जग्गू, तूँ वैसा नहीं रहा.../ मनोज श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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मालूम नहीं कहाँ से उसके दिमाग में इतना फ़ैशनेबल नाम सूझा था--मेरीडियन सैलून? कुल मिडिल जमात तक की लियाक़त हासिल कर वह अंगूठा-छाप रहने से बच पाया था। बदक़िस्मती से मैट्रिक के बोर्ड के सभी पर्चों में शामिल नहीं हो सका जिससे वह फेल हो गया। बाप तो अव्वल दर्जे का शराबी था। यह उसकी अम्मा का अरमान था कि वह पढ़-लिखकर भले ही किसी आफ़िस में बाबू न बन पाए ; पर, एक सलीकेदार-तहज़ीबदार आदमी तो बन जाए। यों तो, अम्मा को यक़ीन था कि वह निकाह के बाद से लगातार एनीमिया का शिकार रहने के बावज़ूद अपने बेटे--हामिद को मदरसे से लेकर स्कूल-कालेज की पूरी तालीम दिलाकर ही दम लेगी। लेकिन, ख़ुदा को यह बिल्कुल मंजूर नही था। एक रात जब वह सोने के लिए अपना सिर तकिए पर टिकाए हुई थी कि तभी दरवाजे पर अज़ीब से हल्लेगुल्ले ने उसका ध्यान भंग कर दिया। वह उठने का इरादा करने से पहले ही दरवाजे तक जा-पहुँची और सांकल को नीचे गिरा दिया। फिर, सामने जो नज़ारा देखा, वह उसकी समळा से परे था। हाँ, उसे तनिक डर-सा जरूर लग रहा था। अंधेरे के कारण कुछ लोगों के साए मुश्किल से नज़र आ रहे थे। तभी, एक आदमी आगे आया, "महबूब अली का घर यही है क्या?"

तब, उसने उसे बड़े कौतुहल से अंधेरे में टटोल-पहचान करते हुए देखा और हामी में सिर हिलाकर उसके सवाल का जवाब दिया। शायद, उसने पहले उस आदमी को अपने शौहर के साथ जाम से जाम लड़ाते हुए देखा रहा होगा।

"बीवीजी, आपके शौहर अब इस दुनिया में नहीं रहे। ज़्यादा शराब पीने की वज़ह से उनका इन्तकाल हो गया। उनकी लाश सदर हस्पताल में पोस्टमार्टम के लिए रखी है जिसे आप कल सुबह तक बरामद कर सकती हैं..." उस आदमी की बात को दोबारा सुनकर उसके बदन को तेज करेंट-सा ळाटका दिया।

तफ़सील से बात करने के बाद रज़िया वापस अपने कमरे में आकर सुबगने लगी। जैसे वह ऐसे हश्र से दो-चार होने के लिए पहले से तैयार रही हो। तभी तो वह दहाड़ें मारकर रोने के बजाए, सिर्फ़ सिसक-फ़बकककर काम चला रही थी। अगर वह जोर-जोर से रोती तो बेशक पड़ोस के कुछ लोग उसको ढाँढस बँधाने आते। हामिद खटोले पर टाँग पसारकर बेसुध सोया हुआ था। यों भी, वह उसे जगाकर क्या करती? उसके साथ-साथ वह भी अपने बाप से ऊब गया था। मन ही मन तो दोनों ही चाहते थे कि उस नशेड़ी आदमी से उनका पिण्ड छूट जाए। न कोई नौकरी, न धंधा। बस, वह उसकी अम्मा के आगे जालिम बन हमेशा खड़ा रहा करता था--उसकी ख़ून-पसीने की कमाई पर अपना पूरा हक़ ग़ालिब करने के लिए।

बिचारी अम्मा करती भी क्या? आख़िरकार, वह उसकी मार-लताड़ खाकर उसके आगे घुटने टेक देती थी और अपने बटुए में से सारा पैसा उसके सामने छितरा देती थी। फिर, वह पैसे बटोरकर वहां से ऐसे ग़ायब हो जाता था जैसे केचुए के सिर से उसकी आँखें। देर रात तक वह नदारद रहता! या, कई बार तो दो-तीन दिनों तक भी वापस नहीं लौटता। उन्हें कोई चिंता न होती! बल्कि, वे और भी सुकून में रहते! क्योंकि उनकी नून-रोटी पर कोई बेजा धावा बोलने वाला न होता!

रज़िया ने भुखमरी से बचने के लिए कपड़ों की सिलाई करने का अच्छा रोज़ग़ार ढूँढ लिया था। माँ-बेटे का पेट अच्छी तरह पल जाता था। साथ ही, हामिद की पढ़ाई-लिखाई के लिए कुछ पैसे भी यत्नपूर्वक बचा लिए जाते थे। ऐसा तब तक होता रहा, जब तक कि महबूब ज़िंदा रहा।

महबूब की मौत के बाद रज़िया की सामाजिक ज़िंदगी में जो बदलाव आए थे, उनमें अहम यह था कि पड़ोस से उसका नाता न के बराबर रह गया था। पड़ोसी यह क़यास लगाकर उससे कतरा रहे थे कि रज़िया ने कहने को सिलाई की दुकान खोल रखी है। दरअसल, उसने तो कोई बेजा धंधा चला रखा है। पर, वे अपने मोहल्ले की बेइज्ज़ती के डर से उसके खिलाफ़ कोई सख़्ती करना नहीं चाह रहे थे। बहरहाल, उसके घर वक़्त-बेवक़्त आने-जाने वाले मर्दों से वे हाथापाई तक कर चुके थे। पर, लोगबाग कहाँ मानने वाले थे? दबंग लोग तो बड़े हक़ से उसके दरवाजे पर दस्तक देते थे।

इसी दरमियान, हामिद ने स्कूल छोड़ दिया। पहले वह अपने अब्बू की आदतों से परेशान था; लेकिन, अब वह अपनी अम्मा की बदचलनी से आज़िज़ आ रहा था। उसे पहले कभी यह एहसास नहीं था कि उसकी खुद्दार अम्मा कभी इस कदर तक गिर सकती है। दोस्तों के बीच उठते-बैठते उसे बड़ी ळोंप उठानी पड़ती थी। जब घर में रहता तो अम्मा के सामने जुबान खोलने की हिम्मत कभी न जुटा पाता। लिहाजा, चुपचाप रहकर उसे हमेशा यह बात सालती रहती कि वह उस नापाक धंधे में ख़ुद ही दलाली कर रहा है और बाजार में अपने ही जिस्म का ग़ोश्त बेच रहा है। उसके जो लंगोटिया यार थे वे उसकी हालत पर तरस खाते हुए उसे ज़्यादातर यह दिलासा देते रहते थे कि एक न एक दिन उसकी अम्मा अपने पेशे को दरकिनार करके एक नई ज़िंदगी की शुरुआत करेगी।

जब हामिद ने स्कूल छोड़ा तो उसे इस बात का ज़रा भी इल्म नहीं था कि उसकी यह हरक़त उसकी अम्मा पर इतनी नागवार गुजरेगी। उसने तत्काल उसे फटकार लगाई- "मैं तो तेरी ही क़िस्मत सँवारने के लिए इस कींचड़ में सिर से पैर तक सन गई हूँ और तूँ है कि अपने ग़ुरूर में स्कूल ही जाना छोड़ दिया। तूँ क्या समळाता है कि मुझे अपना जिस्म नुचवान-छिदवाने में बड़ा मजा आता है? अरे! जहन्नुम की जलालत कौन बेवा झेलना चाहेगी..."

