जंगल / सुशील कुमार फुल्ल

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न्होंने आकाश के अनन्त विस्तार को अपनी मिचमिचाती आंखों में समेटने का प्रयत्न किया। आकाश एकाएक मटमैला हो गया। अरे! डार से एक पक्षी बिछुड़ गया, फिर क्षत-विक्षत हवा में लटक गया। कल्पना के बिम्ब एकाएक भुरभुरा गये। पक्षी का हवा में लटक जाना, अथाह सागर में ओर-छोर न मिल पाने की छटपटाहट, बीच भंवर में भंवर बन जाने की घबराहट। उन्हें लगा वह स्वयं हवा में लटक गये हैं तथा उनके चारों ओर बीहड़ जंगल उग आया है। वह अचानक आ खड़ा हुआ था, पूरे तीस वर्षों के बाद।

उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था। होता भी कैसे? कल्पना के बिम्बों के सहारे कब तक किसी के अस्तित्व एवं व्यक्तित्व को स्वीकार किया जा सकता है। कोई बीहड़ जंगल में खो जाये और लौटकर न आये। तीस वर्ष पहले अपने भाई को बम्बई के एक मैडिकल कॉलेज में प्रवेश दिलवाकर घर लौट थे, तो वे बहुत प्रफल्लित थे। इतना सम्पन्न परिवार और फिर घर का कोई डॉक्टर न हो। गांव भर में चर्चा थी कि बिहारी डॉक्टरी करने इतनी दूर गया है, पन्द्रह सौ मील से भी दूर, बड़े नगर बम्बई में। लेकिन उनकी यह खुशी बहुत दिल नहीं टिकी। अचानक बर्मा से उन्हें एक पत्र मिला था। लिखा था- भैया, आपको खुशी होगी। मैंने आई. एन. ए. ज्वाईन कर ली है तथा कॉलेज छोड़ दिया है। सुभाष बोस के व्यक्तित्व में सम्मोहन है। दीवानों की मदमस्त टोली। मैं हर प्रकार से खुश हूं। जय हिन्द। यह उसका पहला तथा अन्तिम पत्र था। भाई की प्रतिक्रिया अधिकांशतः सुखानुभूति की ही थी परन्तु जब उन्होनें बिहारी के निर्णय की सूचना अपने मां-बाप को दी तो वे चुप्पी साध गये थे। मां ने इतना भर कहा, अब वह नहीं लौटेगा। पिता ने दार्शनिक अंदाज में कहा- जो ऊपर वाले की इच्छा। एक तो पहले ही द्वितीय विश्व यु़द्ध ने लील लिया और फिर यह...सन्तान का मोह...आत्म-मोह। अपने ही शरीर के टुकड़े को होम होते देखना कितना कष्टप्रद है।


फिर वे चुप हो गये थे और यह चुप्पी अन्त तक नहीं टूटती। हां, उनकी आंखोें में कुछ खो जाने का अहसास बराबर उजागर रहता। उसके लौट आने की प्रतीक्षा थी। शायद आ जाये परन्तु नहीं, स्वतन्त्रता के बाद भी वह नहीं लौटा था। बहुत पता किया परन्तु नहीं, स्वतन्त्रता के बाद भी नहीं लौटा था। बहुत पता किया परन्तु कोई समाचार नहीं मिला था। मां ने घोषणा कर दी थी- ‘‘तुम तो व्यर्थ में चिन्ता में डूबे रहते हो। वह नहीं आयेगा। क्या पता कब का वीर-गति को प्राप्त हो गया है। समझ लो एक कम ही पैदा हुआ था।’’

‘‘मैं कैसे भूल जाऊं, अपने ही शरीर के एक टुकड़े को, जिसकी धमनियों में मेरा रक्त प्रवाहित होता है। तुम... तुम में मां नहीं बोल रही... काश! तुमने उसे जन्म ही नहीं दिया होता... मैं उसका बाप ना होता। बच्चों को जन्म देकर मौत के मुंह में झोंक देना, ओह!’’ पिताजी बिलख पड़े थे। आज सारे बांध टूट गये थे।

