जंजीरे तो जंजीरे हैं / ममता व्यास

Gadya Kosh से
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एक बार एक साधू अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक ग्वाला दिखा जो गाय को मोटी रस्सी से बाँध कर कहीं ले जा रहा था। साधू ने पूछा, अच्छा बताओ इन दोनों में से मालिक कौन है? शिष्यों ने कहा जाहिर है गाय का मालिक वो ग्वाला है, जो उसे रस्सी से बांधे हुए है। साधू ने उसी समय ग्वाले के हाथ से रस्सी ली और बंधन खोल दिए। अब गाय दौड़ रही थी और ग्वाला उसके पीछे- पीछे दौड़ रहा था। साधू मुस्काये बोले देखो, “ये मालिक है तो गाय के पीछे क्यों दौड़ता है? ये मालिक नहीं गुलाम है इसके गले में भी रस्सी है लेकिन वो दिखाई नहीं देती। हम जब किसी को पालतू या गुलाम बनाते हैं तो हम भी तो उसके गुलाम हो जाते हैं, फर्क सिर्फ इतना होता है कि हमारी जंजीरे हमें दिखाई नहीं देती। वो छिपी हुई होती हैं और उन पर अभिमान का मुलम्मा चढ़ा होता है। जब हम किसी को आजाद करते हैं तो हम भी मुक्त होते हैं बन्धनों से, गुलामी से, किसी को बाँध लेने से, जकड लेने से हम भी तो बांध लिए जाते है ना।

अब सवाल ये कि मुक्ति, आजादी गुलामी आख़िर है क्या?

जिस तरह आजादी का अर्थ सभी के लिए अलग-अलग है और, मायने भी अलग हैं ठीक उसी तरह गुलामी के भी अलग-अलग अर्थ है और जंजीरों के भी। क़ैद का अर्थ भी तो सभी के लिए एक जैसा नहीं होता। एक फिल्म में, पत्नी अपने पति से बहुत पीड़ित है और एक दिन अन्याय सहते-सहते वो उसकी हत्या कर देती है, वो जेल चली जाती है और जेल में जाने के बाद उसे महसूस होता है कि सच्ची आजादी क्या होती है। खुल के हँसने की आजादी, मुस्काने की आजादी, खुद को अभिव्यक्त करने की आजादी और फिर अपने विचारों से दुनिया को अवगत कराने की आजादी। कोई क़ैद में आजादी खोज लेता है, कोई खुली हवा में भी घुटन महसूस करता है। कई महिलायें गर्भपात करवाकर खुद को आजाद महसूस कराती हैं। कुछ पुरुष विवाहेतर सम्बन्ध बना कर आजादी तलाशते हैं। कुछ महिलायें मनपसंद साड़ियाँ, गहने पहनकर, सास-बहू सीरियल देख कर खुद को आजाद मानती हैं, तो कुछ पब, डिस्कों में जाकर भी घुटन महसूस करती हैं।

कुछ महिलायें सोमवार को शिवमंदिर में भजन गाकर खुद को आजाद मानती है तो कुछ महिलायें फेसबुक पर अपने प्रेम संबंधो या निजी बातों को साझा करके आजादी मनाती हैं। पुरुषों के सामने पुरुषों की धज्जियाँ उड़ा कर, समाज के नियमों, मान्यताओं और स्त्रियोचित गुणों को ठेंगा दिखा कर आजादी का बिगुल बजाती हैं। एक बीमार व्यक्ति अपने कष्टों से आजादी चाहता है। बच्चों को स्कूल जेल लगते हैं। घरेलू महिलाओं को घर-परिवार क़ैद लगता है तो नौकरीपेशा को बॉस जेलर और ऑफिस जेल-खाना लगता है। कहने का मतलब सबकी अपनी गुलामी, सबकी अपनी आजादी की परिभाषा अलग है।

एकबार दो महिलाओं से बात हुई, पूछा क्या मायने हैं आजादी के? एक बोली मैं खुल के हँसना चाहती हूँ ऐसे जैसे कोई झरना बहता हो, जैसे जंगली घास पर हवा सरसराती हो, जैसे सिक्कों की खनक ऐसे हँसने का नाम है आजादी। दूसरी बोली आजादी का मतलब मेरे लिए खुल के रोना है ऐसे जैसे कोई बादल बरसे, ऐसे जैसे कोई जवालामुखी…

दोनों उदाहरणों में मन की पीड़ा है, मन की गुलामी है जिससे आजाद होना चाहा गया है।

जिसके हँसने मुस्काने पर पहरे हों वो हँसने की आजादी मांगेगा, जिसे रोने नहीं दिया गया वो रोने को व्याकुल है। जिसे प्रेम से वंचित किया गया वो प्रेम करने को आतुर है जिसे बेहिसाब प्रेम मिल गया वो प्रेम से मुक्ति चाहता है।

जितने लोग उतने अर्थ, देखें मनोविज्ञान की नजर से आजादी क्या है, मनोविज्ञान की मानें तो, समस्त, मानव सभ्यताएँ हमेशा गुलाम ही रही और आज भी हर मनुष्य गुलाम ही है, अपनी इच्छाओं का गुलाम, मान्यताओं का गुलाम, पूर्वाग्रहों का गुलाम, सोच का गुलाम, नियमों का गुलाम और मरते-मरते भी गुलामी नहीं जाती।

जन्म लेते ही बच्चा जब दुनिया में आता है तो उसकी यही भावना होती है कि मुझे सब प्रेम करें, स्वीकार करे, ख्याल रखें और वो धीरे-धीरे अपने हाव-भाव, व्यवहार से वो अपने परिवार के सदस्यों को खुश करता है, वो वही सब करता जाता है जिससे उसे सब स्वीकार करे, प्यार करें। अपने घर स्कूल और समाज में उसे स्वीकार किया जाए बस यही एक लक्ष्य होता है। वो अपने दिमाग में एक ग्रंथि पाल लेता है कि मुझे सभी को खुश करना है। उसे बोध नहीं होता की अब वो बच्चा नहीं हैं उसका अपना वजूद है, अपना मन है अपने सपने हैं, अपना मस्तिष्क है अपनी बुद्धि है वो कब तक दूसरों के बजाये झुनझुनों पर नाचेगा?