वह बिलख उठी। हामिद पसीने-पसीने हो गया। उसकी समळा में आ गया कि उसकी अम्मा की ख़ुद्दारी में कोई कमी नहीं आई है। यह तो एक लाचार औरत की बेबसी है कि उसे अपनी और अपने लाडले की हस्ती को कायम रखने के लिए अपनी अस्मत को सरेबाजार करना पड़ा। वह तो यह सब सिर्फ़ उसके लिए; हाँ, सिर्फ़ उसके लिए कर रही है। अपनी अम्मा के बलबूते पर, वह जिस सहूलियत से अपनी तालीम पूरी कर रहा था, दूसरे लड़के उससे हमेशा महरूफ़ ही रहे। उसे तो अपनी अम्मा का एहसानमन्द होना चाहिए कि उसने अब्बू की मौत के बाद उसकी परवरिश के लिए अपने से जो भी बन सका, किया। यहाँ तक कि अपना जिस्म भी नीलाम कर डाला। बेटे के लिए मोहब्बत का इससे बढ़िया मिसाल कहाँ मिलेगा? कहानियों में भले ही मिल जाए, असल ज़िंदगी में तो कतई नहीं मिलेगा। वह पल भर के लिए अफ़सोस की दरिया में गोते लगाने लगा। उसने एक नज़र अपनी अम्मा पर डाली और फिर, अपने मज़बूत मर्दाने डीलडौल पर गौर किया। वह भले ही सत्रह की उम्र में बाईस से कम न लगता था; लेकिन, उसकी अम्मा किसी भी नज़रिए से उसकी अम्मा-सरीखी नहीं लगती थी। बेशक, उसे कोई भी उसकी मौसेरी बहन--ख़ालिदा की आपा ही कहेगा। ऐसे में, वह चाहती तो किसी दूसरे मर्द से निकाह करके एक नई ज़िंदगी का आग़ाज़ भी कर सकती थी। उम्दा ज़िंदगी गुजर-बसर कर सकती थी। पर, ऐसा करके वह जीते-जी उसे यतीम बनाना नहीं चाहती थी।

उस दिन के बाद से अम्मा ने वाक़ई अपना जीने का सलीका बदल डाला। जब बेटे ने ही उसका दिल तोड़ दिया तो वह अनाप-शनाप धंधों में लगकर अपना बदन क्यों तुड़वाए? गुजारे के लिए तो पुराना सिलाई का धंधा ही काफ़ी है। उसके लाख डाँट-फटकार के बावज़ूद, हामिद स्कूल न जाने पर अड़ा रहा। सो, उसने फिर से सिलाई का काम शुरू कर दिया। उसमें अचानक आया यह बदलाव वाक़ई हैरतअंगेज़ था। जब मोहल्ले वालों को असलियत का पता चला कि वह किस वज़ह से धंधा करने लगी थी तो वे भी उसके प्रति लाख खुन्नस रखने के बावज़ूद उसकी मन ही मन तरफ़दारी करने लगे थे। हामिद तो उसे ख़ुदा मानकर उसका इबादत तक करने लगा था।

वह जज़्बाती हो गया। उसने ठान लिया कि वह आईंदा अपनी अम्मा का दिल नहीं दुःखाएगा। बल्कि, उसे सुकून और आराम की ज़िंदगी मुहैया कराने के वास्ते अपना सुख-चैन सब कुर्बान कर देगा। तब, उसने यह तय किया कि चाहे जो भी हो, वह स्कूल वापस नहीं जाएगा। जब उसकी परवरिश करने के लिए उसकी अम्मा को जहन्नुम की ज़िंदगी गुजारने के लिए मज़बूर होना पड़ा, तो वह फिर उसे ऐसा करने का एक भी मौका नहीं देगा। वह इतना बड़ा तो हो ही गया है कि दो जनों के लिए दो जून की रोटी जुटाने का बंदोबस्त कर सके।

अम्मा की लताड़ खाकर उसे सिर्फ़ यही मलाल हो रहा था कि उसने उसकी नीयत पर शुबहा किया जिसके लिए परवरदिग़ार भी माफ़ नहीं करेगा। चुनांचे, अम्मा को धंधे से निज़ात दिलाकर हामिद को जिस खुशी का एहसास हो रहा था, उसका बखान वह लफ़्ज़ों में नहीं कर सकता था। उसे और उसके घरवालों को भले ही बदनामी की जलालत ळोलनी पड़ी हो; पर, अब वह सब कुछ भुला देना चाह रहा था। बेशक, उसकी इस इच्छा ने उस पर ज़िम्मेदारियों की दुर्वह्य गठरी लाद दी।

हामिद, अब्बू की मौत के बाद से ही इस दुश्चिंता में घुलने लगा था कि अब उसे नून-तेल के जुगाड़ के लिए कोई ऐसा काम ढूँढ लेना चाहिए जिसमें पैसे भी न लगाने पड़े और थोड़ी-बहुत आमदनी से खाना-खर्चा भी मजे में चल जाए क्योंकि घर की माली हालत बेहद ख़ौफ़नाक़ थी। अग़र कोई फ़कीर दुआ देने उसके घर का दरवाज़ा भी खटखटा देता तो उसे खाली हाथ ही लौटाना पड़ता। उनके पास तो उसे देने को न तो एक दाना होता, न ही एक धेला। अब्बू ने उसके घर को कौड़ी-कौड़ी का मोहताज बनाकर दुनिया से किनारा कर लिया था।