‘‘सारी उमर गीता का पाठ करते रहे हो। फिर भी डरपोक के डरपोक रहे। शरीर तो मिट्टी है। मिट्टी के प्रति मोह अनावश्यक है।’’ मिट्टी ने जब कल्पना के बिम्ब उगने लगते है, तो जीवन साकार होने लगता है। यदि कोई विशिष्ट आकार लेने से पहले ही मिट्टी भुरभुराकर बिखर जाए, बिम्ब खण्डित हो जाये तो ऐसी स्थिति में सारा जीवनदर्शन ही गड्ड-मड्ड हो जायेगा। आधार ही विश्रृंख्लित हो जायेगा।’’ ‘‘तुम डरपोक हो, डरपोक।’’

‘‘हां, मैं डरपोक हूं। तुम सही कहती हो। मैं अपने शरीर के टुकड़े को होम होते नहीं देख सकता।’’ बहुत दिनों तक मां भी कुछ न बोली थी। पिताजी अपने आप में सिमट गये थे तथा अपने आप से ही बतियाते रहते- वह बर्मा के जंगलों में कैसे रहा होगा। बीहड़ जंगल और वह नन्ही जान। जंगल में खो जाना, दुनियां से अलग-थलग पड़ जाना। ओह! किसी बन्द कमरे में सांस का घुट जाना। शत्रु के हाथ पड़ गया होगा तो कितनी यातनाओं को सहन करना पड़ा होगा। ओह! मेरे ही शरीर का एक टुकड़ा कुलबुलाता रहा होगा। लेकिन उसकी आवाज जंगलों में खो गई होगी। तुम्हारी मां कहती है- मैं डरपोक हूं। बिहारी सच बताना। जब मिटने की घड़ी आई होगी तो कया एकाएक तुम्हारे मन में जिजीविषा नहीं कौंधी होगी? जीने की ललक ही न हो तो मिट्टी में स्पंदन कैसा?

फिर पिता ने अपने आप को स्टोर में बन्द कर लिया था। वे बिहारी की यातना को स्वयं भोगना चाहते थे। उनका रंग काला पड़ता गया, जिजीविषा मटमैली होती गई, मानो सांप की फुंफकार से स्याह हो गया हो। एक बिम्ब धूमिल हो गया था। वह आ गया था।

दोनों भाई बहुत देर तक एक-दूसरे से लिपटे रहे। आंसुओं की धारा बहती रही तथा मौन संवाद चलता रहा। आस्थाओं का जंगल उग आया तथा घर-भर में मधु-मास की गन्ध फैल गयी।

भतीजे ने चाचा के चरण छुए तथा उसकी सुख-सुविधा के प्रबन्ध में जुट गये। बिहारी की आंखें इधर-उधर दौड़ रही थीं। किसी की खोज लेने की ललक में। जब बड़े भाई ने विस्तार से मां-बाप की मृत्यु के बारे में उसे बताया तो वह अन्दर-ही-अन्दर धंसता चला गया। लहू-लुहान होता चला गया। कुछ खो जाने का अहसास, किसी अवसर को चूक जाने की दर्दानुभूति...अव्यक्त को अन्दर-ही-अन्दर पी जाने की कुलबुलाहट।

रात देर गये तक दोनों भाई बतियाते रहे, बीते समय को पंख लगाते रहे। भतीजे अपने चाचा की बातों को परलोक की कहानियों की भान्ति सुनते रहे। स्वतन्त्रता-संग्राम के उस अध्याय में डूबते-उतरते रहे जिसे बिहारी ने कर्मठता से जिया था। बिहारी कह रहा था- अपनी मिट्टी से किसे प्यार नहीं होता? कौन नहीं घर लौटना चाहता? मैं भी कसमसाता रहा। जब इण्डियन नेशनल आर्मी बिखर गयी तो हम जवान भी जहां-तहां बिखर गये। मैं बर्मा के जंगलों में था, अभी शहर पहुंचने की योजना बना ही रहा था कि नामुराद बुखार ने मुझे दबोच लिया। कोई साथी नहीं था, कोई सम्बन्धी नहीं था। मैं अपने छोटे से टैण्ट में कांप रहा था, मुत्यु से जूझ रहा था। युद्ध में मैं कई खतरों से बच निकला था परन्तु अब विवश था, असहाय था। मेरी कल्पना में अपना गांव, अपना घर, सम्बन्धी बार-बार कौंधते थे...लगता था यह दूरी अब बढ़ती ही जायेगी, कभी कम न होगी।

