सकते? मेरे वहाँ रहते जो भी ख़र्च आएगा, उसमें मैं आपसे शेयर करुंगी। कुछ दिनों की बात है, दूसरी नौकरी लगते ही मैं आपका फ़्लैट खाली कर दूंगी। मुझे आपके उत्तर की बेसब्री से प्रतीक्षा रहेगी।"

प्रत्युत्तर में वह कुछ कह पाता, इसके पहले ही मार्ग्रेटा ने फ़ोन काट दिया था। अब उसकी बारी थी। उत्तर उसे देना था। हाँ कहे या फिर सिरे से इंकार कर दे। वह गंभीरता से सोचने लगा था। "उसका वर्तमान तो मैं जानता हूँ कि वह एक रईस बाप की इकलौती संतान है, । रही भविष्य की बात, तो वह उससे अपना फ़्लैट खाली करने को तो कह ही सकता है, लेकिन उस स्थिति में क्या होगा जब उसके माता-पिता उससे मिलने न आ धमके. वे चार-छ महिने के अंतराल में आते हैं। चार-छः दिन रुककर लौट भी जाते हैं। लेकिन आने से पहले सूचित ज़रूर करते हैं। यदि ऎसा कुछ हुआ तो उसे किसी होटल में तब तक रुकने को कहा जा सकता है, । फिर वह अपनी ओर से कह भी चुकी है कि दूसरी नौकरी लगते ही शिफ़्ट हो जाएगी" । यह सोचते हुए उसने मार्ग्रेटा को फ़ोन लगाया और कहा कि जब तक तुम्हारे रहने के लिए दूसरी व्यवस्था नहीं हो जाती, तब तक वह उसके साथ रह सकती है।

यही तो चाहती थी मार्ग्रेटा। अपने मन की मुराद पूरा होते देख वह चहक उठी थी। उसने तत्काल अपना सामान पैक किया और आ धमकी। फ़्लैट में दो बेडरूम थे। एक पर उसने कब्जा जमा लिया था।

मार्ग्रेटा का साथ पाकर खुश था देवेन्द्र। प्रेमालाप में मगन रहते हुए उसका दिन कैसे बीत जाता, पता ही नहीं चल पाता। हाँ, उसके मन में एक शिकायत ज़रूर बनी रहती कि भगवान ने रातों को इतनी छॊटी क्योंकर बनाया होगा? ।

एक दिन। किसी काम से वह बाहर गया हुआ था। तभी फ़ोन की घटीं टिनटिना उठी। घंटी बजती रही थी लगातार, लेकिन मारग्रेटा ने जानबूझकर फ़ोन नहीं उठाया था। वह नहीं चाहती थी कि किसी को पता चले कि वह धर्मेन्द्र के साथ "लिव-इन-रिलेशन" में रह रही है। आने वाला फ़ोन धर्मेन्द्र के पिताजी का था। घर से निकलने के पहले वे इतल्ला नहीं दे पाए थे। सो स्टेशन पर से उन्होंने फ़ोन लगाते हुए सूचित करना ज़रूरी समझा था। उन्होंने आटॊ लिया और सीधे चले आए थे।

कालबेल की आवाज़ सुनकर उसने यह सोचते हुए दरवाज़ा खोला कि देवेन्द्र लौट आया है। दरवाज़ा खुलते ही उसकी नज़र एक अपरिचित व्यक्ति पर पड़ी। उसने देखा। धोती-कुर्ता पहने उस व्यक्ति ने सिर पर टोपी पहन रखी है और आँखों पर चश्मा चढ़ा हुआ है तथा हाथ में छड़ी उठा रखी है। देखते ही समझ गई कि हो न हो देवेन्द्र के पिताजी ही होने चाहिए. वह कुछ कह पाती, उन्होंने भारी-भरकम आवाज़ में पूछा-"तुम कौन हो और देवेन्द्र कहाँ है? ऎसा तो नहीं कि उसने फ़्लैट बदल लिया है, कहीं मैं ग़लत पते पर तो नहीं आ गया?" ।

"जी नहीं आप सही पते पर आए हैं...आइए... अन्दर तो आइए... कहते हुए वह पीछे हट ली थी। अपने जूते खटखटाते हुए वे अन्दर चले आए थे और एक कुर्सी पर बैठ गए थे। बैठते ही उन्होंने पूछा-" बेटी, तुम कौन हो, पहचान नहीं पाया। इससे पहले तो तुम्हें यहाँ नहीं देखा? " ।

सिट्टिपिट्टी गुम हो गई थी मारग्रेटा कि-कि क्या जवाब दे। क्या वह यह कहकर बतलाए कि वह आपके बेटे की लव्हर है...दोस्त है, या यह बतलाए कि वह एक पेईंग-गेस्ट की तरह यहाँ रह रही है, या कि वह धर्मेन्द्र के साथ लिव-इन-रिलेशन में रह रही है? । किसी तरह उसने अपनी बिखरी हुई हिम्मत को समेटते हुए कुछ कहना चाहा, लेकिन शब्द गले में आकर अटक कर रह गए थे। वह एक बुत की तरह नीची गर्दन लिए खड़ी रह गई थी। उसे इस बात का भी भय मन में समाया हुआ था कि उसे अस्त-व्यस्त कपड़ों में देखकर न जाने उन्होंने क्या कुछ नहीं सोचा होगा उसके बारे में।