इसलिए, वह ज़्यादातर स्कूल छोड़कर अटाला मस्ज़िद चला जाता और सीढ़ी के नीचे अंधेरे-कुप्प में नाशाद बैठकर शाम तक रोज़ी-रोटी की उधेड़बुन में पड़ा रहता। ऐसे ही एक शाम जब वह मस्ज़िद से बाहर निकल रहा था तो उसे सीढ़ियों पर बैठा उसका सहपाठी जग्गू ऐसे मिला जैसेकि वह उसी की राह देख रहा हो। उसने तत्काल हामिद की कमर में हाथ डालते हुए कहा, "यार, चल, मैं तुळो एक रोज़ी देने आया हूँ।"

हामिद एकदम से सकपका गया। दरअसल, उसने उसकी चप्पे-चप्पे में तलाशने की असफल कोशिश की थी। पर, आज उसे अचानक अपने पास पाकर उसे बड़ा ताज़्ज़ुब हो रहा था। इसके पहले कि वह कुछ बोलता, जग्गू ने अपना हाथ उसके मुँह पर रखकर उसकी चुप्पी को लंबा खींच दिया। वह उसे गली-वीथियों में भटकाते हुए उर्दू बाजार के चौराहे पर ले गया। फिर, उसे सड़क के एक कोने में एक खाली-सी पड़ी गुमटी में ला-बैठाया। जब ग़ुमसुम हामिद उसे बड़े ताज्जुब से देख रहा था कि तभी वह बोल पड़ा--

"यही है तेरा धंधा। आज से तूँ लोगों की हज़ामत बनाएगा और अपनी अम्मी का और अपना पेट पालेगा..."

हामिद ने कभी सोचा भी नहीं था कि उसे इतनी आसानी से कोई काम मिल जाएगा। उसने पहले दिन जग्गू के साथ काम करते हुए अठाईस रुपए कमाए, दूसरे दिन बत्तीस रुपए और तीसरे दिन अड़तीस रुपए। पहले दिन, सारी हजामत जग्गू ने बनाई--उसे फिर-फिर यह हिदायत देते हुए कि 'आज तेरे लिए एक ट्रेनिंग का दिन है, तूँ सिर्फ़ मुळो उस्तरा और कैंची चलाते हुए देखेगा। मैं तुळो कुल एक हफ़्ते में इस हुनर में पक्का बना दूँगा।' जब शाम होने लगी तो उसने उसे दो देहाती ग्राहकों की दाढ़ी बनाने का न्यौता दिया। हामिद ने अपने दोस्त की हौसला-आफ़ज़ाई के बीच अपने काम को बखूबी अंजाम दिया। वह बिलाशक अपने हौसले को बुलंद करना चाहता था। उसे दो बातों पर बेहद अचंभा हो रहा था। एक तो जग्गू जैसा लोफ़र लड़का उसकी कितनी संजीदगी से मदद करना चाह रहा था; दूसरे, हजामत जैसी हुनर उसने कब, कहाँ और कैसे सीखी। ग्राहक उसकी कारीगरी की प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। बहरहाल, हामिद ने उससे कुछ भी नहीं कहा कि वह अपनी मस्त और फ़क़ीराना ज़िंदगी छोड़, उसे मज़बूत सहारा देने के बंदोबस्त में क्यों जुटा हुआ है।

वह जग्गू के प्रति अपना एहसान जाहिर करके किसी तरह का तकल्लुफ़ नहीं दिखाना चाहता था। क्योंकि तकल्लुफ़ रिश्तों को कमजोर बना देता है। जग्गू ने आकर एक डूबते को तिनके का सहारा दिया था।

जग्गू यानी जोगिन्दर खन्ना उसका ऐसा दोस्त था जिसके सामने वह दिल खोलकर बातें किया करता था। जग्गू के बारे में जो ख़ास बात थी, वह यह थी कि उसके पिता ने उसे आवारा, ग़ैर-ज़िम्मेदार और बेकहन ऐलॉन कर, उसे घर से खदेड़ दिया था और उसे ऐलानिया लहजे में अपनी ज़ायदाद से बेदख़ल कर दिया था। मिडिल में वह मुश्किल से पास हुआ था और हाई स्कूल में तीन बार फेल हो चुका था। इस दरमियान, वह मोहल्ले की लड़कियों के आगे-पीछे मंडरा-मंडराकर अपने रायज़ादे ख़ानदान को बदनाम करता रहा। फिर बाद में, जुआड़ियों की शोहबत में पड़कर, ठर्रा और देसी शराब में डूबा रहने लगा। जब उनके भी संगत से बोर हो गया तो वह छंटाक-छंटाक भर के लौंडों के साथ गोमती के किनारे अपना अड्डा जमाने लगा जहाँ ताड़ के पेड़ों से चोरी-छिपे ताड़ी उतारकर साँळा के ढलने तक अपना गला तर करता रहता। दोपहर को पेट में भूख की मरोड़ उठती तो वह अपने यारों के साथ गोमती में उतरकर अंगोछों से छोटी-छोटी मछलियाँ छानता और उन्हें आग में भुनकर अपनी भूख मिटाता। उसके इन करतूतों में हामिद हमेशा शरीक़ रहता--उसका साया बनकर। दरअसल, वह तो जग्गू से कम से कम पाँच-सात साल छोटा था और स्कूल में वह उसकी फ़राख़दिली का कायल होकर उसकी चमचागिरी करने में मशग़ूल रहता था। वह उसी दिन से जग्गू से अदब से पेश आने लगा था जिस दिन उसने उद्दंड फिरकापरस्तों से उसकी जान बचाई थी। उस दिन स्कूल में लड़के, रिसेस के दौरान प्रेयर ग्राउंड में बैठकर या तो कलेवा पर टूटे हुए थे या मजे से धूप सेंक रहे थे। जाड़े की वह दोपहरी बड़ी गुमसुम और ख़ामोश थी। तभी कोई 40-45 लोग जो खाकी हाफ़ पैंट और सफ़ेद कमीज पहने हुए थे और हाथों में लंबे-लंबे डंडे लिए हुए थे, 'हर-हर महादेव' के नारे लगाते हुए चिल्ला रहे थे--'...अगर कोई लड़का मुसलमान दिखे तो उसे तुरंत ख़त्म कर दो...कोई भी कोना मत छोड़ो, चप्पा-चप्पा छान मारो...हरेक से पूछो, उसकी आँखों में ळााँककर देखो, अगर वह मुसलमान होगा तो डर उसकी आँखों में समाया होगा, उसे पत्थर पर वहीं पटक-पटककर चिथड़ा कर दो...'

