जंगली कबूतर / इस्मत चुग़ताई / पृष्ठ 3

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‘‘चलो दीवानी न बनो, फिर कल शादी थोड़ी हो रही है, माज़िद मियाँ ने तुमसे ख़तों-किताबत की इजाज़त तलब की है।’’

‘‘नहीं भई..दूसरे, ख़तो किताबत से क्या होता है।’’

‘‘ए बी तो क्या कोर्टशिप लड़ाने के इरादे हैं। अरी तुम तो इतनी खुशनसीब हो कि बातचीत का भी मौक़ा मिला। हमने तुम्हारे दूलहा भाई की एक झलक भैंस की कोठरी में से छुपकर देखी थी। और अल्लाह क़सम इस एक झलक ने अपने तो छक्के छुड़ा दिए। बस दिन-रात ये लगता था, वह आए हैं। बैठे घूर रहे हैं। आँखों ही आँखों में छेड़ रहे हैं। तौबा !’’ बजिया हँसते-हँसते लोट गईं।


‘‘दिल फेंक बेशक हूँ मगर इतना यक़ीन दिलाता हूँ कि अब तक इस दिल को किसी ने लपका नहीं है।’’ माज़िद ने अपने ख़त में लिखा, ‘‘और ये दावा नहीं कर सकता कि तुमसे शादी करने के बाद ज़ाहिदे-ख़ुश्क बन जाऊँगा, ये तुमको, फैसला करना होगा कि तुम अपनी चीज़ वापस लेकर किसी और को देने दोगी या नहीं ?’’

‘‘मैं दिल लेने-देने की चीज़ नहीं समझती, दिल कुछ भी हो, आपकी मिल्कियत ही रहेगा। आप जी चाहे तो बाँटते फिरिएगा। मगर ये याद रखिए कि मैं भागीदार नहीं बन सकूँगी’’, आबिदा ने जवाब दिया।

‘‘भई बड़ी कट-हुज्जती हो। इसका ये मतलब है हमारी शादी नहीं हो सकती।’’ माज़िद ने लिखा।

‘‘नहीं इसका ये मतलब नहीं,’’ आबिदा ने बड़े सोच-विचार के बाद जवाब दिया।

शादी के बाद आबिदा को मालूम हुआ कि जो चिट्ठियों के द्वारा जीत सकता है, वह जब आमने-सामने हो इंसान कैसा बेबस, कितना अपाहिज महसूस करता है। उसने कभी किसी दूसरे मर्द से मुहब्बत तो दूर उसके ख़्याल को भी दिल में जगह नहीं दी थी। माज़िद के इश्क में उसे खुदा का जलवा नज़र आया। दोनों हाथों से अपनी दुनिया समेटकर उसके वजूद में डुबो दी। मगर औरत वाली ख़ुद्दारी को हाथ से न जाने दिया। अगर माज़िद को आने में कभी ज़रा देर हो जाती तो वह बेक़रार डबडबाई आँखों से दरवाज़ा तका करती लेकिन जब वह घर में दाखिल होता तो अपने दिल की धड़कनों को मसल कर बड़ी ‘बेताल्लुक’ सी बनकर किसी फ़िजूल से काम में लग जाती। वह बेक़रारी से उसे अपने आग़ोश में खींचता तो वह ज़ब्त करके उसके जोश पर ठण्डे पानी के छींटे-डाल देती।

‘‘अरे-अरे....ये क़ालीन तो देखिए, ठीक है ना।’’ और माज़िद क़ालीन को देखने लगता। इतने में उसका जोश ठंडा पड़ जाता। वह उसे प्यार की तरफ ध्यान देने का कम से कम मौक़ा देने के लिए किसी बेकार-सी आर्थिक और राजनीतिक समस्या में उलझा देती।

और तो और वह इस डबल बेड पर भी ज़र्रा-बकतर (कवच) न उतारती। क्योंकि वह उससे डरती थी। वह हरजाई था ना ! वह सोचा करती अगर उसने वाक़ई अपना सारा अस्तित्व उसके सुपुर्द कर दिया और अगर उसने उससे दग़ा की तो फिर वह कहीं की न रहेगी। फिर वह जिंदा न रह सकेगी। इसलिए वह उसे हर वक्त यही जताती कि उसके इलावा भी दुनिया में काम की चीज़ें हैं, जो उसकी दिलचस्पी का कारण हैं।