‘‘फिर वह देवी आ प्रकट हुई। पता नहीं कितने महीने वह मेरी सेवा करती। मैं स्वस्थ हो गया था। मैंने जब उसे भारत लौटने की बात कही तो वह चुप हो गयी, कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की परन्तु उसकी आंखों में पीड़ा के बिम्ब उभर आये थे... वह मुझसे अलग नहीं होना चाहती थी... मुझसे बंध गयी थी। मैं उसकी आंखों का तिरस्कार नहीं कर सका और उसका होकर रह गया।

‘‘तुमने उससे विधिवत शादी कर ली या यों ही रख लिया?’’ बड़े भाई ने आश्चर्य से पूछा। ‘‘आपके विधि-विधान जंगल में नहीं चलते। वैसे भी शादी तो परस्पर आस्था-विश्वास की बात है।’’ ‘‘तुम उसे छोड़ नहीं सकते?’’ ‘‘भैया, वह मेरी अर्द्धांगिनी है। मेरा घर-परिवार है, बाल-बच्चे हैं।’’ बिहारी के मुंह का स्वाद फीका होने लगा। ‘‘तुम्हारी यहीं शादी करवा देंगे।’’ ‘‘नहीं भैया, नहीं। शादी तो रिश्ते की पवित्रता का नाम है। बीवी गाय-भैंस तो नहीं, जो एक को त्याग कर दूसरी खरीद लूं।’’ ‘‘वह तो ठीक है लेकिन...’’

बिहारी लाल चौंक गया। उसे लगा उसके चारों ओर सागर की लहरें उठने लगी है, जो कभी भी उसे लील सकती है। अथाह जंगलों में भटकता हुआ, अवश्यकता पड़ने पर सांपों को अपना भोजन बनाने वाला अनुशासन-प्रिय सैनिक चौंक उठा। वह अपने नन्हें से बेटे को कैसे छोड़ दे... उसकी बेटियां उसकी प्रतीक्षा कर रही होंगी...और पत्नी रात देर गये तक करवटें बदलती रहती होगी, शायद मेरी आहट सुनने के लिए लालायित थी। घर के निकट ही झील है। कहीं बेटा वहां न जाता हो। कोई दुर्घटना हो गई तो वह कहीं का नहीं रहेगा। पाल-पोसकर बड़ा किया पौधा यदि एकाएक सूख जाये तो कितना दुख होता है। बड़े भैया भी अजीब हैं, जो उसे यहीं बस जाने के लिए कहते हैं।

शायद मैंने यहां आकर गलती की है। वृक्ष की टूटी शाख भला वृक्ष से फिर कैसे जुड़ सकती है। डार से बिछुड़ा पक्षी एक बार भटक गया तो भटक गया। वह भी तो डार से उखड़ा हुआ पक्षी है जिसने अपना अलग नीड़ बसा लिया है। पता नहीं वे कैसे क्षण थे, जब वह भारत आने का निर्णय कर बैठा। इतना उतावलापन कि वह घर में बता कर भी नहीं आया, पैदल ही, चोरी-छिपे बर्मा-नेपाल की सीमा को पार कर भारतीय क्षेत्र में आ गया था। जोश में उसे इतना भी ध्यान न रहा था कि इस प्रकार सीमा पार करने से किसी क्षण गोली एसके आर-पार हो सकती थी परन्तु वह सकुशल आ पहुंचा था।

आ तो गया, शायद खून की पुकार थी परन्तु जब धीरे-धीरे नीड़ से कट जाने की उत्कंठा उभरने लगी। साथ ही एक गलती का एहसास। बिना कागज-पत्र पूरे किये सीमा पार करने का अपराध। बनारसी दास को वस्तुःस्थिति का पता चला, तो उन्होनें कहा बिहारी तुमने अच्छा नहीं किया। किसी ने रिपोर्ट कर दी तो मुश्किल हो जाएगी।

‘‘चाचा जी, आप खुद ही थाने में सूचना दें दे।’’ ‘‘बिहारी हैरान, परेशान। बस इतना भर बोला- मैं तो खुद लौट जाना चाहता हूं। आपको डर लगता है तो मैं कहीं और चला जाता हूं।’’ ‘‘नहीं बिहारी, नहीं। यह बात नहीं है। मैं खुद अधिकारियों से मिल लूंगा... मैं भी तो कुछ और ही सोच रहा था। आई. एन. ए. के सैनिकों की पेंशन लगती है...... उसके लिए प्रयत्न किया जा सकता है, तुम्हें पासपोर्ट बनवाकर आना चाहिए था।’’ ‘‘मैं पेंशन के लिए नहीं आया हूं।’’