हामिद तो डरकर पसीने से लथपथ हो गया। जब तक वे वहशी उसके पास पहुँचते, जग्गू उसके गले में हाथ डालकर खड़ा हो गया--एक मज़बूत सहारा बनकर।

जब उन सिरफ़िरों ने उनके आगे दस्तक दिया तो जग्गू बोल उठा, "अरे! हम सब खांटी पंडे हैं। मैं पंडित दीनानाथ उपाध्याय का लड़का हूँ और ये मेरा दोस्त विनय त्रिपाठी, बड़े हनुमान मंदिर के पुजारी--निरंजन त्रिपाठी का लड़का है।"

वहाँ मौज़ूद जग्गू के चमचों को तो उसकी हाँ में हाँ मिलाने की आदत पड़ी हुई थी। इसलिए, उन्होंने उसके सफेद ळाूठ पर सच का परदा डाल दिया। आख़िर, वह उनका दबंग छात्रनेता था। 

जब वे चले गए तो हामिद उसके सीने से चिपटकर फ़बक पड़ा। तब, जग्गू ने ख़ुद उसे उसके घर बड़े हिफ़ाज़त से पहुँचाया। शाम तक सांप्रदायिक तनाव के चलते पूरे शहर में मरघटी सन्नाटा छाया हुआ था। अफ़वाहों से पता चला कि सवेरे, एक शिव मंदिर में किसी बछड़े का कटा सिर मिलने के कारण शहर के कतिपय फिरकेपरस्त बेकाबू हो गए थे।

उस घटना के बाद हामिद, जग्गू के साथ ख़ुद को बिल्कुल महफ़ूज़ समळाने लगा। बलवा के थमने के बाद जब स्कूल खुला तो वह जग्गू का साया बन, हमेशा उसके आगे-पीछे मंडराया करता था। लेकिन, उसने अपने वालिद की मौत के बाद स्कूल को तिलांजलि दे दी। ऐसे हालात में उसका जग्गू से मिलना-जुलना और इस तरह उसके साथ उठना-बैठना भी एकदम बंद हो गया था। यों तो, इसी वक़्त जग्गू भी स्कूल छोड़, शहर से ऐसे ग़ायब हो गया था जैसे गधे के सिर से सींग। हामिद अपनी घरेलू परेशानियांें से तंग आकर उससे बाज़ वक़्त मिलने की भी बहुत कोशिश करता रहता था। क्योंकि ग़र्दिश में वही उसे सच्ची तसल्ली और मशविरा दे सकता था। पर, फक्कड़-मिजाज़ जग्गू के पैर में तो जैसे पंख लगे हुए थे, वह उसे कहाँ मिलने वाला था?

आज वह अचानक़ उसे ऐसे मिला जैसे चलते-चलते दुर्घटना हो गई हो। उसका ख़ुद चलकर उसके पास आना और उसके लिए काम का बंदोबस्त करना, यह जाहिर करता है कि वह हामिद को कभी भूला नहीं था। उसे उसकी चिंता हमेशा खाए जा रही थी। एक दिन सैलून से घर वापस जाते हुए जग्गू ने हामिद को बताया, "कल मेरी बहन की शादी है। लेकिन, मैं उसे दुल्हन के रूप में नहीं देख पाऊँगा..."

हामिद ने पूछा, "क्यों...?"

"क्योंकि मेरे घर वालों ने मुळो एक सड़े घाव की तरह जिस्म से काटकर अलग कर दिया है। उन्होंने इस बात की भी ज़रूरत नहीं समळाी कि बहन की शादी में इकलौते भाई की मौज़ूदगी कितना जरूरी है।" उसकी आँखें गीली हो गईं।

हामिद को पहली बार एहसास हुआ कि ऊपर से सख़्त दिखाई देने वाला जग्गू कितना जज़्बाती है! कितना नरम दिल है! दुनिया उसे ग़लत समळाती है। लेकिन, उसके दिल में तो सभी के लिए मोहब्बत भरी हुई है। हामिद ख़ुद एक मुसलमान है और शहर भर में उसके अब्बू की चर्चा एक बेहद गिरे हुए इन्सान के रूप में होती रही है। उसकी अम्मी ने भी खानदान की इज़्ज़त पलीद करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। यह सब जानते हुए भी इतने रईस घर का यह जग्गू उससे ऐसे चिपका रहता है जैसेकि वह उसके कुनबे का ही कोई हिस्सा हो, उसका कोई रिश्तेदार हो।

साथ-साथ काम करते हुए दोनों की अच्छी पटरी बैठ गई थी। पर, मुश्किल से दो महीने ही गुज़रे थे कि जग्गू ने एकबैक सैलून आना छोड़ दिया। इस तरह न केवल सैलून चलाने का सारा जिम्मा हामिद के सिर आ गया बल्कि एक तरह से उसे ही सैलून का मालिकाना हक़ भी मिल गया। उसके बिना कुछ ही दिन बीते होंगे कि हामिद का मन उचटने लगा। पर, वह उसको ढूँढता कहाँ? उसने तो जब-जब उससे उसके ठौर-ठिकाने के बाबत कुछ पूछना चाहा तो उसने टाल-मटौल कर इधर-उधर की बातें शुरू कर दीं। सैलून में ग्राहकों से पल भर की भी मोहलत नहीं मिल पाती थी। फिर, हामिद अपना नया-नया काम छोड़कर कहीं जाना भी नहीं चाहता था। उसी उर्दू चौराहे पर कम से कम दर्ज़नभर सैलून थे। ग्राहक तो किसी के नहीं होते! वे उसके यहाँ नहीं तो कहीं और हजामत बनवाने चले जाएंगे। चुनांचे, उसने अपने गुरू--जग्गू से जो हुनर सीखी थी, उसका वह बेहतरीन इस्तेमाल करके अपने ग्राहकों को लुभाने की सफल कोशिश कर रहा था। हाँ, शाम को लौटते वक़्त वह जग्गू को तलाशने की जुगत जरूर करता। जब हिम्मत बटोरकर उसके घर जाकर पूछताछ की तो उन खन्नाओं ने इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। हामिद को बेहद अचम्भा हुआ। दुःख भी बेतहाशा हुआ। आख़िर, वह गया तो कहाँ गया!

दिन और सप्ताह बीते तो उसने बरदाश्त कर लिया। लेकिन, जब महीने के महीने गुजरने लगे तो उसे बड़ा मलाल होने लगा। क्या जग्गू की यादें ही बाकी रह जाएंगी? वह उसके बग़ैर कैसे जी सकेगा? इन जौनपुरियों की तरह तो वह पत्थर-दिल है नहीं कि शहर के एक ज़िंदादिल आदमी को इतनी आसानी से दिलो-दिमाग़ से उतार दे। ख़ैर, वह उसकी रहमदिली को याद कर-करके अपना वक़्त काट रहा था।

एक दिन, एक अज़ीब वाक़या पेश आया। अचानक, उसके सैलून में एक धाकड़ पुलिसवाला आ धमका।

"मियाँ, मेरी हजामत बनाओ।" उसने आते ही बड़े हक़ से एक खाली कुर्सी पर धम्म से अपनी मौज़ूदगी दर्ज़ की।

हामिद को उसकी हरक़त बिल्कुल पसंद नहीं आई। उसे ख़ासतौर से पुलिसवालों से बेहद ग़ुरेज़ रहा है। वह एक आदमी की हेयर कटिंग में मशग़ूल रहा। पुलिसवाले ने दोबारा उस पर रोब जमाते हुए कहा, "मियाँ, अब और देर मत लगाओ। तुम्हें मेरी हजामत अभी और इसी वक़्त बनानी होगी। यह मेरा हुक्म है, वर्ना..."