मगर एक वाक़िया ने उसकी पॉलिसी को चकनाचूर कर दिया। वही हुआ जिसका उसे डर था। माज़िद के अतीत को वह भूल जाना चाहती थी मगर उसने बढ़कर उसका गला ही पकड़ लिया।

एक दिन उसे किसी अनजान व्यक्ति ने फ़ोन किया कि माज़िद को तुरत अस्पताल भेज दो। कमरा नंबर 6 में उसकी बीवी के बच्चा हुआ है। बच्चा तो तंदुरुस्त है मगर माँ का आख़िरी वक़्त है। जे.जे. अस्पताल में है।

जब माज़िद घर में दाख़िल हुआ तो वह आबिदा को देखकर बदहवास हो गया। वह उस वक़्त से वहीं टेलीफ़ोन के पास बैठी थी।

अभी तो उसके बियाह की मेहँदी भी नाखूनों पर चमक रही थी मगर उसका जिस्म सर्द था और चेहरा मिट्टी की तरह पीला।

‘‘तुम्हारी बीवी के बच्चा हुआ है।’’ उसने मुस्कुराकर कहा।

‘‘अरे अभी तो शादी को दो महीने भी नहीं हुए। भई वाह !’’ उसकी आवाज़ सुनकर माज़िद के गए हुए हवास लौट आए और उसने उसे बाँहों में समेट लिया।

‘‘मज़ाक मत करो, इनसान हो या दरिंदे,’’ वह उसे झटककर दूर हो गई, ‘‘एक लाचार औरत तुम्हारे कमीनेपन का शिकार हो रही है और तुम...’’

‘‘आबिदा, ये क्या कह रही हो ?’’


‘‘मैंने तुम्हें हर जगह फ़ोन किया...’’ ‘‘मगर...’’

‘‘जे.जे. हॉस्पिटल में...बच्चा तंदुरुस्त है, मगर माँ का आख़िरी वक़्त है।’’ उस पर ‘हिज़यानी कैफ़ियत’ तारी हो गई।

‘‘तुम्हें क्या हो गया है...तुम्हारे सर की क़सम। तुम्हारे सिवा मेरी कोई बीवी नहीं।’’

‘‘तो क्या तुमने उसे तलाक दे दिया दरिंदे...अपने बच्चे की माँ को’’...अगर उसका बस चलता तो वह उसका गला घोंट देती। माज़िद ने उसे सँभालना चाहा मगर उसने उसका मुँह खसोट डाला। कपड़े फाड़ दिये। और दोनों हाथों से मुँह छुपाकर फूट पड़ी।

‘‘आबिदा खुदा के लिए...रो मत। मेरी बात सुनो।’’

‘‘मुझे हाथ न लगाओ, तुम समझ रहे हो, मैं अपनी क़िस्मत को रो रही हूँ, नहीं-नहीं ख़ुदा क़सम मैं उस बदनसीब औरत के लिए रो रही हूँ, जिसके साथ तुमने धोखा किया।’’

‘‘ओह, खुदा ये क्या क़िस्सा है।’’ माजिद को कुछ अक़ल आई। उसने जे.जे. हॉस्पिटल फ़ोन किया।

‘‘हैलो....प्लीज़ क्या आप बता सकते हैं कि कमरा नंबर 6 में मरीज़ का नाम क्या है ?’’ बड़ी कोशिश के बाद मालूम हुआ, कमरा नंबर 6 खाली है।

‘‘ओह..तो वह मर गई। ए खुदा..तुम कातिल हो..तुमने उसे मार डाला...और तुम्हारा बेटा..बदनसीब बच्चा, अब उसका क्या होगा...यतीमख़ाने में पलेगा...नहीं...वह यतीमखाने में नहीं पलेगा। उसे माँ का प्यार नहीं मिला और उसका बाप शैतान है।’’

यह रचना गद्यकोश मे अभी अधूरी है।
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