बिहारी अजीब संकट में फंस गया था। बड़े भाई की बात तो ठीक है। वह पासपोर्ट बनवाकर आता तो अधिक दिन कट सकता था, बिना किसी हिचकिचाहट के। वैसे हर वर्ष वह भारत आने की योजना बनाता परन्तु किसी-न-किसी कारणवश योजना ही रह जाती। पत्नी का सम्मोहन था, या फिर नन्हे-मुन्हें का मोह। आदमी लौटे या न लौटें... लेकिन शायद वह बिहारी को पूरी तरह जान ही नहीं पाई। आदमी पारदर्शी नहीं है। बाहर शालीन मुखौटा ओढ़कर अन्दर शैतान का रूप भी बनाए रख सकता है परन्तु नहीं... वह चाहता तो पहले उसे छोड़ कर भारत लौट सकता था। भारत जिसकी मिट्टी की गन्ध के लिए वह तड़प उठता था। तिलमिला उठता था लेकिन नहीं अभी नन्हीं कोपलें विकासमान थीं। उन्हें एक संरक्षण की आवश्यकता थी और वह तो अचानक उसकी प्राणरक्षा के लिए आ उपस्थित हुई थी... उसके प्रति विश्वास-घात करना अपने ही व्यक्तित्व को खंडित करना होता। वह पासपोर्ट का नवीकरण करवाता रहा था...बहुत वर्षों तक फिर उसने पासपोर्ट के नवीकरण के लिए शहर जाना था... पता नहीं उसे क्या हुआ कि वह सीमा की ओर बढ़ आया। भावनाओं के सम्बन्ध भौतिक सीमा रेखाओं से कहीं ऊपर हैं। और फिर घर वालों की एक झलक देखकर वह वापस लौट जायेगा। बिहारी ने सोचा था।

भारत पहुंचने पर उसे पता चला कि सम्बन्धों का जंगल जो वर्षों के अन्तराल से सुलझ गया था, उसमें फिर अंकुर निकलने लगे थे, वह मोह-पाश में बंधता चला जा रहा था।

बड़े भाई का आग्रह है- इतने वर्षों बाद लौटे हो, अब कहीं नहीं जाना। नया घर बसा लो। मैं अपने हिस्से में से तुम्हें हिस्सा दूंगा। तुम्हारा हिस्सा तो दूसरे भाई बेचकर खा गये हैं। मेरा मन कहता था तुम एक दिन जरूर आओगे लेकिन उन्होंने तो समझ लिया था कि... बस इतना भर कहा बिहारी ने- जो ठीक ही किया उन्होंने। मैं डार से बिछुड़ा पक्षी, मेरी पहचान ही मिट गई है। मैं लौट आऊंगा। मेरा घर-बार, खेती-बारी, बच्चे और बीवी सब वहीं तो हैं।

बनारसीदास ने उसकी आंखों में मोह की झलक देखी तथा कहा, ‘‘देखो बिहारी, तुम आ गये हो, यह हमारे लिए बहुत खुशी की बात है लेकिन तुम्हारा लौट जाना हमसे सहन नहीं होगा। तुमने आकर सम्बन्धों की चिनगारी सुलगाई हैं... या तो आते ही नहीं... आये हो तो यहीं रहो...यदि उसके बिना नहीं रह सकते, तो बीवी-बच्चों को भी यहां ले आओ... तुम्हें पेंशन भी मिलने लगेगी। काम का भी जुगााड़ हो ही जायेगा। बिहारी को लगा उसके इर्द-गिर्द भयानक जंगल उभरने लगा है... जिसमें शीघ्र ही उसकी पहचान खो जायेगी।

रात का सन्नाटा छाया हुआ था। तभी बड़ा लड़का उठा। अपने पिता को जगाया। फिर अपने दोनों भाइयों को भी। तब धीमे से वह झांककर देख आया कि बिहारी चाचा सोए हुए थे। फिर उसने धीमे से अपने पिता से कहा- आपका प्रस्ताव तो अच्छा है कि बिहारी चाचा अपने परिवार को लेकर यहां आ जायें। लेकिन आपने सोचा कि उनका खर्च कैसे चलेगा? वे किस घर में रहेंगे? उनका हिस्सा तो बेचकर खा गये। और फिर बिहारी चाचा को क्या नौकरी मिलेगी। एम. सी. सी. पास को कौन पूछता है?