उसकी इस बात से हामिद तिलमिला उठा और यह परवाह किए बिना कि वह आदमी एक पुलिसवाला है, उसने अख़बार उठाकर उसके मुँह पर लगभग फेंकते हुए बड़े ताव से कहा, "अग़र इंतज़ार नहीं कर सकते तो यह अख़बार पढ़ो, वर्ना यहाँ से रफ़ा-दफ़ा हो जाओ। मैंने तो अपने बाप तक की ग़ुलामी की नहीं..."

हामिद ने बोलते-बोलते जैसे ही उलटकर उस पुलिसवाले से नज़रें मिलाई, उसके अल्फ़ाज़ गले में ही अटक गए। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि सामने खाकी वर्दी में कोई और नहीं, बल्कि ख़ुद जग्गू ही बैठा हुआ मुस्करा रहा था। वह लगभग चींख उठा, "अरे, जग्गू भइया? इतने दिन बाद? और इस सिपाही की वर्दी में?"

सवालों से लदे हुए जग्गू ने मुस्कराकर उसे इशारा किया कि पहले वह अपने ग्राहक की हजामत से निपट ले; फिर, कहीं बैठकर दोनों तसल्ली से बतकही करेंगे। उस दिन, हामिद ने ज़ल्दी ही सैलून बंद कर दिया और फिर, जग्गू का हाथ थामकर हनुमान घाट की ओर चला गया। रास्ते में, उसने चहारसू चौराहे की एक रेस्तरा से फ़िश पकौड़े खरीदे और जग्गू की शहर-वापसी की खुशी में उसके लिए बीयर की एक बोतल भी ली।

मंदिर की ओट में बैठकर जग्गू ने बताया, "मैं बोर हो गया था--लोगों की यह तानाजनी सुनते-सुनते कि मैं आवारा और लोफ़र निकल गया हूँ। अपनी ज़िंदगी में कुछ भी नहीं कर सकता...उस पर से पापा की बेरुख़ी ने भी मुळो बहुत रुलाया। इन सबसे मैं इतना उकता गया था कि पूछो मत। इसी बीच किसी ने मुळो बताया कि इलाहाबाद में पुलिस की भर्ती होने वाली है। तब, मैंने फटाफट हाई स्कूल का एक फ़र्ज़ी सार्टीफ़ीकेट बनवाया और साथ में कुछ जरूरी कागज़ भी तैयार करा लिए। इलाहाबाद के सिविल लाइन में मैं भी अपनी किस्मत आजमाने के लिए लाइन में खड़ा हो गया। किस्मत ने मेरा खूब साथ दिया। पहले, मैंने रिटेन इक्ज़ाम पास किया; फिर, फ़िज़िकल टेस्ट भी बखूबी निकाल लिया। जब रिज़ल्ट आया तो मुळो खुशी का ठिकाना न रहा। एमपी-एमेल्ले की बड़ी-बड़ी सोर्स-सिफ़ारिश वाले लड़के जमीन टापते रह गए जबकि मुळो ट्रेनिंग पर भेज दिया गया। उसके बाद मैंने नौ महीने तक खूब फंटूल मारे और ट्रेनिंग पूरी कर यहाँ ड्यूटी पर तैनात कर दिया गया। मैंने इस बीच तुम्हें कोई सूचना नहीं दी। सोचा कि एक साथ तुम्हें सरप्राइज़ दूँगा..."

हामिद मंत्रमुग्ध होकर उसकी बात सुनता जा रहा था। उसे दोहरी खुशी हो रही थी। एक तो इतने दिनों बाद अपने ज़िगरी दोस्त से मिलने की; दूसरे, उसके पुलिस में भर्ती होने की। उसका सीना यह सोचकर और चौड़ा हुआ जा रहा था कि अब वह एक पुलिसवाले का दोस्त ठहरा। किसी ऐरे-गैरे की हिम्मत नहीं होगी, उससे ऐंठकर बात करने की।

जग्गू की तैनाती वहीं के स्थानीय चौकी में हुई थी। पर, उससे हामिद की मुलाकात कभी-कभार ही हो पाती थी। जब वह उसके लिए बेचैन हो जाता तो वह अपना मैरीडियन सैलून बंद करके उसे खोजने निकल पड़ता। वह बेशक, अपनी ड्यूटी के दौरान अपने पुराने अड्डों पर ही अपने पुराने जुआड़ी-शराबी दोस्तों के साथ मौज-मस्ती करते मिलता था। जग्गू को बेहद कोफ़्त होता और उसे एक किनारे लाकर उससे फ़ुसफ़ुसाकर कहता, "अरे, तुम कानून के रखवाले होकर इन लुच्चे-लफ़ंगों के साथ ख़ुद को क्यों बदनाम कर रहे हो? अब तो तुम अपनी आवारगी छोड़़, शहर में अमन-चैन कायम करने में जुट जाओ। ऊपर वाले ने तुमको एक ऐसा मौका दिया है कि तुम अपनी काबलियत दिखाकर सबका मन मोह सकते हो...अपने घरवालों के चहेते बन सकते हो..."