पिता समझ गए. न समझने जैसी कोई बात ही नहीं थी और न ही जवाब-सवाल करने की ज़रूरत थी। उन्होंने दुनियाँ देखी है। दुनियाँ की रीति-रिवाजों से परिचित थे और जानते थे कि निपट गाँव से चलकर शहर आया आदमी किस तरह शहरों की चकाचौंध में अपने को झोंक देता है। शहर उसे कितना अपना बना पाता है, ये तो वे नहीं जानते, लेकिन इतना अवश्य जानते है कि गाँव से निकला नौजवान एक बार शहर आता है तो दुबारा पलटकर गाँव नहीं लौटता। गाँवों में बचे रहते है अपाहिज, लंगड़े, लूले, बिमार, लाचार बूढ़े लोग, जो अपना सर्वस्व लुटा कर, आशा भरी नजरों से अपने बेटॊं की राह तकते हुए अपनी आँखें गवां देते है, लेकिन वे निष्ठुर कभी नहीं लौटते। उन्होंने अपने बेटे का वर्तमान और ख़ुद के भविष्य का आकलन कर लिया था और वापिस लौटने का मन बना लिया था।

कुर्सी से उठते हुए उन्होंने कमरे का एक चक्कर लगाया। टेबल पर बिखरी शराब की बोतलें और ग्लास देखकर उनकी आँखें नम हो आयी थी। बाहर निकलने से पहले वे इतना ही कह पाये थे कि देवेन्द्र को बतला देना कि उसके पिता आए थे लेकिन किसी ज़रूरी काम की वज़ह से रुक नहीं पाए.

थका-हारा देवेन्द्र घर लौटा। अपनी बुझी हुई आवाज़ में उसने बतलाया कि पिताजी आए थे और तत्काल ही वापिस लौट गए. यह सुनते ही देवेन्द्र सन्न रह गया था। धड़कने तेज होने लगी थी और आँखों के सामने अन्धकार नाचने लगा था। सोचने-समझने की बुद्धि कुंठित होने लगी थी। काफ़ी देर तक अवसन्न स्थिति में बने रहने के बाद वह कुछ सामान्य स्थिति में आने लगा था।

वह गंभीरता से सोचने लगा था कि देवता तुल्य उसके पिताजी गाँव से चलकर उससे मिलने आए थे और बिना कुछ कहे वापिस लौट गए? । कैसे क्या बीती होगी उनके मन पर? । कितना संताप हुआ होगा उन्हें यहाँ आकर? कितना कुछ सोच रखा होगा उन्होंने मेरे बारे में? न जाने कितने सपने बुने होंगे उन्होंने मुझ को लेकर और मैं हूँ कि उन सपनों में रंग नहीं भर पाया? । सोचते-सोचते उसकी रुह कांपने लगी थी और आँखों से आँसू झरझरा कर बह निकले थे।

मिचमिची आँखों को पोंछते हुए उसने एक बोतल निकाली। कार्क खोला। गिलास में उंडेला और तब तक पीता रहा, जब तक वह नशे में धुत्त नहीं हो गया था। मारग्रेटा ने उसे अपनी बाहों का सहारा देते हुए किसी तरह बिस्तर तक लाया और सुला दिया।

मन पर लगे आघातों को शराब के सहारे मिटाया जा सका होता तो न जाने कितने ही गमॊं से सहज ही में छुटकारा पाया जा सकता है, लेकिन होता है इसके उलट है। नशे की हालत में आदमी और ज़्यादा दार्शनिक हो जाता है...खुद स्वयं से बात करने लगता है और अक्सर बड़बड़ाने लगता है...चीखने-चिल्लाने लगता है और अजीबो-गरीब हरकतें करने लगता है।

हड़बड़ा कर उठ बैठा धर्मेन्द्र। वह कितनी देर रात तक नशे की हालत में सोता पड़ा रहा था, उसे याद नहीं। उसने लाईट आन किया। घड़ी की ओर देखा। रात के पांच बज रहे थे। उसके ठीक बगल में मारग्रेटा चित पड़ी सो रही थी। लालिमायुक्त उसके होंठों पर मधुर मुस्कान खेल रही थी। शायद वह कोई हसीन सपना देख रही होगी। अस्त-व्यस्त कपड़ों में से उसका जोबन बाहर तांक-झांक रहा था। वह इस निश्कर्ष पर पहुँच चुका था कि मार्ग्रेटा से छुटकारा पाना अब इतना आसान नहीं है। वह उसके बगैर एक पल भी नहीं रह सकेगा। रही पिताजी से बात करने की, तो वह गाँव जाकर उन्हें सब कुछ बतला देगा। पिता उदारमना है, मान जायेंगे। मानेंगे कैसे नहीं, ...एकलौती संतान जो हूँ मैं उनकी।

उसकी उंगलियाँ मार्ग्रेटा कि उलझी हुई लटॊं से खेलने लगी थी। देर तक लटॊं से खेलते रहने के बाद अब उसकी हथेली उसकी संगमरमरी देह पर फ़िसलने लगी थी।