‘‘और फिर तो आप भी रिटायर हो चुके हैं।’’ दूसरे भाई ने धीमे से कहा। ‘‘और आपको तो पेंशन भी नहीं मिलती।’’ ‘‘ऐसी स्थिति में तो अपने ही खर्च पूरे नहीं होते। उनका भरा-पूरा परिवार आ गया तो घर में ही बेघर होने की परिस्थिति पैदा हो जायेगी।’’ ‘‘बनारसीदास चुप।’’ ‘‘अतः भलाई इसी में ही है कि वे वहीं रहंे। हां, कभी मिलने की इच्छा हो तो साल बाद आकर मिल जाया करें।’’ ‘‘वैसे भी रिश्ते दूर से अच्छे लगते हैं। बीच में घुलमिल कर रहने से सम्बन्ध बिखर जाते हैं। यहां अपने दूसरे भाइयों को ही देख लो। कोई मिलकर भी राजी नहीं।’’

उनके चेहरे पर विषाद की रेखायें उभर आईं परन्तु आंखों में नपुसक सी सख्ती झलक आई। उन्हें पहली बार महसूस हुआ मानो सारे शरीर में कांटे उग आये हों। भाई इतने वर्ष बाद आया है और ये मेरे ही शरीर के अंश मुझे आंखे दिखाते हैं। जरा भी संकोच नहीं, जो मन में आया उगल दिया। ये क्या जाने मेले में आत्मज के खो जाने पर कितना दुख होता है तथा अचानक आत्मज के घर लौटने पर कितनी खुशी। कोई जंगल में जाये... अपना ही अंश बिछुड़ जाये... उन्हें लगा वह स्वयं दुनिया की भीड़ में खो गयें हों...उन्हें कोई परिचित दिखाई नहीं देता।

किसी के खोजने कि अनुभूति... अपने ही शरीर को कुछ भंग हो जाने की तिलमिलाहट। ये दुधमुंहे क्या जाने? ये तो धन की चकाचौंध से हकबकाये-से- पैसा बटोरने में लगे हैं। शायद सम्बन्धों की सरलता तथा खून की घनिष्ठता को इन्होंने महसूस करना शुरू नहीं किया है। मां बिहारी को देखने की लालसा लिये चल बसी, बा पतो कोठरी में बन्द होकर बैठ गया था। बिहारी की संभावित यातनाओं की कल्पना ने ही आतंकित कर दिया था। और ये चूजे उसके हिस्से की बात करने लगे है। और मेरी पेंशन का न होना इन्हें सताने लगा है। आर्थिक सम्बन्धों का आधार, बेचारा क्षत-विक्षत पक्षी, डार से पुनः मिलने के लिए लालायित पक्षी।

सम्बन्धों के बिखराव का जंगल उसके इर्द-गिर्द लिपटने लगा। वे अपने-अपने कमरों में चले गये। वह उठकर बिहारी के कमरे में गये। बिना बत्ती जलाये उन्होंने अपना हाथ बिहारी की छाती पर रख दिया...... बहुत देर तक वह दिल की धड़कन को महसूस करते रहे। सोये बच्चों के दिल की धड़कन को महसूस करना उन्होंने अपने पिता से सीखा था। जो हर रात सारे बच्चों के दिल की धड़कन महसूस किये बिना नहीं सोया करते थे। शायद उसके एक पुत्र की मृत्यु नींद में हो गई थी। और फिर एक बहम आदत बन गया था। धड़कन महसूस कर लेने के बाद उन्होंने आश्वस्त होने के लिए पुकारा, ‘‘बिहारी।’’

‘‘हां भैया।’’ ‘‘तो अभी जाग रहा है? सोया नहीं क्या?’’ ‘‘नहीं। आप लोग भी तो सभी जाग रहे थे न?’’ उन्हें लगा वे क्षत-विक्षत पक्षी की भांति हवा में उल्टे लटक रहे हैं। तथा बिहारी फिर जंगल में खो गया है तथा वे भी ‘बिहारी’ ‘बिहारी’ पुकारते हुए जंगल की गहनता में डूब जाते हैं।