उसकी बातों पर जग्गू सिर्फ़ 'हाँ' 'हूँ' कहते हुए फीकी-सी मुस्कान छोड़ता या मुँह बिचका देता। लेकिन, पता नहीं क्यों हामिद के रोज़-रोज़ के सबक से वह उकता भी रहा था? हामिद को उसके हाव-भाव से लग रहा था कि किसी दिन उसकी सीख से ऊबकर वह उसे ळिाड़क देगा। पर, उसे तो अब चिंता हो रही थी। वह ग़ौर कर रहा था कि जग्गू का मन बदल-सा गया है। ख़ुद उसमें उसकी दिलचस्पी कम होती जा रही थी। वह सोच रहा था कि ऐसा होना जग्गू के लिए वाज़िब भी है। क्योंकि एक तो वह अकेला है; दूसरे, उसके घरवालों ने उसे अभी तक नहीं अपनाया है। सब कुछ होने के बावज़ूद, उसमें कुंठा भरती जा रही थी। घर में लुगाई हो तो उसकी बिलावज़ह की घुमक्कड़ी और आवारगी पर लगाम कसे। उसे पूर्वाभास-सा होने लगा कि जग्गू जल्दी ही ग़ुमराह हो जाएगा। उसकी गतिविधियों पर शुबहा होते ही हामिद उसके पीछे लगकर उसकी गुप-चुप निगरानी भी करने लगा--एक दोस्त के रूप में उसकी यही ज़िम्मेदारी बनती थी।

एक शाम, वह अपना सैलून बंद कर मियानी टोला अपने घर जा रहा था कि किला रोड पर अनजाने ही उसकी मुलाकात जग्गू से हो गई। उसे ताज्जुब हुआ कि उसने वर्दी में ड्यूटी के दौरान ही जरूरत से ज़्यादा चढ़ा रखी थी। हामिद ने उसके पास जाकर उसका कंधा जोर से ळिांळाोड़ते हुए बड़े अधिकारपूर्वक सबक दिया, "जग्गू, तूँ या तो अपनी वर्दी फेंक दे, या शराब से तौबा कर ले। देख, तुळो कानून की हिफ़ाज़त करने के लिए तैनात किया गया है और तूँ है कि कानून की धज्जियाँ ही उड़ा रहा है। आखिर, देखने वालों की तो शर्म कर..."

जग्गू उस पर अप्रत्याशित रूप से बिफ़र पड़ा, "अरे, मियाँ तूँ मुळो सबक देने की गुस्ताख़ी मत कर। मैं तो कानून की खूब हिफ़ाज़त कर रहा हूँ। तूँ अपनी देख...शराबी की नाजायज़ औलाद...जा, जा, अपनी अम्मा की रखवाली कर..."

हामिद के मुँह का स्वाद ही एकदम कड़वा हो गया। उसे पूरा यक़ीन था कि जग्गू धुत्त नशे में भी उससे बड़े सलीके से पेश आएगा। वह तो उसे सगों से भी सगा समळाता था। पर, उसके जेहन में बेशक उसके लिए बुरी बातें पल रही थीं जो नशे में उसकी जुबान पर आ गईं। उसको न केवल अचंभा हुआ बल्कि दुःख भी हुआ। जी में आया कि उसकी जुबान ही खींच ले। लेकिन, उसके उस पर इतने कर्ज़ थे कि वह उसके ख़िलाफ़ कोई बेजा बात सोच भी नहीं सकता था। थप्पड़ मारना तो दूर की बात रही।

उस घटना के बाद उसने कई दिनों तक उससे मिलने की कोई कोशिश नहीं की। एक दिन, खुद जग्गू उसके सैलून में आ धमका। उसने उससे ऐसे बात की, जैसेकि कुछ हुआ ही न हो। उसने उससे बेहद जाती मामलों पर चर्चा की और अम्मा की बड़े अदब से हालचाल ली। जब वह चला गया तो हामिद ने सोचा कि उस दिन जग्गू नशे में रहने के कारण अपने होशोहवास में नहीं था। सो, उसने उसे मन ही मन माफ़ कर दिया। हाँ, उसके मन में अभी भी थोड़ा-बहुत मलाल रह गया था। तभी तो उसने उससे पहले की तरह बार-बार मिलने का प्रयास नहीं किया।

कोई सप्ताह भर बाद जग्गू उसके सैलून में ख़ुद हाज़िर हुआ। वह नशे में बेकाबू हुआ जा रहा था। हामिद नहीं चाहता था कि पुलिस बनने के बाद उसके दोस्त के बारे में लोगबाग अपने मन में ऊलजुलूल के ख्यालात पैदा करें। चुनांचे, जग्गू ने अपनी बदतमीजियों को सरेआम दोहराकर हामिद को धर्मसंकट में डाल दिया कि वह उससे कैसे निपटे। वह आते ही फट पड़ा, "अए मुल्ला, तूँ पिछले सवा साल से मेरी गुमटी में हजामत बना रहा है। आज तक तूने एक भी पैसा किराया नहीं दिया। मुफ़्तखोरी में तुळो बड़ा मजा आ रहा है। अरे, तूँ मेरे सीने पर मूँग क्यों दल रहा है। जा, सड़क की पटरी पर बैठकर अपना धंधा कर..."

'तो उसके दिल में यह बात भी पक रही थी', सोचते हुए हामिद फिर से ख़ून की घूँट पीकर रह गया। उस वक़्त, उसे और कुछ भी नहीं सूळाा; बस, ळाटपट गुमटी का ताला बंद कर, चाभी जग्गू की पॅाकिट में डालते हुए चलता बना। मदहोश जग्गू उसे गाली-गुफ़्ता देता ही जा रहा था। हामिद तो लगभग रुआँसा-सा हो गया। उसकी हालत पर उसके बाज़ूवाले दुकानदार उस पर रहम खा रहे थे। उन पड़ोसियों को भी जग्गू का चाल-चलन बेहद नागवार लग रहा था। वे फ़ब्तियाँ कस रहे थे-- साँप तो ज़हर ही उगलेगा...रस्सी की ऐंठन कभी नहीं जाती... स्साला, गिरगिट की तरह रंग बदल रहा है...वगैरह, वगैरह।

अगले दिन से हामिद ने सचमुच सैलून में आना छोड़ दिया। वह जग्गू के बर्ताव से इतना ऊब चुका था कि वह फिर उससे नज़रें चार करना नहीं चाह रहा था। लिहाजा, उसके मन में अभी भी जग्गू के लिए कचोट पैदा होती रहती थी। वज़ह साफ़ थी। जब वह नशे में नहीं रहता था तो वह इन्सानी ज़ज़्बात से सराबोर होता था। अम्मा ने भी हामिद को बार-बार यह एहसास दिलाया कि उसे एक वफ़ादार दोस्त का फ़र्ज़ नहीं भूलना चाहिए। आख़िरकार, जग्गू के उन पर बेशुमार कर्ज़ थे। जग्गू की ज़िंदगी घटना-प्रधान होती जा रही थी। क्रूर पुलिस के रूप में उसकी चर्चाओं का बाजार गर्म होता जा रहा था। जिस बाजार में उसकी तैनाती होती, बनिए और दुकानदार थर-थर काँपा करते। पता नहीं, किस पर जग्गू का कहर बरप पड़े। अवैध वसूली में वह अव्वल था। बग़ैर रुपए का बंडल लिए वह टस से मस नहीं होता था। हामिद को अच्छी तरह पता था कि वह इन रुपयों का क्या करता होगा। अपने अवांछित दोस्तों के साथ मौज-मस्ती में खर्च करता होगा। जिस मोहल्ले के नुक्कड़ पर जग्गू कदम रखता था, अंदर गलियों में खलबली मच जाती थी। यानी, लोगबाग अपने घरों में समा जाते थे। निःसंदेह, जग्गू के बचपन की उच्छृंखलताएं उसकी जवानी को बरबाद करने पर तुली हुई थीं। हामिद तो उसे रास्ते पर लाने के लिए कोशिश करते-करते थक-हार गया था। सच तो यह था कि रहम-दिल जग्गू में जल्लादों जैसी क्रूरता उतरती जा रही थी। उसके करतूतों की हर ख़बर हामिद के दिल में नश्तर जैसी चल रही थी। इसी बीच पता नहीं उसके किस कारनामे से खुश होकर उसे राष्ट्रपति पदक से नवाज़ा गया। उसके बाद उसे लगातार दो प्रमोशन मिले।