वो जीवन भर नाचता है और दूसरों को भी नचाना चाहता है और इस तरह वो अपनी आजादी खोता है गुलामी अपनाता है। अपने दिमाग की गुलामी उसे कहीं का नहीं रहने देती। वो मन की बात नहीं सुनता। मन के बंधन नहीं खोलता। उसके सारे सपने, सारी खुशियाँ उसकी मुस्कान जो मन की धरती पर उगती है उन्हें वो दिमागी रसायनों से नष्ट करता जाता है। उसका जीवन नष्ट होता जाता है।

यही वजह है कि अब सहज हँसी सुनाई नहीं देती ना मुस्काने सच्ची लगती हैं।

ये दिमागी गुलामी ने लोगों को कंदराओं, गुफाओं में क़ैद कर दिया है। इन गुफाओं का कोई दरवाजा नहीं ना कोई "खुल जा सिम-सिम" का पासवर्ड ही होता है। इनमे रहने वाले बड़े ही अभागे होते हैं जो अपनी मर्जी से हँसते नहीं, रोते भी नहीं मुस्काते भी नहीं। इनके चारों और बहुत बड़ी-बड़ी दीवारे होती हैं। ज्ञान की दीवारें, धर्म की दीवारे, तर्क की दीवारे, पूर्वाग्रहों की दीवारे, अभिमान की भी…। ये लोग सीमाएं बनाते हैं, रेखाएं खींचते हैं अब भला सीमाओं जहाँ हों रेखाएं जहाँ हो वहां कैसी आजादी? कैसी मुक्ति?

जब लोग खुद को भौतिक और भौगोलिक सीमाओं में क़ैद कर लेते हैं तो राग, द्वेष, बैर,इर्ष्या अहंकार की आंतरिक सीमाओं में जकड जाते हैं फिर कैसे संभव हो आजादी? अपनी जंजीरों को अपना गहना मान बैठे हो उन्हें कौन आजाद कर सकता है?

एक कहानी याद आती है, एक राजा था उसने सारी दुनिया जीत ली थी लेकिन फिर भी उसे अपनी सुरक्षा को लेकर बहुत चिंता थी। उसने एक बहुत बड़ा ‘किला’ बनवाया उसे चारों तरफ से बंद करवा दिया कहीं कोई दरवाजा नहीं कोई खिड़की नहीं छोड़ी बस एक छोटा सा चोर दरवाजा रखा जिससे वो आता जाता था और एक रोशनदान जिससे हवा आ सके उस दरवाजे पर भी सारा दिन पहरेदार चौकसी करते थे। राजा फिर भी दुखी था की कहीं कोई दुश्मन इस छोटे रस्ते से ना सेंध मार दे।

एक दिन एक पगली वहाँ से गुजरी और राजा को देख हँस पड़ी और बोली राजा ये किला बहुत सुंदर है बस एक ही कमी रह गयी। राजा बोला क्या कमी? पगली बोली उस छोटे दरवाजे को भी बंद करवा दो और उस रोशन दान को भी। अरे, फिर तो ये कब्र बन जाएगी मैं मर नहीं जाऊँगा? अभी कौन से ज़िंदा हो? पगली हँस पड़ी, राजा तुमने किले को कारागृह बना दिया है और खुद को क़ैदी। अगर सच में जीना चाहते हो तो सभी दरवाजे खोल दो, दीवारें गिरा दो, तभी जीवन भीतर आएगा। जितने दरवाजे होंगे उतने तुम सुरक्षित रहोगे। जितने तुम खुलोगे उतने जीवित।

हमने भी तो उस राजा की तरह हजारों दीवारे उठायी है ना, परत दर परत हम इन दीवारों में क़ैद होते जा रहे हैं। मैंने सब जान लिया, मैंने सभी को पहचान लिया का दंभ पाले हम कितने असहज हो गए। बेड़ियाँ अब हमें आभूषण लगती है उनकी चुभन आनन्द देती है। खुद में संतुष्ट हो जाना क्या आजादी है?

कतई नहीं।

कृष्णमूर्ति कहते हैं “आज मनुष्य अपनी संकीर्णता की लाश खुद ढोता चला आ रहा है। अपनी धारणाओं, परम्पराओं, मान्यताओं का दास है मनुष्य”।

बात फिर वही कि, सारी खिड़कियाँ, दरवाजे बंदकर लिए हमने और कमाल ये कि किसी की सुनना नहीं हमें, ना अब कुछ समझना ही है, खुद की पहनी जंजीरों की चुभन में रस खोजते है हम। फर्जी हँसी है हमारी, और मुस्काने भी झूठी, क्या हम आजाद है? अपनी बनायीं जंजीरों से मुक्त होना ही होगा, क्योंकि जंजीरे फिर भी जंजीरे हीं है फ़िर चाहे वो सोने की हों, ज्ञान की हों, धर्म की, तर्कों की या अहंकार की। वो चुभती हीं है, मुक्त नहीं करती बल्कि हमें नष्ट करती हैं।