इसी घटनाक्रम में उसे अफ़सरों ने रिहाइशी इलाकों में अवैध कब्ज़े हटाने का काम सुपुर्द किया। वह क्या सोचकर सबसे पहले अपने दल-बल समेत मियानी टोला पहुँचा, जहाँ हामिद की रिहाईश थी। वहाँ करीब नब्बे फ़ीसदी बाशिंदे या तो बीड़ी बनाने का कारोबार करते थे, या मुर्गियाँ पालकर अंडों का व्यापार करते थे। इस मक़सद से, जिन्होंने अपने छोटे-छोटे घरों के आगे की जमीन का प्रयोग कर मुर्गियों के लिए दर्बे बना रखे थे या बीड़ी सेंकने की भट्टियाँ लगा रखी थीं, उनके ऊपर जग्गू दीवान की पहली गाज़ गिरी। यों तो, टोले के बाशिंदे यह सोचकर बेफिक्र थे कि जग्गू, हामिद का दोस्त होने के नाते उनके साथ नरमी से निपटेगा और उनकी जान बख़्श देगा। इसी ग़रज़ से उन्होंने हामिद को यथासमय गली के मुहाने पर तैनात कर दिया ताकि उससे पहली मुलाक़ात में ही जग्गू नरमी का रुख़ अपना ले। पर, जब जग्गू की आँधी आई तो हामिद तिनके की तरह उड़कर एक किनारे हो गया। जग्गू तो उसे देखकर ऐसे बहटिया गया जैसेकि उससे उसकी दूर-दूर की कोई पहचान न हो। उसके बाद, आधे घंटे में ही पुलिस दल ने टोलेवालों की रोज़ी-रोटी के सारे जुगाड़ को धूल-धूसरित कर दिया। मुर्गे-मुर्गियाँ पतंगों की माफ़िक उड़कर भागने लगे। कुछों को तो खबरहे कुत्तों ने अपना शिकार बना लिया जबकि कइयों को खुद पुलिस वालों ने जाते-जाते अपनी जीप में दबोच लिया--रात के डिनर के लिए। जब वे कार्रवाई कर वहाँ से रुख़्सत हुए तो मियानी टोला वीरान खंडहर में तब्दील हो चुका था। जाते-जाते जग्गू दीवान उनके द्वारा दोबारा अतिक्रमण करने पर सख़्त कार्रवाई की नसीहत दे गया।

पूरे शहर में जग्गू के निर्देशन में अवैध कब्ज़ों वाली जमीन को खाली कराने के नाम पर ग़रीबों पर इस कदर कहर बरपाए गए कि ज़्यादातर नागरिक बेहद बौख़ला हुए थे। हामिद समळा गया कि इस बौख़लाहट का हश्र जग्गू के लिए अच्छा नहीं होगा। उसने दूसरे मोहल्लों में भी ख़ासतौर से ग़रीबों पर ही ज़्यादती की थी। हामिद को तो आश्चर्य हो रहा था कि उसका दिल ऐसे कैसे बदल गया। अभी कुछ साल पहले ही उसने उसे कीचड़ से निकालकर सीने से लगाया था और उसे ज़िंदगी का असली मायने बताया था। वर्ना, वह मुफ़लिसी में पता नहीं क्या कर गुज़रता? चुनांचे, आज तो वह सरेआम उस पर कीचड़ उछालता है और उसके बीते दिनों का मजाक उड़ाता है। उसने उसे दोबारा वापस बुलाकर मैरीडियन सैलून में नहीं बैठाया ताकि वह हज़ामत बनाकर रोज़ी-रोटी कमाना जारी रख सके। पर, हामिद को तो ग़र्दिश में भी जीने का सलीका आ गया था। उसने फुटपाथ पर एक कुर्सी लगाकर हजामत बनाना शुरू कर दिया। वह बेशक अच्छा खा-कमा रहा था। वह सोच रहा था कि वह फुटपाथ पर आकर भी अपना और अपनी अम्मी का पेट बख़ूबी पाल रहा है। वह बिल्कुल महफ़ूज़ है क्योंकि यहाँ से उसे कोई कहाँ फेंकेगा?

इसी दरमियान म्युनिसपिल्टी ने एक नया शिगूफ़ा छोड़ा। फुटपाथों पर अतिक्रमण करने वालों को हटाया जाएगा। यह काम भी जग्गू दीवान की काबलियत देखकर ही उसको सौंपा गया। हामिद तो समळा गया कि अगर इस बार जग्गू अपनी आदत से बाज़ नहीं आया तो उसका कुछ बुरा होकर रहेगा। वह चिंतित हो गया--ऊपरवाला जग्गू को सदबुद्धि दे। फुटपाथों पर रोज़ी-रोटी कमाने वाले आपे से बाहर हो रहे थे कि अगर उनके पेट पर लात मारी गई तो वे जग्गू का नामोनिशान तक मिटा देंगे। जब हामिद ने अपनी अम्मा को ये सारी बातें बताई तो वह भी जग्गू की नेक-सलामती के लिए दुआ मांगने लगी। काश! जग्गू उसके बुलाने पर आ जाता तो वह उसे समळााती कि वह अपने हद में रहते हुए ही अपनी ड्युटी किया करे। पर, जब ज़िद्दी जग्गू ने अपना अभियान उसी लहजे में चालू किया तो शहर के क्रोध का पारा फिर एकदम चढ़ गया। वैसे तो, लोग उसकी कार्रवाई के दौरान भाग खड़े होते थे लेकिन वे दूर से ही उस पर पथराव करने लगते थे। ऐसे में वह और भी बेकाबू हो जाता था। हामिद ने सोचा कि वह आफ़ती जग्गू को अपने इलाके में घुसने से ज़रूर रोकेगा। भले ही उसे अपनी जान पर ही क्यों न खेलना पड़े?

उस दिन शहर का तापमान इतना गिरा हुआ था कि नल के नीचे हाथ लगाते ही लगता था कि ठंडे पानी से न केवल हाथ ही अकड़ेगा बल्कि सारे बदन का ख़ून जम जाएगा। ग्यारह बजने को था; पर, सूरज घटाटोप था। मनहूसियत चप्पे-चप्पे में समाई हुई थी। मानिक चौक पर हरेक को पता था कि आज जग्गू और उसके पुलिसवालों का जुल्म उन पर ढहेगा। इसी बीच, हामिद अपने ग्राहक की हजामत छोड़ पीछे निचाट में पेशाब करने चला गया। कोई तीन-चार मिनट बाद जब वह लौटा तो वहाँ का नज़ारा ही बदल चुका था। फुटपाथ पर वह जिस कुर्सी पर हजामत बना रहा था, वह नाली में लुढ़की हुई थी और उसका ग्राहक अपने घुटने सहला रहा था। उसने आव देखा न ताव। बस, वहीं खड़े एक पुलिसवाले से लिपटकर उसकी लाठी छीनने लगा। उसे ऐसा करते देख, कुछ और पुलिसवाले आ गए और उसकी पीठ पर लाठियाँ बरसाने लगे। तभी दहाड़ें मारता हुआ जग्गू दीवान भी वहाँ आ गया। उसने आते ही अपनी लाठी भाँजी जो उसके निशाने ठीक विपरीत हामिद के सिर पर लगी। पल भर के लिए उसके बदन में तेज छटपटाहट हुई। फिर, वह अचानक ख़ामोश हो गया। हैरत में जब जग्गू ने उसे पलटा तो उसके होश ही ग़ुम हो गए। उसने उसके सीने पर हाथ रखा तो उसे लगा कि उसका दिल कोई हरक़त नहीं कर रहा है। फिर, नब्ज़ टटोलते ही वह अपने पुलिसवालों से गरज़ उठा, "इसे अभी इसी वक़्त सदर अस्पताल ले चलो।"

सारा शहर पुलिस की उस वहशी कार्रवाई से उबल रहा था। कोई तीन घंटे बाद यह साफ़ तौर पर लोगों को मालुम हो चुका था कि पुलिस की बेरहमी से पिटाई के कारण एक मुस्लिम हजाम की मौत हो चुकी है। लेकिन, प्रशासन ने अभी तक उसकी मौत की सरकारी घोषणा नहीं की थी। ऐसे में, जहाँ पागल भीड़ कोतवाली को घेरकर दोषी पुलिस को सख़्त दंड देने की मांग कर रही थी वहीं सदर अस्पताल पर भीषण पथराव भी हो रहा था। फिरकेपरस्त इस मामले पर सांप्रदायिक मुलम्मा चढ़ाने पर तुले हुए थे कि चंद हिंदू सिपाहियों ने एक मुसलमान को पीट-पीटकर मौत के घाट उतार दिया। इसलिए, गली-गली में दंगाई जमा हो रहे थे और हमला बोलने की ताक में थे।

तभी, मियानी टोला से बुरका ओढ़े एक भद्र महिला किला रोड पर एक रिक्शे पर चढ़कर पहले सदर अस्पताल पहुँची; फिर, वहाँ से अकेली कोतवाली में दाखिल हुई--भीड़ को चीरती हुई। लोगों ने उसे रास्ता दे दिया क्योंकि उस महिला के आगे-आगे यह अफ़वाह भी चल रहा था कि हामिद की अम्मा आ रही है...वे तो यह कयास लगा रहे थे कि अब पुलिस को हामिद की मौत की घोषणा करनी ही पड़ेगी। वे दिल थामकर यह प्रतीक्षा कर रहे थे कि हामिद की माँ अभी बाहर नज़र आएगी और रो-रोकर अपने बेटे पर किए गए पुलिस अत्याचार का दुखड़ा सुनाएगी।

बहरहाल, जब वह कोतवाली-गेट से बाहर निकलकर ऊपर की सीढ़ी पर नज़र आई तो लोगों को आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उसके चेहरे पर बेटे की मौत के ग़म के बजाए मुस्कान खिली हुई थी। उसने वहीं से खड़े होकर एक अप्रत्याशित-सी तेज आवाज में घोषणा की--"आपलोग फ़िज़ूल में मेरे भले-चंगे बेटे के मरने का अफ़वाह फैला रहे हैं। अरे, वह तो पिछले एक माह से अपने मामूजान के यहाँ कानपुर गया हुआ है। अभी दस मिनट पहले ही मैंने उससे फोन पर बात की है। जहाँ तक पुलिस की मार से किसी आदमी के मरने की चर्चा सारे शहर को परेशान कर रही है तो यह भी एक कोरा अफ़वाह है। यह सब एक साज़िश है--पुलिस को बदनाम करने की। अगर जग्गू आज इलाहाबाद ट्रेनिंग पर नहीं गया होता तो वह यहाँ चिल्ला-चिल्लाकर आपको बताता कि आपलोग नाहक अपना वक़्त बर्बाद कर रहे हैं। वह तो बड़ा ही नेक लड़का है और आप सभी जानते हैं कि वह मेरे बेटे हामिद का ज़िगरी दोस्त भी है..."

जब तक उसकी आवाज़ भर्राकर कमजोर होती, वह सीढ़ियों से नीचे उतरकर रिक्शे में सवार हो चुकी थी। गलियों में दंगाई वापस अपने-अपने घरों को लौट चुके थे। बलवा करने का उनके पास कोई ठोस बहाना नहीं बन पा रहा था।

बताते हैं कि हामिद की माँ वापस मियानी टोला नहीं गई। उसे कुछ लोगों ने उसी दिन शाम को रेलवे स्टेशन पर रोते हुए देखा था। वहीं जग्गू सादी वर्दी में उसके पैरों से लिपटकर बिलख रहा था। बेशक, जिस अपराधबोध से जग्गू बेचैन था, उसका प्रायश्चित वह हामिद की माँ की आजीवन सेवा करके ही कर सकता था। तभी तो वह भी हामिद की माँ के शहर से जाने के बाद एक कहानी बनकर रह गया है। दरअसल, उसका ट्रांसफ़र किसी और शहर में कभी नहीं किया गया था। उसे तो कभी-कभार पुरानी दिल्ली कि एक मस्ज़िद की सीढ़ियों पर एक बुढ़िया के साथ देखा गया है। वह बूढ़ी औरत कोई और नहीं, बल्कि खुद हामिद की माँ है।

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